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यह प्रोजेक्ट 2049 में पूरी तरह सामने आएगा जब पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना की स्थापना के 100 वर्ष पूरे होंगे
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी जुलाई में अपनी स्थापना की सौवीं सालगिरह मनाने जा रही है. चेयरमैन शी जिनपिंग की ‘चाइना ड्रीम’ का यह पहला महत्वपूर्ण मील का पत्थर है. यह प्रोजेक्ट 2049 में पूरी तरह सामने आएगा, जब पीपल्स रिपब्लिक ऑफ़ चाइना की स्थापना के 100 वर्ष पूरे होंगे. इस प्रोजेक्ट के तहत चीन बतौर वैश्विक महाशक्ति अपनी जगह मजबूत करना चाहता है. हमने अपनी किताब Pax Sinica में उन तीन चीजों का जिक्र किया है, जो उसके लिए इन महत्वाकांक्षाओं को पूरा करने के लिहाज से अहम हैं: वैश्विक संस्थानों और प्रक्रियाओं का नेतृत्व, ‘डिस्कोर्स पावर’ के लिए सही माहौल और नए अंतरराष्ट्रीय गठजोड़ बनाना. डिस्कोर्स पावर का मतलब ऐसी अवधारणा से है, जिसमें कोई देश वैश्विक राजनीतिक व्यवस्था को प्रभावित कर अंतरराष्ट्रीय स्तर पर एजेंडा तय करता है और इस तरह से अपना भू–राजनीतिक प्रभाव बढ़ाता है. चीन वैश्विक संस्थानों और नियम–कानून बनाने की प्रक्रिया को नियंत्रित करने की कोशिश कर रहा है. वह पैसे के ज़ोर से मीडिया और सार्वजनिक बहस को अपने हक में मोड़ने और दूसरे देशों के साथ अजीबोगरीब साझेदारियां कर रहा है. इन साझेदारियों का एक स्वरूप ‘कर्ज के बदले संप्रुभता की कुर्बानी’ भी है. कोरोना महामारी की शुरुआत के बाद ऐसी कई रणनीतियां कहीं अधिक स्पष्ट हो गई हैं, लेकिन इनमें चीन के लिए अवसर के साथ आगे आने वाली चुनौतियां भी दिखने लगी हैं.
एक दशक या उससे कुछ अधिक समय से चीन दोहरी रणनीति पर चल रहा है. इसमें एक ओर तो वह द्वितीय विश्व युद्ध के बाद बने वैश्विक संस्थानों से बेहतर तालमेल बिठाने की कोशिश कर रहा है तो दूसरी ओर बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (बीआरआई) और शंघाई को–ऑपरेशन ऑर्गनाइजेशन (एससीओ) जैसे औपचारिक–अनौपचारिक मंचों के ज़रिये अलग ही बहुदेशीय ढांचा खड़ा करने का प्रयास भी कर रहा है. असल में चीन की रणनीति तीन अप्रोच पर टिकी हैः वैश्विक प्रभाव और सम्मान हासिल करना, वैश्विक नियमों और प्रक्रियाओं को अपने मुताबिक ढालना, उनमें बदलाव करना और कुछ अंतरराष्ट्रीय नियमों की अनदेखी करने के बाद पड़ने वाले दबाव को झेलने की क्षमता बनाना.
असल में चीन की रणनीति तीन अप्रोच पर टिकी हैः वैश्विक प्रभाव और सम्मान हासिल करना, वैश्विक नियमों और प्रक्रियाओं को अपने मुताबिक ढालना, उनमें बदलाव करना और कुछ अंतरराष्ट्रीय नियमों की अनदेखी करने के बाद पड़ने वाले दबाव को झेलने की क्षमता बनाना.
महामारी के दौरान उसकी इन कोशिशों के परिणाम भी दिखने लगे हैं. सबसे विवादित रूप में यह विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) में दिखा, जो पारदर्शिता और अपने दायित्व के बीच संतुलन बनाने को लेकर संघर्ष करता नज़र आया. इस संगठन की कामकाज करने को लेकर निर्भरता चीन पर बढ़ी और इसके तंत्र में उसने पैठ भी बना ली. महामारी की आड़ में वैश्विक संस्थानों में चीन के दख़ल और पहुंच में बढ़ोतरी हुई है. अप्रैल 2020 में चीन को प्रभावशाली संयुक्त राष्ट्र मानवाधिकार परिषद यानी एचएनआरसी के सलाहकार समूह में शामिल किया गया. यह समूह वैश्विक स्तर पर अभिव्यक्ति की आजादी, मनमाने डिटेंशन और ज़ोर–ज़बरदस्ती से लापता किए जाने जैसे मामलों की निगरानी करने वाले पर्यवेक्षकों को चुनता है. यह अजीब बात है क्योंकि चीन खुद हॉन्गकॉन्ग और शिनजियांग में इन अधिकारों का दमन कर रहा है.
चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (जिसके हाथों में समूचे देश का नियंत्रण है) ने एक ऐसी चाल चली, जिसके एक पहलू की अक्सर भारत में अनदेखी होती है. वह पहल है वैश्विक तकनीकी मानक तय करने वाले संगठनों का चीन के हाथ में नेतृत्व. पिछले 10 वर्षों में इंटरनेशनल ऑर्गनाइजेशन फॉर स्टैंडर्डाइजेशन एंड द इंटरनेशनल इलेक्ट्रोटेक्निकल कमीशन जैसी संस्थाओं में चीन का प्रतिनिधित्व बढ़ा है और उसने उनके सामने अपनी दलीलें पेश की हैं. इन संगठनों की तकनीकी समितियों और उप–समितियों पर भी यही बात लागू होती है. मार्च 2020 में चीन के स्टैंडर्डाइजेशन एडमिनिस्ट्रेशन नाम की संस्था ने दस्तावेज़ प्रकाशित किए, जिसमें और भी महत्वाकांक्षी रणनीति की जानकारी दी गई थी. इसे चाइना स्टैंडर्ड्स 2035 का नाम दिया गया. इसमें 15 साल का खाका दिया गया है. दस्तावेज़ में बताया गया है कि उभरते हुए उद्योगों के मानकों को लेकर चीन किस तरह से दबदबा बना सकता है. इससे वह अंतरराष्ट्रीय व्यापार और यहां तक कि तकनीक और सामाजिक रिश्तों को भी वैश्विक स्तर पर प्रभावित कर पाएगा.
अंतररष्ट्रीय संगठनों और मानक तय करने वाले संस्थानों में प्रभाव बढ़ाना चीन के वैश्विक मीडिया और उसके विमर्श तय करने की रणनीति का हिस्सा है, जो ‘डिस्कोर्स पावर’ का भी अनिवार्य पहलू है. चेयरमैन शी ने अपने हालिया भाषण में इस ओर इशारा किया था. उन्होंने चीनी मीडिया से ‘अंतरराष्ट्रीय आवाज’ बनने की अपील की थी. हमारी किताब में इस बारे में रिसर्च दी गई है, जिसे विशेषज्ञ ‘उधार पर ली गई नाव से समुद्र में जाने’ की चीनी नीति कहते हैं. कहने का मतलब है कि अखबारों में बड़े–बड़े विज्ञापनों के ज़रिये चीन अपनी सोच का प्रचार करता है. हाल में आई दो रिपोर्ट्स बताती हैं कि चीन की ऐसी कोशिशें अब कितनी बड़ी हो गई हैं और इनकी तीव्रता क्या है.
पहली रिपोर्ट एसोसिएटेड प्रेस और ऑक्सफोर्ड इंटरनेट इंस्टिट्यूट की है, जिससे चीन के बॉट्स और फर्जी सोशल मीडिया एकाउंट्स के व्यापक इस्तेमाल का पता चलता है. इनकी मदद से वह ‘वुल्फ वॉरियर’ डिप्लोमैट्स और उनके ऑनलाइन प्रॉक्सीज के संदेशों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाता है
पहली रिपोर्ट एसोसिएटेड प्रेस और ऑक्सफोर्ड इंटरनेट इंस्टिट्यूट की है, जिससे चीन के बॉट्स और फर्जी सोशल मीडिया एकाउंट्स के व्यापक इस्तेमाल का पता चलता है. इनकी मदद से वह ‘वुल्फ वॉरियर’ डिप्लोमैट्स और उनके ऑनलाइन प्रॉक्सीज के संदेशों को अधिक से अधिक लोगों तक पहुंचाता है. चीन ने पहले भी ताइवान और हॉन्गकॉन्ग में इन चालबाज़ियों का इस्तेमाल किया है, लेकिन महामारी के दौर में अब इनका दायरा वैश्विक हो गया है. झूठी खबरें फैलाने की चीन में असीमित भूख है, जिसका पता झाओ लिजियान के इस दावे से चलता है कि कोरोना वायरस की शुरुआत चीन से बाहर किसी अन्य देश से हुई. यानी यह चुनौती और बढ़ी है.
