Author : Vijay Gokhale

Published on Jul 22, 2020 Updated 0 Hours ago

चीन की जनता का मूड भांप पाना तो मुश्किल है. लेकिन, अगर हम इंटरनेट से मिल रहे संकेतों को पैमाना मानें, तो चीन के सरकारी सेंसरशिप अधिकारियों को बहुत चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है.

कोविड-19: चीन से आ रहे संकेतों को समझने का प्रयास

महान लोगों की शासन व्यवस्था से एक पायदान नीचे, कलम में तलवार से ज़्यादा शक्ति होती है— उन्नीसवीं सदी के मशहूर बर्तानवी लेखक और राजनेता एडवर्ड बुलवर-लिटन ने ये मशहूर पंक्ति वर्ष 1839 में लिखी थी.

मगर इस कहावत के मशहूर होने से कई सदी पहले चीन में राजा द्वारा सताई हुई जनता के अपनी अर्ज़ियां सीधे स्वर्ग के देवता के नाम लिखने का चलन बहुत आम था. चीन में साम्राज्यवादी शासन व्यवस्था के दौरान शोषित वर्ग के लोग अक्सर अपनी अर्ज़ियां ईश्वर के नाम लिखा करते थे. इसे चीनी भाषा में ‘चिनफैंग कहते हैं. ऐसी अर्ज़ियों का मक़सद, सम्राट के अधिकारियों द्वारा जनता पर किए जाने वाले ज़ुल्मों की तरफ़ सम्राट का ध्यान आकर्षित करना होता था. चीन की जनता इसके ज़रिए अपने बादशाह इंसाफ़ की गुहार लगाती थी. लेकिन, कई बार जनता की इस आवाज़ के माध्यम से सम्राटों को सत्ता से हटाने का काम भी किया गया.

हाल के दिनों में चीन से दो असाधारण ‘प्रार्थना पत्र’ दुनिया के सामने आए हैं. रेन झिकियांग का ‘माई रीडिंग ऑफ़ 23 फ़रवरी’ नाम का लेख और चू झानग्रुन का लेख, ‘वायरल अलार्म: जब प्रकोप भय में तब्दील हो गया’. ये दोनों ही लेख, चीन के ऐसे व्यक्तियों द्वारा लिखे गए थे, जो पहले कभी चीन के सत्ता प्रतिष्ठान के क़रीबी हुआ करते थे. चू झानग्रुन, बीजिंग की क़िगहुआ यूनिवर्सिटी के प्रोफ़ेसर थे. इसे चीन का MIT कहा जाता है. वहीं रेन, ईमानदार वामपंथी पूंजीवादी थे. दोनों की आवाज़ को हाल के दिनों में दबाने का प्रयास चीन की सरकार करती रही है. ये दोनों ही अब सार्वजनिक जीवन से लापता हो चुके हैं.

उनके लेखों के संदर्भ कम-ओ-बेश एक जैसे हैं. उनकी तलवार जैसी क़लम के निशाने पर चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिग हैं. दोनों ही बुद्धिजीवियों ने अपने अपने लेखों में कोविड-19 से चीन के भीतर और बाक़ी दुनिया में आई तबाही के लिए शी जिनपिंग को ज़िम्मेदार ठहराया है. क्योंकि उन्होंने इस वायरस के प्रकोप से निपटने में कई ग़लतियां कीं. रेन ने अपने लेख में शी जिनपिंग को ‘सम्राट’ कह कर संबोधित किया है. तो वहीं, चू ने उन्हें, ‘सबसे बड़ा न्यायाधीश’ कह कर बुलाया है. इन दोनों ही लेखों में इस संकट के दौरान चीन की जनता की सुरक्षा करने में वहां की कम्युनिस्ट पार्टी को नाकाम बताया गया है.

