Author : Akop Gabrielyan

Published on Mar 29, 2024 Updated 0 Hours ago

कोविड-19 की महामारी ने न केवल वैश्विक स्तर पर किसी महामारी से निपटने की मानवता की तैयारियों का इम्तिहान लिया है. बल्कि, इस महामारी ने तमाम देशों के बीच आपसी सहयोग और उत्तरदायित्व बांटने की क्षमता की परीक्षा भी ली है.

कोविड 2020 : जब हो रहा है मानवता के साहस का इम्तिहान

कोविड-19 की महामारी की शुरुआत वर्ष 2019 के आख़िरी महीनों में हुई थी. और इसकी सबसे अधिक सक्रियता का दौरा मार्च से लेकर मई 2020 के दौरान देखा गया. उसके बाद से ये महामारी दुनिया के हर देश का इम्तिहान ले रही है. इसके क़हर से दुनिया का कोई भी देश नहीं बच सका है. इस महामारी ने अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं और अधिकारियों के लिए भी चुनौती पेश की है. इनमें से कई अधिकारियों और संस्थाओं को कोविड-19 से ठीक तरह से न निपट पाने के लिए भारी आलोचना का सामना भी करना पड़ा है. कोविड-19 की महामारी ने न केवल वैश्विक स्तर पर किसी महामारी से निपटने की मानवता की तैयारियों का इम्तिहान लिया है. बल्कि, इस महामारी ने तमाम देशों के बीच आपसी सहयोग और उत्तरदायित्व बांटने की क्षमता की परीक्षा भी ली है. कई देश इस महामारी के तेज़ी से हो रहे प्रसार को रोक पाने में असफल साबित हुए. यही नहीं, कोविड-19 की महामारी मानवता के साहस और धैर्य का भी इम्तिहान ले रही है. इस महामारी के कारण हमारी व्यवस्था की जो कमियां पहले से मौजूद थीं, वो और विकृत रूप में उभर कर सामने आईं. इसके अलावा कोविड-19 ने कई नई समस्याएं भी हमारे सामने पेश कीं. इससे भूमंडलीकरण और पूरी दुनिया के एक ग्लोबल विलेज में तब्दील होने की अवधारण का भी चुनौती दी है. इसके साथ-साथ कोविड-19 ने हमारी दुनिया की उठा-पटक और अंतरराष्ट्रीय संबंधों की वर्तमान व्यवस्था की तमाम कमज़ोरियों को भी उजागर कर दिया है.

कोविड-19 की महामारी ने न केवल वैश्विक स्तर पर किसी महामारी से निपटने की मानवता की तैयारियों का इम्तिहान लिया है. बल्कि, इस महामारी ने तमाम देशों के बीच आपसी सहयोग और उत्तरदायित्व बांटने की क्षमता की परीक्षा भी ली है.

