Author : Kuber Bathla

Published on Jul 08, 2021 Updated 0 Hours ago

भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े बुनियादी ढांचे की कमियां पहले भी सामने आती रही हैं. 2017 में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में एक ही हफ्ते के भीतर करीब 60 बच्चों की मौत हो गई थी 

भारत में कोविड-19: तीसरी लहर से लड़ने की तैयारी के बीच ऑक्सीजन की ठोस सप्लाई चेन खड़ी करने की चुनौती!
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कोविड19 की दूसरी लहर ने भारत में मेडिकल ऑक्सीजन की समस्या को दुनिया के सामने ला दिया. मुख्य रूप से आपूर्ति श्रृंखला से जुड़े मसलों के चलते देश के कई हिस्सों में इस प्राणवायु की मांग पूरी नहीं की जा सकी. डिलिवरी की खस्ता हालत और कनेक्टिविटी से जुड़ी समस्याओं के चलते अतीत में भी इसी तरह की समस्याएं आती रही हैं. भारत में स्वास्थ्य क्षेत्र से जुड़े बुनियादी ढांचे की कमियां पहले भी सामने आती रही हैं. 2017 में उत्तर प्रदेश के गोरखपुर में एक ही हफ्ते के भीतर करीब 60 बच्चे मौत के मुंह में समा गए थे. तब वहां के अस्पताल ने ऑक्सीजन की सप्लाई में संभावित रुकावट की अनेक चेतावनियों पर ध्यान नहीं दिया था. 2016 में पुणे के आर्म्ड फ़ोर्सेज़ अस्पताल में गैस के इस्तेमाल पर किए गए गैप विश्लेषण से चौंकाने वाले तथ्य सामने आए थे. इस विश्लेषण से डिलिवरी सिस्टम की खस्ता हालत का पता चला था. पाइपलाइन के रख-रखाव और अलार्म से जुड़े इंतज़ामों में कई गंभीर कमियों की जानकारी मिली थी. 

स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय (एमओएचएफ़डब्ल्यू) ने 15 अप्रैल को स्पष्ट किया था कि भारत में ऑक्सीजन की दैनिक उत्पादन क्षमता 7287 मीट्रिक टन थी. मंत्रालय के मुताबिक भारत की दैनिक खपत के मुक़ाबले दैनिक निर्माण क्षमता कहीं ज़्यादा थी. दूसरी लहर के दौरान भी ये आंकड़ा जस का तस बना रहा. एम्पावर्ड ग्रुप 2 (ईजी2) ने ऑक्सीजन के स्रोतों की पड़ताल की. उसने उद्योगों को अपनी पूरी उत्पादन क्षमता को इस दिशा में मोड़ने के लिए तैयार किया. केंद्र ने अपने हलफ़नामे में बताया कि मेडिकल ऑक्सीजन की सबसे ज़्यादा मांग देश के उत्तरी और पश्चिमी राज्यों से आई जबकि इनका निर्माण आमतौर पर दक्षिण और पूर्वी भारत के राज्यों में केंद्रित है. मांग की पूर्ति के लिए रसद के मोर्चे पर बड़ी कार्रवाई की ज़रूरत थी. इसके नतीजे के तौर पर आपूर्ति श्रृंखला में और खामियां उभर कर सामने आईं

केंद्र ने अपने हलफ़नामे में बताया कि मेडिकल ऑक्सीजन की सबसे ज़्यादा मांग देश के उत्तरी और पश्चिमी राज्यों से आई जबकि इनका निर्माण आमतौर पर दक्षिण और पूर्वी भारत के राज्यों में केंद्रित है.

शुरुआत में विभिन्न राज्यों (ख़ासतौर से दिल्ली) में ऑक्सीजन का आवंटन विवाद का मुद्दा बना रहा. आपूर्ति में किल्लत के मसले को पहली बार 19 अप्रैल को दिल्ली हाईकोर्ट के सामने उठाया गया. उस दिन राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की सरकार (जीएनसीटीडी) ने अदालत को बताया कि उसने पहले ही औद्योगिक कार्यों में प्रयोग आने वाले ऑक्सीजन को मेडिकल इस्तेमाल के लिए भेजे जाने के आदेश जारी कर दिए हैं. कोर्ट ने आईनॉक्स को दिल्ली के अस्पतालों के साथ अपने करारों का सम्मान करते हुए ऑक्सीजन की आपूर्ति सुनिश्चित करने का निर्देश दिया. हालांकि तब ऐसे आरोप लगे थे कि दिल्ली के हिस्से की आपूर्ति को दूसरे राज्यों में भेज दिया गया. ऑक्सीजन की ढुलाई में नाकामी के पीछे दो अलगअलग वजहें बताई गई हैं.

