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वैसे तो पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं का स्तर बहुत बड़ा दिखता है लेकिन प्रकृति का संरक्षण इन्हें ठीक करने में काम करता है.
यह लेख निबंध श्रृंखला ‘ये दुनिया का अंत नहीं है: विश्व पर्यावरण दिवस 2024’ का एक हिस्सा है.
ऐसा मुमकिन हो कि हम क़यामत के कगार पर पहुंच गए हों लेकिन ये भी सच है कि हम मज़बूत बुनियाद पर फिर से कदम रखना शुरू कर रहे हैं. डेटा वैज्ञानिक हान्ना राइट अपनी किताब “नॉट दी एंड ऑफ द वर्ल्ड (दुनिया का अंत नहीं)” में यही बात हमसे कहती हैं. वैश्विक डेटा में उनकी रिसर्च दिखाती है कि उम्मीद अभी बाकी है. वो कहती हैं “पर्यावरण से जुड़े डेटा के अनुसार पिछले करीब 10 वर्षों में सतर्कता के साथ आशावाद के संकेत हैं. ये ज़रूरी नहीं है कि हम वहां पहुंच जाएं लेकिन मुझे लगता है कि ऐसा करने के लिए हमारे पास अवसर हैं. “बहुत देर होने” का एहसास हमें केवल निष्क्रियता और अक्षमता की तरफ ले जाता है.”
भारतीय संदर्भ में बात करें तो छोटी जोत वाले किसानों ने सूखे से निपटने, जल प्रबंधन, बंजर ज़मीन के उद्धार (रेस्टोरेशन) और मरुस्थलीकरण पर रोक लगाने के मामले में स्पष्ट, प्रमाणिकता वाले परिणामों के साथ कई स्थितियों में अपनी पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं को निपटाया है जिनकी सफलता का स्तर स्वागत योग्य है.
वैसे तो समस्याओं का स्तर, जो ज़्यादातर जलवायु परिवर्तन के कारण है, बहुत अधिक है लेकिन प्रकृति का संरक्षण इन्हें ठीक करने में काम आता है. लोगों के नेतृत्व में स्थानीय सामाजिक और पर्यावरण से जुड़े संदर्भ के भीतर तैयार उपाय कम लागत वाले और प्रकृति आधारित टिकाऊ समाधान साबित हुए हैं.
भारतीय संदर्भ में बात करें तो छोटी जोत वाले किसानों ने सूखे से निपटने, जल प्रबंधन, बंजर ज़मीन के उद्धार (रेस्टोरेशन) और मरुस्थलीकरण पर रोक लगाने के मामले में स्पष्ट, प्रमाणिकता वाले परिणामों के साथ कई स्थितियों में अपनी पर्यावरण से जुड़ी समस्याओं को निपटाया है जिनकी सफलता का स्तर स्वागत योग्य है. वो सार्वजनिक-निजी साझेदारी की सफलता दिखाते हैं जहां समुदाय, संगठन और सरकार- सभी सहमति, योगदान और तालमेल करते हैं. उनके कदम भीषण गर्मी, मौसम के अनियमित पैटर्न और ज़मीन के बंजर होने एवं रेगिस्तान में बदलने से सबसे अधिक प्रभावित इलाकों में जलवायु परिवर्तन के असर से निपटने के लिए असरदार और विस्तार के योग्य मॉडल हैं.
