-
CENTRES
Progammes & Centres
Location
इस साल की शुरुआत में लोगों में कोरोना के प्रति एक बेफ़िक्री का भाव आ गया था, भारत सरकार द्वारा समय-समय पर जारी किए जा रहे सामाजिक दूरी से जुड़े नियमों और दूसरी सलाहों को लोग हवा में उड़ाने लगे थे.
भारत में कोविड-19 की दूसरी लहर अब काफ़ी कमज़ोर पड़ रही है. रोज़ाना कोरोना संक्रमण के मामले करीब 50 हज़ार के आसपास रह गए हैं. जून 2021 में वायरस के ख़िलाफ़ जंग में काफ़ी सफलताएं हासिल हुईं. हालांकि, ख़तरा अभी टला नहीं है. डरावने डेल्टा वेरिएंट का संकट मंडरा रहा है. भारत में पिछले काफ़ी अरसे से कोरोना संक्रमितों की तादाद ऊंची बनी हुई है. अमेरिका के बाद भारत दूसरा देश है जहां कोरोना की इतनी बुरी मार पड़ी है. इस साल की शुरुआत में लोगों में कोरोना के प्रति एक बेफ़िक्री का भाव आ गया था. भारत सरकार द्वारा समय-समय पर जारी किए जा रहे सामाजिक दूरी से जुड़े नियमों और दूसरी सलाहों को लोग हवा में उड़ाने लगे थे. उन्हें नियम तोड़ने पर होने वाले जुर्मानों का भी कोई ख़ौफ़ नहीं रह गया था. हमारे कुछ नेता भी इन हालातों के लिए ज़िम्मेदार हैं. उन्होंने बड़बोले अंदाज़ में बिना सोचे-समझे दावे किए कि कोरोना के ख़तरे पर नकेल कस दी गई है. इन्हीं ढिलाई भरे रवैयों के चलते महामारी तेज़ी से देश के कोने-कोने में फैल गई. भारत के गांव-गांव और शहर दर शहर इसकी चपेट में आने लगे. महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, दिल्ली और कर्नाटक सबसे बुरी तरह प्रभावित राज्यों में से रहे हैं. भारत में कोरोना के रिकॉर्ड तोड़ आंकड़ों में इन राज्यों का बड़ा हाथ रहा है. बेमौके आयोजित किए गए धार्मिक जमावड़ों और चुनावी रैलियों ने सुपर-स्प्रेडर घटनाओं का रूप ले लिया. इनके चलते कई राज्य सरकारों को लॉकडाउन का एलान करना पड़ा.
बेलगाम तरीके से महामारी के प्रसार के लिए मुख्य रूप से आम जनता ही ज़िम्मेदार हैं. वो अपनी जवाबदेहियों से मुंह नहीं मोड़ सकती. अगर जनता समझदारी से काम लेती तो इस संकट को टाला जा सकता था.
इन सबके बावजूद बेलगाम तरीके से महामारी के प्रसार के लिए मुख्य रूप से आम जनता ही ज़िम्मेदार हैं. वो अपनी जवाबदेहियों से मुंह नहीं मोड़ सकती. अगर जनता समझदारी से काम लेती तो इस संकट को टाला जा सकता था. दूसरी लहर से पहले कई लोगों को कोविड-19 से बचाव और सुरक्षा से जुड़े नियमों का पालन करने में कोई फ़ायदा नज़र नहीं आ रहा था. वो बचाव से जुड़े इन उपायों की खुलेआम धज्जियां उड़ाने लगे थे. उनकी दलील थी इन एहतियातों के कोई ख़ास फ़ायदे नहीं होते. सरकार ने अपनी ओर से कोरोना से बचाव के लिए कई तरह के दिशानिर्देश जारी किए थे. इनमें कहीं भी लोगों का जमावड़ा न लगाना, सामाजिक दूरी के नियमों का पालन करना, मास्क पहनना और बार-बार हाथ धोना शामिल हैं. बहरहाल, बचाव से जुड़े ऐसे उपायों के प्रति लोगों के बर्ताव ने शायद संक्रमण की रफ़्तार में इस विस्फोटक बढ़ोतरी में बड़ी भूमिका निभाई. इसी अवस्था को “रोकथाम से जुड़ा विरोधाभास” कहते हैं.