रेन झिक़ियांग ने अपने लेख में बड़ी ही बेदर्दी से नए कोरोना वायरस का प्रकोप फैलने के बाद शी जिनपिंग के इस संकट में भी अपनी छवि चमकाने के लिए प्रयासरत रहने की कड़ी आलोचना की है. रेन ने अपने लेख में, 7 जनवरी के बाद से इस महामारी से निपटने के सभी प्रयास अपने नियंत्रण में ले कर इस संकट से सफलतापूर्वक निपटने के शी जिनपिंग के दावे का मखौल उड़ाया है. इसके अलावा, रेन ने 23 फरवरी को हुई चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की बैठक में, शी जिनपिंग के नेतृत्व को बिना शर्त पूर्ण समर्थन देने के निर्णय का भी उपहास किया है. रेन ने लिखा है कि, ‘वहां पर कोई सम्राट खड़ा होकर अपने नए कपड़ों की नुमाइश नहीं कर रहा था. बल्कि वहां एक मसखरा नंगा खड़ा था. जो अभी भी सम्राट का अभिनय करने की ज़िद पर अड़ा हुआ था.’

वहीं, चू झानग्रुन ने भी इस संकट के समय शी जिनपिंग को एक लाचार नेता के तौर पर प्रस्तुत करते हुए उनकी कड़ी आलोचना की है. उन्होंने अपने लेख में लिखा कि, ‘इस वायरस के संकट के सामने नेता और ज़ो- ज़ोर से कोड़े फटकार कर लोगों से जवाब तलब कर रहा था…’ रेन और चू का आरोप है कि नए कोरोना वायरस के प्रकोप से पैदा हुए संकट को अधिकारियों के दबाने का भरपूर प्रयास किया. दोनों ही लोगों ने कई मूलभूत प्रश्न उठाए हैं. जैसे कि, सात जनवरी के बाद भी आख़िर इस महामारी को लेकर सार्वजनिक घोषणा क्यों नहीं की गई? ख़ासतौर से तब जब सत्ताधारी पार्टी ये दावा कर रही थी कि उस दिन शी जिनपिंग ने पार्टी के पोलित ब्यूरो की एक बैठक की थी और इस संकट से निपटने के लिए ‘दिशा निर्देश’ जारी किए थे. आख़िर चीन ने सात जनवरी के बाद भी सभी सार्वजनिक कार्यक्रमों जारी रखने की मंज़ूरी कैसे दी? और आख़िर क्यों वार्षिक बसंत उत्सव की छुट्टियों के लिए लाखों लोगों को यात्रा करने की इजाज़त दी गई? जिसका नतीजा ये हुआ कि नए कोरोना वायरस का प्रकोप वैश्विक महामारी में परिवर्तित हो गया.

पार्टी की समितियों के बजाय स्वयं द्वारा नियुक्त समूहों के माध्यम से आज शी जिनपिंग देश की सभी नीतियों का नियंत्रण करते हैं. भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के नाम पर किस तरह शी जिनपिंग ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों को ख़ामोश किया है. उनका दमन किया है

दोनों ही अर्ज़ियों को लिखने वालों ने इस महामारी के संकट के फ़ौरी कारण से आगे इसकी जड़ में जाने का प्रयास किया है. चू ने लिखा है कि, इन सबकी जड़ में एक्सल (शी जिनपिंग को वो इसी नाम से बुलाते हैं) और उनको अपने घेरे में रखने वाले चुनिंदा लोगों का व्यूह है.’ और यहीं से दोनों लेखकों के क़लम की धार, तलवार से भी तेज़ होती जाती है. और वो इसकी मदद से शी जिनपिंग के सारी सत्ता अपने हाथ में करने की कोशिश की एक एक परत की बखिया उधेड़ने लगते हैं. किस तरह शी जिनपिंग ने पार्टी, प्रशासन और सेना के सारे अधिकार अपने हाथ में ले लिए हैं. किस तरह वो सार्वभौम सत्ता वाले नेता बन कर, स्वयं को चीन की व्यवस्था के केंद्र में ले आए हैं. किस तरह उन्होंने चीन के राष्ट्रपति पद पर बने रहने की अवधि को सीमित करने वाले संवैधानिक प्रावधान को हटाकर ख़ुद को अपने पूरे जीवन काल के लिए चीन का नेता बना लिया है. और पार्टी व सरकार के काम को फिर से एक ही पद के दायरे में ला कर राज्य परिषद के प्रमुख के अधिकारों ख़ासतौर से अर्थव्यवस्था से जुड़े अधिकारों को भी छीन लिया है. पार्टी की समितियों के बजाय स्वयं द्वारा नियुक्त समूहों के माध्यम से आज शी जिनपिंग देश की सभी नीतियों का नियंत्रण करते हैं. भ्रष्टाचार विरोधी अभियान के नाम पर किस तरह शी जिनपिंग ने अपने राजनीतिक प्रतिद्वंदियों को ख़ामोश किया है. उनका दमन किया है. और अपने चापलूसों को वरिष्ठ पदों पर बैठा कर ये सुनिश्चित करने का प्रयास किया है कि उनकी ज़िम्मेदारी केवल ‘सम्राट का संरक्षण’ करने तक सीमित है.