जैसा कि मानव सभ्यता को अब पता है, कोविड-19 की महामारी कई चरणों से गुज़रते हुए इस मुकाम पर पहुंची है. पहले तो, इस महामारी की कई देशों ने पूरी तरह से अनदेखी की. इन देशों ने विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की चेतावनी के बावजूद, न तो इस महामारी को गंभीरता से लिया और न ही, उससे निपटने के लिए त्वरित गति से क़दम ही उठाए. इसके बाद, जो देश इस महामारी के शुरुआती चरण पर प्रभावित क्षेत्रों के भौगोलिक रूप से क़रीब थे, उन्होंने संक्रमण की रोकथाम के लिए अपनी सीमाओं को बंद करने का फ़ैसला किया. जबकि कई देश इसके बाद भी महामारी को लेकर दी जा रही चेतावनी को अनदेखा करते रहे. कई देशों में नए कोरोना वायरस के तेज़ी से और व्यापक संक्रमण के बावजूद, बहुत से अन्य देश ये स्वीकार करने को राज़ी नहीं थे कि ये महामारी उनके यहां पहुंचकर उनके देश की जनता को भी प्रभावति कर सकती है. कोविड-19 के ख़तरों को लेकर आधी अधूरी स्वीकार्यता की स्थिति में बदलाव तब आया, जब इस महामारी से तेज़ी से लोगों की मौत होने लगी. उस समय भी कोई एक रणनीति नहीं थी जिस पर तमाम देश सहमत हों कि कोविड-19 से कैसे निपटना है. हर देश अपने अपने तरीक़े से इस महामारी का सामना कर रहा था. अपनी सहूलत के हिसाब से संसाधनों का बंटवारा कर रहा था. यहां तक कि महामारी से निपटने के सामान्य नीति निर्धारण में भी, हर देश का रवैया दूसरों से अलग था. कोविड-19 की महामारी का उद्गम रहे चीन ने इससे निपटने के लिए बेहद सख़्त प्रतिबंध लगाए. कुछ हद तक चीन द्वारा उठाए गए ये क़दम सही भी थे. क्योंकि क्षेत्रीय स्तर पर जो परिस्थितियां थीं, उनके लिहाज़ से ये उपाय कारगर साबित हुए. लेकिन, यूरोपीय लोकतांत्रिक देशों और पूरे पश्चिमी गोलार्ध के देशों ने भी महामारी की रोकथाम के लिए कड़े क़दम उठाने की शुरुआत तो की. लेकिन, इन देशों की सरकारों ने ऐसा तब जाकर किया जब अपने देश की जनता के ऊपर लागू आधे-अधूरे उपायों और हल्के फुल्के क़दमों से अपेक्षित नतीजे सामने नहीं आए. उदाहरण के लिए, यूरोप में इटली ऐसा पहला देश था, जहां कोरोना वायरस का संक्रमण व्यापक रूप से फैला था. और इस महामारी के चलते इटली में बड़ी संख्या में लोगों की जान गई. इसके बाद इटली ने यूरोपीय देशों के लिए एक उदाहरण पेश करते हुए तुरंत ही कड़े क़दम उठाने शुरू किए, जिससे कि संक्रमण के प्रसार की रफ़्तार को कम किया जा सके. जैसा कि कई रिपोर्ट्स में कहा गया है कि कोविड-19 की महामारी के मानवाधिकारों पर प्रभाव की बात करें, तो ये काफ़ी नकारात्मक रहा है. इनमें पारंपरिक रूप से लोकतांत्रिक माने जाने वाले यूरोपीय देश भी शामिल हैं. इन नकारात्मक प्रभावों के बावजूद, यूरोपीय संघ के अधिकतर बड़े देशों ने महामारी से निपटने के लिए वित्तीय और मानवाधिकारों के मसले पर आपसी सहयोग से काम करना शुरू कर दिया. जैसा कि पहले भी कहा गया कि कोविड-19 से निपटने का ऐसा कोई फ़ॉर्मूला नहीं था, जिसे हर देश में लागू किया जा सके. यूरोपीय संघ ने कोविड-19 के कारण पटरी से उतरी अर्थव्यवस्था को सुधारने के लिए एक ख़रब यूरो की रक़म ख़र्च करने का एलान किया. इसके साथ साथ, यूरोपीय परिषद ने यूरोपीय देशों की सरकारों के लिए एक प्रैक्टिकल टूलकिट जारी की, जिसमें इस महामारी से निपटने के साथ साथ इन देशों को अपने यहां मानव अधिकारों, लोकतंत्र और क़ानून के राज की रक्षा करने के सुझाव दिए गए थे.

कई देशों में नए कोरोना वायरस के तेज़ी से और व्यापक संक्रमण के बावजूद, बहुत से अन्य देश ये स्वीकार करने को राज़ी नहीं थे कि ये महामारी उनके यहां पहुंचकर उनके देश की जनता को भी प्रभावति कर सकती है. कोविड-19 के ख़तरों को लेकर आधी अधूरी स्वीकार्यता की स्थिति में बदलाव तब आया, जब इस महामारी से तेज़ी से लोगों की मौत होने लगी.

