सितंबर 2021 में विश्व बैंक ने अपने प्रतिष्ठित ‘डूइंग बिज़नेस’ रिपोर्ट को रद्द कर दिया. इस रिपोर्ट के ज़रिए देशों को उनके घरेलू व्यापार नियमनों के आधार पर रैंकिंग दी जाती थी. जिस देश में कारोबार का बेहतर और सुधरा हुआ माहौल होता था, उसे इस सूचकांक में ऊंची रैंकिग मिला करती थी. बहरहाल आंकड़ों में गड़बड़ी और हेराफ़ेरी के आरोपों के चलते देशों की रैंकिंग से जुड़ी इस व्यवस्था को बंद कर दिया गया. ऐसे आरोप सामने आए कि रिपोर्ट तैयार करते वक़्त आंकड़ों में जोड़तोड़ के ज़रिए चीन को ऊंची रैंकिंग दिलाने में मदद की गई. आख़िर ऐसे हालात क्यों बन गए कि विश्व बैंक को देशों की रैंकिंग बताने वाली इस क़वायद को बंद करना पड़ा. इस पूरे प्रकरण से जुड़ी परिस्थितियों की ऊपरी तौर पर समीक्षा का जिम्मा अमेरिका स्थित लॉ फ़र्म विल्मरहेल को सौंपा गया. विल्मरहेल ने अपनी जांच के सिलसिले में क़रीब 80 हज़ार दस्तावेज़ों की पड़ताल की. इतना ही नहीं विश्व बैंक के मौजूदा और पूर्व अधिकारियों से पूछताछ भी की गई. फ़र्म ने अपनी अंतिम रिपोर्ट में विश्व बैंक के कुछ शीर्ष अधिकारियों को इन गड़बड़ियों का ज़िम्मेदार बताया. जांच रिपोर्ट के मुताबिक इस कांड से बहुपक्षीय विकास बैंकों (MDBs) की विश्वसनीयता और ईमानदारी पर गहरा संदेह पैदा हो गया है. इतना ही नहीं इस रिपोर्ट में बहुपक्षीय विकास बैंकों पर चीन के बढ़ते राजनीतिक प्रभाव की ओर भी इशारा किया गया है.
जांच रिपोर्ट के मुताबिक इस कांड से बहुपक्षीय विकास बैंकों (MDBs) की विश्वसनीयता और ईमानदारी पर गहरा संदेह पैदा हो गया है. इतना ही नहीं इस रिपोर्ट में बहुपक्षीय विकास बैंकों पर चीन के बढ़ते राजनीतिक प्रभाव की ओर भी इशारा किया गया है.
विल्मरहेल की पड़ताल में 2018 और 2020 के ‘डूइंग बिज़नेस’ रिपोर्ट को लेकर आंकड़ों में किए गए गड़बड़झाले की तहक़ीक़ात की गई. 2018 की रिपोर्ट के प्रकाशन से पहले के घटनाक्रमों से चीन द्वारा अपनी रैंकिंग सुधारने को लेकर अपनाए गए तमाम हथकंडों का खुलासा होता है. रैंकिंग सुधरवाने के लिए चीनी अधिकारियों ने पर्दे के पीछे तमाम तरह के तिकड़मों का सहारा लिया. मिसाल के तौर पर चीनी सरकार के अधिकारी विश्व बैंक के तत्कालीन अध्यक्ष डॉ. जिम योंग किम और तत्कालीन सीईओ डॉ. क्रिस्टलीना जॉर्जिवा से रैंकिंग को लेकर बार-बार अपनी चिंताएं जताते रहे. चीनी अधिकारियों की शिकायत थी कि 2018 की रैंकिंग में उनके देश में उठाए गए आर्थिक सुधारों से जुड़े क़दमों को सटीक रूप से नहीं दर्शाया गया है.