जब माओ ने हर हथकंडे हथिया कर ख़ुद को अपनी एक अरब जनता का इकलौता नेता बनाने के लिए सांस्कृतिक क्रांति की थी, तो उससे चीन की जनता को भारी तबाही झेलनी पड़ी थी. इसी तज़ुर्बे से सबक़ लेते हुए, बुद्धिमान नेता देंग शाओपिंग ने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के लिए ‘अंदरूनी राजनीतिक जीवन के नए दिशा निर्देश’ वर्ष 1980 में तय किए थे. ख़ुद देंग शाओपिंग भी कोई लोकतंत्र पसंद करने वाले नेता नहीं थे. 1989 में बीजिंग के तियानन मेन चौराहे की हिंसक घटनाओं ने इस बात को सही भी साबित किया था. लेकिन, वो एक अक़्लमंद व्यक्ति थे और ये समझते थे कि अगर शासन व्यवस्था को संस्थागत तरीक़े से चलाने के लिए अगर ‘नियम’ नहीं तय किए गए, तो माओ जैसा कोई और तानाशाही नेता चीन में उभर सकता है. इन नियमों का मूल भाव ‘सामूहिक नेतृत्व की भावना’ को स्थापित करने का था. देंग शाओपिंग का विश्वास था कि अगर नेताओं का एक समूह, संतुलन स्थापित करने का काम करेगा, तो किसी एक व्यक्ति के इकतरफ़ा फ़ैसले लेने के अधिकार हासिल करने, या किसी एक व्यक्ति के पूरी सत्ता पर क़ाबिज़ होने की आशंका को कम किया जा सकेगा. उन्होंने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी और सरकारी पदों पर बैठने वालों की अधिकतम आयु का निर्धारण किया. उन्होंने सरकार और साम्यवादी पार्टी के अधिकारों का स्पष्ट रूप से विभाजन किया. इससे कम्युनिस्ट पार्टी के महासचिव और स्टेट काउंसिल के प्रमुख के बीच संतुलन स्थापित किया जा सका. उन्होंने कम्युनिस्ट पार्टी द्वारा प्रतिपादित पार्टी कमेटियों के स्थान पर नीति निर्माण के लिए किसी अस्थायी व्यवस्था को नियुक्त करने पर प्रतिबंध लगाया. इसके अलावा देंग शाओपिंग ने साम्यवादी अफ़सरशाही के किसी विशेषाधिकार हासिल करने का रास्ता बंद किया. देंग ने ख़ुद की मिसाल से ये शक्ति संतुलन स्थापित किया. जब देंग को पार्टी के चेयरमैन का पद देने का प्रस्ताव उनके सामने रखा गया, तो उन्होंने इस पद को लेने से इनकार कर दिया. जबकि एक वक़्त में ख़ुद माओ इस पद पर रहे थे. वर्ष 1987 तक उन्होंने पार्टी और सरकार के लगभग सभी पद छोड़ दिए थे. इसके बाद, अगले तीस वर्षों तक चीन की कम्युनिस्ट पार्टी सामूहिक नेतृत्व के मूल सिद्धांत पर चलती रही थी. इससे कम्युनिस्ट पार्टी का भी भला हुआ. इसी सामूहिक नेतृत्व के सिद्धांत के कारण, चीन 1989 के राजनीतिक तूफ़ान से पार पा सका. और देंग शाओपिंग के बाद के युग में 1997 में जब दो पार्टी महासचिवों जियांग ज़ेमिन और हू जिंताओ के बीच संघर्ष छिड़ा तो भी सत्ता का संतुलन बना रहा. इस दौरान चीन की जीडीपी में चार गुना का इज़ाफ़ा हुआ. और विश्व व्यवस्था में चीन का कद भी इसी अनुपात में बढ़ गया.

