Author : Sushant Sareen

Published on Apr 02, 2019 Updated 0 Hours ago

पाकिस्तान इस समय चीन के भारी कर्ज तले दबा है। हथियार प्रणालियों से लेकर आर्थिक प्रोत्साहनों और विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर कूटनीतिक समर्थन तक, चीन पाकिस्तान का रहनुमा है।

पाकिस्तान के लिए नया अमेरिका है चीन

पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान खान और चीन के प्रधानमंत्री ली केकियांग 3 नवम्बर 2018 को बीजिंग के ग्रेट हॉल ऑफ द पीपुल में हस्ताक्षर करने के बाद रवाना होते हुए। स्रोत: Jason Lee-Pool/Getty

द चाइना क्रॉनिकल्स’ सीरीज में यह 74वां लेख है।


चीन और पाकिस्तान दोनों लम्बे अरसे से “हर परिस्थिति में अटूट रहने वाली अपनी दोस्ती” (all-weather friendship) के बारे में बढ़-चढ़ कर बोलते आये हैं। यूं तो चीन ने काफी अरसे पहले ही पाकिस्तान को अपना इस्राएल करार दे दिया था, लेकिन पाकिस्तानियों ने उसको अपना अमेरिका करार देने का उत्साह नहीं दर्शाया। इसके कारण बहुत स्पष्ट थे। लगभग 10 बरस तक चीन और पाकिस्तान के सम्बन्धों का आर्थिक महत्व ज्यादा नहीं था। उन दोनों के रिश्तों की आधारशिला उनके राजनीतिक और सामरिक सम्बन्धों (जो भारत के प्रति उनकी परस्पर दुश्मनी के गिर्द केंद्रित थे) ने रखी। हालाँकि, अमेरिका पाकिस्तान का प्रमुख संरक्षक था। पाकिस्तान समय-समय पर और लम्बे अंतराल तक अमेरिका के साथ अपने रिश्तों से लाभ उठाता रहा है और व्यापक रूप से समृद्ध होता रहा है। यह सिर्फ आर्थिक क्षेत्र जैसे कि सहायता, व्यापार, अनुदान तक ही नहीं सीमित है बल्कि राजनीतिक, कूटनीतिक और सबसे ज्यादा रक्षा और सुरक्षा के मामलों में भी रहा है।

लगभग 2007-08 से, पाकिस्तान में अमेरिका का प्रभाव फीका पड़ता जा रहा है और चीन लगातार उसकी जगह ले जा रहा है। वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान चीन का उदय अपार वित्तीय संसाधनों वाली प्रमुख आर्थिक ताकत के तौर पर हुआ है। जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था संकट में थी तब यह धारणा बल पकड़ने लगी थी कि वह एक अस्त होती ताकत है। यही वह दौर था जब अफगानिस्तान में भी तालिबान फिर से सिर उठाने लगे थे। पाकिस्तान और अमेरिका के रिश्तों में तनाव का कारण कुछ हद तक पाकिस्तान द्वारा तालिबान को समर्थन और सुरक्षित पनाहगाह उपलब्ध कराना तथा कुछ हद तक भारत और अमेरिका के बीच बढ़ती नजदीकी था, जिन्होंने पाकिस्तान का रुख मोड़ दिया। इसके अलावा, अमेरिका और पाकिस्तान के सम्बन्धों में कमी आने की एक वजह अमेरिका द्वारा पाकिस्तान की राजनीति में इस हद तक दखल देना कि उसने सैनिक तानाशाह परवेज मुशर्रफ और बेनजीर भुट्टो के बीच एक समझौता कराया था, जिसे पाकिस्तान के भीतर मौजूद आतंकवाद की लहर के जवाब के तौर पर देखा गया। पाकिस्तान के पूर्व सेना प्रमुख अशफ़ाक़ कियानी ने तो अमेरिका पर “पाकिस्तान को परमाणु हथियार से रहित करने के लिए.. पाकिस्तान में नियंत्रित अफ़रा-तफ़री भड़काने और उसको बरकरार रखने..” की हद तक आरोप लगाए थे। इस बीच चीन ने पाकिस्तान के घरेलू मामलों में दखल दिए या खुद को थोपे बगैर उसे कूटनीतिक, राजनीतिक और सैन्य समर्थन देना जारी रखा।

वैश्विक वित्तीय संकट के दौरान चीन का उदय अपार वित्तीय संसाधनों वाली प्रमुख आर्थिक ताकत के तौर पर हुआ है।