अस्तित्व के लिए पानी बेहद आवश्यक है. सूखे से बहुत ज़्यादा प्रभावित महाराष्ट्र के जालना ज़िले में जिन 330 गांवों में हर साल पानी के 90,000 टैंकर की ज़रूरत होती थी, अब वहां एक टैंकर की भी आवश्यकता नहीं है. लोगों, संगठनों और सरकार ने पानी के स्रोतों के जीर्णोद्धार और पुराने जल निकायों से गाद निकालने के लिए साझेदारी की. इसके तहत पिछले छह से सात वर्षों में 427 किमी लंबी नहर खोली गई, 19 तालाबों को फिर से इस्तेमाल के योग्य बनाया गया और कुल 7,97,443 क्यूबिक मीटर गाद हटाई गई. शानदार तालाब और पानी से भरपूर ज़मीन ने लोगों का जीवन बदल दिया है और घरों एवं खेती के लिए पानी मिल रहा है. जिन लड़कियों को मीलों तक पानी ढोना पड़ता था वो अब स्कूल जा रही हैं; किसान प्रचुर मात्रा में निकाली गई गाद का उपयोग उर्वरक के रूप में करते हैं और पानी का जो भंडार उन्होंने तैयार किया था उससे सावधानीपूर्वक पानी का उपयोग करके फसल पैदा करते हैं; कुछ कृषि उद्योग रोज़गार मुहैया कराने के लिए आगे आए हैं. मज़दूरों का पलायन और किसानों की आत्महत्या के मामलों में कमी आई है और एक समय की बंजर ज़मीन हरी-भरी और उर्वर हो गई है.
कुछ चुनिंदा गांवों में जल प्रबंधन, मिट्टी संरक्षण और जलवायु लचीली खेती की पद्धतियों को लेकर जागरूकता पैदा करने के लिए सामुदायिक कार्यकर्ताओं की पहचान करके उन्हें प्रशिक्षित किया गया. लोगों ने 13 पोखर बनाए जिनमें 65 मिलियन लीटर पानी जमा करने की क्षमता थी.
नई परियोजनाएं, जो महंगी होती हैं और जो लोगों को विस्थापित करने जैसे नकारात्मक असर छोड़ सकते हैं, शुरू करने के बदले पानी के पुराने स्रोतों को पुनर्जीवित करना अधिक टिकाऊ और न्यायसंगत है और इसका तुरंत लाभ सबसे कमज़ोर लोगों समेत स्थानीय जनसंख्या को होता है. सूखाग्रस्त क्षेत्रों को पर्याप्त पानी देने के लिए कम लागत पर इस मॉडल का तुरंत विस्तार किया जा सकता है. भारत की योजना बनाने वाली संस्था नीति आयोग ने पूरे भारत में अपनाने के लिए इस मॉडल का समर्थन किया है.
कृषि वानिकी (एग्रोफॉरेस्ट्री) एक असरदार प्रकृति आधारित समाधान है जो ज़मीन को ठीक करने, जलवायु सामर्थ्य और कार्बन सिंक बनाने के लिए सतत विकास लक्ष्य (SDG) को स्थानीय बनाता है. दक्षिणी राज्य कर्नाटक में बागेपल्ली और चिंतामणि तालुक जलवायु परिवर्तन के कारण अनियमित मौसम के साथ अर्ध-बंजर और सूखाग्रस्त शुष्क क्षेत्र हैं. इसकी वजह से फसल का नुकसान होता है. यहां कृषि मज़दूरों की बहुतायत है और उनके पास खेती के लिए 1-10 हेक्टेयर के छोटे भू-खंड हैं. यहां 1997 में 78 किसानों के साथ कृषि वानिकी परियोजना की शुरुआत हुई जिनकी संख्या दिसंबर 2021 तक बढ़कर 1,352 हो गई. इन किसानों में एक तिहाई महिलाएं हैं. उन्होंने 3,34,166 पेड़ लगाए हैं जिनमें से 61 प्रतिशत पेड़ बड़े हो गए. एक अनुमान के मुताबिक पांच साल के अंत तक इन पेड़ों ने 22,800 टन कार्बन डाइऑक्साइड को सोखा जबकि हर साल ये पेड़ 5,700 टन कार्बन डाइऑक्साइड सोखते हैं. फलदार पेड़ों और एक से अधिक फसल से आमदनी बेहतर होने के अलावा किसानों ने निजी क्षेत्र के संगठनों को वेरिफाइड एमिशन रिडक्शन (VER) की बिक्री से कार्बन राजस्व के ज़रिये प्रत्यक्ष वित्तीय लाभ भी हासिल किया. छोटी जोत वाले किसान हालात में बदलाव का नेतृत्व कर रहे हैं. ये बदलाव ज़मीनी स्तर के कदमों के लिए एक खाका मुहैया करा सकते हैं.