राष्ट्रपति शी जिनपिंग के सहयोगी, सत्ता के एक व्यक्ति के हाथों में केंद्रीयकरण को मूक दर्शक बन कर देखते रहे हैं. जिसके कारण सभी पद और अधिकार आज राष्ट्रपति के हाथ में हैं. इसमें चीन की सेना के कमांडर इन चीफ़ का नया सृजित किया गया पद भी शामिल है

हू जिंताओ के बाद, शी जिनपिंग को ‘सुरक्षित विकल्प’ के तौर पर 2012 में सत्ता सौंपी गई थी. क्योंकि, उस समय जिंताओ के बाद जब ठसकदार नेता बो शिलाई के पार्टी नेता बनने की संभावनाएं दिखीं, तो कम्युनिस्ट पार्टी में हड़कंप मच गया था. लेकिन, उस समय चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व ने शी जिनपिंग को सत्ता सौंपने का जो फ़ैसला लिया, वो न तो चीन के लिए सही साबित हुआ और न ही बाक़ी दुनिया के लिए. सत्ता की कमान मिलने के बाद, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग ने बड़े ही शातिराना तरीक़े से देंग शाओपिंग द्वारा स्थापित व्यवस्था को धीरे-धीरे ख़त्म करने का काम किया है. शी जिनपिंग के विचारों की पदोन्नति करके उन्हें अब माओ के दर्शन के बराबरी का ओहदा दे दिया गया. राष्ट्रपति शी जिनपिंग के सहयोगी, सत्ता के एक व्यक्ति के हाथों में केंद्रीयकरण को मूक दर्शक बन कर देखते रहे हैं. जिसके कारण सभी पद और अधिकार आज राष्ट्रपति के हाथ में हैं. इसमें चीन की सेना के कमांडर इन चीफ़ का नया सृजित किया गया पद भी शामिल है. शी जिनपिंग ने हॉन्गकॉन्ग के विरोध प्रदर्शनों से सख़्ती से निपटा दिया. इसी बीच चीन में स्वतंत्रता समर्थक सरकार के सत्ता में आने और अमेरिका व चीन के बीच व्यापार युद्ध जैसी चुनौतियां भी बिना किसी बड़ी चुनौती के शांति से निपट गईं. लेकिन, कोरोना वायरस की महामारी से पैदा हुई चुनौती से निपटना शायद शी जिनपिंग के लिए मुश्किल हो. जैसा कि रेन झिक़ियांग ने लिखा है, सम्राट ख़ुद से ये झूठ बोल सकता है कि उसने कपड़े पहने हुए हैं. लेकिन, ये तो बच्चों को भी पता है कि सम्राट नंगा है. और जिन लोगों को ये साहस नहीं है कि वो सम्राट को बता सकें कि वो नंगा है. मगर उन्हें नए कपड़े पहनने और नंगे होने के बीच का फ़र्क़ तो पता है ही.’

चीन में अर्ज़ियों ने एक से एक चिंगारी को अजीब-ओ-ग़रीब तरीक़े भड़काने का काम किया है. बड़े और ताक़तवर लोग ऐसी अर्ज़ियों के माध्यम से अपनी मर्ज़ी का परिवर्तन करा लेते हैं. कई बार तो इससे सल्तनतें भी बदल गई हैं.

