प्रधानमंत्री शेख़ हसीना जो पिछले 15 बरस से बांग्लादेश पर राज कर रही थीं और इसी साल जनवरी में लगातार चौथी बार चुनाव जीती थीं, उन्होंने अपने पद से इस्तीफ़ा देकर देश छोड़कर एक ‘सुरक्षित ठिकाने’ की तरफ़ उस वक़्त रवाना हो गईं, जब प्रदर्शनकारी उनके आधिकारिक आवास में दाख़िल हो गए, उनके दफ़्तर को जला दिया और संसद को भी बंधक बना लिया. इसी के साथ बांग्लादेश में ‘लगभग स्थायी’ लग रहे राजनीतिक शासन का नाटकीय तरीक़े से अंत हो गया. आज जब पूरे बांग्लादेश में जनता विरोध प्रदर्शन कर रही है और बीच-बीच में सेना के सत्ता संभालने की वजह से देश के भविष्य पर सवाल उठ रहे हैं, तो बांग्लादेश की इस घरेलू उथल-पुथल के भू-राजनीतिक असर उसके पड़ोसी देशों और विशेष रूप से भारत के लिए बेहद अहम होंगे, क्योंकि भारत के साथ बांग्लादेश की सबसे लंबी अंतरराष्ट्रीय सीमा मिलती है. पिछला एक दशक बांग्लादेश और भारत के संबंधों के लिहाज से सबसे अहम रहा है और इसने द्विपक्षीय सहयोग के एक ‘स्वर्णिम अध्याय’ की शुरुआत की थी.
आज जब पूरे बांग्लादेश में जनता विरोध प्रदर्शन कर रही है और बीच-बीच में सेना के सत्ता संभालने की वजह से देश के भविष्य पर सवाल उठ रहे हैं, तो बांग्लादेश की इस घरेलू उथल-पुथल के भू-राजनीतिक असर उसके पड़ोसी देशों और विशेष रूप से भारत के लिए बेहद अहम होंगे, क्योंकि भारत के साथ बांग्लादेश की सबसे लंबी अंतरराष्ट्रीय सीमा मिलती है.
कारण और उथल-पुथल
इस साल जुलाई में बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट ने एक फ़ैसला सुनाया था, जिसमें 1971 के बांग्लादेश के मुक्ति संग्राम में हिस्सा लेने वाले मुक्ति योद्धाओं के परिजनों को ऊंची सरकारी नौकरियों में आरक्षण को फिर से बहाल कर दिया गया था. बांग्लादेश में जहां बड़े पैमाने पर बेरोज़गारी है और रूस यूक्रेन युद्ध के कारण आसमान छूती महंगाई की मार पड़ रही है, वहां सुप्रीम कोर्ट के इस फ़ैसले ने पूरे देश में छात्रों के आंदोलन की शुरुआत के लिए चिंगारी का काम किया, जो मुक्ति योद्धाओं के परिजनों को दिए जा रहे 30 प्रतिशत आरक्षण को कम करने की मांग कर रहे थे. ढाका यूनिवर्सिटी में हो रहा विरोध प्रदर्शन उस वक़्त हिंसक हो गया, जब सत्ताधारी अवामी लीग के छात्र संगठन बांग्लादेश छात्र लीग के सदस्य की आंदोलन कर रहे छात्रों से भिड़ंत हो गई. इस टकराव की वजह पूर्व प्रधानमंत्री शेख़ हसीना का एक विवादित बयान था, जिसमें उन्होंने सवालिया लहजे में कहा था कि, ‘अगर आज़ादी की लड़ाई लड़ने वालों के लिए नौकरियां आरक्षित नहीं होंगी, तो किसके लिए होनी चाहिए? रज़ाकारों की औलादों के लिए?’ शेख़ हसीना का इशारा उन लोगों की तरफ़ था, जिन्होंने 1971 की लड़ाई में ‘मुक्ति योद्धाओं’ का विरोध किया था.
सरकार ने दबाव और वादे दोनों तरीक़े इस्तेमाल करके हालात पर क़ाबू पाने की कोशिश की. लेकिन, प्रदर्शनकारियों और पुलिस, बांग्लादेश के सीमा सुरक्षा बल और सेना के बीच बढ़ते संघर्ष की वजह से ख़ून की नदियां बह चलीं. देश भर में कर्फ्यू लगा दिया गया और सेना को हिंसा करने वालों को देखते ही गोली मार देने का फरमान जारी कर दिया गया. इस वजह से सौ से ज़्यादा लोगों की जान चली गई. बांग्लादेश के सुप्रीम कोर्ट के एक और निर्णायक फ़ैसले के तहत, बाद में मुक्ति योद्धाओं के लिए आरक्षण को घटाकर पांच प्रतिशत कर दिया गया. लेकिन, इससे प्रदर्शनकारियों की नाराज़गी दूर नहीं की जा सकी. तब तक उनकी मांग में हिंसा की व्यापक स्तर पर जांच करने, ज़िम्मेदार लोगों की जवाबदेही तय करने और दोषी अधिकारियों के इस्तीफ़े तक बढ़ गई थी. इसके अलावा, वो प्रधानमंत्री शेख़ हसीना से सार्वजनिक रूप से माफ़ी मांगने की मांग भी कर रहे थे, जिसकी वजह से विरोध प्रदर्शन और बढ़ते गए.