बहरहाल विल्मरहेल की जांच से बेहद गंभीर और चिंताजनक तथ्यों का खुलासा हुआ. आंकड़ों में हेराफ़ेरी से जुड़े इस कांड में विश्व बैंक के अध्यक्ष किम के क़रीबी सहयोगियों और सीईओ जॉर्जिवा और उनकी टीम के लोगों की मिलीभगत होने की बात सामने आई. चीन की रैंकिंग सुधारने के लिए इन सबने मिलकर आंकड़ों में हेराफ़ेरी की थी. विश्व बैंक के अधिकारियों से हुई पूछताछ से पता चला कि जॉर्जिवा तो “चीन की रैंकिंग सुधारने से जुड़े तिकड़मों मे सीधे तौर पर शामिल हो गईं थीं.” इतना ही नहीं उन्होंने विश्व बैंक के तत्कालीन कंट्री डायरेक्टर को “चीन के साथ विश्व बैंक के रिश्तों को बिगाड़ने के लिए” दंडित भी किया था. चीन की रैंकिंग में सुधार दिखाने की इस पूरी क़वायद के तहत आख़िरकार डूइंग बिज़नेस रैंकिंग तैयार करने से जुड़ी पूरी प्रक्रिया में तीन डेटा प्वाइंटों की पहचान की गई. ये थे- कारोबार शुरू करना, टैक्स चुकाना और वैधानिक अधिकार. इनकी नए सिरे से समीक्षा कर चीन की रैंकिंग को 85 से 78 पर ला दिया गया. आंकड़ों का रुख़ एक निश्चित दिशा की ओर मोड़ने के लिए ये पूरी क़वायद की गई. इन तिकड़मों के पीछे “भूराजनीतिक विचारों को समायोजित करने” का मकसद था. इसमें विश्व बैंक की पूंजी बढ़ाने से जुड़ी मुहिम को आगे ले जाने की सोच काम कर रही थी. इत्तेफ़ाक़न, 2018 में इंटरनेशनल बैंक फ़ॉर रिकंस्ट्रक्शन एंड डेवलपमेंट (IBRD) में चीनी शेयरहोल्डिंग में क़रीब एक तिहाई की बढ़ोतरी (4.6 प्रतिशत से 6.01 प्रतिशत) दर्ज की गई. IBRD विश्व बैंक की कर्ज़ प्रदाता शाखा है. ये पूरा घटनाक्रम एक वार्ता प्रक्रिया का परिणाम था. इसके ज़रिए विश्व बैंक ने दुनिया के देशों से मिलने वाली पूंजी में 13 अरब अमेरिकी डॉलर की बढ़ोतरी करवाने में कामयाबी पाई. मध्यम-आमदनी वाले देशों को दिए जाने वाले कर्ज़ों को कम करने से जुड़े सुधारों के बदले विश्व बैंक ने ये पूंजी जुटाई थी. ये नीतिगत तौर पर एक ऐसा बदलाव था जिसका चीन पर भी असर होना तय है. लिहाज़ा इसपर चीन की रज़ामंदी की दरकार थी.
आईएमएफ़ में सियासी दखलंदाज़ी
फ़िलहाल क्रिस्टलीना जॉर्जिवा अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ़) की मैनेजिंग डायरेक्टर हैं. ये एक ऐसा पद है जिसपर बैठे शख़्स को तमाम ज़िम्मेदारियों के साथ-साथ आईएमएफ़ को सियासी दख़लंदाज़ियों से बचाने का ज़िम्मा भी निभाना होता है. ग़ौरतलब है कि जॉर्जिवा ने जांच रिपोर्ट से असहमति जताते हुए सभी आरोपों का खंडन किया है. आगे भी वो आईएमएफ़ के मैनेजिंग डायरेक्टर पद पर बनी रहेंगी. आईएमएफ़ के एक्ज़ीक्यूटिव बोर्ड के पास इन आरोपों पर पुनर्विचार करने की ज़िम्मेदारी थी. बहरहाल उसने एक बयान जारी कर कहा है कि रिपोर्ट से “पक्के तौर पर ये ज़ाहिर नहीं होता” कि जॉर्जिवा ने कोई “अनुचित भूमिका” निभाई थी. इतना ही नहीं बोर्ड ने उनके नेतृत्व पर पूरा भरोसा होने की बात भी दोहराई. ख़बरों के मुताबिक अमेरिका और जापान जॉर्जिवा को पद से हटाने की हिमायत कर रहे थे, लेकिन यूरोप की तमाम दूसरी ताक़तों ने आईएमएफ़ के साथ उनका जुड़ाव जारी रखने के प्रति समर्थन जता दिया. अमेरिका प्रशासन इस पूरे वाक़ये से नाख़ुश चल रहा है. अमेरिकी वित्त मंत्री जेनेट येलेन लगातार जॉर्जिवा के साथ फ़ोन पर बातचीत करने से मना करती आ रही हैं.
