Author : Satish Misra

Published on Jun 03, 2019 Updated 0 Hours ago

यह कोई छिपी बात नहीं है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसका बड़ा हिंदूत्ववादी परिवार गांधी-नेहरु परिवार से घृणा करता है. इस फेहरिस्त में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी शामिल हैं.

वजूद और प्रासंगिकता के दोहरे संघर्ष से जूझ रही है कांग्रेस पार्टी

हाल ही में संपन्न हुए आम चुनावों में अब तक के सबसे ख़राब चुनावी प्रदर्शन के बाद, कांग्रेस अपने 134 सालों के इतिहास में अपने ऊपर उठते हुए प्रश्न और अस्तित्व पर गहराते संकट से जूझ रही है. इस निराशाजनक परिणाम से एक ओर तो देश की सबसे पुरानी पार्टी के नेस्तानाबूद होने का ख़तरा है वहीं दूसरी ओर ये भी हो सकता है कि कांग्रेस पार्टी इस संकट भरे दौर से  प्रेरणा लेते हुए देश में उभरते हुए नए राजनीतिक परिदृश्य में प्रासंगिक बने रहने की क़वायद में ख़ुद को   बदलने के लिए मज़बूती से आगे आ पाए, इसकी भी संभावना है.

लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के ख़राब प्रदर्शन पर जो भी  विश्लेषण हो रहा है उसे देखते हुए, ये ज़रूरी है कि कांग्रेस पार्टी  जनता के बीच अपनी घटती अपील और स्वीकार्यता पर विचार करे.  कांग्रेस ने 421 उम्मीदवारों को चुनाव में उतारा था जो केवल 52 सीटों पर ही जीत हासिल कर सकी है. यह 2014 के आम चुनावों में हासिल 44 सीटों की संख़्या  से मामूली तौर पर ही बेहतर है. इसकी कुल जीती हुई सीटों का लगभग 60 प्रतिशत तमिलनाडु, केरल और पंजाब जैसे राज्यों से आयी है.

लोकसभा चुनावों में कांग्रेस के ख़राब प्रदर्शन पर जो भी  विश्लेषण हो रहा है उसे देखते हुए, ये ज़रूरी है कि कांग्रेस पार्टी  जनता के बीच अपनी घटती अपील और स्वीकार्यता पर विचार करे.

‘हिंदी हार्टलैंड’ यानि हिंदी भाषी राज्यों जैसे – उत्तरप्रदेश, मध्यप्रदेश, राजस्थान, छत्तीसगढ़, बिहार, झारखंड, हरियाणा- वो राज्य हैं जहां  प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के नेतृत्व में  बीजेपी की जीत  निश्चित हुई है. इन राज्यों में कांग्रेस की उपस्थिति  न के बराबर है.

इस चुनाव में कांग्रेस ने 52 सीटों पर जीत हासिल की, 196 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही और बाकी सीटों पर तीसरा या उससे नीचे का स्थान हासिल हुआ.  गौरतलब है कि, कांग्रेस ने उन निर्वाचन क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन किया, जिनमें गैर-हिंदू मतदाताओं का वर्चस्व है.  गैर-हिंदू मतदाताओं को बहुसंख्यक जनता और राष्ट्रीय स्वंयसेवक संघ की विचारधारा के असर के कारण अब कहीं न कहीं अलग-थलग भी माना जाने लगा है. वोट प्रतिशत के संदर्भ में, कांग्रेस ने केवल पुडुचेरी (56.3 प्रतिशत) में 50 प्रतिशत से अधिक वोट पाए हैं. इसकी तुलना में, भाजपा ने 17 राज्यों में यह उपलब्धि हासिल की है. छत्तीसगढ़, मेघालय, गोवा, नागालैंड, लक्षद्वीप और अंडमान निकोबार द्वीप जैसे राज्यों जहां कांग्रेस ने 40 प्रतिशत से अधिक सीटें प्राप्त की हैं, को छोड़कर, बाकी राज्यों में इसका वोट शेयर देश के सबसे बड़े राज्य उत्तर प्रदेश की तरह ही कम है, जहां यह केवल 6.3 प्रतिशत वोट ही प्राप्त कर सकी है.

इस चुनाव में कांग्रेस ने 52 सीटों पर जीत हासिल की, 196 सीटों पर दूसरे स्थान पर रही और बाकी सीटों पर तीसरा या उससे नीचे का स्थान हासिल हुआ.  गौरतलब है कि, कांग्रेस ने उन निर्वाचन क्षेत्रों में अच्छा प्रदर्शन किया, जिनमें गैर-हिंदू मतदाताओं का वर्चस्व है.

मध्यप्रदेश, राजस्थान और छत्तीसगढ़ जैसे राज्यों में भी, जहां कांग्रेस ने नवंबर-दिसंबर 2018 में विधानसभा चुनाव जीते थे, उसे कुल 65 सीटों में से केवल 4 सीटें ही मिल सकीं हैं. पार्टी के लिए सबसे बड़ा झटका इसके अध्यक्ष राहुल गांधी की हार है, जो अमेठी की अपनी संसदीय सीट हार गए. अमेठी का लोकसभा क्षेत्र लगभग चार दशकों तक कांग्रेस का पारिवारिक गढ़ माना जाता रहा है, जहां से वह लगातार जीतती चली आ रही थी.

