Author : John C. Hulsman

Published on Aug 13, 2021 Updated 0 Hours ago

शी जिनपिंग की दृष्टि से चीन के सामने मौजूद विकल्पों को देखकर इसी नतीजे पर पहुंचा जा सकता है कि हमें अपनी तैयारी कर लेनी चाहिए फिर स्थितियां चाहे जैसी भी हों.

देश-दुनिया: शी जिनपिंग ले सकते हैं मौजूदा वक़्त का सबसे महत्वपूर्ण रणनीतिक फ़ैसला

परिचय: साम्राज्यवादी जापान की विनाशकारी रणनीतिक चाल

अब इसे बंद करने का कोई तरीक़ा नहीं था, जुलाई 1940 में साम्राज्यवादी जापान की सेना के वर्चस्व वाली सरकार रणनीतिक लिहाज से बेहद मुसीबत में फंस चुकी थी. चीन के ख़िलाफ़ जारी जापान की आक्रामकता से नाराज होकर ताकतवर पश्चिमी मुल्कों ने (अमेरिका, ब्रिटेन और नीदरलैंड) टोक्यो की सैन्य  आक्रामकता पर अंकुश लगाने के लिए इस पर तेल की पाबंदी लगा दी. जापान के पास स्टॉक मौजूद होने के बावजूद यहां के उच्च अधिकारी यह जानते थे कि यह पूरी तरह से खेल बदलने वाला आर्थिक झटका है क्योंकि ये तीनों देश टोक्यो को उसकी कुल ऊर्जा की 90 फ़ीसदी मांग पूरी करते थे. ऐसे में जापान के सामने अपमानजनक विकल्प बस यही बचा था कि वो चीन में अपनी आक्रामकता पर अंकुश लगाए (जिसे लेकर जापान की सरकार ने अपना सबकुछ न्योछावर कर दिया था). अगर जापान ऐसा नहीं करता तो उसकी अर्थव्यवस्था की गति बहुत जल्द ही रुकने वाली थी. एक बेहद गंभीर रणनीतिक विकल्प का चुनाव जापान को जल्द से जल्द करना था.

अमेरिकी तेल को लेकर पाबंदी झेल रहे सैन्य रूप से बेहद आक्रामक टोक्यो के सामने जो विकल्प मौजूद थे: चीन पर अपनी आक्रामकता को और बढ़ा कर पूरे देश को जीत लेना (और इसके संसाधनों पर कब्ज़ा कर लेना), या फिर संसाधन संपन्न (और जिसकी कम सुरक्षा थी) डच ईस्ट इंडीज (आज का इंडोनेशिया) पर हमला करना या फिर पर्ल हार्बर में ताकतवर अमेरिका के सातवें बेड़े को पूरी तरह उखाड़ फेंकना, जिससे कि पैसिफिक क्षेत्र में पूरी तरह से अमेरिका के प्रभाव को ही खत्म किया जा सके. जैसा कि पूरी दुनिया जानती है जापान ने तीसरे विकल्प का चुनाव किया जो बाद में उसके लिए घातक सिद्ध हुआ.

दरअसल इंडो पैसिफिक क्षेत्र में अपने वर्चस्व को साबित करने की बीजिंग की लगातार कोशिशों के चलते चीन अपने ‘पहली द्वीप श्रृंखला’ की घेरेबंदी को लेकर चिंतित है. 

1940 के दशक की शुरुआत में साम्राज्यवादी जापान के लिए जितना सच था आज चीन रणनीतिक लिहाज से उसी स्थिति में पहुंचा हुआ है. शी जिनपिंग की कम्युनिस्ट पार्टी भारी दबाव में खुद को पा रही है, जबकि इसके भय का कारण दुनिया में गतिशील सेना को छोड़कर और कुछ भी नहीं है.

