दुनिया का सबसे बड़ा ऊर्जा उपभोक्ता और कार्बन उत्सर्जक होने के कारण चीन पर ही सभी की नजरें यह जानने के लिए जमी हुई थीं कि ‘कम कार्बन उत्सर्जन’ वाली अर्थव्यवस्था बनने की वैश्विक मुहिम में आखिरकार यह देश किन-किन ऊर्जा विकल्पों को अपनाता है। बहरहाल, इस मामले में चीन का प्रदर्शन उम्मीद से कहीं अधिक रहा है, जैसा कि निम्नलिखित शैलीगत तथ्यों से साफ जाहिर होता है।
चीन द्वारा वर्ष 2020 तक अक्षय या नवीकरणीय ऊर्जा में लगभग 360 अरब अमेरिकी डॉलर का निवेश करने और 85 कोयला-आधारित बिजली संयंत्रों का निर्माण करने की योजनाओं को मूर्त रूप देने की उम्मीद है। चीन ने वर्ष 2016 में अक्षय ऊर्जा के क्षेत्र में लगभग 78 अरब अमेरिकी डॉलर का निवेश किया, जो दुनिया में सर्वाधिक था और अक्षय ऊर्जा में हुए कुल वैश्विक निवेश का 32 प्रतिशत था। यूरोपीय संघ ने अक्षय ऊर्जा में कुल मिलाकर लगभग 59 अरब अमेरिकी डॉलर और अमेरिका ने लगभग 46 अरब अमेरिकी डॉलर का निवेश किया। वर्ष 2016 में चीन द्वारा अक्षय ऊर्जा के अनुसंधान एवं विकास में किया गया लगभग 2 अरब अमेरिकी डॉलर का निवेश इस दौरान यूरोपीय संघ द्वारा किए गए 2.2 अरब अमेरिकी डॉलर के निवेश के लगभग बराबर था। यूरोपीय संघ ही ‘कम कार्बन उत्सर्जन वाली अर्थव्यवस्था’ अपनाने की वैश्विक वैचारिक मुहिम की अगुवाई कर रहा है।
चीन द्वारा वर्ष 2015 और वर्ष 2021 के बीच समस्त वैश्विक जलविद्युत क्षमता का 36 प्रतिशत, कुल पवन ऊर्जा क्षमता का 40 प्रतिशत और समस्त वैश्विक सौर ऊर्जा क्षमता का 36 प्रतिशत स्थापित किए जाने की उम्मीद है। यही नहीं, वर्ष 2040 तक परमाणु ऊर्जा क्षमता में होने वाली कुल वृद्धि में चीन का योगदान 54 प्रतिशत होगा और चीन वर्ष 2030 तक संयुक्त राज्य अमेरिका को पछाड़ कर सर्वाधिक परमाणु ऊर्जा उत्पादन क्षमता वाला देश बन जाएगा। चीन के सरकारी पावर ग्रिड निगम, जो दुनिया में सबसे बड़ा है, ने एक ऐसा वैश्विक ग्रिड विकसित करने की योजना बनाई है जो विश्व भर से पवन और सौर ऊर्जा ग्रहण करेगा। दुनिया के छह सबसे बड़े सोलर मॉड्यूल निर्माताओं में से पांच चीन में ही हैं। इसी तरह चीनी कंपनियों की भी गिनती सबसे बड़े पवन टर्बाइन निर्माताओं में होती है। कुल लिथियम उत्पादन में चीनी कंपनियों का 90 प्रतिशत हिस्सा है, जिसे भंडारण बैटरियों के निर्माण में अत्यंत महत्वपूर्ण माना जाता है। बैटरियां न केवल अक्षय ऊर्जा के स्रोतों से प्राप्त होने वाली बिजली की अनिरंतरता का समुचित प्रबंधन करने के लिहाज से महत्वपूर्ण हैं, बल्कि वे इलेक्ट्रिक वाहनों को भी बिजली देती हैं, जिन्हें परिवहन के भावी साधन के रूप में देखा जाता है। इतना ही नहीं, दुर्लभ पृथ्वी खनिजों के कुल उत्पादन में भी चीनी कंपनियों का 72 प्रतिशत से ज्यादा हिस्सा है, जो अक्षय ऊर्जा प्रौद्योगिकियों