Author : Sitara Srinivas

Published on Jul 03, 2021 Updated 0 Hours ago

वैक्सीन की उपलब्धता के बावजूद टीके के प्रति संकोच या आनाकानी जैसे रवैए को विश्व स्वास्थ्य संगठन दुनिया में वैश्विक ख़तरा मानता है

कोविड-19: तमिलनाडु में टीके के प्रति संकोच का अजीबोगरीब मामला

जनवरी 2021 में भारत सरकार ने ऑक्सफ़ोर्ड-एस्ट्राज़ेनेका वैक्सीन (कोविशील्ड) और बीबीवी152 वैक्सीन (कोवैक्सीन) को आपात कालीन इस्तेमाल की मंज़ूरी प्रदान की. संसार के सबसे बड़े लोकतंत्र में टीकाकरण के महत्वाकांक्षी कार्यक्रम की शआत में ये पहला कदम था. इस आग़ाज़ के कई महीनों बाद 14 जून के आंकड़ों के हिसाब से भारत की 15.4 फ़ीसदी आबादी को कोविड-19 टीके का कम से कम एक डोज़ लग चुका है. भारत की 3.6 प्रतिशत जनसंख्या को टीके के दोनों डोज़ लगाए जा चुके हैं. हालांकि, टीकाकरण का प्रसार देश में हर जगह समान रूप से नहीं हुआ है. कुछ राज्यों में टीकाकरण की स्थिति दूसरे राज्यों के मुक़ाबले बेहतर है. टीके की किल्लत और स्वास्थ्य सेवा से जुड़े बुनियादी ढांचे का अभाव राज्यों के बीच इस तरह की असमानता की एक बड़ी वजह है. वहीं एक दूसरी वजह टीके को लेकर लोगों का झिझक भरा बर्ताव भी है. 

वैक्सीन की उपलब्धता के बावजूद टीके के प्रति संकोच या आनाकानी, टालमटोल या वैक्सीन लगाने से इनकार करने जैसे रवैए को विश्व स्वास्थ्य संगठन दुनिया में वैश्विक स्वास्थ्य को ख़तरा पहुंचाने वाले दस शीर्ष कारकों के तौर पर देखता है. उच्च साक्षरता दर, स्वास्थ्य सुविधाओं के बेहतर प्रसार या फिर दूसरे उच्च सामाजिक-आर्थिक हालातों को आमतौर पर वैक्सीन के प्रति झिझक से निपटने में कारगर हथियार समझा जाता है. बहरहाल, दक्षिण भारतीय राज्य तमिलनाडु के अनुभवों से साफ़ है कि ये बातें सच्चाई से परे हैं.

आर्थिक विकास के मामले में तमिलनाडु पांचवां सबसे उन्नत राज्य है. इसके अलावा बाक़ी तमाम सूचकांकों में तमिलनाडु दूसरे राज्यों से काफ़ी आगे है. ऐसे में सवाल उठता है कि तमिलनाडु कोविड-19 टीकाकारण के प्रसार के मामले में दूसरे राज्यों से कैसे पिछड़ गया? 

हाल ही में नीति आयोग ने सतत या टिकाऊ विकास लक्ष्य (एसडीजी) सूचकांक जारी किया है. इस सूची में तमिलनाडु ने कुल मिलाकर दूसरा स्थान (हिमाचल प्रदेश के साथ) हासिल किया है. विकास से जुड़े पैमानों पर ऊंचा पायदान हासिल करने के बावजूद टीकाकरण के प्रसार के मामले में तमिलनाडु दूसरे राज्यों से पिछड़ गया है. नीति आयोग के एसडीजी सूचकांक में ग़रीबी उन्मूलन में तमिलनाडु का स्थान शीर्ष पर है, अच्छे स्वास्थ्य और सेहतमंदी के मामले में ये शीर्षस्थ राज्यों में दूसरे स्थान पर है. शिक्षा, कामकाज और आर्थिक विकास के मामले में तमिलनाडु पांचवां सबसे उन्नत राज्य है. इसके अलावा बाक़ी तमाम सूचकांकों में तमिलनाडु दूसरे राज्यों से काफ़ी आगे है. ऐसे में सवाल उठता है कि तमिलनाडु कोविड-19 टीकाकारण के प्रसार के मामले में दूसरे राज्यों से कैसे पिछड़ गया? 

