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Published on Jul 10, 2025 Updated 0 Hours ago

पारंपरिक ऊर्जा का उपयोग कम कर भारत अपने ऊर्जा क्षेत्र में बदलाव लाना चाहता है. ऐसे में तांबे की बढ़ती मांग को पूरा करने के लिए भारत को स्क्रैप रिफाइनिंग में तकनीकी और संरचनात्मक बाधाओं को दूर करना होगा. अपने अनौपचारिक रीसाइक्लिंग क्षेत्र को औपचारिक बनाना होगा. एक मज़बूत और सर्कुलर तांबा अर्थव्यवस्था का निर्माण करना होगा.

तांबा रीसाइक्लिंग से भारत की ऊर्जा क्रांति को मिल सकती है नई रफ्तार

Image Source: Getty

दुनिया अब पारंपरिक ऊर्जा से स्वच्छ ऊर्जा की तरफ बढ़ रही है. तांबा इस परिवर्तन का एक महत्वपूर्ण आधार बनकर उभरा है. 2050 तक इसकी वैश्विक मांग में कम से कम 50 प्रतिशत बढ़ोत्तरी का अनुमान है. तांबे की मांग में वृद्धि का सबसे बड़ा कारण सौर पैनलों, पवन टर्बाइनों और इलेक्ट्रिक वाहनों (ईवी) का बढ़ता चलन है. ईवी में तांबे में खपत पारंपरिक वाहनों की तुलना में तीन गुना ज़्यादा होती है. हालांकि विडंबना ये है कि तांबे से बनी चीजों से हमें स्वच्छ ऊर्जा मिलती है लेकिन तांबे के खनन और उत्पादन से धरती को काफ़ी नुकसान पहुंचता है. इतना ही नहीं तांबे की मौजूदा मात्रा भी हरित परिवर्तन से प्रेरित मांग को पूरा करने में अपर्याप्त साबित हो रही है. हालांकि, तांबे की खासियत ये है कि इसे पूरी तरह यानी 100 प्रतिशत दोबारा इस्तेमाल किया जा सकता है. तांबे को रीसाइकिल करने पर भी इसके रासायनिक या भौतिक गुणों ख़त्म नहीं होते. यही वजह है कि भारत तांबे सहित एक दर्जन महत्वपूर्ण खनिजों के अपशिष्ट और स्क्रैप पर आयात शुल्क समाप्त करने जा रहा है. लेकिन सवाल है कि क्या भारत को तांबे के स्क्रैप के लिए विदेश की ओर रुख़ करना चाहिए या देश में ही सर्कुलेरिटी को मज़बूत करना चाहिए?

चित्र 1: तांबे की वैश्विक मांग का अनुमान

Circularity In The Copper Economy A Catalyst For India S Energy Transition

स्रोत: ग्लोबल क्रिटिकल मिनरल्स आउटलुक 2025, अंतर्राष्ट्रीय ऊर्जा एजेंसी (IEA)

तकनीकी चुनौतियां

घरेलू बाज़ारों में, भारत की तांबा अर्थव्यवस्था में सर्कुलरिटी को बढ़ाना एक संभावित समाधान प्रस्तुत करता है. हालांकि इसके सामने कई बाधाएं भी हैं. सबसे पहले ये जानना ज़रूरी है कि सर्कुलरिटी है क्या? सर्कुलरिटी का मतलब किसी चीज के तब तक इस्तेमाल करने से है, जब तक ऐसा किया जाना संभव है. आसान शब्दों में कहें तो इसे रीसाइकिल भी समझा जा सकता है. भारत का तांबा रीसाइक्लिंग सेक्टर खंडित है. इसका काम आम तौर पर अनौपचारिक क्षेत्र में होता है. ये निम्न-श्रेणी के तांबे के स्क्रैप और आधे-अधूरे तैयार उत्पादों से जुड़ा हुआ है.

2050 तक इसकी वैश्विक मांग में कम से कम 50 प्रतिशत बढ़ोत्तरी का अनुमान है. तांबे की मांग में वृद्धि का सबसे बड़ा कारण सौर पैनलों, पवन टर्बाइनों और इलेक्ट्रिक वाहनों (ईवी) का बढ़ता चलन है.