दरअसल इंडो पैसिफिक क्षेत्र में अपने वर्चस्व को साबित करने की बीजिंग की लगातार कोशिशों के चलते चीन अपने ‘पहली द्वीप श्रृंखला’ की घेरेबंदी को लेकर चिंतित है. ताइवान से लेकर जापान और फिलीपींस से पहले दक्षिण में मलक्का स्ट्रेट (इंडोनेशिया, सिंगापुर और मलेशिया के करीब) चीन अपने व्यापारिक और रणनीतिक संभावनाओं को उत्तर में ताइवान स्ट्रेट तक अमेरिका और जापान जैसे देशों और दक्षिण में अमेरिका, मलेशिया, इंडोनेशिया और भारत से ख़तरा महसूस करता है.

पहली द्वीप श्रृंखला के प्रमुख देशों को शामिल करते हुए अमेरिका के नेतृत्व वाली चीन के विरोध में तैयार गठबंधन के हाथों अपने नौ-सैनिक और वाणिज्यिक भू-रणनीतिक घेरेबंदी से बाहर निकलने की चीन की छटपटाहट समझी जा सकती है. जो फिलहाल अमेरिका और चीन के बीच शीत युद्ध की शुरुआत है. इस लिहाज से बीजिंग के लिए पूर्वी एशिया का मुखिया बन पाना लगभग नामुमकिन है. इंडो पैसिफिक और दुनिया में सुपरपावर बनने का ख़्वाब तो चीन फिलहाल छोड़ ही दे.

जैसा कि साम्राज्यवादी जापान के लिए सही था, शी जिनपिंग के लिए मोटे तौर पर तीन रणनीतिक विकल्प मौजूद हैं: पांच देशों से गुजरने वाली बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (बीआरआई), दक्षिण का रास्ता (मलक्का स्ट्रेट), उत्तर का रास्ता (ताइवान स्ट्रेट). शी जिनपिंग ने जिन विकल्पों को चुना है वो ऐतिहासिक हैं और उनकी नजरों में यह बेहद सधी हुई रणनीतिक चाल है.

बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव रूट

शी जिनपिंग के शासन काल में बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव सबसे मजबूत (कम से कम दस्तावेजों में) पहल माना जा रहा है. अपनी विशाल सरप्लस पूंजी और नई दर्ज़ की गई आर्थिक ताकत का चीन ने भू आर्थिक वर्चस्व साबित करने के लिए इस्तेमाल किया है. क्योंकि बीआरआई चीन द्वारा मुहैया कराए गए वित्त से बनने वाला  रेलवे, ऊर्जा पाइपलाइनों, राजमार्गों और बंदरगाहों का एक विशाल नेटवर्क है.

बीआरआई से पहले अब तक 139 देश जुड़ चुके हैं और दूसरे (जिसमें पश्चिम, अमेरिकी समर्थित मुल्क जैसे इटली, पुर्तगाल और न्यूजीलैंड शामिल हैं) भी शामिल हो रहे हैं. सिल्क रूट की अभूतपूर्व सफलता के दम पर शी जिनपिंग अमेरिका और उसके सहयोगियों के ख़िलाफ़ (दूसरे विकल्पों की तरह ही) मोर्चा खोल सकेंगे. अपनी भूगर्भीय भौगोलिक स्थिति की वजह से बीआरआई विकल्प पहली द्वीप श्रृंखला (और अभी भी पहले से अहम अमेरिकी नौसेना) को अप्रासंगिक बना देगा.

दशकों से एक कामयाब और अंतर्निहित बीआरआई एशिया, मध्य पूर्व और यहां तक कि यूरोप के ज़्यादातर हिस्सों में चीन पर आर्थिक निर्भरता का एक व्यापक जाल रच सकता है. क्योंकि बीआरआई के यूरेशियन सहयोगी अपने यहां आधुनिक  ढांचागत व्यवस्था को ठीक करने का मौका तलाश रहे हैं और बीजिंग ऐसे मुल्कों को उम्मीद की रोशनी दिखाने में लगा है.