जैसे कि 4 अप्रैल 1976 को पूर्व प्रधानमंत्री चाऊ एनलाई की याद में किसी अनाम शख़्स ने बीजिंग के तियानन मेल स्क्वॉयर पर ये कविता लिखी थी,

अपने ग़म में मैं शैतानों को चीखते सुनता हूं

जब मैं रोता हूं तो भेड़िए और सियार हंसते हैं

हालांकि मैं अपने हीरो की याद में आंसू बहाता हूं

और अपना सिर तान कर मैं अपनी तलवार निकालता हूं

ये कविता, दस साल की अराजकता से उकताई जनता के लिए बहुत बड़ा हथियार साबित हुई थी. और इसने चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के नेतृत्व को मजबूर किया था कि वो अक्टूबर 1976 में कार्रवाई करे और माओ की विधवा जियांग क़िंग की अगुवाई वाले चार लोगों के गिरोह (Gang of Four) को सत्ता से हटाए. जिसके बाद चीन ने स्थिरता और सुधार के दौर में प्रवेश किया था.

अब किसी को ये नहीं पता कि इस कविता को नेपथ्य से चीन की सत्ताधारी कम्युनिस्ट पार्टी का समर्थन प्राप्त था अथवा नहीं. लेकिन, इस बात की पूरी संभावना है कि कविता के पीछे चीन के अधिकारी ही थे. चीन में ऐसी ही अन्य प्रार्थनापत्रों को पर्दे के पीछे से और अधिक स्पष्ट समर्थन मिला था. 1958 में माओ के बेहद क़रीबी साथी और रक्षा मंत्री मार्शल पेंग देहुआई ने माओ को ख़त लिख कर कहा कि उनके ‘ग्रेट लीप फॉरवर्ड’ की योजना ग़लत है. कम्युनिस्ट पार्टी के लगभग सभी नेताओं का ये मानना था कि इस योजना को बनाने और लागू करने में गड़बड़ियां हुईं, जिसके कारण चीन में करोड़ों लोगों की जान चली गई. लेकिन, माओ की अबाध शक्तियों पर लगाम लगाने के लिए एक और अर्ज़ी ही काम आई थी. तभी चीन की अर्थव्यवस्था को तबाह होने और बड़ी संख्या में लोगों की भूख से मौत होने से रोका जा सका. 1986 में चीन के एक प्रमुख बुद्धिजीवी और कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य वैंग रुओवैंग ने लिखा था कि, ‘एक पार्टी की शासन व्यवस्था से षडयंत्र का ही जन्म होता है.’ इसे सत्ता पर कम्युनिस्ट पार्टी की पूरी पकड़ की आलोचना कहा गया था. इस लेख की मदद से पार्टी के एक महासचिव को उनके पद से हटाया जा सका था. उस महासचिव का नाम था हू याओबैंग, जिन्हें 16 जनवरी 1987 को पार्टी के महासचिव पद से हटा दिया गया था. क्योंकि वो बेहद ताक़तवर होते जा रहे थे. और इससे पार्टी के अन्य नेता असहज हो रहे थे. और फैंग लिझी के उस खुले ख़त को कौन भूल सकता है, जिसे 6 जनवरी 1989 को देंग शाओपिंग को लिखा गया था. जिसमें वेई जिनशेंग समेत सभी राजनीतिक बंदियों को रिहा करने की मांग की गई थी. वेंग जिंगशेंग को चीन में लोकतंत्र का पिता कहा जाता है. फैंग लिझी के इस ख़त की मदद से चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के एक और महासचिव झाओ ज़ियांग को पद से हटाया गया था, क्योंकि वो सत्ता पर कम्युनिस्ट पार्टी की पकड़ को कमज़ोर करने का प्रयास कर रहे थे.