दूसरा, अंतरराष्ट्रीय पत्रकार महासंघ (इंटरनेशनल फेडरेशन ऑफ जर्नलिस्ट्स) से मालूम हुआ कि चीन की सिंडिकेशन की रणनीति सफल हो रही है. पिछले एक साल में स्थानीय मीडिया, ख़ासतौर पर क्षेत्रीय मीडिया में चीन को लेकर पॉजिटिव खबरें बढ़ी हैं. इसके साथ राजनयिकों से ताल्लुकात बढ़ने से विकासशील देशों में चीन को लेकर चर्चाएं भी बढ़ी हैं.
मीडिया को लेकर इस रणनीति के साथ चीन अपारदर्शी ज़रियों और कभी–कभार एकेडमिक आज़ादी को सीमित करने की शर्त पर दूसरे देशों के शैक्षणिक संस्थानों की वित्तीय मदद भी जारी रखे हुए है. कम्युनिस्ट पार्टी अधिक से अधिक विदेशी राजनयिकों और सैन्य अधिकारियों की ‘सूचना प्रबंधन’ प्रोग्राम की ट्रेनिंग के लिए मेज़बानी कर रहा है. साथ ही, वह दुनिया भर के सत्ताधारी दलों के नेताओं की मेज़बानी भी करता है. वह इन लोगों की ख़ातिर पार्टी के गठन और सुशासन पर प्रशिक्षण सत्रों का आयोजन करता है. इस मामले में पिछले साल एक अजीब बात हुई.
पश्चिमी देशों की निगरानी से बने दबाव के चलते तब चीन ने अपने यहां के बदनाम कंफ्यूशियस संस्थानों की रीब्रांडिंग की और उनका कामकाज एक ‘गैर–सरकारी संगठन’ को सौंप दिया. इस मामले में दिलचस्प बात यह रही कि संगठन को गैर–सरकारी भी पार्टी ने ही घोषित किया था. यह ज़रूरी नहीं कि चीन के शैक्षणिक और सांस्कृतिक निवेश के निशाने पर अमेरिका और यूरोप ही हों. ऐड डेटा की 2018 की एक रिपोर्ट से मालूम हुआ कि इसमें से ज्यादा निवेश उन्हीं देशों में हुआ है, जिनका चीन की विदेश नीति के साथ गहरा मेल–मिलाप रहा है. हालांकि, अभी तक यह स्पष्ट नहीं है कि चीन को ऐसी पहल से कितना फ़ायदा हुआ है, लेकिन सच यह भी है कि इनके ज़रिये उसके पास अपनी विचारधारा और राजनीतिक तौर-तरीकों के निर्यात का एक सांगठनिक तंत्र मौजूद है.
हमने दिखाया कि चीन किस तरह से नए मोर्चे बना रहा है और मौजूदा मोर्चों की अनदेखी कर रहा है. इसकी सबसे अच्छी मिसाल यूरोप है, जहां चीन ने 17 + 1 मंच बनाया है. इसके ज़रिये वह केंद्रीय और पूर्वी यूरोपीय (सीईई) देशों से मेल–जोल बढ़ाना चाहता है. ऐसा लग रहा है कि चीन की यह ‘बांटो और राज करो’ वाली चाल है और इसे लेकर चिंताएं भी सामने आई हैं. लेकिन यह कहना भी गलत नहीं होगा कि एक हद तक चीन को इस क्षेत्र में निवेश से फायदा हुआ है. दक्षिण चीन सागर में अंतरराष्ट्रीय नियमों के उल्लंघन पर यूरोपीय संघ की आलोचना की कोशिशों में ग्रीस और हंगरी जैसे देश बाधा डाल रहे हैं. ऐसा ही हॉन्गकॉन्ग में नेशनल सिक्योरिटी लॉ पास करने के मामले में भी हो रहा है.
चीन की इन कोशिशों की रफ्त़ार 2020 में कुछ धीमी पड़ी. पिछले साल हमने देखा कि बड़ी ताकतें अपनी सीमाओं की सुरक्षा करने में अभी भी सक्षम हैं. पूर्वी और मध्य यूरोप के कई देश के नेताओं ने चीन से निवेश की गति को लेकर असंतोष जाहिर किया और इनमें से कई ने चीन के नेतृत्व वाले मंचों से दूरी बना ली. कइयों ने अमेरिका के क्लीन नेटवर्क इनीशिएटिव पर दस्तख़त किए और महत्वपूर्ण बाजारों में चीन की 5जी कंपनियों को आने से रोकने का इरादा भी जताया. इस मामले में एक सचाई यह भी है कि बाल्टिक देश चीन से निवेश के बजाय रूस को लेकर कहीं ज्यादा आशंकित दिखे.