पहला, ये कि देश में मौजूद क्रायोजेनिक टैंकर्स की कुल संख्या सिर्फ़ 1224 थी. नाइट्रोजन और एर्गॉन के 1200 अन्य टैंकरों को परिवर्तित करने का आदेश बहुत बाद में जारी किया गया. 26 अप्रैल तक राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र की सरकार क्रायोजेनिक टैंकर्स मंगवाने की जद्दोजहद करती रह गई. हालांकि भारत सरकार के स्वास्थ्य मंत्रालय ने राज्यों से इसके इस्तेमाल को नियंत्रित करने के लिए कंट्रोल रूम बनाने की गुहार लगाई थी. 

दूसरा, टैंकरों की आवाजाही को सुगम बनाने के लिए केंद्र ने अनेक बार उपसमूह बनाने का दावा किया है. इसके बावजूद आईनॉक्स और एयर लिक्विड जैसी कंपनियों को ऐसे वाहनों को दूसरे राज्यों तक पहुंचाने में मुश्किलों का सामना करना पड़ा. आईनॉक्स के डायरेक्टर ने दिल्ली हाईकोर्ट को इसकी जानकारी देते हुए बताया था कि प्राणवायु के लिए मारामारी वाले उस अहम मौके पर राजस्थान की सरकार ने उनके चार टैंकरों को ज़ब्त कर लिया था.

इससे भी बड़ी बात ये है कि भारत के ज़्यादातर अस्पतालों में ऑक्सीजन को तरल रूप में रखने की तकनीक मौजूद नहीं है. लिहाज़ा यहां ऑक्सीजन को गैस के रूप में संरक्षित करने के लिए सिलेंडरों का इस्तेमाल किया जाता है. अतीत में हमारी सरकारें अस्पतालों और नर्सिंग इकाइयों को सिलेंडर आपूर्ति से जुड़ा कोई बहीखाता नहीं रखती थी. सरकार द्वारा ज़रूरी दखल दिए जाने तक सिलेंडरों के ज़रिए ऑक्सीजन की आपूर्ति का मसला जस का तस बना रहा.

अदालत का सू-मोटो संज्ञान

सुप्रीम कोर्ट ने ख़ुद संज्ञान लेते हुए इस मुद्दे पर केंद्र से अपना रुख़ साफ़ करने को कहा था. जवाब में सरकार ने 218 पन्नों का हलफ़नामा दाखिल कर दावा किया कि रसद से जुड़ी खामियों और स्थानीय स्तर पर हुई घटनाओं के चलते ऑक्सीजन की आपूर्ति में बाधा आई. हलफ़नामे में सरकार ने पूरी जांच पड़ताल के बाद सड़क, रेल और हवाई मार्गों का उपयुक्त और मिला जुला इंतज़ाम करने की बात कही. हालांकि दिल्ली जैसे राज्य को कई दिनों तक ऑक्सीजन की किल्लत का सामना करना पड़ा. इसके बाद सुप्रीम कोर्ट ने कड़े शब्दों में केंद्र को हालात सुधारने को कहा. 

इससे भी बड़ी बात ये है कि भारत के ज़्यादातर अस्पतालों में ऑक्सीजन को तरल रूप में रखने की तकनीक मौजूद नहीं है. लिहाज़ा यहां ऑक्सीजन को गैस के रूप में संरक्षित करने के लिए सिलेंडरों का इस्तेमाल किया जाता है.

दूसरे विकासशील देशों में भी इसी तरह की समस्याएं देखी गईं. अफ़्रीका, एशिया और लैटिन अमेरिका में टीकाकरण की निम्न दर और ऑक्सीजन की बढ़ती ज़रूरतों के विनाशकारी मिश्रण ने वहां के देशों को नाज़ुक हालत में ला खड़ा किया है. कोविड-19 की दूसरी लहर के दौरान भारत ने तरल और सिलेंडर ऑक्सीजन के निर्यात पर पाबंदी लगा दी. इसके चलते पड़ोसी देशों को आपूर्ति में किल्लत का सामना करना पड़ा. नेपाल ने मार्च के मुक़ाबले 100 गुणा ज़्यादा ऑक्सीजन की मांग रख दी. कई देश अपनी ऑक्सीजन की आवश्यकता पूरी करने के लिए पूरी तरह से भारत जैसे बड़े देश पर निर्भर हैं. कुछ अन्य राष्ट्र औद्योगिक ऑक्सीजन को मेडिकल इस्तेमाल की दिशा में मोड़ पाने में नाकाम रहे. 