विश्व बैंक में आंकड़ों में हेरफ़ेर किए जाने से जुड़े इस पूरे विवाद ने अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संगठनों की ईमानदारी, विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर सवालिया निशान लगा दिए हैं. ये हालात बहुपक्षीय विकास बैंकों और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों (IFIs) के लिए ख़ासतौर से चिंताजनक हैं.
विश्व बैंक में आंकड़ों में हेरफ़ेर किए जाने से जुड़े इस पूरे विवाद ने अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संगठनों की ईमानदारी, विश्वसनीयता और निष्पक्षता पर सवालिया निशान लगा दिए हैं. ये हालात बहुपक्षीय विकास बैंकों और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों (IFIs) के लिए ख़ासतौर से चिंताजनक हैं. दरअसल ऐसी संस्थाएं अपनी बाक़ी आर्थिक गतिविधियों के साथ-साथ कई प्रकार की रिपोर्ट प्रकाशित करती हैं. दुनिया के देश अपनी घरेलू नीतियों के प्रति बाहरी लोगों की धारणा, उन नीतियों की लोकप्रियता और उनके प्रभावों के आकलन के लिए मोटे तौर पर इन्हीं रिपोर्टों का सहारा लेते हैं. निश्चित तौर पर कुछ विश्लेषक इन रिपोर्टों को तैयार करने से जुड़ी कार्यप्रणाली (methodology) के औचित्य और उनके सटीक होने न होने को लेकर सवाल खड़े करते रहे हैं. बहरहाल आंकड़ों की ईमानदारी और सच्चाई को अतीत में शायद ही कभी कोई चुनौती दी गई थी.
अंतरराष्ट्रीय संगठनों में सियासी दख़लंदाज़ियों का वाक़या नया नहीं है. बहुपक्षीय संगठनों में अमेरिका की भूमिका और प्रभावों की पड़ताल को लेकर शैक्षणिक जगत में काफ़ी काम हुआ है. मिसाल के तौर पर 2003 में “US Hegemony and International Organizations” नाम की क़िताब में दो टूक कहा गया था कि विश्व व्यवस्था में अमेरिका के विशेष स्थान को देखते हुए बहुपक्षीय संस्थाएं “प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से अमेरिकी विचारों और क्रियाओं के दायरे” के भीतर ही काम करते रहेंगे. वैसे तो अंतरराष्ट्रीय संगठनों का बुनियादी लक्ष्य स्वतंत्र और निष्पक्ष होकर कामकाज करना होता है. हालांकि, हक़ीक़त की दुनिया में सब ये स्वीकार करते हैं कि दुनिया के ताक़तवर देश बहुपक्षीय संस्थाओं को अपना उल्लू सीधा करने के हिसाब से इस्तेमाल करते हैं. अमेरिका दुनिया के तमाम बहुपक्षीय संगठनों और वित्तीय संस्थाओं (ब्रेटन वूड्स संस्थाओं समेत) का मुख्य निर्माता रहा है. लिहाज़ा दूसरे देशों के मुक़ाबले सबसे ज़्यादा अमेरिका ने इन संगठनों का इस्तेमाल अपना मतलब साधने के लिए किया है. दरअसल इस पूरे मसले के पीछे इन बहुपक्षीय विकास बैंकों के भीतर निर्णय लेने की प्रक्रिया में व्याप्त असंतुलन का हाथ रहा है. भारत समेत कई देश लगातार कई वर्षों से इन संस्थाओं में वोट शेयर से जुड़े सुधारों और कोटे में बढ़ोतरी की अपील करते आ रहे हैं.
दरअसल, चीन बहुपक्षीय विकास बैंकों के लिए कोर शेयर पूंजी के अलावा भी वित्तीय संसाधनों का जुगाड़ करता है. इस क़वायद के पीछे चीन का मकसद इन संस्थाओं में अपनी मौजूदगी और दबदबा बढ़ाना है. इससे इन बहुपक्षीय विकास बैंकों के प्रशासनिक ढांचे में चीन के इज़्ज़त और बौद्धिक ताक़त में इज़ाफ़ा होता है.