तमिलनाडु की मात्र 11.2 प्रतिशत आबादी को ही अब तक वैक्सीन की कम से कम एक डोज़ लग पाई है जबकि सिर्फ़ 2.8 प्रतिशत जनसंख्या को ही दोनों डोज़ लगाए गए हैं. टीकाकरण के मामले में तमिलनाडु न सिर्फ़ अपने पड़ोसी केरल से काफ़ी पिछड़ गया है बल्कि जम्मू-कश्मीर और छत्तीसगढ़ जैसे राज्य भी उससे आगे निकल गए हैं. हालांकि, दिलचस्प तौर पर तमिलनाडु की राजधानी और ज़िला चेन्नई टीकाकरण के प्रसार के सभी मानकों के मामले में टॉप 10 में शामिल है. इन मापदंडों में पहले डोज़ का लगाया जाना, दोनों डोज़ लगवा चुकी आबादी का प्रतिशत, दूसरे डोज़ का लगाया जाना और लगाए गए कुल डोज़ जैसे मानक शामिल हैं. हालांकि, चेन्नई में इस प्रकार के रुझान का सटीक कारण तो मालूम नहीं है, लेकिन शायद इसकी वजह टीकाकरण केंद्रों की ऊंची तादाद और जागरूकता अभियानों और कार्यक्रमों का बेहतर प्रचार-प्रसार है. 

ऐतिहासिक रुझानों के हिसाब से देखें तो हम पाते हैं कि तमिलनाडु में टीकों के प्रति झिझक का एक लंबा इतिहास रहा है. बच्चों में बुनियादी टीकाकरण के प्रसार से संबंधित एनएफ़एचएस के आंकड़ों पर नज़र दौड़ाएं तो हम पाते हैं कि इस सर्वेक्षण के दूसरे दौर के बाद- सर्वेक्षण का दूसरा दौर आज से 23 साल पहले 1998 से 1999 के बीच हुआ था- राज्य में टीकाकरण के प्रसार में कमी आई थी. सर्वेक्षण के चौथे दौर (2015-2016 में दर्ज) से सबसे ताज़ा आंकड़े हासिल हुए हैं. ये आंकड़े पहले दौर में प्राप्त आंकड़ों के करीब हैं. सर्वेक्षण का पहला दौर लगभग 30 साल पहले हुआ था. एनएफ़एचएस 1 (1992-1993)- 65 प्रतिशत, एनएफ़एचएस 2 (1998-1999) – 89 प्रतिशत, एनएफ़एचएस 3 (2005-2006) – 81 प्रतिशत, और एनएफ़एचएस 4 (2015-2016) – 69 प्रतिशत). इस कालखंड में वैसे तो राष्ट्रीय औसत तमिलनाडु के मुक़ाबले नीचे ही रहा है लेकिन उसमें महत्वपूर्ण सुधार देखने को मिला है. शहरी क्षेत्रों में (81 प्रतिशत) टीकाकरण का प्रसार ग्रामीण क्षेत्रों (67 प्रतिशत) के मुक़ाबले अधिक है. लड़कों (72 प्रतिशत) में टीकाकरण का औसत लड़कियों (67 प्रतिशत) की अपेक्षा ज़्यादा है. इन आंकड़ों को टीके के बारे में अभिभावकों या माता-पिता के बर्ताव के तौर पर देखा जा सकता है. यही अभिभावक या माता-पिता वो लोग हैं जो आज कोविड-19 के टीके लगवा रहे हैं.

वैक्सीन के प्रति संकोच भरे बर्ताव के साथ-साथ केंद्र और राज्य के स्तर पर स्पष्ट और भरोसेमंद सूचनाओं के प्रसार का अभाव ही संभवत: वो कारण हैं जिनके चलते तमिलनाडु में टीकाकरण का प्रसार इतना कम है.

ग़ौरतलब है कि देशव्यापी तौर पर अशिक्षा और अज्ञानता टीके के प्रति संकोच भरे बर्ताव के मुख्य कारण हैं, लेकिन तमिलनाडु में मामला इसके ठीक उलट है. खसरे और रुबेला टीकाकरण अभियान के प्रसार पर किए गए पूर्व के अध्ययनों से पता चला है कि टीके के प्रति झिझक की वजह अज्ञानता नहीं बल्कि अफ़वाहों के चलते टीके के प्रति पैदा हुआ संदेह है. सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया और डिजिटल माध्यमों में टीके के प्रति नकारात्मक लेखों की वजह से शक़ का वातावरण पैदा हुआ है. बहरहाल कोविड वैक्सीन पर धर्म, जाति या वर्गों के हिसाब से श्रेणीबद्ध आंकड़ों के बिना इसको लेकर दिखाई देने वाली हिचकिचाहट की व्यापक तस्वीर बना पाना कठिन है. इन आंकड़ों के अभाव में ये समझ पाना मुश्किल है कि आनाकानी भरा ये रवैया क्यों और कहां-कहां दिखाई दे रहा है. हालांकि ये कोई आश्चर्य का विषय नहीं है कि वैक्सीन को लेकर असमंजस की स्थिति उन परिवारों में सर्वाधिक है जो स्वास्थ्य से जुड़ी सूचनाओं के लिए स्वास्थ्य कर्मियों से ज़्यादा सोशल मीडिया और समाचारों पर भरोसा करते हैं. 