हजारों मील तक कई देशों की सरकार के साथ चीन के लिए समझौते कर पाना आसान नहीं है. यहां तक कि  विकासशील देशों के लिए भी इससे जुड़े राजनीतिक जोख़िम कम नहीं हैं. जैसा कि इटली में चीन के समर्थन वाली सरकार के सत्ता से बाहर होते ही नजर आया. 

हालांकि, इस विकल्प के साथ जो मुसीबत है वो यह कि शानदार सुर्ख़ियों के अलावा अभी तक इसमें कोई ख़ास बढ़ोतरी नहीं देखी गई है. अव्वल तो यह है कि बीआरआई प्रोजेक्ट में भ्रष्टाचार की आशंका से इंकार नहीं किया जा सकता. उदाहरण के तौर पर मलेशिया में बीआरआई प्रोजेक्ट के लिए निर्गत 7.5 बिलियन अमेरिकी डॉलर की राशि कहां गायब हो गई इसका पता तक नहीं चल  पाया.

दूसरा, बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव को लेकर कहा जा रहा है कि यह दूसरे मुल्कों को कर्ज़ के जाल में फंसाने की चाल है जिसे ‘कर्ज़ में फंसाने की कूटनीति’ भी कहा जा रहा है. क्योंकि जिन देशों को चीन ने अपने यहां ढांचागत व्यवस्था में सुधार लाने के लिए कर्ज़ दिया है अगर यह ऋण ऐसे मुल्क नहीं लौटाते हैं तो चीन उनकी संपत्ति पर कब्ज़ा कर लेगा. इसका सबसे ताजा उदाहरण गरीब श्रीलंका द्वारा 99 सालों के लिए अपने प्रमुख द्वीप हंबनटोटा को चीन को लीज पर देना है. श्रीलंका को ऐसा चीन के कर्ज़ नहीं चुकाने की वजह से करना पड़ा था.

तीसरा, स्थानीय अर्थव्यवस्था को गति देने के विकल्प को छोड़कर चीन बीआरआई रूट के  जरिए अपने यहां के मजदूरों और कर्मचारियों को ही दूसरे मुल्कों की ढांचागत व्यवस्था को सुधारने के लिए इस्तेमाल करता आया है. यहां तक कि चीन स्थानीय मजदूर यूनियनों , मजदूरों से जुड़े कानूनों को धता बता कर स्थानीय लोगों की नाराजगी भी मोल ले रहा है. ऐसे में बीआरआई प्रोजेक्ट को इस रूप में देखा जा रहा है कि चीन इससे  अपने देश के मजदूरों को रोजगार देने और स्थानीय अर्थव्यवस्था की अनदेखी कर रहा है.

चौथा, हजारों मील तक कई देशों की सरकार के साथ चीन के लिए समझौते कर पाना आसान नहीं है. यहां तक कि  विकासशील देशों के लिए भी इससे जुड़े राजनीतिक जोख़िम कम नहीं हैं. जैसा कि इटली में चीन के समर्थन वाली सरकार के सत्ता से बाहर होते ही नजर आया. इटली में सत्ता परिवर्तन होने और परंपरागत सरकार के वहां आते ही मारियो ड्रैगी सरकार ने बीआरआई प्रोजेक्ट को लेकर आशंका जाहिर करनी शुरू कर दी.

ये चारों ही कारण ऐसे हैं जिससे शी जिनपिंग की महत्वाकांक्षी बीआरआई योजना की चमक कम हो गई है. बीआरआई के जरिए चीन का विदेशों में निवेश 47 बिलियन अमेरिकी डॉलर से एक साल में 54 फ़ीसदी घट गया है. दो राय नहीं कि शी जिनपिंग के लिए बीआरआई का  विकल्प मौजूद रहेगा – ख़ासकर तब जबकि कोरोना महामारी के बाद पश्चिमी देशों की अर्थव्यवस्था संकट के दौर से गुजर रही है और चीन इस दौर में आर्थिक ताकत बनता जा रहा है – लेकिन ऐसे कारणों और स्पष्ट समस्याओं के रहते चीन के लिए यह विकल्प फिलहाल बैकअप प्लान की तरह ही रहेगा.