करौली और उदयपुर ज़िलों का शुष्क, पथरीला और पहाड़ी क्षेत्र राजस्थान के मरु प्रदेश की उपाधि का उदाहरण पेश करता है. किसान एक साल में केवल एक फसल उगाते थे जो अक्सर अनियमित बारिश की वजह से बर्बाद हो जाती थी. ये बारिश बहुत कम या बहुत ज़्यादा होती थी और अपने साथ बहुमूल्य मिट्टी लेकर गायब हो जाती थी. कुछ चुनिंदा गांवों में जल प्रबंधन, मिट्टी संरक्षण और जलवायु लचीली खेती की पद्धतियों को लेकर जागरूकता पैदा करने के लिए सामुदायिक कार्यकर्ताओं की पहचान करके उन्हें प्रशिक्षित किया गया. लोगों ने 13 पोखर बनाए जिनमें 65 मिलियन लीटर पानी जमा करने की क्षमता थी. साथ ही 60 पगारा बनाए जिसकी वजह से 52 हेक्टेयर खेत में दो फसल पैदा करने की सुविधा मिली. इसके अलावा 10,983 क्यूबिक मीटर गाद हटाई गई जिससे 10.9 मिलियन लीटर पानी जमा करने के लिए जगह मिली और खेतों के लिए उपजाऊ मिट्टी मिली. किसानों ने अस्थिर खेती की पद्धतियों को छोड़ दिया और जलवायु लचीली पद्धतियां अपनाई. मुश्किल से छह महीने तक इस्तेमाल के लिए अनाज उपजाने के बदले किसान अब कई तरह की फसल उगाते हैं जो कि न केवल उनके पूरे परिवार को खिलाने के लिए पर्याप्त हैं बल्कि वो उपयोग से अधिक (सरप्लस) फसल को बेच भी सकते हैं. लोगों की आवश्यकता के लिए पानी भी पर्याप्त हो गया है.
फसलों में विविधता के साथ किसानों को ये सुरक्षा मिलती है कि किसी भी समय कम-से-कम कुछ फसल की उपज अच्छी होगी और उनका अच्छा दाम मिलेगा. इस मॉडल का विस्तार सोलापुर के अलावा मराठवाड़ा के सूखा प्रभावित चार ज़िलों उस्मानाबाद, बीड, वाशिम और हिंगोली तक किया गया है.
आंध्र प्रदेश के अनंतपुर में किसानों ने प्राकृतिक उर्वरक, फसल विविधता और कृषि वानिकी का इस्तेमाल करके पुनरुत्पादक खेती की पद्धति के साथ अनियमित बारिश और मरुस्थलीकरण के ख़िलाफ़ लड़ाई लड़ी है. इस परियोजना के तहत 3,00,000 एकड़ ज़मीन में 60,000 किसानों को जोड़ा गया है. वो पूरे साल के दौरान बदलते चक्र में पेड़ों और दूसरे पौधों के साथ फसल लगाते हैं ताकि मिट्टी के पोषक तत्व बहाल हो जाएं. जो मिट्टी रसायनिक उर्वरक से ख़राब हो गई थी वो फिर से जीवंत, कोमल, समृद्ध और केंचुओं से भरपूर हो गई थी. इस तरह की परियोजना का विस्तार करने के लिए वित्तीय समर्थन की ज़रूरत होती है जो कि इस तरह की सभी सामुदायिक नेतृत्व वाली जलवायु अनुकूलन और उद्धार परियोजनाओं पर लागू होता है लेकिन इसकी लागत किसी ऊपरी स्तर की परियोजना की लागत का एक छोटा सा हिस्सा ही है.
महाराष्ट्र के सोलापुर के बंजर इलाकों में इसी तरह की बदलाव के अनुसार ढलने की पद्धतियों और फसल में विविधता ने किसानों के जीवन और स्थिति को बदल दिया है. एक संगठन ने आमदनी बढ़ाने और जलवायु सामर्थ्य प्रदान करने के लिए खेती के मॉडल को विकसित करने के उद्देश्य से सरकार के साथ साझेदारी की. फसलों में विविधता के साथ किसानों को ये सुरक्षा मिलती है कि किसी भी समय कम-से-कम कुछ फसल की उपज अच्छी होगी और उनका अच्छा दाम मिलेगा. इस मॉडल का विस्तार सोलापुर के अलावा मराठवाड़ा के सूखा प्रभावित चार ज़िलों उस्मानाबाद, बीड, वाशिम और हिंगोली तक किया गया है.