तांबे के इस्तेमाल में भारत सर्कुलरिटी की तरफ बढ़ता तो चाहता है, लेकिन उसकी इन कोशिशों को एक बड़ी तकनीकी बाधा का सामना करना पड़ रहा है. ये बाधाएं हैं: सीसा, आर्सेनिक और निकल जैसी अशुद्धियों से भरे निम्न-श्रेणी के स्क्रैप का शोधन (रिफाइनिंग). इलेक्ट्रॉनिक रिफाइनिंग के जो पारंपरिक तरीके हैं, उनके लिए अशुद्धियों वाली सामग्रियों को शुद्ध करना बहुत मुश्किल साबित होता है. शोधन की मानक व्यवस्थाओं में, स्क्रैप से बने एनोड को सल्फ्यूरिक एसिड और इलेक्ट्रोलिसिस से गुजारते हैं. अगर कच्चे तांबे में अशुद्धियां बहुत ज़्यादा होंगी तो एनोड तेज़ी से निष्क्रिय होगा, जिससे उत्पादन कम हो जाता है. भारत में रीसाइक्लिंग के काम में पहले से ही अनौपचारिक क्षेत्र का बोलबाला है. तांबे की शुद्धता का स्तर भी अलग-अलग हैं. ऐसे में इस तरह की अशुद्धियां तांबे की सर्कुलरिटी को बढ़ाने में प्रणालीगत बाधा साबित हो सकती हैं.

हालांकि दो तरह की हाइड्रोमेटेलर्जिकल विधियां इसका समाधान पेश करती हैं. दोनों ही तरीके अपनी तरह का सामंजस्य बिठाते हैं. पहली विधि मौजूदा विद्युत-शोधन (इलेक्ट्रोरिफाइनिंग) ढांचे का नवीनीकरण करती है. इलेक्ट्रोलाइट करंट में फेरबदल करके या स्पंदित धाराओं को अपनाकर ये विधि सुविधाए निष्क्रियता में देरी कर उत्पादन स्तर बढ़ा सकती हैं. हालांकि, इस प्रक्रिया के लिए विशेष उपकरणों की ज़रूरत होती है, जो बहुत महंगे हो सकते हैं. इस तरीके के लिए स्क्रैप की सावधानीपूर्वक छंटाई भी आवश्यक है. चूंकि भारत में अनौपचारिक क्षेत्र में रिसाइक्लिंग होती है, इसलिए तांबे के स्क्रैप की ग्रेडिंग बहुत बड़ी चुनौती है.

दूसरा तरीका लीचिंग-फ्यूरीफिकेशन-इलेक्ट्रोविनिंग (एलपीई) प्रणालियों से संबंधित है. इसमें स्क्रैप को एसिड या अमोनियायुक्त घोल में घोला जाता है. अशुद्धियों को रासायनिक रूप से अलग किया जाता है और शुद्ध तांबे को परिष्कृत किया जाता है. एलपीई का मॉड्यूलर डिज़ाइन परिवर्तनशील स्क्रैप संरचना को समायोजित करता है. इसके बाद ये अपशिष्ट प्रवाह के लिए उपयुक्त हो जाता है, लेकिन परेशानी की बात ये है कि इस पूरी प्रक्रिया में बहुत ज़्यादा ऊर्जा का इस्तेमाल होता है. भारत में अभी भी 70 प्रतिशत बिजली उत्पादन में ईंधन के रूप में कोयले का इस्तेमाल किया जाता है. ऐसे में ऊर्जा की अधिक खपत का मतलब कार्बन की समस्या पैदा करना है.

चित्र 2: कॉपर स्क्रैप के लिए सर्कुलर हाइड्रोमेटेलर्जी 

Circularity In The Copper Economy A Catalyst For India S Energy Transition

स्रोत: The Twelve Principles of Circular Hydrometallurgy, Journal of Sustainable Mining

 

एक समाधान ये हो सकता है कि एलपीई की उच्च ऊर्जा ज़रूरतों को रिन्यूएबल एनर्जी के स्रोतों से पूरा किया जाए. अलग-अलग जगहों में जो माइक्रो-रिफाइनरियां लगी हैं, उनके लिए ये तरीका व्यावहारिक हो सकता है. इसके विपरीत उन्नत इलेक्ट्रोरिफाइनिंग, संगठित क्षेत्र के बड़े संयंत्रों के लिए उपयुक्त है. लेकिन इसके लिए उच्च-श्रेणी का स्क्रैप चाहिए और इसे हासिल करना भारत में एक बड़ी चुनौती है. कुल मिलाकर किसी भी स्थिति में आगे की राह नीतिगत सुधारों की मांग करती है. तांबे के स्क्रैप पर टैक्स में कमी, हाइब्रिड प्रणालियों के लिए अनुसंधान एवं विकास (आरएंडडी) अनुदान, और रिन्यूएबल ग्रिड के साथ मज़बूत एकीकरण किए जाने की ज़रूरत है.