ग़ौरतलब है कि कोविड-19 टीकाकरण के शुरुआती दौर में स्वास्थ्य कर्मियों को लक्ष्य बनाकर अभियान चलाया गया था. दिलचस्प रूप से उस समय स्वास्थ्य कर्मियों के बीच ही टीके को लेकर बड़े पैमाने पर हिचकिचाहट का वातावरण देखने को मिला था. वायरस से जंग में अग्रणी रहने के चलते इन स्वास्थ्यकर्मी ने आम जनमानस का भरोसा जीता है और उन्हें जनता का व्यापक समर्थन हासिल है. ऐसे में जब ये लोग ही वायरस के ख़तरे के इतने क़रीब रहने के बावजूद टीका नहीं लगवाने का फ़ैसला करते हैं तो आम लोगों के लिए टीके की प्रभावशीलता पर भरोसा कर पाना मुश्किल हो जाता है. इतना ही नहीं अगर स्वास्थ्यकर्मी ख़ुद टीका नहीं लगवाएंगे तो उनके द्वारा आम लोगों को टीका लगवाने के प्रति प्रेरित किए जाने की संभावना भी बेहद कम हो जाती है. वैक्सीन के प्रति संकोच भरे बर्ताव के साथ-साथ केंद्र और राज्य के स्तर पर स्पष्ट और भरोसेमंद सूचनाओं के प्रसार का अभाव ही संभवत: वो कारण हैं जिनके चलते तमिलनाडु में टीकाकरण का प्रसार इतना कम है. तमिलनाडु एक ऐसा स्थान है जहां समाचार और सोशल मीडिया जैसे माध्यम न केवल लोकप्रिय हैं बल्कि स्थानीय भाषा में आसानी से उपलब्ध भी हैं. इसके साथ ही आम तौर पर समाज इतना शिक्षित है कि वो उन समाचारों को पढ़ सकता है. ऐसे में षड्यंत्रकारी विचार और अफ़वाहें समाज में बहुत जल्दी फैल जाते हैं. इससे वैक्सीन के प्रति भरोसे के स्तर में गिरावट आती है. 

तमिलनाडु में कोविड-19 वैक्सीन की चुनौतियों की पड़ताल

तमिलनाडु में टीके के प्रति संदेह और झिझक का स्तर काफ़ी ऊंचा है. इसके पीछे कई कारण और चुनौतियां हैं. सबसे पहले ये समझना ज़रूरी है कि भारत में टीकाकरण अभियान की शुरुआत उस समय हुई थी जब कोरोना के केस काफ़ी घट गए थे और संक्रमण दर नीचे आ गया था. ऐसे में शहरी क्षेत्रों के लोगों की सोच ये बन गई कि वायरस का असर ख़त्म हो चुका है और अब आगे उनका कोविड-19 से पाला नहीं पड़ने वाला. दूसरी ओर ग्रामीण क्षेत्रों के लोगों ने समझा कि चूंकि इस वायरस ने पहली लहर में उन्हें प्रभावित नहीं किया था सो दूसरी लहर में भी वो इससे अछूते रहेंगे. ऐसे में उनके मन में आत्मतुष्टि का भाव आ गया. 