1981 में महामारियों के विशेषज्ञ जॉफ़री रोज़ ने बचाव के उपायों के प्रति आम लोगों की ऐसी विरोधाभासी सोच को सबके सामने रखा था. उन्होंने इसे महामारी से जुड़े जोख़िम के आकलन और नीति निर्माताओं द्वारा इनकी रोकथाम के लिए किए जाने वाले हस्तक्षेपों से जुड़ी रणनीति के बीच एक अनौपचारिक संबंध के तौर पर पेश किया था. उन्होंने ही प्रीवेंशन पैराडॉक्स शब्दावली का इस्तेमाल किया था. ये कोई अनोखा वाकया नहीं है. आमतौर पर एक बड़ी आबादी में सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में बचाव से जुड़े उपायों को अमल में लाने के प्रति इस तरह की बेफ़िक्री का भाव दिखाई देता है. स्वास्थ्य के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर किए जाने वाले हस्तक्षेपों का ज़्यादातर लोगों की सेहत पर कोई सीधा असर दिखाई नहीं देता. इसी के चलते बचाव से जुड़ा ये विरोधाभास सामने आता है. लोगों की सोच नामसमझी भरी होती है. वो अक्सर बीमारी के ख़तरे को हवा में उड़ा देते हैं. सरकारें तो बीमारी पर निगरानी रखने की तमाम कोशिशें करती हैं लेकिन लोग बचाव के लिए अमल में लाए गए उन उपायों के प्रभाव के बारे में शक़ जताते रहते हैं. कई बार तो वो इन प्रयासों को बेकार बताते हुए उनकी खिल्ली उड़ाने से भी बाज़ नहीं आते. कोविड के चलते लगने वाले लॉकडाउनों से ज़्यादातर कारोबारों और आम जनजीवन पर बेहद बुरा प्रभाव पड़ता है. संक्रमण से सीधे तौर पर प्रभावित नहीं होने वाले लोगों को लगता है कि उनकी आज़ादी पर बेवजह पाबंदियां लगाई जा रही हैं. महामारी की प्रचंडता में फ़िलहाल जो नरमी दिखाई दे रही है वो मुख्य रूप से लॉकडाउन से जुड़े उपायों और तमाम दूसरी पाबंदियों के चलते है. हालांकि, संक्रमण की तादाद घटने से लोगों को लगने लगा है कि बहुत जल्द सामान्य हालात बहाल हो जाएंगे. हालांकि, अब भी रोज़ाना बड़ी संख्या में कोरोना के केस दर्ज किए जा रहे हैं. प्रभावी तौर पर यही प्रीवेंशन पैरा़डॉक्स है और सरकारें इनका सामना कर रही हैं.
स्वास्थ्य के क्षेत्र में बड़े पैमाने पर किए जाने वाले हस्तक्षेपों का ज़्यादातर लोगों की सेहत पर कोई सीधा असर दिखाई नहीं देता. इसी के चलते बचाव से जुड़ा ये विरोधाभास सामने आता है. लोगों की सोच नामसमझी भरी होती है.
परंपरागत अर्थशास्त्र के जानकार मनुष्य को तर्कसंगत फ़ैसले लेने वाला जीव मानते हैं. वो इंसानों के लिए “होमो इकोनोमिकस” शब्दावली का इस्तेमाल करते हैं. उनका मानना है कि एक तर्क की कसौटी पर अपने फ़ैसलों को कसने वाला इंसान अपना भला चाहता है, ख़ुद में दिलचस्पी रखता है, अपनी ज़रूरतें समझता है और अपनी समझ का अधिकतम इस्तेमाल कर तर्कसंगत फ़ैसले लेता है. हालांकि, असल दुनिया में ये बातें बेहद आदर्शवादी लगती हैं. मानवीय बर्तावों का पूर्वानुमान लगाना कठिन है. अप्रत्याशित और बेसमझी भरे बर्तावों के पीछे मनोविज्ञान और अर्थशास्त्र का हाथ होता है. आमतौर पर सरकारों के कड़े फ़ैसले जनता के बीच लोकप्रिय नहीं होते. व्यावहारिक अर्थशास्त्र के मुताबिक लोग आत्म नियंत्रण और सही सूचनाओं के अभाव में तार्किक फ़ैसले नहीं ले पाते. लोग आम तौर पर वो रास्ता अपनाना चाहते हैं जिसमें उन्हें कम परेशानियां झेलनी पड़े. महामारी के फैलते प्रकोप के बावजूद समाज का एक बड़ा तबके कोविड से बचाव के प्रोटोकॉल की धज्जियां उड़ा रहा है. जनता का ये बर्ताव अर्थशास्त्र में बड़े पैमाने पर स्वीकार किए गए इसी सिद्धांत की तस्दीक करता है.