के निर्माण का अहम हिस्सा हैं। चीन ने वर्ष 2016 से लेकर वर्ष 2020 तक की अपनी 13वीं पंचवर्षीय योजना के दौरान ऊर्जा की तीव्रता या गहनता में 15 प्रतिशत की कमी करने की योजना बनाई है। चीन ही एकमात्र विकासशील देश है, जिसने ऑटोमोबाइल यानी वाहनों के लिए दक्षता मानकों को लागू किया है। विश्व भर में उपलब्ध 8.1 मिलियन तथाकथित हरित ऊर्जा नौकरियों में से 3.1 मिलियन अकेले चीन में ही हैं।
ये आंकड़े यहां तक कि इस क्षेत्र की विशेष जानकारी न रखने वालों को भी गहरी चिंता में डाल सकते हैं, लेकिन चीन के अपेक्षाकृत विशाल आकार और वहां हुए व्यापक औद्योगीकरण के संदर्भ में देखने पर हम यही पाते हैं कि चीन के निवेश एवं पहलों को भावी ऊर्जा परिदृश्य में वैश्विक प्रभुत्व हासिल करने के लिए एक सुनियोजित प्रयास मानने के बजाय घरेलू मजबूरियों के मद्देनजर तर्कसंगत कदम माना जाना चाहिए। कम कार्बन उत्सर्जन वाली प्रौद्योगिकियों में चीन का प्रभुत्व दरअसल कुछ अन्य उभरते क्षेत्रों जैसे कि मोबाइल संचार, ई-कॉमर्स और क्वांटम क्रिप्टोग्राफी (कूट-लेखन) में चीनी प्रभुत्व के चलन को देखते हुए निश्चित तौर पर कोई अपवाद नहीं है।
चीन में औद्योगीकरण की गति अभूतपूर्व थी, लेकिन पश्चिमी देशों की तुलना में चीन का रास्ता अपेक्षाकृत ज्यादा तेज और अपेक्षाकृत कम ऊर्जा गहन था। जहां एक ओर उन्नीसवीं शताब्दी में संयुक्त राज्य अमेरिका और ब्रिटेन को अपनी वास्तविक आय दोगुनी करने में 50 साल लग गए थे, वहीं दूसरी ओर चीन ने समान उपलब्धि महज 9 वर्षों में ही हासिल कर ली क्योंकि पश्चिमी तकनीकों और जानकारियों से लाभ उठाते हुए उसने प्रति कामगार अपेक्षाकृत कम पूंजी खर्च करके ही काम चला लिया। चीन में महज 19 वर्षों में थर्मल कोल (और अन्य महत्वपूर्ण प्राकृतिक संसाधन) की मांग में जो वृद्धि देखी गई वह पिछले 40 वर्षों में इन संसाधनों की वैश्विक मांग में दर्ज की गई बढ़ोतरी से भी कहीं ज्यादा थी। वैसे तो वर्ष 1980 से लेकर वर्ष 2010 तक की अवधि के दौरान चीन की अर्थव्यवस्था 18 गुना बढ़ गई, लेकिन इसकी ऊर्जा खपत में केवल पांच गुना वृद्धि हुई। इस अवधि के दौरान ऊर्जा तीव्रता प्रति यूनिट जीडीपी (सकल घरेलू उत्पाद) 70 प्रतिशत घट गई।
चीन में औद्योगीकरण की गति अभूतपूर्व थी, लेकिन पश्चिमी देशों की तुलना में चीन का रास्ता अपेक्षाकृत ज्यादा तेज और अपेक्षाकृत कम ऊर्जा गहन था।