चीन ने वैश्विक स्तर पर जिस ‘विकृत कूटनीति’ टूलकिट को अपनाया है, 17 + 1 मंच उसका सिर्फ़ एक माध्यम है. इसलिए इसे अभी ख़ारिज करना जल्दबाज़ी होगी. यह मंच इस बात का प्रतीक है कि यूरोप की दहलीज़ तक चीन की स्थायी मौजूदगी कायम हो गई है
खैर, चीन ने वैश्विक स्तर पर जिस ‘विकृत कूटनीति’ टूलकिट को अपनाया है, 17 + 1 मंच उसका सिर्फ़ एक माध्यम है. इसलिए इसे अभी ख़ारिज करना जल्दबाज़ी होगी. यह मंच इस बात का प्रतीक है कि यूरोप की दहलीज़ तक चीन की स्थायी मौजूदगी कायम हो गई है. इसका डर दिखाकर सीईई यूरोपीय संघ से हमेशा बेहतर डील की मांग कर सकता है. और यह भी सच है कि इसके ज़रिये यूरोपीय संघ की अंदरूनी बहस में चीन को शामिल होने का रास्ता मिल गया है.
अरब देशों, अफ्रीका, लैटिन अमेरिका और आसियान के साथ चीन दुनिया के हर हिस्से में उच्चस्तरीय फोरम और शिख़र वार्ताओं का आयोजन करता है. इनमें से ज्यादातर इलाकों में चीन की वैक्सीन डिप्लोमैसी की वाहवाही हुई है. इसके लिए ख़ासतौर पर पश्चिमी देश जवाबदेह हैं, जो पिछले साल अपने ही स्वार्थ और हितों को संरक्षित रखने में व्यस्त रहे. चीन इन मंचों का इस्तेमाल कई कार्यों के लिए कर रहा है. वह इनके मार्फ़त इंफ्रास्ट्रक्चर में निवेश के साथ अपनी तकनीक को बढ़ावा दे रहा है. इसके साथ व्यापक आर्थिक मौजूदगी और निवेश जैसी पहल से उन देशों में उसे राजनयिक समर्थन भी मिल रहा है. मिसाल के लिए, संयुक्त राष्ट्र संघ में जब 2019 और 2020 में शिनजियांग और हॉन्गकॉन्ग में चीन के रिकॉर्ड पर सवाल उठे तो उसके लिए अफ्रीकी देशों का समर्थन अहम हो गया था.
महामारी के गुज़रे दौर पर नज़र डालने पर चीन के नेताओं को कई बातें 2008 वित्तीय संकट जैसी दिखेंगी. वैसे, वित्तीय संकट भी पश्चिम के अवदान और चीन के उभार की राह में मील का एक पत्थर था. चीन ने अपने यहां महामारी पर बहुत जल्द काबू पा लिया था और इसके बाद उसने दूसरे देशों की मदद की. ऐसा भी नहीं है कि उसकी चुनौतियां खत्म हो गई हैं. सच तो यह है कि महामारी के आने के बाद से पश्चिमी देशों में चीन की छवि और खराब हुई है. बाइडेन सरकार वैश्विक महाशक्ति मुकाबले के लिए चीन से दो–दो हाथ करने की तैयारी कर रही है. यूरोपीय संघ ने चीन के साथ हालिया निवेश समझौते को ठंडे बस्ते में डाल दिया है और जी-7 जैसे संस्थान भी बीआरआई का विकल्प पेश करने की मुहिम में जुटे हैं.
दूसरे मामलों की बात करें तो चीन ने पिछले एक साल में मज़बूती से टिके रहने और नियमितता का संदेश दिया है. वह बीआरआई के ज़रिये वैश्वीकरण का विकल्प मुहैया कराने को प्रतिबद्ध है. जैसे–जैसे चीन की संपत्ति और ताकत बढ़ेगी, वैसे–वैसे वैश्विक संस्थानों पर उसका प्रभाव भी बढ़ेगा. चीन का मीडिया भी अब अपने हितों को ज़ाहिर करने और उन्हें संरक्षित रखने को लेकर दिन–ब–दिन स्मार्ट हो रहा है. यह सोच भी गलत है कि चीन के पास ‘दोस्त’ नहीं हैं. जरूरत पड़ने पर वह अपने दोस्तों से समर्थन करने को कह सकता है.