दक्षिण का रास्ता (मलक्का स्ट्रेट)

सबसे ज़्यादा संकरी और वहां महज 2.7 किलोमीटर चौड़ी मलक्का स्ट्रेट एक प्राकृतिक अड़चन है जो पैसिफिक (दक्षिण चीन सागर की ओर से) को हिंद महासागर (अंडमान सागर की ओर से) से अलग कर सकता है. इस स्ट्रेट पर सीधा नियंत्रण सिंगापुर का है जो बहुत पहले से ही अमेरिका का सहयोगी है. यहां कभी भी आसानी से अमेरिकी नौसेना का सातवां बेड़ा भेजा जा सकता है जो इस अवरोध को बंद कर सकता है.

पिछले कई दशकों से जहां चीन दक्षिण चीन सागर के द्वीपों का सैन्यीकरण करने में लगा है तो स्ट्रेट और हिंदमहासागर सागर का क्षेत्र पूरी तरह से अमेरिका/भारतीय नियंत्रण में है. जबकि भारतीय निकोबार द्वीप श्रृंखला इस भू रणनीतिक फायदे के लिए बेहद अहम है. हालांकि, चीन ने थाईलैंड में क्रा नहर बना कर इस स्ट्रेट को पार करने का विचार किया था, लेकिन अमेरिका के इस सहयोगी की सावधानी की वजह से (और सच्चाई यह है कि चीन विरोधी नौसेना नहर के प्रवेश के पास फिर से तैनात की जा सकती है) ऐसा मुमकिन नहीं हो सका.

मलक्का स्ट्रेट की मुश्किल से बीजिंग के लिए बाहर निकलना बेहद ज़रूरी है और सैद्धान्तिक रूप से यह मुश्किल भी नहीं है, लेकिन वास्तविक तौर पर दक्षिण का रास्ता शी जिनपिंग के लिए तीनों विकल्पों में से ज़्यादा बेहतर नहीं होगा. क्योंकि मलक्का चीन की रणनीतिक शक्ति के केंद्र से बेहद दूर है जो इस विकल्प को लॉजिस्टिक सप्लाई के लिहाज से तमाम कठिनाइयों से भर देता है. 

मलक्का स्ट्रेट की मुश्किल से बीजिंग के लिए बाहर निकलना बेहद ज़रूरी है और सैद्धान्तिक रूप से यह मुश्किल भी नहीं है, लेकिन वास्तविक तौर पर दक्षिण का रास्ता शी जिनपिंग के लिए तीनों विकल्पों में से ज़्यादा बेहतर नहीं होगा. क्योंकि मलक्का चीन की रणनीतिक शक्ति के केंद्र से बेहद दूर है जो इस विकल्प को लॉजिस्टिक सप्लाई के लिहाज से तमाम कठिनाइयों से भर देता है. इसके अतिरिक्त इस विकल्प को अंजाम देने में चीन को संभवत: अमेरिका के तमाम सहयोगियों जैसे इंडोनेशिया, मलेशिया, सिंगापुर और यहां तक कि भारत जैसी उभरती शक्ति के अलावा अमेरिका के सातवें बेड़े से भी ख़तरा हो सकता है. लिहाजा बहुत दूर और कठिन दक्षिण के रास्ते का विकल्प चीन के लिए फायदेमंद नहीं कहा जा सकता.