हाल ही में चीन निवेश एवं विनिर्माण की अगुवाई वाली अर्थव्यवस्था के बजाय सेवाओं एवं खपत की अगुवाई वाली अर्थव्यवस्था में तब्दील हुआ है, जिसका नतीजा यह निकला है कि वहां ऊर्जा की मांग घट गई है और ऐसे में चीन की अर्थव्यवस्था की ऊर्जा तीव्रता या गहनता में भी काफी कमी आई है। चीन में कामकाजी आयु वाले लोगों की आबादी वर्ष 2012 के बाद से ही निरंतर घटती जा रही है और वर्ष 2050 तक इसमें 23 प्रतिशत की गिरावट होने का अनुमान है। इसका अर्थ यही है कि कम खर्चीले विनिर्माण कार्यों के लिए अधिक कामगारों पर निर्भरता अब संभव नहीं है। उत्पादकता बढ़ाना ही चीन के लिए एकमात्र विकल्प है, जिसका अर्थ ऊर्जा दक्षता में सुधार करना और कम खर्चीले विनिर्माण कार्यों से दूरी बनाकर ऊर्जा खपत को कम करना है। वर्ष 2016 में चीन में सेवा क्षेत्र ने जीडीपी में 52 प्रतिशत योगदान दिया था और घरेलू खपत ने जीडीपी वृद्धि दर में 60 प्रतिशत योगदान दिया था। चीन के बदलते विकास मॉडल के साथ-साथ विश्व स्तर पर जनसंख्या और खपत संबंधी मौजूदा रुझान से ‘कम कार्बन ऊर्जा वाली अर्थव्यवस्था’ को तेजी से अपनाना संभव नजर आ रहा है।
वैसे तो ‘कम कार्बन वाली अर्थव्यवस्था’ को अपनाना प्राथमिक ऊर्जा उपयोग के स्तर पर होने वाली एक महत्वपूर्ण घटना है, लेकिन इसमें तेजी ऊर्जा उपभोक्ताओं के साथ-साथ उच्च गुणवत्ता वाले ऊर्जा स्रोतों को उनके द्वारा प्राथमिकता देने पर ही निर्भर करेगी। विश्व स्तर पर प्रथम प्रमुख ‘ऊर्जा संक्रमण या बदलाव’ का आगाज औद्योगिक क्रांति के साथ हुआ था और यह ‘लगभग कुछ भी बाह्य ऊर्जा नहीं’ के बजाय ‘प्रचुर बाह्य ऊर्जा’ के उपयोग की ओर अग्रसर होने से जुड़ा मात्रात्मक एवं गुणात्मक संक्रमण था। इस तरह का बदलाव पहली बार ब्रिटेन में देखा गया था और इसके तहत पारंपरिक जैव ईंधनों (बायोमास) के बजाय जीवाश्म ईंधनों का इस्तेमाल शुरू हुआ था। इस बदलाव के तहत वर्ष 1500 से लेकर नब्बे के दशक के शुरुआती वर्षों तक ऊर्जा की आपूर्ति और मांग के मोर्चे पर अनगिनत प्रौद्योगिकियां विकसित की गईं। ऊर्जा उपयोग के मामले में दूसरा महत्वपूर्ण बदलाव नब्बे के दशक के आरंभ में तब शुरू हुआ जब वैश्विक ऊर्जा आपूर्ति में कोयले की हिस्सेदारी अपने चरम पर पहुंच गई थी। भाप इंजनों, आंतरिक दहन इंजनों और इलेक्ट्रिक मोटरों के प्रसार से जीवाश्म ईंधनों की मात्रा एवं संबंधित हिस्सेदारी में मात्रात्मक परिवर्तन देखने को मिले। कोयले की कीमत पर तेल और गैस की हिस्सेदारी बढ़ गई। हालांकि, उस दौरान यह स्थिति बिल्कुल नहीं थी कि कोयले का भारी अभाव था और उसके कारण ही अपेक्षाकृत अधिक महंगे तेल का चलन बढ़ गया, बल्कि यह मांग के मोर्चे पर आए व्यापक तकनीकी बदलावों की बदौलत संभव हुआ। दरअसल, उपभोक्ताओं ने अपनी सहूलियत और साफ-सफाई पर विशेष ध्यान देना शुरू कर दिया और ऐसे में परिष्कृत पेट्रोलियम एवं ग्रिड आधारित ऊर्जा के स्वरूपों (प्राकृतिक गैस और बिजली) की डिलीवरी करने पर फोकस बढ़ गया। वैसे तो इसके चलते उपभोक्ताओं को अन्य उपलब्ध विकल्पों की तुलना में ज्यादा धनराशि खर्च करनी पड़ती थी, लेकिन इसके बावजूद उन्हें यह बदलाव मंजूर था। चीन में कम कार्बन उत्सर्जन वाली अर्थव्यवस्था बनने पर जो विशेष जोर दिया जा रहा है उसके पीछे के कारण इससे भिन्न नहीं हैं। दरअसल, मोबाइल संचार और परिवहन से जुड़ी प्रौद्योगिकियों के प्रचार-प्रसार, जिनके लिए संग्रहीत बिजली की आवश्यकता होती है, से बैटरियों की मांग काफी तेजी से बढ़ती जा रही है और इसके फलस्वरूप अक्षय ऊर्जा के ‘अनिरंतर बिजली’ वाले स्रोतों का उपयोग करने की लागत भी घटने लगी है।
