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वैसे तो आधिकारिक तौर पर चीन ‘पीक चाइना’ को बहुत तवज्जो नहीं दे रहा है. लेकिन, इसको लेकर चल रही परिचर्चाओं से चीन के घरेलू हालात पर नकारात्मक प्रभाव पड़ रहा है.
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शेयर बाज़ार में तबाही और प्रॉपर्टी के बाज़ार में उथल-पुथल से लेकर, घरेलू क़र्ज़ में बढ़ोत्तरी और खपत के स्थिर होने तक, हाल के महीनों में चीन की अर्थव्यवस्था को कई चुनौतियों का सामना करना पड़ा है, और इसकी वजह से चीन में हताशा और निराशा के माहौल ने घर कर लिया है.
चीन के कुछ विद्वानों का मानना है कि चीन के नागरिकों के बीच निराशा का बढ़ता माहौल, अमेरिका द्वारा शुरु किए गए ‘बड़े पैमाने पर जनता की राय बनाने के आक्रामक अभियान’ की वजह से और भी बिगड़ता जा रहा है.
अब लोगों को ये बात समझ में आने लगी है कि पिछले कुछ दशकों से बाहरी और अंदरूनी अवसरों वाले जिस मॉडल ने चीन के तेज़ आर्थिक विकास में योगदान दिया था, उसका अस्तित्व शायद समाप्त हो गया है और अब चीन आने वाले समय में चुनौतियों की बाढ़ का सामना करने वाला है. कुछ जानकार तो घटती उत्पादकता, उत्पादन की बढ़ती लागत, निवेश पर लगातार घटते रिटर्न (ख़ास तौर से मूलभूत ढांचे के क्षेत्र में), आबादी की बढ़त के लापता होते लाभ और अन्य कारणों के कारण ये आशंका जता रहे हैं कि चीन भी जापान के रास्ते पर चल पड़ा है और अब शायद उसके लिए अमेरिका के साथ बराबरी कर पाना संभव नहीं रह जाएगा.
चीन के कुछ विद्वानों का मानना है कि चीन के नागरिकों के बीच निराशा का बढ़ता माहौल, अमेरिका द्वारा शुरु किए गए ‘बड़े पैमाने पर जनता की राय बनाने के आक्रामक अभियान’ की वजह से और भी बिगड़ता जा रहा है. अमेरिका, ‘पीक चाइना’ के नाम से ये अभियान चला रहा है, जिसके ज़रिए ये बताने की कोशिश की जा रही है कि चीन अपनी आर्थिक शक्ति के शीर्ष पर पहुंच चुका है और यहां से अब उसका पतन ही होना है.
रेनमिन यूनिवर्सिटी के चोंगयांग थिंक टैंक ने हाल ही में एक रिपोर्ट जारी की थी, जिसका शीर्षक, ‘वाहियात नैरेटिव: हाल के दिनों में आई ‘पीक चाइना’ की अटकलें और उनको जवाब देने के तरीक़ों के सुझाव’ था. इसमें कहा गया था कि अगस्त 2023 में जब से अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने चीन की अर्थव्यवस्था को ‘टिक टिक करता टाइम बम’ क़रार दिया था, उसके बाद से ही पश्चिम के सामरिक समुदाय के एक तबक़े की तरफ़ से चीन की आर्थिक संभावनाओं को नीचा दिखाने की कोशिश की जा रही हैं. इस रिपोर्ट में कहा गया कि अगस्त से दिसंबर 2023 के दौरान, पश्चिम के कई प्रभावशाली मीडिया संगठनों में 160 से ज़्यादा ऐसे लेख प्रकाशित किए गए हैं, जिनमें दावा किया गया है कि, ‘चीन की तुलनात्मक शक्ति अपने उरूज पर पहुंच चुकी है’, ‘चीन का विकास ख़त्म हो गया है’, और ‘चीन की सुस्ती का दौर शुरू हो गया है’ वग़ैरह..वग़ैरह. इस रिपोर्ट में बताया गया कि वॉल स्ट्रीट जर्नल जैसे अमेरिकी मीडिया संस्थानों के चीनी संस्करणों में ‘चीन की आर्थिक गिरावट’ को लेकर विशेष लेख प्रकाशित किए जा रहे हैं.