उत्तर का रास्ता (ताइवान स्ट्रेट)

उत्तर का रास्ता भू रणनीतिक लिहाज से ताइवान स्ट्रेट की तरफ से चीन की मुश्किलों को कम कर सकता है. सबसे संकरे इलाके में सिर्फ़ 160 किलोमीटर चौड़े ताइवान स्ट्रेट चीन को प्रजातांत्रिक ताइवान से अलग करता है. यहां दक्षिण के रास्ते की तरह लॉजिस्टिक सप्लाई करने की बाधा भी कम है.

इसके साथ ही यहां अमेरिकी समर्थित शक्तियां अपनी सेना को तुरंत भेज भी नहीं सकती. हालांकि, जापान के डिप्टी प्रधानमंत्री टारो पहले ही यह घोषणा कर चुके हैं कि ताइवान पर चीन अगर किसी तरह का हमला करता है तो टोक्यो इसे ‘अस्तित्व का संकट’ मानेगा और अमेरिका से मदद की गुहार लगाएगा. लेकिन वास्तविकता यही है कि इसके लिए ल़ॉजिस्टिक मदद की ज़रूरत होगी और जंग की हालत में अमेरिका के लिए जापान का साथ देना आसान नहीं होगा.

पहले द्वीप श्रृंखला के चलते चीन की भू-रणनीतिक घेरेबंदी से इतर यह चीन की नौसेना को समंदर में खुले तौर पर उतरने का अवसर प्रदान करता. इतना ही नहीं उत्तर का रास्ता चीन को इसके अलावे भी कई प्रमुख रणनीतिक प्रलोभन देता है. दुनिया भर में सेमीकंडक्टर चिप के उत्पादन में अव्वल ताइवान पर चीन का कब्ज़ा उसे इस बाज़ार को अपनी तरफ मोड़ने का मौका देगा जो उसकी आर्थिक स्थिति को और मजबूती देगा.

लेकिन वर्चस्व की जंग में चीन के ख़िलाफ़ अमेरिका की हार (इससे भी बुरा तो यह होगा कि ताइवान को अमेरिका उसके भरोसे छोड़ इस पूरे क्षेत्र से वापस चला जाए) एक ऐतिहासिक घटना होगी जो पूरे इंडो पैसिफिक क्षेत्र पर असर डालेगा. अमेरिका के सभी सहयोगी देश यही सवाल कर रहे हैं कि – अगर अमेरिका लंबे समय से अपने प्रजातांत्रिक सहयोगी मुल्क ताइवान की सुरक्षा के लिए आगे नहीं आता है, तो आखिर ऐसा क्या है जो अमेरिका को ऐसा करने से रोक रहा है ?

ऐसी परिस्थिति में जबकि अमेरिका के साख का बिखराव हो रहा है तो जिस इंडो पैसिफिक एकता को अमेरिका ने बेहद मुश्किल से तैयार किया वह पूरी तरह ख़त्म हो जाएगा. और तो और भारत, जापान, ऑस्ट्रेलिया, वियतनाम समेत आसियान देश इस निष्कर्ष पर पहुंच सकते हैं कि उनका इस क्षेत्र में चीन जैसी उभरती शक्ति के साथ आना ही बेहतर विकल्प हो सकता है.

साल 2020 में ताइवान राष्ट्रीय सुरक्षा सर्वे में पाया गया कि ताइवान की महज एक फ़ीसदी आबादी चीन के साथ विलय को तैयार है. और अगर किसी भी सूरत में चीन के साथ विलय होना है तो यह बंदूक की बदौलत ही होगा.

इन सभी वजहों से और भौगोलिक निकटता के चलते लॉजिस्टिक सप्लाई का आसान होना  साथ ही अमेरिकी सहयोगियों द्वारा विरोध नहीं करने के चलते उत्तर के रास्ते का चुनाव किया जा सकता है. यही नहीं ताइवान के प्रमुख सेमीकन्डक्टर उद्योग पर चोट करने का विकल्प होने की वजह से शी जिनपिंग के लिए उत्तर का रास्ता ही तार्किक रणनीतिक विकल्प हो सकता है.