वैश्विक मंच पर चीन की जोड़-तोड़
बहरहाल विश्व बैंक में आंकड़ों के हेराफ़ेरी से जुड़े इस पूरे विवाद से दुनिया में एक नए किस्म का बदलाव भी देखने को मिला है. दुनिया में पहले से बने हालात बदल रहे हैं. बहुपक्षीय विकास बैंकों पर अमेरिका का प्रभाव लगातार कम होता जा रहा है. एक आर्थिक महाशक्ति के रूप में चीन के उभरने और आगे बढ़ने से इन बहुपक्षीय विकास बैंकों पर अमेरिकी दबदबे को सीधी चुनौती मिल रही है. ODI ने एक ताज़ा रिपोर्ट में विकास वित्त और वैश्विक आर्थिक प्रशासन में चीन की बढ़ती भूमिका पर विस्तृत विश्लेषण प्रस्तुत किया है. रिपोर्ट में चीन के दर्जे में आए बदलाव को रेखांकित किया गया है. अब चीन कर्ज़ लेने वाले (देनदार) देश से आगे निकलकर कर्ज़ मुहैया कराने वाला (लेनदार) देश बन गया है. रिपोर्ट के मुताबिक चीन को ये मालूम है कि बहुपक्षीय विकास बैंक उसके “भू-राजनीतिक एजेंडे” को आगे बढ़ाने के लिए “बेशक़ीमती औज़ार” के तौर पर काम कर सकते हैं. चीन को पता है कि इन क़वायदों के ज़रिए वो बहुपक्षीय विकास बैंकों के प्रशासन, उनके फ़ैसलों और विकास से जुड़ी प्राथमिकताओं पर अपना प्रभाव बढ़ा सकता है.
ODI की रिपोर्ट में चीन द्वारा अपनाई जाने वाली विभिन्न रणनीतियों का अध्ययन किया गया. ख़ासतौर से इनमें से एक हथकंडे का विस्तार से ज़िक्र किया गया है. दरअसल, चीन बहुपक्षीय विकास बैंकों के लिए कोर शेयर पूंजी के अलावा भी वित्तीय संसाधनों का जुगाड़ करता है. इस क़वायद के पीछे चीन का मकसद इन संस्थाओं में अपनी मौजूदगी और दबदबा बढ़ाना है. इससे इन बहुपक्षीय विकास बैंकों के प्रशासनिक ढांचे में चीन के इज़्ज़त और बौद्धिक ताक़त में इज़ाफ़ा होता है. इतना ही नहीं इससे “अनौपचारिक तौर पर चीन का प्रभाव भी बढ़ता है“.
चीन के उभार के साथ ही वैश्विक आर्थिक प्रशासन में उसकी भूमिका और प्रभाव में बढ़ोतरी होना तय था. विश्व बैंक में आंकड़ों से जुड़ी हेराफ़ेरी इस बात की जीती जागती मिसाल है. चीन विश्व मंच पर खुद को एक अहम किरदार के तौर पर पेश करना चाहता है. वो वैश्विक आर्थिक प्रशासन में अपने लिए एक बड़ी भूमिका की तलाश में है. बहरहाल, इस पूरे प्रकरण का बहुपक्षीय विकास बैंकों और अंतरराष्ट्रीय वित्तीय संस्थानों की प्रतिष्ठा और मज़बूती पर दीर्घकालिक प्रभाव पड़ा है. अब इस मसले पर आत्ममंथन और बारीकी से छानबीन किए जाने की ज़रूरत है. इस पूरे वाक़ये में क्या ग़लत हुआ, इसकी तहक़ीक़ात ज़रूरी है. भविष्य में इन बहुपक्षीय विकास बैंकों को बाहरी तौर पर चोरी-छिपे प्रभावित करने वाले कारकों से बचाने के लिए और क्या-क्या किया जा सकता है, इसपर विचार करना ज़रूरी हो गया है. आंतरिक प्रशासकीय ढांचे में सुधार, नैतिक मूल्यों वाले तौर-तरीक़ों का पालन और पारदर्शिता और जवाबदेही पर आधारित ढांचों के निर्माण से आगे का रास्ता निकल सकता है.
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