रक्षा और सुरक्षा के क्षेत्र में, चीन काफी अरसे पहले ही पाकिस्तान के सबसे महत्वपूर्ण साझेदार और संरक्षक के तौर पर अमेरिका से आगे निकल चुका है। अमेरिकी हथियारों की आपूर्ति हथियारों और प्लेटफॉर्म्स की गुणवत्ता के कारण दिखावा भर ही है, जबकि चीन की ओर से की गई हथियारों की आपूर्ति, अमेरिकी हथियारों की आपूर्ति की तुलना में दोगुनी है। चीन ने पाकिस्तान को केवल टैंकों, बख्तरबंद गाड़ियों और लड़ाकू विमानों के लिए हथियार बनाने में ही मदद नहीं की है, बल्कि वह मिसाइल टेक्नोलॉजी उपलब्ध कराने सहित पाकिस्तान के सामरिक हथियार कार्यक्रम में भी करीब से जुड़ा रहा है। पाकिस्तान के लिए चीन, पिछले कुछ वर्षों से एक अपरिहार्य सहयोगी बन चुका है, जबकि अमेरिका को ग़ैरभरोसेमंद, अविश्वसनीय और मनमानी करने वाले देश के तौर पर देखा जाने लगा है।

पाकिस्तान के लिए चीन का महत्व अब केवल रक्षा और सुरक्षा तक ही सीमित नहीं रह गया है। पाकिस्तानी और चीनी आधिकारिक दस्तावेजों के आंकड़ों से पता चलता है कि चीन, पाकिस्तान की अर्थव्यवस्था में विशेषकर पिछले दशक में गहरी पैंठ बना चुका है। f संबंधों का आर्थिक आयाम-चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा इसका एक प्रतीक है, जिसने केवल पाकिस्तान को अमेरिका की अवहेलना करने और इंकार करने के लिए प्रोत्साहित भर ही किया है। पाकिस्तान इसको इस नज़रिए से देखते हैं कि वह अमेरिका द्वारा दिए जा रहे धन के बगैर गुजारा कर सकता है, क्योंकि ऐसा लग रहा है कि चीन ने पाकिस्तान में स्थिरता लाने की पहले से ज्यादा प्रतिबद्धता के साथ जिम्मेदारी ले ली है। 2011-12 से, पाकिस्तान के वार्षिक बजट दस्तावेजों ने लगातार यह दर्शाया है कि चीन से वित्तीय सहायता के अनुमानों ने अमेरिका से मिलने वाली वित्तीय सहायता के अनुमानों को पीछे छोड़ दिया है। पिछले कुछ वर्षों से, चीन की ओर से मिलने वाली सहायता अमेरिका से मिलने वाली सहायता से 20 गुना ज्यादा रहने का अनुमान है।

चीन-पाकिस्तान संबंधों का आर्थिक आयाम-चीन-पाकिस्तान आर्थिक गलियारा इसका एक प्रतीक है, जिसने केवल पाकिस्तान को अमेरिका की अवहेलना करने और इंकार करने के लिए प्रोत्साहित भर ही किया है।

चीन न सिर्फ पाकिस्तान को सबसे ज्यादा कर्ज देने वाले देश के तौर पर उभर रहा है, बल्कि वह सबसे बड़ा निवेशक भी है। इतना ही नहीं, चीन, पाकिस्तान का सबसे बड़ा व्यापारिक साझेदार भी है और एक्सटर्नल अकाउंट पर उसे चिरकालिक घाटे से उबारने वाला कर्ज का अंतिम स्रोत भी है। संक्षेप में कहें, तो जहां तक पाकिस्तान की लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था का सवाल है, दरअसल उसके लिए अकेला चीन ही उपलब्ध है। पाकिस्तान में लगभग 60% प्रत्यक्ष विदेशी निवेश — एफडीआई चीन की ओर से होता है और इसमें बढ़ोत्तरी हो रही है। हालांकि इसके साथ ही इस बात की आशंका भी बढ़ रही है कि चीन की ओर से होने वाला एफडीआई अन्य देशों के एफडीआई को प्रभावित कर सकता है। 2006-07 से, चीन ने 21 बिलियन डॉलर से ज्यादा राशि के कर्ज की प्रतिबद्धता जाहिर की है और 9 मिलियन डॉलर का वितरण किया है (ज्यादातर 2013-14 के बाद, जब सीपीईसी परियोजनाओं का आरंभ किया गया।) इसके अलावा, पिछले कुछ वर्षों से चीन के कमर्शियल बैंकों ने पाकिस्तान की मदद के लिए भुगतान संतुलन के लिए 4.5 बिलियन डॉलर का कर्ज दिया है। चीन की तुलना में, अमेरिका ने 2002-03 से पाकिस्तान को कोई कर्ज नहीं दिया है।