हालांकि, बंजर इलाके जलवायु परिवर्तन और मानवजनित आपदा के अकेले शिकार नहीं हैं. वनों का भी विनाश किया गया है. वनों के उद्धार के लिए सुरक्षा या फिर से वृक्षारोपण से कहीं अधिक प्रयासों की आवश्यकता है- नुकसान पहुंचाने वाले खर-पतवारों को हटाना होगा और उन्हीं क्षेत्रों एवं परिस्थितियों में संरक्षित ‘मानक’ वनों के आधार पर पौधों एवं पेड़ों को फिर से लगाना होगा. तमिलनाडु में अन्नामलाई पहाड़ियों में दीर्घकालिक पारिस्थितिक बहाली की परियोजना अपनी निगरानी के केंद्र में पेड़-पौधों के भू-खंड के साथ यही करती है. ये भू-खंड बेतरतीब ढंग से या व्यवस्थिति रूप से चुनी गई जगहों में निर्धारित माप की भूमि के कई टुकड़े हैं. भू-खंड जिस पारिस्थितिकी तंत्र (इकोसिस्टम) का प्रतिनिधित्व करते हैं उनकी स्थिति और गुणवत्ता का मूल्यांकन करने के लिए पेड़ों को मापा जाता है, छोटे पौधों की गिनती की जाती है, पत्तों के कचरे को तौला जाता है, मिट्टी के नमूनों को इकट्ठा किया जाता है और डेटा कलेक्शन की अलग-अलग दूसरी पद्धतियों के ज़रिए उनकी निगरानी की जाती है. इसके अलावा मुख्य रूप से कीड़े-मकौड़े और पक्षी जैसे जीव-जंतु जैव-संकेतक (बायो-इंडिकेटर) हैं.
अनुसंधान करने वालों ने पता लगाया कि सघन छतरियों के साथ दुरुस्त किए गए वनों में पेड़ों की संख्या एवं विविधता अधिक थी और इसलिए अधिक कार्बन भंडार था. जिन वनों को दुरुस्त नहीं किया गया था उनकी तुलना में स्थानीय पक्षी अधिक संख्या में थे, हालांकि पक्षियों की संख्या मानक वर्षा वन (रेनफॉरेस्ट) के स्तर की नहीं थी. वनों के उद्धार के प्रयास उन बाधाओं से पार पाने में सफल हो रहे हैं जो बिगड़ चुके रेनफॉरेस्ट को अपने आप ठीक होने से रोकती हैं.
वनों के उद्धार से जुड़े अनुसंधानकर्ताओं का अंतिम शब्द भूमि उद्धार के हर पहलू पर लागू होता है: ‘रेस्टोरेशन ऐसा साधन है जिसका उपयोग हमें पहले से नष्ट हो चुकी पारिस्थितिकी प्रणाली को ठीक करने के लिए करना चाहिए लेकिन हमें ये उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि रेस्टोरेशन (या पेड़ लगाना) अछूते प्राकृतिक वन के इकोसिस्टम के और ज़्यादा विनाश की भरपाई करेंगे.’
उम्मीद बची हई है. हम अपनी धरती को ठीक करने को लेकर आशावादी हो सकते हैं लेकिन शर्त है कि ये काम सोच-समझकर और न्यायसंगत तरीके से करें. हम टूटी हुई बहुत सी चीज़ों को जोड़ सकते हैं लेकिन आगे किसी चीज़ को तोड़ने पर रोक लगानी चाहिए.
विक्रम माथुर ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सीनियर फेलो हैं.
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Vikrom Mathur is Senior Fellow at ORF. Vikrom curates research at ORF’s Centre for New Economic Diplomacy (CNED). He also guides and mentors researchers at CNED. ...
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