सबक और सुझाव

अमेरिका और पश्चिमी यूरोप इस समस्या से बाक़ियों के मुक़ाबले बेहतर तरीके से निपटने में कामयाब रहे. इसकी वजह ये है कि इन देशों ने कई दशकों की मेहनत से मेडिकल ऑक्सीजन का मज़बूत बुनियादी ढांचा खड़ा कर लिया है. इसके साथ ही यहां के देशों ने मौजूदा ग़ैरमेडिकल आपूर्तियों जैसे औद्योगिक ऑक्सीजन को तात्कालिक ज़रूरतों के हिसाब से इस्तेमाल करने की नीति अपनाई. इसके साथ ही जिन स्वास्थ्य केंद्रों में ऑक्सीजन का इस्तेमाल उपलब्धता के मुक़ाबले कम हो रहा था वहां से ऑक्सीजन को बेहतर परिवहन के ज़रिए आवश्यकता वाले स्थान तक समुचित समय पर पहुंचाने की व्यवस्था की गई

भारत जैसे देश को अपने अस्पतालों के खस्ताहाल डिलिवरी सिस्टम की वजह से काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा. दूसरी ओर पश्चिमी यूरोप और अमेरिका जैसे देशों ने अपने अस्पतालों में पाइपलाइन नेटवर्क और वैक्यूमइंसुलेटेड इवैपोरोटर्स जैसी सुविधाओं का विस्तार किया. यहां तक कि वियतनाम जैसा देश भी इन हालातों का सामना करने के लिए पहले से ही बेहतर तरीके से तैयार था. 6.2 करोड़ की आबादी वाले इस देश में रोज़ाना करीब 250 टन मेडिकल ऑक्सीजन की उपलब्धता बरकरार रही.

इस महामारी से पहले उत्तर प्रदेश हेल्थ सिस्टम स्ट्रेंथनिंग प्रोजेक्ट (यूपीएचएसएसपी) ने राज्य में ऑक्सीजन थेरेपी में सुधार लाने के लिए मेडिकल ऑक्सीजन से जुड़े दिशानिर्देश जारी किए थे. इस दस्तावेज़ में सभी ज़िला अस्पतालों में राज्य की ऑक्सीजन आपूर्ति व्यवस्था का समयसमय पर आकलन और समीक्षा किए जाने की बात कही गई है. इसके साथ ही पाइप के ज़रिए मेडिकल ऑक्सीजन की आपूर्ति किए जाने पर भी ज़ोर दिया गया है. दिशानिर्देशों के तहत ऐसी आधुनिक व्यवस्था के संचालन और रखरखाव के लिए प्रशिक्षित पेशेवरों की ज़रूरत भी बताई गई थी

अमेरिका और पश्चिमी यूरोप इस समस्या से बाक़ियों के मुक़ाबले बेहतर तरीके से निपटने में कामयाब रहे. इसकी वजह ये है कि इन देशों ने कई दशकों की मेहनत से मेडिकल ऑक्सीजन का मज़बूत बुनियादी ढांचा खड़ा कर लिया है.

फिलहाल भारत कोरोना महामारी की दूसरी लहर प्रभावों से उबरते हुए तीसरी लहर से बचाव की तैयारियां कर रहा है. ऐसे में कुछ काम बेहतर ढंग से किए जा सकते हैं. पहला ये कि क्रायोजेनिक ऑक्सीजन टैंकर्स के मौजदा बेड़े को और बड़ा कर आवाजाही की बेहतरी सुनिश्चित की जा सकती है. इसके साथ ही उत्पादन और वितरण के मौजूदा ढांचे में सुधार लाकर इस पूरी प्रक्रिया में आर्थिक तौर पर कार्यकुशलता लाई जा सकती है

