Published on May 22, 2019 Updated 0 Hours ago

श्रीलंका की घटना ने बांग्लादेश में सुरक्षा की स्थिति को और अधिक चिंताजनक बना दिया है, जिसके बाद देश में पुलिस द्वारा आतंकवादियों के खिलाफ़ अभियान चलाए गए.

राजनीति पर नियंत्रण, लेकिन इस्लामी चरमपंथ और कूटनीति के भंवर में फंसा बांग्लादेश!

पिछले कुछ समय में बने तनावपूर्ण हालातों के बाद अब धीरे-धीरे बांग्लादेश में शांति और सुकून का माहौल लौटने लगा है. पिछले साल गठित किए गए जटिया ओकाया फ्रंट या राष्ट्रीय एकता मोर्चे के साथ एक हिस्से के रूप में शामिल बांग्लादेश नेश्नलिस्ट पार्टी (बीएनपी) और गानो फोरम के क़ानून बनाने वाले मुट्ठी भर लोगों ने मिलकर इस बात को अंजाम तक पहुंचाया है. दिसंबर के चुनाव में सत्तारूढ़ अवामी लीग को चुनौती देने और संसद में शामिल होने के लिए इस मोर्चे का गठन किया गया था. हालांकि, मौजूदा सत्तारूढ़ पार्टी की सरकार जो कि जनवरी 2009 से निर्बाध सत्ता पर काबिज है, एक विजयी मूड में है, और इनका इस तरह खुश होना लाज़मी भी है, वो चुनावों के बाद से वैश्विक समुदाय को यह विश्वास दिलाने में व्यस्त है कि उसने ये चुनाव एकदम ईमानदार और सही तरीके से जीता है. बेशक, इस बात से इस तथ्य को नकारा नहीं जा सकता है कि स्थानीय और विदेशी चुनावी पंडितों/जानकारों के ज़ेहन में यहां की चुनाव प्रणाली और इसकी विश्वसनीयता के बारे में कई सवाल भी पैदा हुए, क्योंकि उनकी जानकारी के मुताबिक मतदान से पहले विपक्ष को चुनाव में प्रचार-प्रसार करने के लिए खुला और स्वतंत्र वातावरण नहीं मिल पाया था.

बहरहाल, अब विपक्षी सांसदों, बीएनपी के महासचिव मिर्ज़ा फख़रूल इस्लाम आलमगीर को अलावा, उनके दलों के अन्य नेताओं के द्वारा सदन में शामिल नहीं होने से पहले लिए गए फ़ैसले को बदल कर सांसद पद की शपथ ली गई है. इसके बाद बाद ऐसा लगता है कि बांग्लादेश की इस नवनिर्वाचित संसद या ‘जातीय शोंग्षद’ ने सत्ता का वो स्वरूप हासिल कर लिया है जिसके लिए पिछले काफी समय से अवामी लीग काम कर रही थी. ऐसे देश में जहां ऐतिहासिक रूप से विपक्ष की आवाज़ को काफी हद तक विधायिका में नजरअंदाज़ किया गया है, यह देखा जाना दिलचस्प होगा कि इन सांसदों का, जिनकी संख्या गिनती में सात हैं, का संसदीय कार्यवाही पर अगर कोई प्रभाव पड़ता भी है तो किस तरह का पड़ेगा. लेकिन, इसी बात के मद्देनज़र यह भी याद रखना चाहिए कि वे 300 सीटों वाली कानून बनाने वाली संस्था का हिस्सा हैं (और यहाँ ध्यान रखने योग्य बात यह है कि इस संख्या में सदन में प्रतिनिधित्व कर रही पार्टियों की आनुपातिक ताकत के माध्यम से चुनी गई महिलाओं के लिए आरक्षित 50 सीटों को ध्यान में नहीं रखा गया है). वैसे अगर देखा जाए तो, वर्तमान संसद कुछ हद तक उस स्थिति की याद दिलाती है जो मार्च 1973 में स्वतंत्र बांग्लादेश में हुए पहले आम चुनाव के बाद उभरी थी. उस समय, सत्तारूढ़ अवामी लीग, जिसने समूचे देश को 1971 में पाकिस्तान के खिलाफ युद्ध के मैदान में जीत के लिए प्रेरित किया था, उसने अन्य सभी दलों का सूपड़ा साफ़ करते हुए कुल 300 में से 297 सीटों पर अपना कब्ज़ा जमाया था और भारी मतों से विजयी होकर घर वापसी की थी.