भले ही ‘पीक चाइना’ की परिचर्चाओं से चीन का सामरिक समुदाय बहुत परेशान हो. मगर अब तक उसकी तरफ़ से इन चर्चाओं का कोई ठोस जवाब या फिर चीन के विकास की संभावनाओं के पक्ष में प्रभावी तर्क नहीं पेश किया जा सका है.
आधिकारिक तौर पर तो चीन के राजनयिक ‘पीक चाइना’ की इन परिचर्चाओं को ‘चीन के तबाह होने के काल्पनिक सिद्धांत’ का ऐसा एक नया रूप बता रहे हैं, जो पिछले 25 सालों में कई बार उभरा और अपने आप ही उसका ग़ुब्बारा फूटता भी रहा है. हालांकि, चीन में घरेलू स्तर पर इन परिचर्चाओं ने चीन के सरकारी हलकों में घबराहट का माहौल पैदा कर दिया है.
चीन के राष्ट्रीय सुरक्षा मंत्रालय के वीचैट सार्वजनिक अकाउंट में दिसंबर 2023 में एक लेख प्रकाशित किया गया था, जिसका शीर्षक था, ‘राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसियों ने आर्थिक सुरक्षा के एक मज़बूत कवच का निर्माण किया है.’ इस लेख में चीन के नागरिकों से अपील की गई थी कि वो ‘चीन के पतन’ को लेकर ‘परिचर्चाओं के ऐसे जाल’ और ‘ज्ञान के झांसे’ में न आएं, जिसमें चीन की ख़ूबियों वाले समाजवाद की व्यवस्था और उसके रास्ते के बारे में आशंकाएं जताई जा रही हैं. दोबारा, नए साल की शुरुआत में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की सेंट्रल कमेटी के इंटरनेशनल डिपार्टमेंट के प्रमुख लियु जियांचाओ ने साल की अपनी पहली यात्रा किसी समाजवादी या फिर अन्य विकासशील देश से शुरू करने की परंपरा को तोड़ते हुए, साल के अपने पहले दौरे पर अमेरिका है. अमेरिका दौरे में जियांचाओ की बातों का एक प्रमुख बिंदु ‘पीक चाइना’ की परिचर्चाओं को लेकर ऐतराज़ जताना था.
पहला तो चीन के भीतर एडम एस पोसेन जैसे अर्थशास्त्रियों द्वारा किए गए उन दावों का जनता की राय पर गहरा असर पड़ रहा है कि चीन की आर्थिक चुनौतियां राष्ट्रपति शी जिनपिंग की दख़लंदाज़ी वाली नीतियों का नतीजा हैं. चीन के आम नागरिकों के बीच इन दावों को काफ़ी स्वीकार्यता मिल रही है कि, शी जिनपिंग की अगुवाई वाली मौजूदा सरकार अर्थव्यवस्था के ऊपर सुरक्षा और विचारधारा को तरज़ीह दे रही है और सत्ता का केंद्रीकरण कर रही है और अकुशल सरकारी कंपनियों को तवज्जो दे रही है और इस तरह घातक तौर पर निजी उद्यमियों पर दबाव बना रही है और इस तरह आर्थिक नीतियों और सुधारों और खुलेपन को लेकर ‘वक़्त का पहिया उल्टा घुमा रही है’. लोगों को लग रहा है कि शी जिनपिंग के नेतृत्व में चीन में ‘सरकार का दायरा बढ़ता जा रहा है और निजी क्षेत्र सिमटता जा रहा है’. इस वजह से लोगों को मानसिक थकान होने लगी है. ऐसा लग रहा है कि कम्युनिस्ट पार्टी के शासन वाले चीन को कुछ अनपेक्षित तबक़ों से राहत मिल रही है. जैसे कि ‘मिलेई के नुस्खे’. यानी अर्जेंटीना के राष्ट्रपति ज़ेवियर मिलेई की अगुवाई वाली नई दक्षिणपंथी ‘अति उदारवादी’ सरकार द्वारा हाल ही में सुझाए गए आर्थिक सुधार के तौर-तरीक़े. ऐसे में हैरानी नहीं होनी चाहिए कि चीन के सरकारी हलकों में इस बात को लेकर घबराहट का माहौल है कि चीन के समाज और सरकार के बीच मतभेद या अविश्वास बढ़ रहे हैं. जनता और नेताओं के बीच दूरी बढ़ रही है, जिसकी वजह से चीन की कम्युनिस्ट पार्टी की सत्ता के लिए ख़तरे पैदा होने का डर है.