कोविड-19 के शुरुआती चरण में इस वायरस से संक्रमित लोगों की पहचान करने और उनका इलाज करने के बाद अगले दौर में तमाम देश इस महामारी के संभावित इलाज की तलाश और वायरस के स्थायित्व को स्वीकार करने की दिशा में आगे बढ़े. आज भी इस महामारी से निपटने का कोई शर्तिया इलाज नहीं ढूंढ़ा जा सका है. हालांकि, तमाम देशों ने कोरोना वायरस की वैक्सीन खोज लेने का एलान किया है. इस दिशा में रूस ने सबसे पहला क़दम बढ़ाते हुए एक वैक्सीन को मंज़ूरी दी थी. फिर भी कई देश रूस में किए गए रिसर्च के नतीजे मानने को राज़ी नहीं थे. पश्चिमी देशों की इस आनाकानी को रूस में पूर्वाग्रह से ग्रस्त सोच का नतीजा माना गया. और जहां तक पूर्वाग्रहों की बात है, तो हमें याद रखना होगा कि इस महामारी के प्रकोप और इससे निपटने के दौरान राजनीतिक सोच भी लगातार हावी रही थी. जब ईरान इस महामारी से बुरी तरह से जूझ रहा था, तो उसने अंतरराष्ट्रीय समुदाय से मदद की गुहार लगाई थी और अपील की थी कि अमेरिका द्वारा उस पर लगाए गए प्रतिबंध में अस्थायी ही सही, लेकिन कुछ ढील दी जाए. इस संदर्भ में कुछ विशेषज्ञों का ये भी कहना है कि कोविड-19 जैसी विशाल चुनौती मानवता के सामने खड़ी थी, तो भी अंतरराष्ट्रीय संबंधों का तनाव कम होने के बजाय बढ़ता ही दिखा. जिसके चलते देशों के बीच आपसी सहयोग की कमी देखने को मिली. इस दौरान अंतरराष्ट्रीय संबंधों में जो उठा-पटक देखी गई, उनके चलते हिंसक संघर्ष के शिकार लोगों की मुश्किलें और बढ़ गईं. अंतरराष्ट्रीय संस्थाओं के प्रभाव में कमी आई. कोविड-19 के कारण विश्व की सामाजिक व्यवस्था को काफ़ी नुक़सान हुआ है. मिसाल के तौर पर, विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) जैसे संगठन की भूमिका को लेकर  कई देशों ने हमले किए. इनकी अगुवाई अमेरिका कर रहा था. पहले तो अमेरिका ने विश्व स्वास्थ्य संगठन में अपनी भागीदारी पर रोक लगाई. और फिर ख़ुद को पूरी तरह इस संगठन से अलग कर लिया. अमेरिका ने आरोप लगाया कि, ‘उसकी तमाम गुज़ारिशों के बावजूद विश्व स्वास्थ्य संगठन अपने अंदर बेहद ज़रूरी सुधार करने में असफल रहा है.’ महामारी के दौरान दुनिया के कुछ पुराने युद्ध क्षेत्रों में एक बार फिर हिंसक संघर्ष छिड़ गया. आर्मेनिया और अज़रबैजान के बीच पुरानी लड़ाई फिर से शुरू हो गई. जिसके चलते आर्मेनिया को न केवल कोविड-19 से लड़ने में ताक़त झोंकनी पड़ी, बल्कि उसे अपनी सरहदों की हिफ़ाज़त के लिए भी संघर्ष करने को मजबूर होना पड़ा. दक्षिणी कॉकेशस में स्थित ये देश तुर्की और अज़रबैजान से घिरा हुआ है. उसके लिए इन मुश्किल हालात से बाहर आना बेहद चुनौती भरा लग रहा है. इस महामारी के प्रकोप के दौरान आर्मेनिया की सरकार को लगातार आलोचनाओं का सामना करना पड़ा. क्योंकि, आर्मेनिया की सरकार अपने यहां रोज़ बढ़ने कोविड-19 के संक्रमण की संख्या को रोकने में असफल रही. आर्मेनिया की सरकार पर ये इल्ज़ाम भी लगा कि उसने मुश्किल हालात का लाभ लेने के लिए कुछ ऐसे राजनीतिक क़दम भी उठाए, जिससे सत्ताधारी दल को राजनीतिक फ़ायदा पहुंचे. आर्मेनिया का पड़ोसी देश अज़रबैजान भी कोविड-19 की महामारी से जूझ रहा था. महामारी के चलते, अज़रबैजान को ज़बरदस्त आर्थिक झटके लगे. इसी कारण से कुछ विशेषज्ञों ने सुझाव दिया कि इन मुश्किलों से जनता का ध्यान हटाने के लिए अज़रबैजान की सरकार को आर्मेनिया से पुराने संघर्ष को जीवित करना होगा. इसका नतीजा ये हुआ कि आर्मेनिया और अज़रबैजान के लोग एक तीसरे क्षेत्र नागोर्नो काराबाख में हिंसक संघर्ष में उलझ गए. अंतरराष्ट्रीय समुदाय की कोशिश थी कि आर्मेनिया और अज़रबैजान इस हिंसक संघर्ष से बाज़ आएं और लड़ाई तुरंत रोक दें. ख़ास तौर से संयुक्त राष्ट्र संघ के महासचिव ने सभी देशों से अपील की कि वो कोविड-19 की महामारी के दौरान पूरी दुनिया में युद्ध विराम पर विचार करें. लेकिन, तुर्की जैसे कई देशों ने आर्मेनिया और अज़रबैजान के बीच हिंसक संघर्ष में सीधे तौर पर दख़ल देने की कोशिश की. इस नज़रिए से देखें, तो कोविड-19 ने शांति स्थापित करने के प्रयासों को न सिर्फ़ क्षति पहुंचाई है. बल्कि कई देशों ने आर्मेनिया और अज़रबैजान के बीच युद्ध की आग को और भड़काया ही है. और अपने हित साधने की कोशिश की. जैसे कि तुर्की ने आर्मेनिया से अपने विवाद को नए सिरे से हवा दी. तो, तुर्की ने ग्रीस के साथ भी एक नया विवाद खड़ा कर दिया. वहीं, बेलारूस, ईरान और अमेरिका में घरेलू मुद्दों पर संघर्ष बढ़ गया. यही नहीं, अफ्रीका, मध्य पूर्व और एशिया के कई देशों में भी कोविड-19 के दौरान तनातनी बढ़ती देखी गई है.