संरचनात्मक बाधाओं पर काबू पाना

भारत की तांबा आपूर्ति सहयाक श्रृंखला घरेलू मांग में 54 प्रतिशत का योगदान देती है, लेकिन ये अब भी बहुत अधिक खंडित और अनौपचारिक बनी हुई है. रिसाइक्लिंग का ढांचा भी अविकसित है. औपचारिक प्रगलन (स्मेल्टिंग) या शोधन इकाइयां बहुत कम हैं. स्क्रैप जमा करने की संगठित प्रणाली का भी अभाव है. बड़ी मात्रा में स्क्रैप इकट्ठा करने में भारत बहुत कुशल है. जिस तांबे का जीवन काल ख़त्म (ईओएल) हो चुका है, उसके 95-99 प्रतिशत हिस्से को रिसाइकिल कर फिर सिस्टम में शामिल कर लिया जाता है. समस्या एकत्रित तांबे के स्क्रैप और आधे-अधूरे तैयार उत्पादों की गुणवत्ता में है.

सर्कुलरिटी का मतलब किसी चीज के तब तक इस्तेमाल करने से है, जब तक ऐसा किया जाना संभव है. आसान शब्दों में कहें तो इसे रीसाइकिल भी समझा जा सकता है.

भारत में स्क्रैप तांबे के प्रसंस्करण की प्रमुख विधि इसे सीधे पिघलाकर अर्ध-तैयार उत्पाद बनाना है. इस सीधे पिघलने में स्क्रैप को गलाने या शोधन प्रक्रियाओं से परिष्कृत किए बिना पिघलाया जाता है. हालांकि ये कम लागत वाली विधि है, लेकिन इसमें अशुद्धियां ज़्यादा होती हैं.

भारत में केवल एक प्रतिशत तांबे के स्क्रैप का प्रसंस्करण शोधन और प्रगलन के माध्यम से किया जाता है, जबकि चीन में ये 32 प्रतिशत, यूरोपीय संघ में 30 प्रतिशत और जापान में 16 प्रतिशत है. शोधन प्रक्रिया में इस चूक का नतीजा ये होता है कि तांबे में टिन, सीसा, लोहा, निकल और ज़िंक जैसी अशुद्धियां रह जाती हैं. इसका नुकसान ये होता है कि रिसाइकिल तांबे की विद्युत चालकता और यांत्रिक गुण कमज़ोर हो जाते हैं. तांबे के असली गुण में आई इस कमी से रिसाइकिल तांबे को कच्चे तांबे के भंडार में वापस मिलाने की संभावना कम हो जाती है. इस तांबे का जिस चीज में इस्तेमाल होना है, उसे लेकर सुरक्षा संबंधी चिंताएं बढ़ जाती हैं.

एक समस्या ये भी है कि स्क्रैप रिसाइक्लिंग के क्षेत्र न्यूनतम नियामक निगरानी भी नहीं है. इस बात को देखने वाला कोई नहीं है कि गुणवत्ता के मानकों को लेकर जो नियम बनाए गए हैं, उनका पालन किया जा रहा है या नहीं. इससे स्थिति और जटिल हो जाती है. जिन इलेक्ट्रिक उत्पादों का जीवनकाल ख़त्म हो चुका है, उसका रिवर्स लॉजिस्टिक बनाने के लिए विस्तारित उत्पादक उत्तरदायित्व (ईपीआर) लागू करना महत्वपूर्ण है, लेकिन ये अभी भी कमज़ोर बना हुआ है. हालांकि, सरकार ने चुनिंदा तांबे के उत्पादों के लिए गुणवत्ता नियंत्रण आदेश (क्यूसीओ) जारी करने जैसे कदम उठाए हैं, लेकिन निगरानी करने वाले इकोसिस्टम में सुधार के बिना इन उपायों का बहुत कम प्रभाव दिख रहा है. इसके अलावा, भारत में तांबे के रिसाइक्लिंग के आंकड़े सीमित हैं. इसे लेकर राष्ट्रीय रजिस्ट्री का ना होना भी नियम के पालन की निगरानी प्रक्रिया और नीति निर्माण को जटिल बनाता है.

