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सरकार ने जिस आर्थिक स्टिमुलस का ऐलान किया है उसके कारण इस महामारी के कारण असंगठित क्षेत्र की अर्थव्यवस्था का एक बड़ा हिस्सा संगठित क्षेत्र के दायरे में आएगा. और इसके कारण लंबी अवधि में अप्रत्यक्ष करों से भारत सरकार का राजस्व बढ़ने की संभावना है.
कोविड-19 की महामारी ने तमाम अन्य बातों के साथ भारत की अर्थव्यवस्था की सबसे अहम कमज़ोरियों को दुनिया के सामने उजागर कर दिया है. महामारी के दौर में भारत के असंगठित क्षेत्र और इसमें काम करने वाले मज़दूरों की ख़राब स्थिति खुलकर सामने आ गई. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन (ILO) के अनुमान के अनुसार भारत, कोविड-19 की महामारी के चलते भारत के असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले क़रीब 40 करोड़ लोग ग़रीबी के दलदल में और गहरे धंस गए. इस वित्तीय वर्ष की पहली तिमाही में GDP में 23.9 प्रतिशत की गिरावट के चलते संगठित क्षेत्र में भी सुस्ती के विकराल संकेत दिखे हैं. जो अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र में और भी बुरे हालात का परिचायक है. भारत की अर्थव्यवस्था के एक बड़े हिस्से, यानी असंगठित क्षेत्र के इस बुरे हालात ने कई बड़े सवाल खड़े कर दिए हैं. भारत की विकास गाथा में इस सेक्टर के कामगारों की भूमिका पर भी प्रश्न उठाए जा रहे हैं. भारत के शहरी इलाक़े, इन असंगठित क्षेत्र के कामगारों पर बहुत अधिक आश्रित हैं. जो रोज़ी-रोटी की तलाश में गांवों से शहरों की ओर आते हैं. और लगातार बढ़ रहे शहरों के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान करते हैं. असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले, हमारे शहरों के निर्माण और रोज़गार सृजन में अहम भूमिका निभाते हैं. लेकिन, उनके रोल को दस्तावेज़ी सबूतों के तौर पर दर्ज नहीं किया जाता है. यही वजह है कि जब देश में लॉकडाउन लगाया गया, तो असंगठित क्षेत्र के ये मज़दूर, शहरों से अपने गांवों की ओर वापस जाने को बेसब्र हो गए. आवाजाही पर प्रतिबंध के कारण, इन मज़दूरों को अभूतपूर्व संकट का सामना करना पड़ा. क्योंकि, इतने वर्षों तक काम करने के बावजूद, इन मज़दूरों के पास न कोई बचत थी. न रहने के लिए मकान थे. न स्वास्थ्य सेवाओं तक पहुंच थी. और शायद भारत सरकार द्वारा चलायी जाने वाली कल्याणकारी योजनाओं तक भी इनकी पहुंच नहीं थी.
भारत के शहरी इलाक़े, इन असंगठित क्षेत्र के कामगारों पर बहुत अधिक आश्रित हैं. जो रोज़ी-रोटी की तलाश में गांवों से शहरों की ओर आते हैं. और लगातार बढ़ रहे शहरों के निर्माण में महत्वपूर्ण योगदान करते हैं. असंगठित क्षेत्र में काम करने वाले, हमारे शहरों के निर्माण और रोज़गार सृजन में अहम भूमिका निभाते हैं.
असंगठित क्षेत्र के कामगारों की ये चुनौतियां कोई नई नहीं हैं. लेकिन, अबकी बार दिलचस्प बात ये है कि इस महामारी के कारण, सरकार के सामने एक अवसर आया है, जिसमें वो फौरी तौर पर क़दम उठा कर असंगठित क्षेत्र को संगठित अर्थव्यवस्था का हिस्सा बना सके. इस महामारी ने असंगठित क्षेत्र के उद्योगों को ऐसी स्थिति में पहुंचा दिया है, जिससे सरकारी दस्तावेज़ों में रजिस्ट्रेशन कराने का ख़र्च उनके लिए कम है, बनिस्बत उन फ़ायदों के जो रजिस्ट्रेशन कराने की वजह से उन्हें हासिल होंगे. जैसे कि सरकार से मिलने वाली पूंजी की मदद. और वित्तीय संस्थाओं से क़र्ज़ हासिल करने में सहूलियत. ऐसा इस कारण से संभव हो सका है, क्योंकि लॉकडाउन ने असंगठित क्षेत्र को बुरी तरह तोड़ कर रख दिया है. छोटे कारोबारियों के पास पैसे नहीं हैं कि वो अपने व्यापार और काम धंधे को