Published on Apr 24, 2023 Updated 0 Hours ago

जैसे जैसे डॉलर के दबदबे के ख़ात्मे की अटकलें बढ़ रही हैं, तो चीन को लग रहा है कि वो इन अटकलों को हवा देकर युआन को विकल्प के तौर पर पेश करें.

अमेरिका के आर्थिक दबदबे पर चीन में क्या चर्चा चल रही है?

हाल के दिनों में अमेरिका के साथ अपने रिश्तों में गिरावट आने के बाद से चीन लगातार अमेरिका के वित्तीय दबदबे पर हमले बोल रहा है. अपनी इस कोशिश में चीन, विकासशील देशों के मुद्दों को मोहरा बना रहा है. असल में अमेरिका द्वारा अपनी वायु सीमा में घुसे जासूसी गुब्बारेको मार गिराए जाने के बाद से बेहद नाराज़ है. इसके अलावा चीन को अपनी तकनीकी कंपनी टिक टॉक के प्रमुख से अमेरिका में पूछताछ से भी शिकायत है. इसके उलट, चीन के राष्ट्रपति शी जिनपिंग का राष्ट्रपति पुतिन से मिलने के लिए रूस का दौरा करना और ताइवान की राष्ट्रपति त्साई इंग-वेन के अमेरिका दौरे के पलटवार के तौर पर चीन द्वारा सैन्य अभ्यास करने से अमेरिका उससे नाराज़ है. चीन का मूल्यांकन है कि अमेरिका के साथ उसके रिश्तों में सुधार की अब कोई उम्मीद नहीं है. ये बात चीन के रणनीतिज्ञ वांग जिसी के इस दावे से और साबित होती है कि चीन और अमेरिका के रिश्ते दोनों देशों के घरेलू कारणों से ख़राब हुए है और अब दोनों देशों के बीच कितनी भी बातचीत हो जाए, इससे हालात सुधरने वाले नहीं हैं.

इस लेख में आगे ये भी कहा गया है कि अमेरिका द्वारा ब्याज दरें बढ़ाने से वैश्विक वित्तीय बाज़ारों में पूंजी की क़िल्लत हो गई है, विकासशील देशों से पूंजी बाहर जा रही है और विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था में इस वक़्त सुस्ती आ रही है.

इसी वजह से चीन ने अमेरिका के वित्तीय दबदबे पर चौतरफ़ा हमला बोल दिया है. चीन ने इस संदर्भ में अमेरिका में एक के बाद एक कई बैंकों के तबाह होने और अमेरिका के मित्र देश फ्रांस के राष्ट्रपति इमैनुएल मैक्रों के उस बयान को आधार बनाया है, जिसमें मैक्रों नेअमेरिका से बाहर डॉलर के दबदबेकी आलोचना की थी. इन बातों ने चीन को अमेरिका के वित्तीय दबदबे को लेकर बहस छेड़ने में मदद की है.

चीन के सरकारी मीडिया में लिखने वाले विशेषज्ञों ने, विकासशील देशों में रिकॉर्ड महंगाई दर और अन्य जोखिमों के लिए अमेरिका की उस मौद्रिक नीति को ज़िम्मेदार ठहराया है, जिसे 2020 में कोविड महामारी के बाद तैयार किया गया था. इस लेख में विशेष रूप से अर्जेंटीना का उदाहरण दिया गया है, जहां 1990 के दशक के बाद से पहली बार महंगाई दर 100 प्रतिशत की सीमा को भी पार कर गई है. चीन के विशेषज्ञ ने अपने लेख में इसके लिए अमेरिकी डॉलर कीज़रूरत से ज़्यादा आपूर्तिको ज़िम्मेदार ठहराया है. इस लेख में आगे ये भी कहा गया है कि अमेरिका द्वारा ब्याज दरें बढ़ाने से वैश्विक वित्तीय बाज़ारों में पूंजी की क़िल्लत हो गई है, विकासशील देशों से पूंजी बाहर जा रही है और विकासशील देशों की अर्थव्यवस्था में इस वक़्त सुस्ती रही है. इसके अतिरिक्त, इस लेख में ये भी कहा गया है कि देशों पर डॉलर के तौर पर लदे क़र्ज़  को लौटाने का दबाव बहुत तेज़ी से बढ़ा है, जिससे कम आमदनी वाले देशों के दिवालिया होने या क़र्ज़ के बोझ तले दम तोड़ने का संकट बढ़ गया है. इस लेख में इन देशों की परेशानियों को 1998 के एशियाई वित्तीय संकट को लेकर अमेरिका की सोच से तुलना करके बताया गया है कि उस संकट के बाद अमेरिकी कंपनियों को उन क्षेत्रों की संपत्तियों के अधिग्रहण का मौक़ा मिल गया, जिसके दरवाज़े तब तक विदेशी निवेश के लिए बंद थे.