निष्कर्ष: चीन-अमेरिकी शीत युद्ध का केंद्र

अगर चीन-अमेरिका के बीच शीत युद्ध को भड़काने में ताइवान की भूमिका है तो हाल के दिनों की घटनाओं को देखकर तो यही कहा जा सकता है कि इस झगड़े का निपटारा शांतिपूर्ण तरीक़े से अब मुमकिन नहीं है. हाँगकाँग पर चीन की आक्रामकता से चीन का ‘एक देश दो व्यवस्था’ की नीति के तहत ताइवान को भी यही इशारा है कि वो भी अपने मुल्क को चीन के साथ मिलाने को तैयार हो जाए. साल 2020 में ताइवान राष्ट्रीय सुरक्षा सर्वे में पाया गया कि ताइवान की महज एक फ़ीसदी आबादी चीन के साथ विलय को तैयार है. और अगर किसी भी सूरत में चीन के साथ विलय होना है तो यह बंदूक की बदौलत ही होगा.

अगले कुछ वर्षों में चीन अपने ‘सलामी स्लाइसिंग’ तरीक़े से ताइवान पर हावी होने की कोशिश करेगा. यह कोशिश सामान्य तौर पर अमेरिका के साथ सीधे टकराव को नज़रअंदाज़ करेगा और चीन जो चाहता है उसकी प्राप्ति कर सकेगा. इसके साथ ही समंदर में अतिक्रमण, साइबर हमले, कूटनीतिक दबाव को संभाल लिया जाएगा. जैसा कि अमेरिकी राष्ट्रपति कैनेडी ने कहा था कि बर्लिन को लेकर अमेरिका और रूस के बीच जारी शीत युद्ध में अमेरिका के दुश्मन अमेरिका को उसके सहयोगियों से अलग करने की कोशिश करेंगे.

साल 2020 में ताइवान राष्ट्रीय सुरक्षा सर्वे में पाया गया कि ताइवान की महज एक फ़ीसदी आबादी चीन के साथ विलय को तैयार है. और अगर किसी भी सूरत में चीन के साथ विलय होना है तो यह बंदूक की बदौलत ही होगा.

अगर अगले पांच से छह सालों के बीच यह दरार नहीं डाला जा सका तो हमलोग वास्तविकता के करीब होंगे – या फिर चीन पहले द्वीप श्रृंखला को लेकर ख़ुद को रणनीतिक रूप से घिरा पाएगा. और अपने वर्चस्व को कायम रखने के लिए चीन भू-रणनीतिक बदलाव करेगा या फिर शी जिनपिंग जंग में शामिल होंगे.

सही में इसे पढ़ने पर सच सा लगता है क्योंकि चीन के पास विकल्पों को लेकर शी जिनपिंग की रणनीति हमें किसी और निष्कर्ष तक पहुंचने नहीं देती है. भविष्य में जो भी घटनाक्रम होता है हमें उसके लिए तैयार रहने की ज़रूरत है. नैतिक यथार्थवाद की ज़रूरतें दुनिया के समझने के लिए है, और फिर इस दृष्टिकोण से दुनिया को बेहतर बनाने की कोशिश होनी चाहिए. जहां तक अमेरिका की बात है तो उसे इंडो पैसिफिक क्षेत्र में अपनी सुरक्षा के साथ साथ अपने सहयोगियों को मजबूत बनाना चाहिए,जो इस क्षेत्र में एक रक्षक का काम करेगा.  इतना ही नहीं यह अमेरिकी नेतृत्व वाले सहयोगी देशों को चीन की आक्रामकता पर अंकुश लगाने में भी सक्षम होगा. अंत में अमेरिका जो कर सकता है वह यह है कि वह अपनी साख का इस्तेमाल एक विश्व व्यवस्था को बनाने में लगा सकता है जिससे इस दुनिया में शांति कायम हो सके.

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