ग़ौरतलब है कि नीति निर्माता जोखिम की हल्का करने के लिए बुनियादी तौर पर दो तरह की नीतियां अपनाते हैं. पहली नीति का ज़ोर व्यक्तिगत स्तर पर और दूसरी का सामुदायिक स्तर पर होता है. हालांकि, इन दोनों नीतियों में आपस में कोई प्रतिस्पर्धा नहीं होती. दोनों का ही मकसद बीमारी की पहचान कर उसपर लगाम लगाना होता है. व्यक्तिविशेष को लक्ष्य कर बनाई गई बचाव की रणनीति में डॉक्टर उन लोगों पर ध्यान देते हैं जिनकी सेहत नाज़ुक होती है और जिन्हें संक्रमण का ख़तरा ज़्यादा होता है. हालांकि, ये रणनीति उस बड़ी आबादी पर प्रभाव डालने में नाकाम रहती है जिन्हें मध्यम दर्जे का ख़तरा होता है. ज़्यादा ख़तरे या जोख़िम की ज़द में रहने वाले लोगों की पहचान करने में काफ़ी मुश्किलें पेश आती हैं. इससे जुड़ी लागत भी ज़्यादा होती है. ऐसे में व्यक्तिगत हिसाब से बनाई गई रणनीति आमतौर पर अस्थायी साबित होती है क्योंकि इसके ज़रिए स्वास्थ्य से जुड़े जोख़िम के मूल कारण का निपटारा नहीं हो सकता और न ही उसकी उत्पत्ति के स्रोत की पहचान की जा सकती है.
वहीं दूसरी ओर पूरी जनसंख्या को केंद्र में रखकर बनाई गई रणीति में समुदाय की विषमताओं पर ज़ोर दिया जाता है. आबादी को उस बीमारी के ख़तरे का आकलन कर उस हिसाब से नीतियां बनाई जाती हैं. जोख़िम से जुड़े कारकों के औसत को निम्न स्तर पर लाने के लिए इन नीतियों का संचालन होता है. इस प्रकार संक्रमण से रुबरू होने के हालातों को एक वांछित दिशा दी जा सकती है. हालांकि, एक आम इंसान को इसमें काफ़ी कम फ़ायदे नज़र आते हैं. लिहाज़ा वो इन उपायों को अपनाने के लिए उतना उत्साहित नहीं होता. इन सबके बावजूद बड़े पैमाने पर रोकथाम से जुड़े उपायों में अपार संभावनाएं मौजूद होती हैं. इनके ज़रिए समाज के सामाजिक क़ायदों को बदलने की कोशिश की जाती है.