इसके अलावा देसी टीके कोवैक्सीन का आग़ाज़ ही विवादों के साथ हुआ था. इस वैक्सीन को तीसरे चरण के ट्रायल के पहले ही इस्तेमाल की हरी झंडी मिल गई थी. इस विवाद ने राजनीतिक शक्ल अख़्तियार कर लिया और तमाम समाचार और सोशल मीडिया में छाया रहा. उन्हीं दिनों भारत के दोनों वैक्सीन निर्माताओं- सीरम इंस्टीट्यूट ऑफ़ इंडिया और भारत बायोटेक- ने तथ्यपरक जानकारियों से भरा पत्र निकालकर कुछ आम तरह की स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रस्त लोगों को टीका नहीं लगवाने की सलाह दी. इनमें एलर्जी और ब्लीडिंग डिसऑर्डर जैसी समस्याएं शामिल हैं. दुर्भाग्यवश इन विवादों के चलते टीके पर लोगों का भरोसा कम हो गया. इसके साथ ही भारत में उपलब्ध दोनों वैक्सीन के बीच के अंतर को लेकर अस्पष्टता ने भी समस्या को और गहरा बनाने का काम किया. इतना ही नहीं आम लोग अपने लिए किस वैक्सीन का चुनाव करें, इसको लेकर भी कोई स्पष्टता न होने के चलते भ्रम का वातावरण बना. ऐसे में मधुमेह, रक्तचाप या दिल की समस्याओं से ग्रस्त लोगों में टीका लगवाने के प्रति अनिच्छा का भाव बन गया. तमिलनाडु में इस तरह की स्वास्थ्य समस्याओं से ग्रस्त लोगों की अच्छी-ख़ासी आबादी है. ग़ौरतलब है कि स्वास्थ्य से जुड़ी इन समस्याओं से कोरोना वायरस से होने वाले संक्रमण का प्रभाव और गहरा हो जाता है. ऐसे में राज्य की परिस्थितियां चिंता का विषय हैं. 

अभिनेता विवेक को टेलीविजन कैमरों के सामने भारी तामझाम के साथ टीका लगाया गया था. उस समारोह में राज्य के स्वास्थ्य सचिव समेत कई नामी-गिरामी चेहरे मौजूद थे. पूरे समारोह को टीवी पर प्रसारित किया गया था. बहरहाल, दो दिन बाद दिल का दौरा पड़ने से विवेक का देहांत हो गया.

इसके साथ ही संभावित दुष्प्रभावों के बारे में जानकारी का अभाव भी वैक्सीन पर लोगों का भरोसा कम करने के लिए ज़िम्मेदार है. ये प्रभाव दो तरीकों से अपना असर दिखा रहे हैं. लोकप्रिय अभिनेता विवेक तमिलनाडु में कोरोना टीकाकरण अभियान का चेहरा बने हुए थे. दुर्भाग्यवश उनके निधन की घटना ने हर बात में साज़िश ढूंढने वालों को मौका दे दिया. ऐसी खुराफ़ाती सोच वाले लोगों ने इस दुखद वाकये का अपने मतलब के लिए इस्तेमाल करने में कोई कसर नहीं छोड़ी. अभिनेता विवेक को टेलीविजन कैमरों के सामने भारी तामझाम के साथ टीका लगाया गया था. उस समारोह में राज्य के स्वास्थ्य सचिव समेत कई नामी-गिरामी चेहरे मौजूद थे. पूरे समारोह को टीवी पर प्रसारित किया गया था. बहरहाल, दो दिन बाद दिल का दौरा पड़ने से विवेक का देहांत हो गया. हालांकि उनके निधन का टीके से कोई ताल्लुक नहीं था लेकिन कई लोगों को ये भरोसा हो गया कि टीका लगने पर उनकी भी मृत्यु हो सकती है. ऐसे में राज्य के स्वास्थ्य सचिव को लोगों में भरोसा बहाल करने के लिए प्रेस कॉन्फ़्रेंस करनी पड़ी थी. हालांकि, इस पूरे प्रकरण से जो नुकसान होना था वो हो चुका था. विवेक के निधन से पहले के हफ़्ते में कुल 9,56,368 डोज़ लगाए गए थे जबकि उनके देहांत के बाद वाले हफ़्ते में सिर्फ़ 5,59,822 डोज़ ही लग पाए

संभावित दुष्प्रभावों के डर के चलते दिहाड़ी मज़दूर और किसान समाज से जुड़े लोगों ने टीके से दूरी बना ली. खेतीबाड़ी के काम इन दिनों पूरी तेज़ी से चल रहे हैं, ऐसे में खेतों में काम करने वाले कामगारों को लगता है कि टीका लगाने पर होने वाले दुष्प्रभावों के चलते वो कुछ दिनों तक काम पर नहीं जा सकेंगे. उन्हें डर है कि इसका असर फसल कटाई के काम पर पड़ेगा और उन्हें कुछ दिनों तक कमीशन से बाहर रहना होगा. दिहाड़ी मज़दूरों के लिए एक दिन या उससे ज़्यादा की मज़दूरी का नुकसान बहुत बड़ी चिंता की बात है. इसके साथ-साथ उन्हें ये डर भी है कि अगर टीके की वजह से उनके शरीर में कोई दुष्प्रभाव होते हैं तो उसके इलाज का खर्च वो वहन नहीं कर पाएंगे. इतना ही नहीं महामारी के चलते पहले से ही दबाव झेल रहे स्वास्थ्य तंत्र में उनका इलाज संभव ही नहीं हो पाएगा. शहरी ग़रीबों और ग्रामीण समुदायों में वैक्सीन को लेकर दिखाई देने वाले इस संकोच को तमिलनाडु के स्वास्थ्य मंत्री ने भी रेखांकित किया है. 