आगे चला सकें. आज की तारीख़ में इन छोटे उद्यमियों के लिए अपना कारोबार जारी रखने के लिए एक ही विकल्प सबसे अच्छा है कि कि वो पूंजीगत बाज़ार तक अपनी पहुंच बनाएं. और इसके लिए उन्हें संगठित क्षेत्र का हिस्सा बनना होगा. तभी वो सरकार द्वारा इस मुश्किल वक़्त में घोषित किए गए आर्थिक स्टिमुलस पैकेज के द्वारा दी जा रही मदद को प्राप्त कर सकेंगे. हालांकि, इन योजनाओं का लाभ लेने के लिए इन उद्यमियों को सबसे पहले अपना रजिस्ट्रेशन कराना होगा. इसीलिए, इस महामारी के कारण एक काम तो ये होगा कि महामारी से निपटने के लिए सरकार ने जो आर्थिक स्टिमुलस घोषित किया है, उससे असंगठित क्षेत्र के कारोबार का एक हिस्सा अब भारतीय अर्थव्यवस्था के संगठित क्षेत्र के दायरे में आ जाएगा. और इससे लंबी अवधि में भारत सरकार को अप्रत्यक्ष करों के माध्यम से मिलने वाला राजस्व बढ़ जाएगा. दूसरी बात ये है कि अर्थव्यवस्था के एक बड़े हिस्से के संगठित क्षेत्र के दायरे में आने के कारण असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों का एक ठोस डेटाबेस बन सकेगा. जिससे वो आगे चलकर सरकार द्वारा चलायी जाने वाली कल्याणकारी योजनाओं का लाभ उठा सकेंगे. मौजूदा संकट के दौरान भारत सरकार ने हर मज़दूर तक मदद पहुंचाने की साफ़ नीयत दर्शाई है. लेकिन, सबसे बड़ी समस्या इस बात की है कि इनमें से ज़्यादातर कामगारों के बारे में सरकार के पास कोई जानकारी ही नहीं है. क्योंकि, इनका कोई व्यापक डेटाबेस नहीं है. जिससे महामारी के दौरान उनकी मदद की जा सके.
असंगठित क्षेत्र के कामगारों की ये चुनौतियां कोई नई नहीं हैं. लेकिन, अबकी बार दिलचस्प बात ये है कि इस महामारी के कारण, सरकार के सामने एक अवसर आया है, जिसमें वो फौरी तौर पर क़दम उठा कर असंगठित क्षेत्र को संगठित अर्थव्यवस्था का हिस्सा बना सके.
इस बात की काफ़ी अधिक संभावना है कि सरकार इस महामारी के दौर में टैक्स के ज़रिए अपना राजस्व बढ़ाने के लिए पुरज़ोर कोशिश करेगी. इसके लिए सरकार असंगठित क्षेत्र पर भी ध्यान देगी. कोविड-19 के माहौल से निश्चित रूप से सरकार को असंगठित क्षेत्र को फॉर्मल सेक्टर में लाने में मदद मिलेगी. अप्रवासी कामगारों से संबंधित डेटाबेस तैयार किया जाएगा, जिससे कि इन मज़दूरों को मुश्किल वक़्त में आसानी से पूंजी उपलब्ध कराई जा सके. हालांकि, इस बदलाव के प्रभाव ऊपरी तौर पर जितने सहज दिखते है, वास्तविकता में वो उतने ही पेचीदा होंगे. भारत जैसे देशों में कारोबारों को संगठित क्षेत्र के दायरे में लाने के अपने नुक़सान हैं. इससे उनकी लागत बढ़ती है. समय अधिक लगता है और जोख़िम भी बढ़ जाता है. सरकार के हर स्तर पर भ्रष्टाचार, क़ानून और व्यवस्था की कमज़ोर स्थिति और टैक्स संबंधी नियमों में अस्पष्टता के चलते संगठित क्षेत्र का हिस्सा बनना, गैरज़रूरी और जोख़िम भरा क़दम लगता है. बहुत से कारोबारी मालिकों के लिए अपने उद्यमों को संगठित क्षेत्र के दायरे में लाने का मतलब होता है, सरकार के गुमशुदा विभागों द्वारा टैक्स की मांगें पूरी करना. जबकि इससे उन्हें अपने लिए कोई लाभ नहीं दिखता. या फिर उन्हें घूस देने को भी मजबूर होना पड़ता है. सरकार के लिए असंगठित क्षेत्र के उद्यमियों को इस सोच से ऊपर उठने और अपने कारोबार को रजिस्टर कराने के लिए राज़ी करना बहुत बड़ी चुनौती होती है. दूसरी बात ये है कि संगठित क्षेत्र में आने के लाभ तो भले ही ज़ाहिर हैं. लेकिन, जो बात स्पष्ट तौर पर नहीं दिखती वो ये है कि जब असंगठित क्षेत्र के कारोबारी, संगठित क्षेत्र का हिस्सा बनते हैं कि उससे अर्थव्यवस्था की पहले से सुस्त रफ़्तार और धीमी होने का डर होता है. तीसरी बात ये है कि हमें इस