उपर्युक्त पृष्ठभूमि पर मंथन करने के बाद  यह निष्कर्ष सामने आता है कि पांच दशक से अधिक समय तक सत्ता में रही कांग्रेस के सामने एक बार फिर  से खुद को स्थापित करने एवं जनता के भरोसे को हासिल करने के लिए  कड़ी मेहनत करने की  ज़रूरत है. इसलिए जब तक इस दिशा में एक सुनियोजित दीर्घकालिक योजना को  लागू नहीं किया जाता है, कांग्रेस के लिए दोबारा सत्ता में आना नामुमकिन नहीं तो आसान भी नहीं है.

हालांकि, पार्टी के लिए चुनौतियां वैचारिक और संरचनात्मक दोनों ही स्तरों पर बनी हुई हैं, परंतु इसका सामना करने के लिए पुख़्ता  तैयारी किए जाने की ज़रूरत है.  किसी भी रूप में दी गई हल्की प्रतिक्रिया कांग्रेस के अस्तित्व को ख़तरे में डाल सकती है.  सच्चाई ये है कि हिंदूत्ववादी ताकतों के राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय परिदृश्य में बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करने के लिए एक प्रभावी एवं स्वीकृत   विवरण गढ़ने के साथ-साथ गहरे पुनर्विचार और  आत्म-निरीक्षण की आवश्यकता है. ये हिंदूत्ववादी शक्तियां स्वतंत्रता संग्राम की गांधीवादी-नेहरूवादी विरासत को धीरे-धीरे कम करने और अंतत: समाप्त करने के लिए दृढ़ संकल्प हैं.

सच्चाई ये है कि हिंदूत्ववादी ताकतों के राष्ट्रीय एवं क्षेत्रीय परिदृश्य में बढ़ते प्रभाव का मुकाबला करने के लिए एक प्रभावी एवं स्वीकृत   विवरण गढ़ने के साथ-साथ गहरे पुनर्विचार और  आत्म-निरीक्षण की आवश्यकता है.

पार्टी को अपनी पहुंच  को व्यापक करना होगा और उसे मौजूदा दायरे के बाहर फैलाना होगा. इसके लिए उन विचारकों और दार्शनिकों को साथ लाना होगा जिनको सनातन धर्म और उसके फलसफ़े की गहरी पकड़ और समझ है. यहां यह कहना  ज़रूरी हो जाता है  कि इस सनातन-धर्मी सोच ने सदियों से भारत की नियति को निर्देशित किया है और राष्ट्र की सामूहिक स्मृति को वर्तमान स्वरूप देने में महत्वपूर्ण  भूमिका निभाई है.

सत्तारूढ़ आरएसएस-भाजपा और उनकी समर्थक मीडिया द्वारा कांग्रेस पर वंशवाद की राजनीति करने का आरोप लगाया जा रहा है. देश की सबसे पुरानी (द ग्रैंड ओल्ड पार्टी) के लिए विकल्प सीमित जरूर हैं परंतु बंद नहीं हुए हैं. कांग्रेस अध्यक्ष राहुल गांधी पिछले 4-5 वर्षों से लगातार संघ के बढ़ते प्रभाव एवं गांधीवादी सोच एवं नेहरुवादी  नीतियों को ध्वस्त करने की योजना के प्रति लोगों को आगाह करते रहें हैं.

वंशवाद के मुद्दे पर, कांग्रेस के पास राहुल गांधी की जगह लेने का विकल्प है, जो चुनाव में मिली हार की ज़िम्मेदारी लेते हुए पद छोड़ने के लिए दृढ़ संकल्पित दिखते हैं. परंतु, सच्चाई ये है कि पार्टी में शायद ही कोई ऐसा नेता है, जिसके पास राहुल गांधी या  गांधी परिवार के अन्य सदस्यों के समान अखिल भारतीय छवि या राष्ट्रव्यापी अपील हो. पार्टी के नेतृत्व के लिए केवल एक ऐसे व्यक्ति पर भरोसा किया जा सकता है, जिसकी वैचारिक साख़ बिना किसी संदेह के ठोस  हो.

कांग्रेस के लिए राहुल गांधी का विकल्प तलाशने की तुलना में अधिक महत्वपूर्ण यह है कि वो अपनी वैचारिक स्पष्टता को उस समय परिभाषित करे जब जनता में हिंदुत्व के प्रति रुझान और आकर्षण बढ़ रहा है और आरएसएस-भाजपा देश की शासन प्रणाली के सभी आयामों को नियंत्रित कर रही है. इतना ही नहीं, कुछ क्षेत्रीय दल हिंदुत्ववादी विचारधारा के पीछे निहित दर्शन का समर्थन नहीं करते हुए भी सत्ता में आंशिक हिस्सेदारी के लिए इसके पक्ष में खड़े दिखाई दे रहे हैं, जिससे कांग्रेस को मिल रही चुनौती और भी बड़ी हो गई है.