चीन की प्रतिक्रिया

चीन के एक और जानकार ने तर्क दिया है कि अमेरिकी व्यवस्था में राजनीतिक कुलीन वर्ग और वित्तीय क्षेत्र के बीच काफ़ी साठ-गांठ है, जिससे विशेष हित समूह इन पर क़ब्ज़ा कर लेते है और फिर अपने हितों के हिसाब से नियमों को तोड़ते मरोड़ते है, जो बैंकों में पैसा जमा करने वालों के हितों के ख़िलाफ़ होता है. इस लेख में अमेरिकी संसद के निचले सदन के पूर्व सदस्य बार्नी फ्रैंक का उदाहरण दिया गया है. लेख में कहा गया है कि जब बार्नी फ्रैंक सांसद थे, तो उन्होंने हमेशा बैंकिंग के नियम सख़्त बनाने पर ज़ोर दिया था. लेकिन, जब वो सिग्नेचर बैंक के बोर्ड के सदस्य बन गए, तब उन्होंने यू-टर्न लेते हुए बैंकिंग सेक्टर के नियमों में रियायत देने की वकालत शुरू कर दी. सिग्नेचर बैंक को हाल ही में अमेरिकी सरकार ने बंद कर दिया था. इस टिप्पणीकार ने ये भी जोड़ा कि हाल ही में तबाह होने वाले सिलिकॉन वैली बैंक में निर्णय लेने के स्तर पर काबिल इन्वेस्टमेंट बैंकर्स की तुलना में राजनीतिक नियुक्तियां अधिक की गई थी.

अभी हाल ही में विकासशील देशों और अमेरिका के रिश्तों को लेकर चीन के जानकारों ने काफ़ी चिंताएं जताई हैं. चीन के राष्ट्रवादी मीडिया संगठन गुंचा  में प्रकाशित एक लेख में, चीन के ‘लाओस- कंबोडिया’ के विकास मॉडल के बरक्स अमेरिका के ‘इराक़- अफ़ग़ानिस्तान’ मॉडल को पेश किया गया है. इस लेख में चीन के बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव (BRI) के तहत एशिया में बनाई गई मूलभूत ढांचे के विकास की परियोजनाओं की चर्चा की गई है. लेख में क्यूबा, उत्तर कोरिया और वेनेजुएला के ख़िलाफ़ ‘डॉलर को हथियार’ की तरह इस्तेमाल किए जाने की ओर इशारा करते हुए कहा गया है कि दुनिया के लगभग एक तिहाई देश किसी न किसी दौर में अमेरिका के कारोबारी या वित्तीय प्रतिबंधों के शिकार हो चुके हैं. इस लेख में आर्थिक क्षेत्र में रूस और चीन के सहयोग की तुलना, 19वीं सदी के आख़िर में उत्तरी अमेरिका में अमेरिका के विस्तार से की गई, जिससे पूरे महाद्वीप में फैले एक एकीकृत बाज़ार का निर्माण हुआ था. अफ़ग़ानिस्तान के बारे में हाल ही में प्रकाशित एक लेख में चीन ने अमेरिका पर अफ़ग़ानिस्तान पर इकतरफ़ा प्रतिबंध लगाने और विदेशों में संपत्तियां ज़ब्त करके अफ़ग़ानिस्तान के विकास को बाधित करने का आरोप लगाया है. इस लेख में ‘विवादित वैश्विक भू-राजनीतिक मुद्दों’ के शांतिपूर्ण समाधान के लिए चीन द्वारा किए जा रहे प्रयासों की तारीफ़ करते हुए, उसे एक वैकल्पिक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था के ‘अधिक क़ाबिल’ नेता के तौर पर पेश किया गया है और अमेरिका के दोनों, यानी राजनीतिक और वित्तीय प्रभुत्वों पर हमला किया गया है.

अमेरिका का रुख

यूक्रेन में शांति को लेकर अपने 12 सूत्रीय प्रस्ताव के बाद, चीन का ये लेख उन बुनियादी सिद्धांतों का हवाला देता है, जो अफ़ग़ानिस्तान को लेकर उसकी नीतियों का आधार हैं. पहला, तो ये कि अफ़ग़ानिस्तान में ‘नरमपंथी सरकार’ का गठन होना चाहिए. अफ़ग़ानिस्तान की जनता को दी जा रही चीन की नि:स्वार्थ मदद को अन्य देशों के निजी हितों से अलग बताते हुए कहा गया है कि चीन, अफ़ग़ानिस्तान की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता के साथ साथ अफ़ग़ान जनता की ‘स्वतंत्र पसंद’ और उनकी धार्मिक भावनाओं का सम्मान करता है. पूरे लेख में एक बात पर बहुत ज़ोर दिया गया है कि अफ़ग़ानिस्तान में संकट के लिए किस तरह अमेरिका ज़िम्मेदार है. 2021 में अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की वापसी के बाद से चीन लगातार अमेरिका द्वारा वहां से अपनी सेना वापस बुलाने के तरीक़े और तालिबान पर लगाए गए एकतरफा प्रतिबंधों की आलोचना करता रहा है. चीन, अमेरिका के इन क़दमों को ‘डकैती’ कहता है. अमेरिका के दबदबे पर चीन का ये हमला, संकट का इस्तेमाल करके अफ़ग़ानिस्तान में अपनी स्थिति मज़बूत करने की उसकी पुरानी रणनीति का हिस्सा है. ये रणनीति, चीन के उन प्रयासों का ही अगला क़दम है, जिसमें वो अमेरिका को ‘अपना दबदबा छोड़ने’ और अन्य देशों के साथ दोनों के भले के लिए सहयोग और शांतिपूर्ण सह-अस्तित्व की नीति पर चलने के लिए कहता रहा है और इसके लिए अमेरिका को अन्य देशों की संप्रभुता और क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान करने की सीख देता रहा है.