दूसरा, चीन के कुछ पर्यवेक्षकों को लगता है कि ‘पीक चाइना’ की परिचर्चाओं ने चीन पर अंतरराष्ट्रीय समुदाय के भरोसे को कुछ हद तक कमज़ोर किया है, इस वजह से चीन के विकास की लागत बढ़ गई है. निवेशकों के बीच माहौल कमज़ोर होने, बाज़ार में उथल पुथल, विदेशी निवेश को चीन से बाहर ले जाने और चीन के जाने माने अमीर लोगों और क़ाबिल वरिष्ठ प्रबंधकों के देश छोड़ने की वजह से चीन के आर्थिक विकास में आई गिरावट की स्थिति और बिगड़ गई है और इस तरह चीन की सरकार पर, देश की अर्थव्यवस्था को स्थिर करन का दबाव काफ़ी बढ़ गया है.
तीसरा, भले ही ‘पीक चाइना’ की परिचर्चाओं से चीन का सामरिक समुदाय बहुत परेशान हो. मगर अब तक उसकी तरफ़ से इन चर्चाओं का कोई ठोस जवाब या फिर चीन के विकास की संभावनाओं के पक्ष में प्रभावी तर्क नहीं पेश किया जा सका है. इसकी वजह महामारी के बाद चीन का अपेक्षा से कहीं कम अच्छा आर्थिक प्रदर्शन रहा है. वैसे तो विश्व बैंक के पूर्व उपाध्यक्ष और लिन यिफु और पेकिंग यूनिवर्सिटी के स्कूल ऑफ इकोनॉमिक्स के प्रोफ़ेसर काओ हेपिंग जैसे चीन के अर्थशास्त्री अभी भी यही तर्क दे रहे हैं कि चीन में अभी भी 2035 तक 8 से 10 प्रतिशत सालाना की दर से आर्थिक विकास की संभावना मौजूद है. लेकिन, ऐसा लगता है कि वो ऐसे पूर्वानुमानों पर जनता का यक़ीन और विश्वास जगा पाने में नाकाम साबित हो रहे हैं.
जो बात भारत के लिए महत्वपूर्ण है, वो ये कि ‘पीक चाइना’ की चर्चाओं वजह से चीन की चिंता ऐसे समय में बढ़ गई है, जब दुनिया में भारत की तरक़्क़ी के रफ़्तार पकड़ने की चर्चाएं चल रही हैं. ऐसा लगता है कि चीन में जनता की राय, जो आम तौर पर भारत की संभावनाओं को ख़ारिज करने वाली रहती आई है, उसके लिए अब दोनों देशों की आर्थिक परिस्थितियों के एक दूसरे के विपरीत संकेतों के साथ तालमेल बिठा पाना मुश्किल हो रहा है. फिर चाहे बात GDP विकास दर की हो, आबादी की बढत या श्रमिक बाज़ार के लाभ और शेयर बाज़ारों के प्रदर्शन जैसे मसलों की क्यों न हो. चीन की जनता के बीच इन दिनों जिन सवालों में दिलचस्पी जताई जा रही है, वो इस तरह हैं- ‘क्या मेक इन इंडिया’ अब ‘मेक इन चाइना’ की जगह लेगा; ‘क्या भारत का विकास मॉडल’ विकासशील देशों के बीच ‘चीनी मॉडल’ की लोकप्रियता को पछाड़ देगा?
अमेरिका और पश्चिमी देश ‘पीक चाइना’ की थ्योरी का शोर जानबूझकर मचा रहे हैं और इसके साथ साथ वो ‘भारत की सदी’ की परिकल्पना को भी हवा दे रहे हैं, ताकि चीन को रोकने की अमेरिकी रणनीति के तहत ‘चीन के ऊपर भारत को बढ़ावा दे सकें’.