असल में बांग्लादेश में सत्ताधारी अवामी लीग के ख़िलाफ़ काफ़ी समय से जनता में आक्रोश बढ़ता जा रहा था. इसके पीछे जनवरी में हुए विवादित चुनावों में जीत के अलावा बढ़ता भ्रष्टाचार और भाई-भतीजावाद के इल्ज़ाम भी थे. लोगों की नाराज़गी जनवरी में हुए चुनावों के बाद से तो ख़ास तौर से उजागर हो गई थी, जिसमें 40 प्रतिशत से भी कम लोगों ने हिस्सा लिया था. इन विरोध प्रदर्शनों ने लोगों की नाराज़गी को एक दिशा दे दी और इसकी अंतिम परिणति प्रधानमंत्री शेख़ हसीना के इस्तीफ़े की मांग के तौर पर सामने आई. हालांकि, घरेलू स्तर पर शेख़ हसीना के प्रति ढाका समेत पूरे बांग्लादेश में जो नाराज़गी दिख रही थी, इसके उलट भारत, हसीना सरकार के साथ मज़बूती से खड़ा था और उनकी सत्ता से विदाई होते ही, भारत की आशंकाएं सच साबित होने लगीं.
हित और अस्थिरता: भारत पर प्रभाव
पूर्व प्रधानमंत्री शेख़ हसीना के 15 साल से लगातार चले आ रहे कार्यकाल ने बांग्लादेश को राजनीतिक स्थिरता दी थी, जिससे एक सुरक्षित पड़ोस निर्मित करने में भी मदद मिली थी. बांग्लादेश में पनाह लेने वाले उन उग्रवादी समूहों के प्रति शेख़ हसीना सरकार ने ‘ज़ीरो टॉलरेंस’ की नीति अपनाई थी, जो भारत के बांग्लादेश से लगने वाले पूर्वोत्तर के राज्यों में उठा-पटक फैलाते थे. हसीना सरकार की इस नीति से भारत को बहुत फ़ायदा हुआ था. हालांकि, शेख़ हसीना की सत्ता से हालिया विदाई के साथ साथ बांग्लादेश में उग्रवादी तबक़ों का उभार होता भी दिख रहा है. एक वक़्त में प्रतिबंधित रही जमात-ए-इस्लामी अब राजनीतिक मोर्चे की अगली पंक्ति में शामिल हो गई है. इस वजह से उत्तर पूर्व की सुरक्षा को लेकर भारत की चिंताएं एक बार फिर से बढ़ गई हैं. इस समय बांग्लादेश में चल रहे अस्थिरता और उथल-पुथल वाले माहौल को देखते हुए भारत ने अपनी सीमाओं को पहले ही सील कर दिया है और सीमा सुरक्षा बल और राज्यों की पुलिस ने बांग्लादेश की सीमा पर चौबीसों घंटे की निगरानी बढ़ा दी है. बांग्लादेश की उठा-पटक का असर भारत पर न पड़े, इसलिए उससे लगने वाले राज्यों में हाई एलर्ट जारी किया गया है. क्योंकि बांग्लादेश में हिंदू अल्पसंख्यकों के ख़िलाफ़ हिंसा की जो ख़बरें आ रही हैं, उनको देखते हुए वहां से भारत के लिए पलायन का ख़तरा बढ़ गया है.
इस समय बांग्लादेश में चल रहे अस्थिरता और उथल-पुथल वाले माहौल को देखते हुए भारत ने अपनी सीमाओं को पहले ही सील कर दिया है और सीमा सुरक्षा बल और राज्यों की पुलिस ने बांग्लादेश की सीमा पर चौबीसों घंटे की निगरानी बढ़ा दी है.