गलवान घाटी में हुई झड़प ने ऊंचाई वाले क्षेत्रों में संघर्ष के नए दौर के शुरू होने की पुष्टि की, जिसके परिणाम अब सागर क्षेत्र में भी दिख सकते हैं. महामारी के दौर में भारत और चीन के बीच की खाई और चौड़ी हुई है.
अक्सर जब उसे धकेलने या दबाने की कोशिश होती है तो उसके पीछे सोची–समझी योजना नहीं होती. हाल ही में ‘बिल्ड बैक लेटर वर्ल्ड’ की घोषणा हुई. कोई शक नहीं है कि इसके पीछे सोच बड़ी है, लेकिन इसका ऐलान करने वाले जी-7 समूह के सदस्य देशों के बीच चीन को लेकर मतभेद हैं. चीन के साथ ताल्लुकात के मामले में समूह के महत्वपूर्ण सदस्यों ने सुरक्षा और आदर्शों से ज्य़ादा तरजीह व्यापार और वैल्यूएशन को दी है.
इन सबके बीच भारत की क्या स्थिति है? वह कहां खड़ा है? हमारी किताब ने चेतावनी दी थी कि एशिया की इन दो शक्तियों के बीच डोकलाम आखिरी सीमा विवाद नहीं होगा. हमने कहा था कि इस विवाद से भारत और चीन के बीच एक नए तनाव भरे दौर का आगाज़ हुआ है. एक एशियाई शीत युद्ध. गलवान घाटी में हुई झड़प ने ऊंचाई वाले क्षेत्रों में संघर्ष के नए दौर के शुरू होने की पुष्टि की, जिसके परिणाम अब सागर क्षेत्र में भी दिख सकते हैं. महामारी के दौर में भारत और चीन के बीच की खाई और चौड़ी हुई है. हिमालय में चीन ने युद्ध जैसे हालात बनाए और भारत ने चीनी तकनीकी प्लेटफॉर्मों पर अंकुश लगाया. इसके साथ भारत उस मोर्चे के साथ जुड़ा है, जिसे चीन से मुकाबले के लिए तैयार किया गया है. इसलिए दोनों के बीच मोर्चेबंदी तय हो गई है, जो आने वाले वर्षों में भारत और चीन का आपसी रिश्ता तय करेगी.
भारत को चीन को लेकर एक आधारभूत द्वंद्व का सामना करना होगा. एक तरफ तो चीन के साथ राजनीतिक तनाव चरम पर बना रहेगा, लेकिन दूसरी ओर अपने आर्थिक मक़सद की ख़ातिर चीन के साथ व्यापार पर उसकी निर्भरता बनी रहेगी. महामारी के असर को देखते हुए यह स्थिति बनी रह सकती है. आंकड़े भी इसकी गवाही दे रहे हैं. चीन के कस्टम अधिकारियों ने जो डेटा दिए हैं, उनसे मालूम हुआ कि 2021 में भारत के साथ पड़ोसी देश का व्यापार तेज़ी से बढ़ा है. यह तब हुआ, जब चीन हिमालय में खुद को और मजबूत करने में जुटा हुआ है. भारत इस अंतर्विरोध को कैसे दूर करेगा और रक्षा के क्षेत्र में वह क्या रुख़ अख्त़ियार करेगा, इन्हीं बातों से इस रिश्ते को दिशा मिलेगी.
भारत को अपनी सोच स्पष्ट करने के साथ चीन पर एक राष्ट्रीय सहमति बनानी होगी. आने वाले दिनों में उसे चीन का ही पैंतरा अपनाकर उसके साथ व्यापारिक मेल–जोल रखना होगा. यह बात और है कि वह भारत को नुकसान पहुंचाना चाहता है. इस बात को दिमाग में रखते हुए उसे चीन के साथ आर्थिक संपर्क बनाए रखना होगा, जबकि सुरक्षा मामलों पर इसका साया भी नहीं पड़ना चाहिए. भारत को यह बात समझनी होगी कि सिर्फ़ व्यापार या वार्ता के ज़रिये वह चीन के साथ बेहतर रिश्ते कायम नहीं कर सकता. ये बातें महत्वपूर्ण हैं, लेकिन दोनों देशों के रिश्ते के केंद्र में जो बात है, ये उससे अलग हैं. चीन ने द्विपक्षीय रिश्ते में धोखाधड़ी और राजनीतिक गुंडागर्दी का रास्ता चुना है. सीमित संसाधनों वाले भारत के लिए अब इस मामले में अस्पष्ट सोच का दौर गुज़र चुका है.
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Samir Saran is the President of the Observer Research Foundation (ORF), India’s premier think tank, headquartered in New Delhi with affiliates in North America and ...
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