विश्व स्तर पर प्रथम प्रमुख ‘ऊर्जा संक्रमण या बदलाव’ का आगाज औद्योगिक क्रांति के साथ हुआ था और यह ‘लगभग कुछ भी बाह्य ऊर्जा नहीं’ के बजाय ‘प्रचुर बाह्य ऊर्जा’ के उपयोग की ओर अग्रसर होने से जुड़ा मात्रात्मक एवं गुणात्मक बदलाव था।
‘कम कार्बन उत्सर्जन’ वाली अर्थव्यवस्था अपनाने से जुड़ा यह बदलाव इस तथ्य पर निर्भर है कि आखिरकार इसके लिए कौन सा पथ अथवा रास्ता चुना जा रहा है। इसका कारण यह है कि संसाधनों की उपलब्धता और अन्य भौगोलिक, जलवायु, आर्थिक, सामाजिक एवं संस्थागत कारक जैसी प्रारंभिक स्थितियां इस दिशा में बदलाव की गति को प्रभावित करती हैं। इस तरह की प्रारंभिक स्थितियों के कारण ही स्थानिक संरचनाओं, बुनियादी ढांचे और खपत के पैटर्न में अंतर देखा जाता है। प्रारंभिक परिस्थितियां उपभोक्ता के मोर्चे पर और ऊर्जा क्षेत्र के भीतर उपयोग की जाने वाली तकनीकों के स्तर एवं प्रकार को प्रभावित करती हैं। यही नहीं, इसमें बार-बार बदलाव महंगा साबित होता है। बहरहाल, चीन की प्रारंभिक स्थितियां ‘कम कार्बन उत्सर्जन’ वाली अर्थव्यवस्था को अपनाने के लिहाज से बिल्कुल माकूल हैं।
जीवाश्म ईंधनों पर निर्भर युग के विपरीत, जिस दौरान संसाधनों के प्राकृतिक उपहार या देन की आवश्यकता पड़ती थी, कम कार्बन वाले ऊर्जा स्रोतों को अपनाने के लिए ज्ञान-गहन औद्योगिक उत्पादन आधार और विशाल ऊर्जा खपत आधार की आवश्यकता होती है। चीन के पास दोनों ही उपलब्ध हैं। विशेष रूप से चीन के शहरी क्षेत्रों में रहने वाले ऊर्जा उपभोक्ताओं के अपेक्षाकृत उच्च आय स्तर भी ऊर्जा उपयोग में गुणात्मक बदलाव लाने के लिहाज से एकदम अनुकूल हैं। अक्षय या नवीकरणीय ऊर्जा स्रोतों का भाग्य मुख्य रूप से विद्युत क्षेत्र पर निर्भर करता है क्योंकि बिजली अब भी अक्षय ऊर्जा के लिए मुख्य वाहक (वेक्टर) है। उच्च जनसंख्या घनत्व और प्रति व्यक्ति ज्यादा ऊर्जा उपयोग के दोहरे असर के कारण चीन में विशेष रूप से शहरी क्षेत्रों में स्थानिक ऊर्जा घनत्व अधिक है। घटती कार्बन तीव्रता और बढ़ती आय के बीच के संबंध से हम सभी अवगत हैं। कम कार्बन तीव्रता का अर्थ है कि ऊर्जा, जो अपेक्षाकृत अधिक प्राथमिक है, का उपयोग उच्च गुणवत्ता वाले ईंधनों जैसे कि बिजली के रूपांतरण में किया जाना चाहिए, भले ही इसका मतलब आर्थिक घाटा और अपरिहार्य रूपांतरण नुकसान उठाना ही क्यों न हो। रूपांतरण का गहन होना और वैश्विक ऊर्जा प्रणाली का