बात का भी ध्यान रखना होगा कि भारत का 80 प्रतिशत गैर कृषि क्षेत्र का कामकाजी वर्ग, देश की अर्थव्यवस्था के असंगठित क्षेत्र में काम करता है. इसीलिए सरकार को असंगठित क्षेत्र को संगठित अर्थव्यवस्था का हिस्सा बनाने की प्रक्रिया के दौरान बहुत सावधानी से काम लेना चाहिए. असंगठित क्षेत्र के साथ ज़बरदस्ती करके उसे फॉर्मल इकॉनमी का हिस्सा बनाने से बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी फैल सकती है. इससे अर्थव्यवस्था पर बहुत विपरीत प्रभाव पड़ सकता है. कारोबारियों को ज़बरदस्ती संगठित क्षेत्र के दायरे में लाने से जुड़ी इन चिंताओं को देखते हुए सरकार को चाहिए कि वो ऐसे क़दम उठाए, जिनसे असंगठित क्षेत्र को ख़ुद ही रजिस्ट्रेशन कराने के फ़ायदे दिखें और वो इस दिशा में आवश्यक क़दम उठाए. इस परिवर्तन के लिए जब असंगठित क्षेत्र स्वत: क़दम उठा रहे हों, तो सरकार को चाहिए कि वो हाथ आगे बढ़ाकर उनकी मदद करे. यही, सरकार की सबसे बड़ी प्राथमिकता होनी चाहिए. सरकार, असंगठित क्षेत्र को फॉर्मल इकॉनमी के दायरे में लाने की प्रक्रिया के दौरान जो क़दम उठा सकती है, वो कुछ इस तरह हैं-
अर्थव्यवस्था के एक बड़े हिस्से के संगठित क्षेत्र के दायरे में आने के कारण असंगठित क्षेत्र में काम करने वालों का एक ठोस डेटाबेस बन सकेगा. जिससे वो आगे चलकर सरकार द्वारा चलायी जाने वाली कल्याणकारी योजनाओं का लाभ उठा सकेंगे.
-जब सरकार असंगठित क्षेत्र की कंपनियों को रजिस्टर करने के लिए बाध्य करे और उन्हें टैक्स व्यवस्था के दायरे में लाए, तो उसे इस बात पर भी ध्यान देना चाहिए कि वो इन कंपनियों में काम करने वाले मज़दूरों की सुरक्षा के भी पर्याप्त इंतज़ाम करे. सरकार ने जो नया लेबर कोड बनाया है, वो इस दिशा में उठाया गया बिल्कुल सही क़दम लगता है. उदाहरण के लिए सोशल सिक्योरिटी बिल 2020 का कोड और ऑक्यूपेशनल सेफ्टी, हेल्थ ऐंड वर्किंग कंडिशन्स कोड बिल 2020 ख़ास तौर से असंगठित क्षेत्र के कामगारों को सामाजिक सुरक्षा के दायरे में लाएंगे. और उन्हें सरकार की ओर से वो तवज्जो मिलेगी, जिसकी उन्हें बहुत अधिक ज़रूरत है.
हालांकि, उपरोक्त बिंदुओं पर चर्चा करने के साथ साथ यहां ये बात कहना भी ज़रूरी है कि असंगठित क्षेत्र को फॉर्मल इकॉनमी का हिस्सा बनाने का ये काम इतना सहज और सरल नहीं है. ख़ास तौर से इस महामारी के दौर में तो काम और भी मुश्किल हो जाता है. जीएसटी लागू करने और नोटबंदी के दौरान सरकार ने जो अनुभव किया था, वो बहुत अच्छा नहीं रहा था. इससे असंगठित क्षेत्र पर बहुत अधिक असर नहीं पड़ा. ऐसे में असंगठित क्षेत्र पर रजिस्ट्रेशन का बहुत अधिक दबाव बनाना घाटे का सौदा भी हो सकता है. इससे बेरोज़गारी बढ़ सकती है. और मांग में भी गिरावट आ सकती है. ऐसे में असंगठित क्षेत्र को संगठित अर्थव्यवस्था के दायरे में लाने की शुरुआती कोशिशों से अर्थव्यवस्था को झटका लगने का डर है और हालात वैसे ही हो सकते हैं, जैसे हमने नोटबंदी के दौर में देखे थे. इस बात में कोई दो राय नहीं है कि अनौपचारिक अर्थव्यवस्था को संगठित क्षेत्र के दायरे में लाने से सरकार का राजस्व बढ़ेगा. टैक्स देने वालो की तादाद में इज़ाफ़ा होगा और उससे उत्पादकता भी बढ़ेगी. लेकिन, इसकी एक क़ीमत भी चुकानी पड़ सकती है. और ये बोझ असंगठित क्षेत्र के सबसे कमज़ोर तबक़े के कामगारों और कंपनियों पर पड़ने का डर है.
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Rouhin Deb was an Associate Fellow at ORF Kolkata. His research focuses on informal competition strategic choices and international businesses.
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