आज भी इस महामारी से निपटने का कोई शर्तिया इलाज नहीं ढूंढ़ा जा सका है. हालांकि, तमाम देशों ने कोरोना वायरस की वैक्सीन खोज लेने का एलान किया है. इस दिशा में रूस ने सबसे पहला क़दम बढ़ाते हुए एक वैक्सीन को मंज़ूरी दी थी. फिर भी कई देश रूस में किए गए रिसर्च के नतीजे मानने को राज़ी नहीं थे.

कुल मिलाकर, ये ज़रूरी है कि इन हिंसक संघर्षों की आग को और भड़कने से रोका जाए. जिससे की हम इस संकट से और मज़बूत होकर बाहर निकल सकें. कोविड-19 की महामारी ने दुनिया को चुनौतियों के दोराहे पर लाकर खड़ा कर दिया है. या तो दुनिया और गुटों में विभाजित होगी. संघर्ष के पुराने क्षेत्रों में नए सिरे से तनाव बढ़ेगा, खींचतान बढ़ेगी, विवाद के मुद्दों को हवा दी जाएगी. वहीं, दूसरा विकल्प ये भी है कि इस महामारी से निपटने के दौरान मानवता एकजुट होगी. एक-दूसरे का साथ देगी. वैश्विक एकता का नया दौर शुरू होगा. जिससे कि दुनिया के बड़े और ताक़तवर देश अपने मतभेदों और राजनीतिक संघर्ष को अस्थायी तौर पर ही सही, मगर आपसी विवादों को किनारे रखकर, आपस में मिल जुलकर काम करेंगे. जिससे कि नए आर्थिक अवसर पैदा होंगे और सबका विकास हो सकेगा. अभी के हालात तो कोई ख़ास उम्मीद नहीं जगाते हैं. हालांकि, जैसा कि इतिहास में हमने होते हुए देखा है कि मानवता कई बार ऐसी चुनौतियों से उबरने में सफल रही है, जिनका दुष्प्रभाव वैश्विक अर्थव्यवस्था पर पड़ा है. हम ये निश्चित रूप से कह सकते हैं कि कोविड-19 एक ऐसी ही चुनौती है, जो मानवता के सामने आज खड़ी है.

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