तमिलनाडु में टीके के प्रति झिझक की एक और वजह हाल ही में संपन्न हुआ विधानसभा चुनाव भी है. भले ही ये सबसे बड़ी वजह न हो पर निश्चित तौर पर टीके के प्रति संकोच भरे इस रवैये के पीछे चुनाव भी एक कारण है. चुनावों के दौरान राजनीतिक नेतृत्व ज़्यादा से ज़्यादा सीटें जीतने पर ध्यान टिकाए था जबकि कार्यपालिका और नौकरशाही चुनावी इंतज़ामों में व्यस्त थी. ऐसे में न तो कोरोना वायरस और न ही वैक्सीन किसी की वरीयता सूची में रहे. केरल को छोड़कर बाक़ी जिन-जिन राज्यों या केंद्र-शासित प्रदेशों में चुनाव हुए उन सभी में इसी तरह का रुझान देखने को मिला है. ग़ौरतलब है कि केरल की सरकार को महामारी से निपटने के उसके प्रयासों के चलते व्यापक जनसमर्थन हासिल हुआ है.

बाक़ी देश की तरह ही तमिलनाडु में भी टीके की किल्लत के तौर पर एक नई समस्या ज़ोर पकड़ रही है. वैक्सीन के प्रति हिचक भरे रवैये की पड़ताल करना न सिर्फ़ कोरोना टीकाकरण अभियान बल्कि दूसरे बड़े टीकाकरण कार्यक्रमों के लिए भी अहम है. इतना ही नहीं भविष्य में दुनिया को प्रभावित करने वाली दूसरी महामारियों की पूर्व तैयारी के मकसद से भी ये पड़ताल ज़रूरी है. 

ये बात स्पष्ट है कि टीके के प्रति आनाकानी भरे इस रवैये की मूल वजह इसको लेकर आम समझ विकसित कर पाने वाली जानकारियों और सूचनाओं का अभाव है.

ये बात स्पष्ट है कि टीके के प्रति आनाकानी भरे इस रवैये की मूल वजह इसको लेकर आम समझ विकसित कर पाने वाली जानकारियों और सूचनाओं का अभाव है. इन हालातों का न सिर्फ़ अशिक्षित व्यक्तियों पर असर पड़ता है बल्कि स्वास्थ्य सेवाओं से जुड़ी जटिल जानकारियों की समझ न रखने वाले शिक्षित लोग भी इससे प्रभावित होते हैं. विश्वसनीय और आसानी से समझ में आने वाली सूचनाओं के अभाव में झूठी ख़बरें और अफ़वाहें फैलने लगती हैं. इन ग़लत जानकारियों और अफ़वाहों की भाषा सरल होती है, वो आसानी से दूर-दूर तक फैलाई जा सकती हैं और एक बड़ी तादाद में लोग उन्हें पढ़ते-सुनते हैं. लिहाजा इन अफ़वाहों पर वो बहुत जल्दी भरोसा करने लगते हैं. इनसे निपटने के लिए सरकार द्वारा एक व्यापक प्रचार और जनसंपर्क अभियान छेड़ा जाना ज़रूरी है. मुहिम के ज़रिए वायरस को लेकर फैली भ्रांतियों से लड़ते हुए सटीक सूचनाएं पहुंचाई जानी चाहिए. इसके साथ ही सरकार को कोरोना वायरस के बारे में जानकारियों का प्रचार प्रसार भौगोलिक रूप से कोने-कोने तक और समाज के अंतिम पंक्ति में बैठे व्यक्तियों तक करना चाहिए. इस प्रकार के दूसरे अभियानों में आशा कार्यकर्ताओं को शामिल किए जाने के कामयाब नतीजे दिखाई दिए हैं.

अब ये बात साफ़ हो चुकी है कि कोविड-19 की लहरों को रोकने का सर्वोत्तम उपाय टीकाकरण ही है. टीकाकरण नहीं करवाने वाले लोग न सिर्फ़ ख़ुद को बल्कि अपने आस-पास के दूसरे लोगों को भी ख़तरे में डालते हैं. वृहत पैमाने पर टीकाकरण के बिना कोरोना वायरस की चुनौती बरकरार रहेगी. ऐसे में वैक्सीन के प्रति झिझक से निपटना सरकार की प्राथमिकता में होना चाहिए. 

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