फिलहाल, तांबे के स्क्रैप पर 18 प्रतिशत वस्तु एवं सेवा कर (जीएसटी) लगाया जाता है. टैक्स की उच्च दर अनौपचारिक रिसाइक्लिंग क्षेत्र के एकीकरण को हतोत्साहित करती है. अनौपचारिक क्षेत्र में ये काम करना सस्ता पड़ता है, जबकि आधिकारिक निगरानी में काम करना महंगा हो जाता है. इससे परिचालन संबंधी कठिनाइयां पैदा होती हैं, क्योंकि रीसाइक्लिंग का काम करने वाले कई कारोबारी नियामक निगरानी से बाहर काम करते हैं. ऐसे में जीएसटी की दर को कम करके उस स्तर तक लाया जाना चाहिए, जो रीसाइक्लिंग का काम करने वालों को भी टैक्स के दायरे में लाने के लिए प्रोत्साहित करे. ये एक महत्वपूर्ण पहला कदम होगा. रिवर्स चार्ज मैकेनिज्म की शुरुआत के साथ ये अनौपचारिक क्षेत्र में रीसाइक्लिंग करने वालों पर बोझ कम करेगा. सरकार इलेक्ट्रॉनिक कचरे की रीसाइक्लिंग के लिए उत्पादन-आधारित प्रोत्साहन (पीएलआई) योजना लाने की योजना बना रही है. ये योजना रिसाइकिल टेक्नोलॉजी में निवेश को बढ़ावा दे सकती है. हालांकि, इसी तरह के दूसरे क्षेत्रों में पीएलआई योजनाएं ज़्यादा सफल नहीं रहीं हैं.

इसकी बजाए, नीति निर्माताओं को तांबे के स्क्रैप रीसाइक्लिंग के नियमों को लागू करने पर ध्यान केंद्रित करना चाहिए. तांबे के उत्पादों समेत लोहे की तरह के उत्पादों पर 2028 से 5 प्रतिशत रिसाइक्लिंग सामग्री का नियम लागू होगा. हालांकि 35 प्रतिशत के वैश्विक औसत की तुलना में, तांबे के उत्पादों के लिए 5 प्रतिशत का नियम अपर्याप्त प्रतीत होता है. इसके अलावा, ज़िम्मेदारी से रीसाइक्लिंग के लिए मानकीकृत दिशानिर्देशों को लागू करने से गुणवत्ता मानकों को बनाए रखने में मदद मिलेगी. प्रौद्योगिकी हस्तांतरण, अनुसंधान एवं विकास में निवेश से उच्च तकनीकी हासिल हो सकती है. रीसाइक्लिंग का काम करने वालों को इसे सीधे पिघलने से आगे बढ़ने और उच्च गुणवत्ता वाला तांबा सुनिश्चित करने वाली तकनीक को लागू करने के लिए प्रोत्साहित किया जा सकता है.

एक सर्कुलर तांबा अर्थव्यवस्था भारत के ऊर्जा परिवर्तन के लिए महत्वपूर्ण साबित होगा. ये घरेलू आपूर्ति को बढ़ा सकती है. हालांकि, इस क्षेत्र को महत्वपूर्ण तकनीकी और संरचनात्मक बाधाओं का सामना करना पड़ रहा है. तांबे की मांग तो लगातार बढ़ रही है, लेकिन औपचारिक शोधन और प्रगलन प्रक्रियाओं के माध्यम से सिर्फ 1 प्रतिशत तांबा रिसाइकिल हो पा रहा है. इसे लेकर समय पर और लक्षित कार्रवाई की आवश्यकता है. तांबे के स्क्रैप पर जीएसटी कम करना, गुणवत्ता मानकों को लागू करना और रीसाइक्लिंग के लिए कुछ नियम अनिवार्य रूप से लागू किए जाने चाहिए. ये सुधार इस क्षेत्र को औपचारिक बनाने में मदद कर सकते हैं. रीसाइक्लिंग क्षेत्र को औपचारिक बनाना एक जटिल प्रक्रिया साबित हो सकती है, लेकिन तांबे के स्क्रैप और ई-कचरे के सुरक्षित निपटान को प्रोत्साहित करने के लिए समर्पित सुविधाओं की स्थापना से इसमें मदद मिल सकती है. एक मज़बूत नियामक ढांचा और अनुसंधान एवं विकास निवेश भी इसमें काफ़ी फायदेमंद साबित हो सकता है. इससे नवीकरणीय ऊर्जा के साथ ग्रिड एकीकरण आसान होगा, जिससे सर्कुलरिटी को वास्तव में बढ़ावा मिल सकता है.


अनिका छिल्लर ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर इकोनॉमिक ग्रोथ में रिसर्च असिस्टेंट हैं.
कृष्णा वोहरा ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन के सेंटर फॉर इकोनॉमिक ग्रोथ में रिसर्च असिस्टेंट हैं.

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