आमतौर पर सरकारों के कड़े फ़ैसले जनता के बीच लोकप्रिय नहीं होते. व्यावहारिक अर्थशास्त्र के मुताबिक लोग आत्म नियंत्रण और सही सूचनाओं के अभाव में तार्किक फ़ैसले नहीं ले पाते. लोग आम तौर पर वो रास्ता अपनाना चाहते हैं जिसमें उन्हें कम परेशानियां झेलनी पड़े
सार्वजनिक स्वास्थ्य का लक्ष्य अधिकतम लोगों को लाभ पहुंचाना होता है. इसमें सरकारों की भूमिका एक प्रबंधक जैसी होती है. इस नाते वो मानवीय आबादी के लिए पहले से पहचाने गए जोख़िम भरे बर्तावों से निपटने के लिए कम खर्चीली नीतियों का निर्माण कर सकती है. इसके लिए नीतिगत स्तर पर दख़ल देने वाली लक्षित नीतियां तैयार की जाती हैं. बहरहाल, लॉकडाउन एक महंगी कवायद है. ये जनसंख्या पर आधारित हस्तक्षेप नीति है. कोविड-19 महामारी के प्रसार को रोकने में ये रणनीति काफ़ी प्रभावी साबित हुई है. इस मामले में दिल्ली में कोविड के प्रकोप से जुड़े आंकड़ों को लिया जा सकता है. अप्रैल 2021 में जब कोरोना की दूसरी लहर पीक पर थी तब दिल्ली ने 28000 से ज़्यादा पॉज़िटिव संक्रमण दर्ज किए थे. उस समय देश की राजधानी में स्वास्थ्य से जुड़ा बुनियादी ढांचा चरमरा गया था. एक महीने से ज़्यादा के लॉकडाउन से इन चिंताजनक आंकड़ों में गिरावट आई. संक्रमण का आंकड़ा गिरकर 115 तक आ गया औऱ पॉज़िटिविटी रेट सिमटकर 0.15 प्रतिशत तक आ गई. महाराष्ट्र और बंगाल जैसे देश के दूसरे राज्यों में भी लॉकडाउन के चलते कोविड-19 की डरावनी रफ़्तार पर लगाम लगाने में कामयाबी मिली. बहरहाल, दिल्ली समेत तमाम राज्यों में सार्वजनिक स्वास्थ्य के चरमराते ढांचे को जोख़िम की रोकथाम के जनसंख्या आधारित उपाय से ही संभाला जा सकता है. ख़ासकर टीकाकरण की व्यापक नीति की ग़ैर-मौजूदगी में ये उपाय ज़्यादा प्रभावी हो सकता है. डेल्टा वैरिएंट से कोरोना के मामलों में हो रही बढ़ोतरी के चलते कई राज्यों की सरकारें अनलॉक के नियमों को सख्त़ कर रही हैं. इसमें कोई ताज्जुब की बात नहीं है.
दिल्ली समेत तमाम राज्यों में सार्वजनिक स्वास्थ्य के चरमराते ढांचे को जोख़िम की रोकथाम के जनसंख्या आधारित उपाय से ही संभाला जा सकता है. ख़ासकर टीकाकरण की व्यापक नीति की ग़ैर-मौजूदगी में ये उपाय ज़्यादा प्रभावी हो सकता है
नीति निर्माताओं द्वारा सार्वजनिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में दख़ल दिए जाने का मकसद लोगों की सेहत में सुधार लाना है. रणनीतिक तौर पर इन हस्तक्षेपों का आबादी के स्वास्थ्य के मामले में अपेक्षित सुधार के साथ आमतौर पर सीधा संबंध होता है. इन कम खर्चीले उपायों के प्रभावी परिणाम व्यक्ति और सरकार दोनों की साझा ज़िम्मेदारियों से ही हासिल किए जा सकते हैं. सरकार ने देर से ही सही पर महामारी के प्रसार को प्रभावी तरीके से रोकने के लिए कई ज़रूरी कदम उठाए हैं. इनमें दिसंबर 2021 तक पूरे देश में टीकाकरण के लक्ष्य की प्राप्ति के लिए पर्याप्त संख्या में वैक्सीन हासिल करने से जुड़े प्रयास भी शामिल हैं. अमेरिका और यूरोपीय संघ में अर्थव्यवस्था को खोलने के साथ-साथ तमाम पाबंदियों में ढील दी जा चुकी है. अब समय आ गया है कि भारत की जनता भी अपनी सामाजिक ज़िम्मेदारियां समझे ताकि इस महामारी को और फैलने से रोका जा सके और अर्थव्यवस्था को खोलने और पाबंदियों से छूट देने में मदद मिल सके.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.
Meenakshi Sharma is a health policy specialist with over 13 years of experience in public health. She has worked extensively in the development sector in ...
Read More +