सुरक्षा की फ़ौरी चिंताओं से आगे, शेख़ हसीना सरकार के पतन की वजह से भारत और बांग्लादेश द्वारा मिलकर चलाई जा रही विकास की परियोजनाओं और विशेष रूप से कनेक्टिविटी की पहलों के भविष्य पर सवाल खड़े हो गए हैं. हाल के वर्षों में ऐसी परियोजनाओं में काफ़ी बढ़ोत्तरी हुई थी. इनमें भारत के चारों तरफ़ से ज़मीन से घिरे पूर्वोत्तर के राज्यों के साथ बांग्लादेश के चट्टोग्राम और मोंगला बंदरगाहों से होते हुए समुद्री व्यापार को बढ़ावा देना था. सदियों पुरानी कनेक्टिविटी के ये रास्ते 1947 में देश के बंटवारे की वजह से बंद हो गए थे. इसके अलावा दोनों देशों के बीच सड़कों, रेलवे लाइनों, नदियों के ज़रिए अंतर्देशीय परिवहन और वायु संपर्कों का विस्तार भी हो रहा था. दक्षिण एशिया में एक दूसरे के सबसे बड़े व्यापारिक साझीदार होने और दोनों देशों के नागरिकों के बीच मज़बूत पारिवारिक संबंध होने की वजह से भारत और बांग्लादेश के लिए ये द्विपक्षीय सहयोग और बढ़ाना बेहद ज़रूरी है. बंगाल की खाड़ी के क्षेत्रीय विकास को समर्पित बे ऑफ बेंगाल रीजनल मल्टीसेक्टोरल टेक्निकल ऐंड इकॉनमिक को-ऑपरेशन (BIMSTEC) के भागीदार के तौर भी भारत और बांग्लादेश को सितंबर में होने वाली बिम्सटेक की छठवीं शिखर बैठक के दौरान समुद्री परिवहन के ज़रिए व्यापार और कनेक्टिविटी को बढ़ावा देने वाले समझौते पर हस्ताक्षर करने थे. हालांकि, अब इसकी संभावनाओं पर अनिश्चितता के बादल मंडराने लगे हैं.
कनेक्टिविटी अपनी जगह, पर पिछले एक दशक के दौरान भारत और बांग्लादेश ने कई क्षेत्रों में सहयोग को बढ़ाया है. इसमें ऊर्जा और रक्षा क्षेत्र में सहयोग से लेकर स्वास्थ्य, जलवायु परिवर्तन और आपदा प्रबंधन तक शामिल हैं. बांग्लादेश में राजनीतिक स्थिरता क़ायम होने की वजह से अन्य तमाम देशों की तरह भारत को भी प्रत्यक्ष विदेशी निवेश और सहायता के ज़रिए बांग्लादेश में निवेश करने का हौसला मिला, ताकि वो हिंद प्रशांत क्षेत्र में बांग्लादेश की भू-सामरिक स्थिति का लाभ उठा सके. इसी वजह से हाल के वर्षों में बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था में आए उछाल में भारत भी भागीदार रहा है. विश्व बैंक ने भी बांग्लादेश की इस उपलब्धि को ‘ग़रीबी घटाने और विकास के शानदार सफर’ कहकर इसकी तारीफ़ की थी. हालांकि, अब बांग्लादेश के सियासी हालात बदलने के बाद इस बात की आशंकाएं बढ़ गई हैं कि दोनों देशों की इस भागीदारी का भविष्य क्या होगा. अवामी लीग सरकार की विरोधी रही बांग्लादेश नेशनलिस्ट पार्टी (BNP) को खुलकर चीन के समर्थन करने वाले दल के तौर पर जाना जाता है. BNP ने हाल के वर्षों में बांग्लादेश को अपनी गिरफ़्त में लेने वाले ‘भारतीय उत्पादों के बहिष्कार’ के अभियान को भी समर्थन दिया था. हसीना सरकार ने पिछले कई वर्षों के दौरान अपने कूटनीतिक प्रयासों के तहत चीन और भारत के बीच जो नाज़ुक संतुलन बनाए रखा था अब उसके चीन के पक्ष में झुकने का अंदेशा है. ये एक ऐसी आशंका है, जिसको लेकर भारत चिंतित है. क्योंकि भारत की विदेश नीति की आकांक्षाओं के लिए बांग्लादेश काफ़ी अहम है.
हसीना सरकार ने पिछले कई वर्षों के दौरान अपने कूटनीतिक प्रयासों के तहत चीन और भारत के बीच जो नाज़ुक संतुलन बनाए रखा था अब उसके चीन के पक्ष में झुकने का अंदेशा है.
एक युग का अंत
शेख़ हसीना सरकार के नेतृत्व में भारत और बांग्लादेश के रिश्तों में जो उछाल आया था, उसने इस साल अपने दस वर्ष पूरे करने वाली भारत की ‘नेबरहुड फ़र्स्ट’ और ‘एक्ट ईस्ट’ नीतियों की सफलता में भी बड़ा योगदान दिया था. हालांकि, शेख़ हसीना की विदाई से इस ‘स्वर्णिम अध्याय’ का भले ही समापन हो गया है. लेकिन, एक ऐसी हक़ीक़त है, जो बदलने वाली नहीं है. बांग्लादेश की सबसे लंबी सीमा भारत से मिलती रहेगी, जिसकी वजह से दोनों देश एक दूसरे के क़ुदरती साझीदार रहेंगे. क्योंकि न केवल दोनों की सरहदें एक दूसरे से मिलती हैं. बल्कि दोनों देशों के बीच मज़बूत सांस्कृतिक संबंध और भविष्य भी साझा हैं. ऐसे में आज जब भारत और बांग्लादेश अपने रिश्तों के नए दौर में दाख़िल हो रहे हैं, तो उनके बीच शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व और सहयोग और भी ज़रूरी हो गया है.
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