अब रेन और चू के लेखों से, चीन के ख़ामोश लोगों को बोल पाने का साहस मिलेगा. वो हालात बदलने के लिए क़दम उठाने का साहस कर पाएंगे या नहीं, ये देखने वाली बात होगी. हो सकता है कि चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग इस तूफ़ान से भी पार पा लें. ठीक उसी तरह जैसे उन्होंने अन्य चुनौतियों को निपटाया है. लेकिन, घबराहट के छोटे छोटे संकेत इस बात का इशारा देते हैं कि ऊपर से सब कुछ सामान्य दिख रहे चीन के लाल साम्राज्य में सब कुछ ठीक नहीं है. क्योंकि जिस तरह अचानक ही वुहान के प्रशासन ने कोविड-19 की महामारी के कारण मारे गए लोगों को संख्या को संशोधित करके एक ही दिन में पचास फ़ीसद बढ़ा दिया, वो इसी घबराहट की ओर इशारा करता है. क्या ये इस बात का संकेत है कि चीन की सरकार के लिए अब सच को पूरी तरह से छुपा पाना मुश्किल हो रहा है? क्योंकि अब चीन के आम लोग अस्थि कलशों की संख्या गिनकर ये पता लगा सकते हैं कि कितने लोगों के अंतिम संस्कार करके उनके अवशेष परिजनों को सौंपे गए. काफ़ी दिनों तक चीन की सरकार आधिकारिक रूप से ये कहती रही थी कि कोविड-19 की महामारी की उत्पत्ति की वैज्ञानिक तरीक़े से पड़ताल होनी चाहिए. लेकिन, अब चीन की सरकार ने अपने ही यहां वायरस की उत्पत्ति के बारे में हो रही रिसर्च के अकादमिक पर्चों को छापने पर प्रतिबंध लगा दिया है. अब ऐसे रिसर्च को केंद्रीय अधिकरण की अनुमति के बिना नहीं छापा जा सकता. क्या चीन की सरकार को इस बात का डर लग रहा है कि ऐसे रिसर्च छपे, तो चीन की जनता को इस वायरस की सबसे पहले चीन में उत्पत्ति के बारे में सही जानकारी मिल जाएगी? इस समय चीन की जनता का मूड क्या है, इसका अंदाज़ा लगाना तो मुश्किल है. लेकिन, अगर इंटरनेट से मिल रहे संकेतों को देखें तो चीन के सरकारी सेंसरशिप अधिकारियों को बहुत मुश्किलों का सामना करना पड़ रहा है. चीन के राष्ट्रपति ने ये दावा करके ख़ुद को सार्वजनिक विश्लेषण का विषय बना लिया है कि सात जनवरी से ही हालात पूरी तरह से उनके नियंत्रण में हैं. किसी भी सम्राट को जनता के सामने जाने से पहले पूरे कपड़े पहन लेने चाहिए.

मैं इन दो बातों के साथ इस लेख को समाप्त करना चाहता हूं.

पहला कुछ इस तरह है:

चीन की जनता अंधविश्वासी है. वो भले ही धर्म में आस्था न रखते हों लेकिन, परंपरा और संस्कृति में उनका अगाध विश्वास है. चीन में साम्राज्यवादी शासन व्यवस्था की शुरुआत से लेकर शासन करने के नैसर्गिक अधिकार का पतन किसी न किसी क़ुदरती आपदा से होता आया है. 1976 में द ग्रेट तांगशान भूकंप की वजह से चीन में कम से कम पांच लाख लोग मारे गए थे. इसे माओ की मौत और उनकी पत्नी की अगुवाई वाले ‘गैंग ऑफ़ फ़ोर’ के युग के अंत का शकुन माना गया था. तांगशेन भूकंप के बाद कोविड-19 की महामारी के रूप में आज चीन अब तक की सबसे बड़ी क़ुदरती आपदा का सामना कर रहा है.

और दूसरी बात ये है कि:

चीन में सरकार के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वालों का ख़ुद बुरा हश्र हुआ था. 1958 में माओ के ‘ग्रेट लीप फॉरवर्ड’ के ख़िलाफ़ आवाज़ उठाने वाले पेंग देहुआई की पहले नौकरी गई और फिर माओ की सांस्कृतिक क्रांति के दौरान उन्हें अपनी जान से हाथ धोना पड़ा था. इसी तरह वैंग रुओवैंग और फैंग लिझी को गिरफ़्तार करके देश निकाला दे दिया गया था. इस बात की पूरी आशंका है कि रेन झिक़ियांग और चू झानग्रुन का भविष्य भी यही होने जा रहा है.

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