चीन के कुछ विद्वान, भारत के पहलू को कम आंकते हुए पेश करके इन चिंताओं को दूर करने के प्रयास कर रहे हैं. इसके लिए वो ‘पीक चाइना’ को ‘हक़ीक़त से कहीं ज़्यादा शोर’ (पश्चिम का दुष्प्रचार) साबित करने की कोशिश कर रहे हैं. मिसाल के तौर पर, चाइना इंस्टीट्यूट ऑफ कंटेंपरेरी इंटरनेशनल रिलेशंस (CICIR) के साउथ एशिया इंस्टीट्यूट के कार्यकारी निदेशक लोउ चुनहाओ ने भारत की अर्थव्यवस्था पर अपने विश्लेषणात्मक लेख में भारत के आर्थिक उभार की संभावनाओं के पीछे छुपी तमाम अनिश्चितताओं को रेखांकित किया था. उन्होंने ये दावा भी किया था कि अमेरिका और पश्चिमी देश ‘पीक चाइना’ की थ्योरी का शोर जानबूझकर मचा रहे हैं और इसके साथ साथ वो ‘भारत की सदी’ की परिकल्पना को भी हवा दे रहे हैं, ताकि चीन को रोकने की अमेरिकी रणनीति के तहत ‘चीन के ऊपर भारत को बढ़ावा दे सकें’.
इस बीच, चाइना इंस्टीट्यूट ऑफ इंटरनेशनल स्टडीज़ (CIIS) में एशिया पेसिफिक इंस्टीट्यूट के निदेशक लान जियाशू जैसे विद्वान ‘भारत की संभावनाओं को नए सिरे से तलाश करने’, और ‘घिसी पिटी सोच को पीछे छोड़ने’ जैसे तर्कों की वकालत करते हुए ये कह रहे हैं कि ‘भारत के आर्थिक उभार की सच्चाई का सामना करना होगा’ और इस तरह भारत को लेकर चीन की दूरगामी सामरिक सोच, सिद्धांतों और नीतियों में ज़रूरत के मुताबिक़ बदलाव भी करना चाहिए.
चीन में भारत को लेकर चल रही इस तरह की चर्चाओं के माहौल में हम ये देख रहे हैं कि चीन का प्रोपेगैंडा अख़बार ग्लोबल टाइम्स, अपने व्यवहार से अलग हटकर भारत की आर्थिक तरक़्क़ी की तारीफ़ करने वाले लेख छाप रहा है और भारत को ‘एक प्रमुख शक्ति’ और ‘एक भू-राजनीतिक तत्व’ बता रहा है. हालांकि, ‘पीक चाइना’ की चर्चाओं के बीच भारत के आर्थिक तरक़्क़ी की उड़ान भरने को लेकर चीन की जनता की राय सशंकित ही है और घरेलू स्तर पर लोग चीन की सरकार से यही अपील कर रहे हैं कि वो ऐसी संस्थागत नीतियां बनाएं, जिससे भारत के औद्योगीकरण को सीमित किया जा सके और अमेरिका द्वारा भारत को चीन के प्रतिद्वंदी के तौर पर खड़ा करने की मुहिम को रोका जा सके.
कुल मिलाकर, हम ये कह सकते हैं कि वैसे तो चीन आधिकारिक तौर पर ‘पीक चाइना’ की परिचर्चाओं को बहुत गंभीरता से लेता नहीं दिख रहा है. लेकिन, इन बातों का चीन के घरेलू हालात पर नकारात्मक प्रभाव ज़रूर पड़ रहा है. भारत के लिए महत्वपूर्ण बात ये है कि चीन की अंदरूनी परिचर्चाओं और वाद-विवाद में ‘पीक चाइना’ के दावों का मूल्यांकन ‘भारत की तरक़्क़ी’ की चर्चाओं की तुलना के साथ किया जा रहा है. क्या इससे चीन की सरकार, भारत के उभार को स्वीकार करने के लिए मजबूर होगी और वो भारत के हितों को लेकर अधिक संवेदनशील होगी (जैसा कि हाल के दिनों में चीन के सामरिक समुदाय की तरफ़ से कुछ लोग ये संकेत देते रहे हैं)? या फिर इससे भारत को लेकर चीन की नाराज़गी और बढ़ेगी और वो और ज़िद पकड़ लेगा, जिससे एशिया की दो बड़ी ताक़तों के बीच नए टकराव होंगे (जैसा कि चीन की जनता के बीच ज़बरदस्त माहौल है). ये ऐसा सवाल है, जिसका जवाब हमें भविष्य में ही मिल सकेगा.
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Antara Ghosal Singh is a Fellow at the Strategic Studies Programme at Observer Research Foundation, New Delhi. Her area of research includes China-India relations, China-India-US ...
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