कुछ क्षेत्रीय दल हिंदुत्ववादी विचारधारा के पीछे निहित दर्शन का समर्थन नहीं करते हुए भी सत्ता में आंशिक हिस्सेदारी के लिए इसके पक्ष में खड़े दिखाई दे रहे हैं, जिससे कांग्रेस को मिल रही चुनौती और भी बड़ी हो गई है.

‘भारत’ की जिस संकल्पना को कांग्रेस ने स्वतंत्रता संग्राम से लेकर स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद के सात दशकों के दीर्घ अंतराल में गढ़ा था और अनुपालन किया था, उसकी प्रासंगिकता आज क्षीण पड़ चुकी है. बहुसंख्यक हिंदू समुदाय के बड़े हिस्से को यह दशकों से चली आ रही संकल्पना स्वीकार्य नहीं है. बल्कि इसे एक स्वप्निल आश्वासन ने प्रतिस्थापित कर दिया है कि एक सशक्त हिंदू भारत ही सभी निवासियों विशेषकर हिंदुओं के लिए गौरव और समृद्धि ला सकता है.

यह कोई छिपी बात नहीं है कि राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ और उसका बड़ा हिंदूत्ववादी परिवार गांधी-नेहरु परिवार से घृणा करता है. इस फेहरिस्त में राष्ट्रपिता महात्मा गांधी भी शामिल हैं. समय-समय पर दिखाई देने वाली दिखावटी शाब्दिक प्रशंसा और विनम्रता की छद्म भाव-भंगिमा के बावजूद वे राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के प्रति वास्तविक सम्मान-भाव नहीं रखते हैं. ये राष्ट्रपिता महात्मा गांधी के हत्यारे को देशभक्त कहते हैं, जैसा कि भोपाल की नव-निर्वाचित सांसद प्रज्ञा सिंह ठाकुर ने गोडसे को महिमामंडित करते हुए कहा था. महाराष्ट्र की एक महिला आईएस अधिकारी ने अपने ट्वीट में गोडसे को गांधी की हत्या के लिए धन्यवाद दिया. इसमें कोई संदेह नहीं है कि भारत पर तिरंगे के स्थान पर भगवा झंडा लहराने के आरएसएस के अंतिम लक्ष्य के मार्ग में एकमात्र बाधा गांधी परिवार ही रहा है.

गांधी परिवार को किसी जाल में फंसने से बचना चाहिए. इसके स्थान पर उसे वरिष्ठ और अनुभवी नेताओं की एक परामर्श मंडल को बनाते हुए पार्टी को चलाने की ज़िम्मेदारी सौंपते हुए हिंदुत्ववादी ताकतों के विरुद्ध वैचारिक जवाबी कार्रवाई शुरू करनी होगी. इस समिति में पार्टी के दिन-प्रतिदिन के मामलों की देख-रेख के लिए गांधी परिवार का कोई सदस्य हो भी सकता है या नहीं भी हो सकता है. राहुल गांधी को स्वंय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार को साधने के लिए पूरे विपक्ष की साझा रणनीति तैयार करके लोकसभा में पार्टी का नेतृत्व करना चाहिए.

राहुल गांधी को स्वंय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की सरकार को साधने के लिए पूरे विपक्ष की साझा रणनीति तैयार करके लोकसभा में पार्टी का नेतृत्व करना चाहिए.

जिस मार्ग पर कांग्रेस राष्ट्र को आगे ले जाने की मंशा रखती है, उसके वैचारिक अंतर्विरोधों को उसे समेटना होगा. साथ ही, उसे पार्टी में ऐसे संगठनात्मक संरचनाओं को विकसित करना होगा,जिसमें समाज के सभी तबकों की सामाजिक-राजनीतिक आकांक्षाएं प्रतिबिंबित होती हों.

कुल मिलाकर, गांधी परिवार ‘आइडिया ऑफ़ रिवाइवल’ के लिए एक वैचारिक ब्लू प्रिंट तैयार करने की ज़िम्मेदारी से बच नहीं सकता है, जिसमें अखिल भारतीय अपील हो और जो मौजूदा हालातों में बहुसंख्यक समुदाय के लिए आकर्षक और प्रासंगिक हो.

संकट के समय में, दुनिया भर के राजनीतिक दलों और संगठनों ने इस प्रक्रिया को पुन: शुरू करने और खुद को दोबारा संगठित करने की चुनौतियों का सामना किया है. द ग्रैंड ओल्ड पार्टी के लिए अब समय है वह इसी नीति का अनुपालन करे और स्वंय को संगठित करते हुए अपने अस्तित्व पर गहराते संकट का सामना करते हुए देश और समाज की उग्र हिंदुत्ववादी ताकतों से रक्षा की जा सके. यह काम केवल कांग्रेस व अन्य साझा सोच वाले दलों को साथ लेकर कर सकती है. किसी भी स्थिति अथवा परिस्थितियों में, न तो कांग्रेस को मरने दिया जा सकता है न ही उसे मरना चाहिए.

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.