वैसे, अगर थोड़ा ध्यान देकर देखा जाए तो ऐसा लगता है मानों देश में सियासत फिलहाल, काफी आराम की स्थिति में है. पूर्व सैन्य शासक हुसैन मुहम्मद इरशाद की जैतिया पार्टी, जो पिछले संसद में विपक्ष और सत्तारूढ़ पार्टी, दोनों के सहयोगी दलों के उत्सुक मिश्रण का एक हिस्सा रही है, वो भी साफ़ तौर पर इस बदलाव को महसूस कर पा रही है. दिसंबर में हुए आम चुनाव में अवामी लीग के नेतृत्व वाले गठबंधन को जनरल इरशाद की जैतिया पार्टी के समर्थन की बदौलत सदन में 300 में से 288 सीटें हासिल हुई थी, उसी जेपी दल ने जब ये घोषणा की कि वो संसद में विपक्ष की भूमिका निभाएगी तो आम जनता को इस घोषणा के मद्देनज़र यह यकीन कर पाना मुश्किल हो रहा है कि पार्टी वास्तव में ये भूमिका निभाने में सक्षम होगी भी या नहीं. ऐतिहासिक रूप से, जिन दो राजनीतिक दलों ने विपक्ष में मुखर भूमिका निभाई है, और जिन्होंने उस वक़्त प्राप्त जिम्मेदारियों को बख़ूबी निभाया है और जो समय की कसौटी पर खरे भी उतरें हैं वो दो दल निश्चित तौर अवामी लीग और बीएनपी रहे हैं. अब, चूंकि बीएनपी की हालत उनकी नेता ख़ालिदा जिया के जेल में होने की वजह से और बेग़म ज़िया के उत्तराधिकारी तारीक़ ज़िया के क़ानून से बचने के लिए लंदन भाग जाने की वजह से वैसे ही काफी चिंताजनक है, तो ऐसे हालात में मौजूदा संसद में विपक्ष की भूमिका निभाने के लिए इस समय कोई भी योग्य नेता नज़र नहीं आ रहा है. और इसी के साथ ये भी एक सत्य है कि जनता के बीच बीएनपी बेहद मशहूर है और आम जनता का जितना प्यार और साथ बीएनपी को हासिल हुआ है उसके मुक़ाबले इरशाद की जेपी कहीं पीछे नज़र आती है. वैसे भी, अब जब इरशाद अपने गिरते स्वास्थ्य के मद्देनज़र अपने छोटे भाई जी. एम. क़ादर के हाथ में अपनी पार्टी की कमान सौंपने का मन बना चुके हैं तो ऐसे में उनके दल से ये अपेक्षा रखना कि वो एक कामयाब और असरदार विपक्ष की भूमिका का निर्वहन करेगा, थोड़ा ज़्यादा लगता है.

वैसे तो प्रधानमंत्री शेख़ हसीना की सरकार के कार्यकाल में बांग्लादेश की संसद सुचारु रूप से अपने काम को अंजाम दे रही है, लेकिन इसके बावजूद भी इस समय ऐसे और भी कई बेहद संवेदनशील मुद्दे हैं जिन पर निकट भविष्य में ध्यान देने के साथ ही उन्हें निपटाने की भी बहुत ज़रूरत है. श्रीलंका में इस्लामिक आतंकवादियों द्वारा ईस्टर संडे पर किए गए आतंकवादी हमलों ने बांग्लादेश में अपनी अंदरुनी सुरक्षा के मद्देनज़र चिंताओं को एक नए सिरे से बढ़ा दिया है और सरकार को सावधान होने की ज़रूरत भी है ताकि किसी भी तरह के आतंकवादी संगठन द्वारा आने वाले भविष्य में उन पर हमला करने की कोई योजना न बनाई जा सके.