2021 में अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान की वापसी के बाद से चीन लगातार अमेरिका द्वारा वहां से अपनी सेना वापस बुलाने के तरीक़े और तालिबान पर लगाए गए एकतरफा प्रतिबंधों की आलोचना करता रहा है. चीन, अमेरिका के इन क़दमों को ‘डकैती’ कहता है.

अमेरिका के वित्तीय दबदबे पर चीन का हमला और विकासशील देशों के लिए अचानक जागी हमदर्दी असल में एक छलावा है. असल में चीन, दुनिया से डॉलर का दबदबा ख़त्म करके ये भूमिका युआन के लिए चाहता है. गुआंग शियाओपू द्वारा लिखा गया एक लेख, सेंट्रल कमीशन फॉर डिसिप्लिन इंस्पेक्शन (CCDI) की वेबसाइट पर प्रकाशित किया गया था. इस आयोग की ज़िम्मेदारी चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के भीतर भ्रष्टाचार पर नज़र रखने की है. लेख में गुआंग शियाओपू तर्क देते हैं कि जब से डॉलर एक साझा भुगतान व्यवस्था से अमेरिकी शक्ति का हथियार बना है, तब से ही इसके दबदबे पर सवाल उठ रहे हैं. लेखक ने बताया है कि रूस आज SWIFT व्यवस्था की जगह लेने के लिए भुगतान की नई व्यवस्था बना रहा है. इसके अलावा व्यापार पर आधारित मौद्रिक समूह भी, अमेरिकी डॉलर के दबदबे को चुनौती दे रहे हैं. लेखक सुझाव देता है कि डॉलर पर भरोसे में कमी, असल में चीन के लिए एक मौक़ा है कि वो अंतरराष्ट्रीय व्यापारिक लेन-देन और मौद्रिक भंडार के रूप में युआन के चलन को बढ़ावा दे. लेख में कहा गया है कि चीन को चाहिए कि वो चाइना इंपोर्ट एंड एक्सपोर्ट फेयर, चाइना इंटरनेशनल फेयर फॉर ट्रेड इन सर्विसेज़ और सीमाओं के आर-पार स्थित ई-कॉमर्स के इलाक़ों और अपने वित्तीय केंद्रों जैसे कि हॉन्ग कॉन्ग और शंघाई में मानवीय पूंजी की विशेषज्ञता का इस्तेमाल युआन को लोकप्रिय बनाने के लिए करें.

इस बात को समाप्त करते हुए बता दें कि अपने हमलों के लिए अपने प्राचीन सिद्धांतों का इस्तेमाल करता है. इनमें से एक है, ‘शेंग डोंग रग शी’. इसका मतलब है शोर पूरब में मचाओ और हमला पश्चिम में करो. आज जब डॉलर का दबदबा ख़त्म होने की अटकलें चल रही हैं, तो चीन को ये मुफ़ीद लगता है कि वो इन अटकलों को विकासशील देशों के उदाहरणों के ज़रिए हवा दे. चीन चाहेगा कि हम इस सच्चाई को भूल जाएं कि उसने दक्षिण एशिया में मूलभूत ढांचे की बेमतलब और भारी-भरकम परियोजानाओं का निर्माण किया और फिर कोविड महामारी से प्रभावित देशों को क़र्ज़ लौटाने में रियायत देने का वादा पूरा करने में आनाकानी करता रहा. इससे भी बड़ी बात ये कि विकासशील देशों के मुद्दों पर शोर मचाना, चीन की उस रणनीति का हिस्सा है, जिसके तहत वो भारत द्वारा अपनी G20 अध्यक्षता और वॉयस ऑफ़ ग्लोबल साउथ शिखर सम्मेलन जैसे मंचों के ज़रिए विकासशील देशों से संपर्क बढ़ाने की कोशिशों का विरोध कर सके.

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Authors

Kalpit A Mankikar

Kalpit A Mankikar

Kalpit A Mankikar is a Fellow with Strategic Studies programme and is based out of ORFs Delhi centre. His research focusses on China specifically looking ...

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Shivam Shekhawat

Shivam Shekhawat

Shivam Shekhawat is a Junior Fellow with ORF’s Strategic Studies Programme. Her research focuses primarily on India’s neighbourhood- particularly tracking the security, political and economic ...

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