बढ़ता रूपांतरण नुकसान ‘कम कार्बन ऊर्जा’ संबंधी मौजूदा बदलाव के लिहाज से कोई अनोखी बात नहीं है, लेकिन चीन प्रति व्यक्ति आय के अपेक्षाकृत निम्न स्तरों पर बदलाव लाने के लिए प्रयासरत है। यह बदलाव के साधन के रूप में बाजारों का उपयोग करने संबंधी उसकी क्षमता को सीमित कर देता है। अत: चीन एक केंद्रीकृत नौकरशाही द्वारा जारी किए गए अधिदेशों का उपयोग करते हुए पूंजीवाद को हरित कर रहा है। नतीजतन, चीन विभिन्न तरह की व्यवस्थाओं जैसे कि कार्बन की कीमतों और करों पर कम निर्भर है, जिन्हें राजनीतिक दृष्टि से लागू करना मुश्किल है।
जीवाश्म ईंधनों पर निर्भर युग के विपरीत, जिस दौरान संसाधनों के प्राकृतिक उपहार या देन की आवश्यकता पड़ती थी, कम कार्बन वाले ऊर्जा स्रोतों को अपनाने के लिए ज्ञान-गहन औद्योगिक उत्पादन आधार और विशाल ऊर्जा खपत आधार की आवश्यकता होती है। चीन के पास दोनों ही उपलब्ध हैं।
फिर भी, फिलहाल जारी ‘ऊर्जा संक्रमण या बदलाव’ मुहिम के परिणामों को प्रभावित करने में चीन की मात्रात्मक और गुणात्मक ताकत को लेकर चिंताएं व्यक्त की जा रही हैं। संबंधित अधिदेश को चीन की प्राथमिकता का मतलब यही है कि कम कार्बन उत्सर्जन वाली कुछ विशेष प्रौद्योगिकियों के उत्पादन में सरकार की ओर से दी जाने वाली सब्सिडी शामिल है। वैसे तो इस सब्सिडी ने दुनिया भर के कई उपभोक्ताओं के लिए ‘कम कार्बन वाली ऊर्जा’ की लागत कम कर दी है, लेकिन इसने उन उत्पादकों की चिंता बढ़ा दी है जिन्हें सब्सिडी का लाभ हासिल नहीं है।
एक अक्षय ऊर्जा प्रणाली की मुख्य विशेषताएं ये हैं: ऊर्जा स्रोतों की कम तीव्रता, रूपांतरण की कम दक्षता, अस्थायी एवं स्थानिक अनिरंतरता, ऊर्जा के अभाव की आर्थिक अवधारणा में नाटकीय बदलाव और एक ऐसे नेटवर्क की अग्रणी भूमिका है, जिसमें ऊर्जा, पदार्थ, सूचना एवं मौद्रिक मूल्य प्रसारित होते हैं। इन सभी से यही आशय है कि इसमें अत्यधिक जटिलता और नियंत्रण निहित है। अक्षय ऊर्जा के बढ़ते महत्व और अधिकतम खपत के अनुसार ही अधिकतम प्रावधान या व्यवस्था करने की संबंधित चुनौतियों के मद्देनजर घरेलू स्तर पर ऊर्जा की खपत की निगरानी और इसे नियंत्रित करने में सरकार का हस्तक्षेप कहीं ज्यादा रहने की प्रबल संभावना है। दुनिया भर के कई लोगों के लिए यह संभवत: वांछित परिणामों में शामिल नहीं होगा। हालांकि, यह देखते हुए कि ‘कम कार्बन’ वाली अर्थव्यवस्था अपनाने की यह वैश्विक परियोजना अनिवार्य रूप से सरकार की अगुवाई में ऊर्जा बदलाव की एक अवधारणात्मक प्रक्रिया है, अत: कोई भी व्यक्ति वास्तव में चीनी सरकार के कदमों को लेकर शिकायत नहीं कर सकता है क्योंकि इसने ही ‘कम कार्बन उत्सर्जन’ वाली अर्थव्यवस्था के लक्ष्य को शेष दुनिया के और भी करीब ला दिया है।
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