पीएसए (Pressure swing adsorption) प्लांट की स्थापना के ज़रिए देश के भीतर ही उत्पादन की व्यवस्था करना ऐसी कार्यकुशलता हासिल करने की दिशा में पहली शर्त है. ऐसी प्रणाली से अस्पताल खुद ही ऑक्सीजन का उत्पादन कर आत्मनिर्भर बन सकेंगे. ऐसे ही 162 प्लांटों की स्थापना से संबंधित बोलीप्रक्रिया में जनवरी तक अनावश्यक देरी की गई. नतीजतन 18 अप्रैल तक 162 में से केवल 33 प्लांट ही स्थापित किए जा सके थे

वैसे फ़ौरी तौर पर ज़्यादा से ज़्यादा ऑक्सीजन कंसनट्रेटर्स का उत्पादन या जुगाड़ करना अधिक ज़रूरी है. छोटे और दूरदराज़ के इलाक़ों में स्थित छोटे अस्पतालों में पीएसए प्लांट नहीं लगाए जा सकते. इसके साथ ही वहां तक ढुलाई की लागत भी काफ़ी ज़्यादा होती है. ऐसे में ख़ासतौर से दूरदराज़ के क्षेत्रों में स्थित अस्पतालों में कंसन्ट्रेटर्स के सघन इस्तेमाल से ख़तरनाक सिलेंडरों और खर्चीली डिलिवरी व्यवस्था पर निर्भरता को कम किया जा सकता है. बहरहाल कंसन्ट्रेटर्स के सुचारू संचालन के लिए स्थिर बिजली आपूर्ति व्यवस्था बेहद अहम है. कुछ निम्न और मध्यमआय वाले देशों में बिजली की किल्लत से जुड़ी समस्या से निपटने के लिए सौर ऊर्जा का इस्तेमाल किया जा रहा है.   

हालांकि दीर्घकाल में उत्पादन क्षमता को बढ़ाना और उसकी निगरानी किया जाना आवश्यक है. भारत में बस कुछ मुट्ठीभर कारोबारियों को ही ऑक्सीजन का उत्पादन करने की मंज़ूरी दी गई है. इस वजह से यहां की उत्पादन प्रक्रिया में आवश्यकता के हिसाब से बदलाव नहीं किया जा सका है. और तो और इस वजह से ऑक्सीजन का उत्पादन देश के चंद राज्यों तक ही सिमट कर रह गया है. आपूर्ति श्रृंखला को मज़बूत बनाने के लिए विभिन्न राज्यों में ऐसे ही और निर्माताओं को ऑक्सीजन उत्पादन की इजाज़त दी जानी चाहिए. भविष्य के दृष्टिकोण से तकनीकी बदलाव बेहद ज़रूरी हैं. ज़्यादा से ज़्यादा अस्पतालों में पाइप से गैस पहुंचाने की व्यवस्था स्थापित की जानी चाहिए. इसके साथ ही गैस की बर्बादी रोकने के लिए सिलेंडरों पर निर्भरता को कम करना भी ज़रूरी है.  

आपूर्ति श्रृंखला को मज़बूत बनाने के लिए विभिन्न राज्यों में ऐसे ही और निर्माताओं को ऑक्सीजन उत्पादन की इजाज़त दी जानी चाहिए. भविष्य के दृष्टिकोण से तकनीकी बदलाव बेहद ज़रूरी हैं.

यूपीएचएसएसपी के दिशानिर्देशों में ऑक्सीजन की आपूर्ति और रखरखाव पर और प्रभावी तरीके से निगरानी रखने पर ज़ोर दिया गया है. ज़िलों और अस्पतालों के स्तर पर आपूर्ति पर निरंतर नज़र रखी जानी चाहिए. इससे उनकी ज़रूरतों और मांग में आने वाले बदलावों को समझने और उनका पूर्वानुमान लगाने में मदद मिलेगी. आपूर्ति की निगरानी के लिए समर्पित डैशबोर्ड के साथसाथ एक अलार्म सिस्टम लगाया जाना चाहिए.  

स्वास्थ्य संबंधी अनेक हालातों में इलाज के लिए ऑक्सीजन एक महत्वपूर्ण घटक है

महामारी के बाद की दुनिया में ऑक्सीजन की मज़बूत आपूर्ति श्रृंखला तैयार करना काफ़ी अहम है. अगर ऐसा नहीं होता है तो स्वास्थ्य से जुड़े देश के बुनियादी ढांचे के लिए ये कहीं बड़ी चिंता का सबब बन सकते हैं

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