श्रीलंका की घटना ने बांग्लादेश में सुरक्षा की स्थिति को और अधिक चिंताजनक बना दिया है और श्रीलंका में हुई इस त्रासदी के कुछ दिनों के भीतर ही पुलिस द्वारा आतंकवादियों के खिलाफ़ अभियान चलाए गए, जिनमें कुछ ऐसे कथित रूप से पहचाने गए आतंकवादियों की मौत हो जाती है जो पुलिस के सामने आत्मसमर्पण करने के बजाय खुद को उड़ा लेते हैं. इस हमले में मारे गए लोगों में बच्चे भी शामिल थे. इसके बाद अल-मर्सलत नाम के एक गुमनाम से आतंकी संगठन द्वारा ‘आमरा आश्ची’ यानि ‘हम आ रहे हैं’, इस तरह लिखे हुए अशुभ और डरावने संदेश सोशल मीडिया पर वायरल किये गए, जिनका साफ़तौर पर एक ही मतलब था कि ये संगठन आतंकी गतिविधियों को अंजाम देने के लिए बांग्लादेश आ रहा है. वैसे भी, 2016 में होले आर्टिसन बेकरी में हुए आतंकी हमले की घटना के बाद से, जिसमें काफी तादाद में आम लोग मारे गए थे, बांग्लादेश की सुरक्षा एजेंसियां इस तरह के वायरल हुए संदेशों को कतई तौर पर हल्के में नहीं ले रही हैं. इन तीन वर्षों में, लगातार अलर्ट की स्थिति में रहने की वजह से बांग्लादेश की सुरक्षा रणनीति काफी सचेत हो चुकी है. लेकिन, इसके साथ ही सरकार को अपने बीच दोस्त के रूप में मौजूद दुश्मनों को और कट्टरपंथी ताकतों से भी निपटना ज़रूरी है क्योंकि ऐसी कई कट्टरपंथी ताकतें देश में मौजूद हैं जो फ़ौरी तौर पर तो सरकार के साथ शांति बना कर चल रह हैं, जैसे कि – हेफ़ाज़त-ए-इस्लाम नाम का मध्ययुगीन कट्टरपंथी संगठन, जो कि सरकार के साथ अपनी शांति के बावजूद, देश में धर्मनिरपेक्ष राजनीति के खिलाफ काम कर रहा है और आम लोगों के बीच अशांति और असंतोष का वातावरण बना रहा है.

विदेश नीति के क्षेत्र में, सरकार ने निश्चित रूप से चीन के बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव के ज़रिये अपनी अंतर्राष्ट्रीय पहचान बनाने में एक प्रमुख़ कदम उठाया है. कुछ हफ़्ते पहले, प्रधानमंत्री के अंतर्राष्ट्रीय मामलों के सलाहकार, गौहर रिज़वी ने यह बताया था कि बांग्लादेश BRI का स्वागत करती है क्योंकि ये एक ऐसा माध्यम है जिसके ज़रिये अब देश अपने पड़ोसियों के साथ अपने संबंधों को एक नए तरीके से फिर से परिभाषित कर सकता है. पिछले कुछ वर्षों में, BRI पर चीनियों को रोकने के बावजूद, हसीना सरकार अधिक संतुलित विदेश नीति की खोज में लगी हुई है. अब तक बीजिंग और दिल्ली दोनों के साथ इसके संबंध कमोबेश उलझे हुए हैं, लेकिन ये तो साफ़ तौर पर समझा ही जा सकता है कि बीआरआई के इस कदम ने भारतीय खेमे को खुश नहीं किया होगा. बहरहाल, बांग्लादेश को, अपनी विदेश नीति के लिए और अपने आर्थिक भविष्य के हित में BRI से जुड़ना होगा लेकिन इसके साथ ही कर्ज के जाल से भी खुद को बचाना जरूरी है.

अन्यथा वो भी श्रीलंका, पाकिस्तान, जिबूती, मालदीव जैसे कर्ज़दार देशों की सूची में शुमार हो जाएगा. एक ऐसी अर्थव्यवस्था जो की प्रगति के संकेत दिखा रही है, उसके लिए खुद को बहस और अलगाव की स्थिति से बचा कर चलना ज़रुरी है. अगर ढाका, चीन के साथ नजदीकियां बढाता है तो ये उसके लिये घरेलू स्तर और क्षेत्रीय स्तर पर नुकसानदायक साबित हो सकता है. हसीना सरकार इस बात से अनजान नहीं है. और इसके साथ ही वो यह भी जानती है कि इसे एक ऐसी विश्वसनीय रणनीति की आवश्यकता है जो इसके आर्थिक और राजनयिक मसलों को किसी भी संभावित भेद्यता से मुक्त रखेगी. स्थानीय राजनीति को अब अपने प्रभावी नियंत्रण में रखने के साथ ही, बांग्लादेश सरकार को अपने सीमाओं से परे दुनिया को देखने की ज़रूरत होगी.

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