हाल के वर्षों में, व्यापार के मोर्चे पर चीन की ओर से पाकिस्तान में निर्यात तेजी से बढ़ रहा है, जबकि पाकिस्तान से होने वाले आयात में कमी आई है। 2006 में दोनों देशों के बीच मुक्त व्यापार समझौता लागू हो जाने के बाद से, व्यापार का झुकाव चीन के पक्ष में अधिक हुआ है। चीन के व्यापार संबंधी आंकड़ों के अनुसार, 2017 में चीन की ओर से पाकिस्तान में निर्यात 18 बिलियन डॉलर से अधिक था जबकि पाकिस्तान से होने वाला आयात 2 बिलियन डॉलर से कम था। चीन की तुलना में, अमेरिका के साथ व्यापार ज्यादा संतुलित है और सबसे महत्वपूर्ण बात यह है कि यह पाकिस्तान के हक में है। हालांकि व्यापार की विशुद्ध मात्रा और इस पर पाकिस्तान की निर्भरता, चीन को इस देश पर जबरदस्त लाभ की स्थिति में लाती है।

स्पष्ट तौर पर, पाकिस्तान इस समय चीन के भारी कर्ज तले दबा है। हथियार प्रणालियों से लेकर आर्थिक प्रोत्साहनों और विभिन्न अंतर्राष्ट्रीय मंचों पर कूटनीतिक समर्थन तक चीन, पाकिस्तान का रहनुमा है। चीन द्वारा इसका लाभ पाकिस्तान के सैन्य और नागरिक नेताओं को प्रभावित करने के लिए उठाया जाता रहा है। अधिकतर, इस प्रभाव के कारण ऐसे अनुकूल सौदे किए गए, जिन पर कोई सवाल नहीं उठाया गया — पाकिस्तान में कोई भी समझौता करने का सबसे आसान तरीका यह है कि उसमें कोई चीनी आयाम जोड़ दिया जाए, लेकिन साथ ही चीन ने पाकिस्तान की सुरक्षा, विदेश नीति और तो और घरेलू राजनीति में भी अपनी सीमाएं पार करनी शुरू कर दी हैं। उसी समय, जहां एक ओर पाकिस्तान तेजी से चीन को अपने नए अमेरिका जैसा समझने लगा है, वहीं चीन उतना उदार नहीं है, जितना अमेरिकी-पाकिस्तानी संबंधों के मजबूत दौर में अमेरिका हुआ करता था।

जहां एक ओर पाकिस्तान तेजी से चीन को अपने नए अमेरिका जैसा समझने लगा है, वहीं चीन उतना उदार नहीं है, जितना अमेरिकी-पाकिस्तानी संबंधों के मजबूत दौर में अमेरिका हुआ करता था।

उससे भी ज्यादा अहम बात यह है कि चीन अब तक ऐसी स्थिति में नहीं है कि वह बार-बार अपने ‘लौह बंधु’ (Iron Brother) पाकिस्तान को मुसीबत से निजात दिला सके, खासतौर पर तब, जबकि परेशानी का स्रोत अमेरिका हो। न ही चीन हर बार पाकिस्तान के किसी संकट में घिरने पर उसके लिए बार अलग-थलग पड़ सकता है। पाकिस्तान एक महत्वपूर्ण ग्राहक देश है, लेकिन वह ऐसा देश नहीं है, जो चीन के वजूद के लिए आवश्यक हो और चीन द्वारा पाकिस्तान के लिए अपनी सहायता दोगुनी किए जाने के बावजूद, भविष्य का हल्का संकेत भी मिल रहा है, जिससे लगता है कि चीन ने इस बारे में सोचना शुरू कर दिया है कि उसे पाकिस्तान में किस हद तक निवेश करना चाहिए, जो आखिरकार उसके लिए खराब निवेश साबित होने वाला है।

नतीजतन, भारत, चीन पर दक्षिण एशिया में निष्पक्ष नीति अपनाने के लिए दबाव बना सकता है, खासतौर पर जैश-ए-मोहम्मद के सरगना मसूद अजहर जैसे आतंकवादियों को नामित और प्रतिबंधित करने जैसे मसलों पर, जिसे चीन बरसों से बचाता आ रहा है। पुलवामा में सीआरपीएफ की बस पर आतंकी हमला होने तक, यह मामला चीन-भारत संबंधों में परेशानी पैदा करने वाला था। अब से यह भारत के लिए महत्वपूर्ण मामला बनने जा रहा है। चीन को यह फैसला लेने की जरूरत होगी कि क्या पाकिस्तान के साथ आर्थिक और रणनीतिक रिश्तों से हासिल होने वाले लाभ उसके लिए इस हद तक महत्वपूर्ण हैं कि उनकी खातिर भारत से दुश्मनी मोल लेकर आर्थिक और रणनीतिक कीमत चुकाई जाए और उसे इस हद तक मजबूर किया जाए कि भारत, चीन को घेरने के लिए क्वाड (Quad) और अन्य तरह की पहल करते हुए अपनी सतर्कता बरतने वाली रणनीति पर नए सिरे से विचार करने और नए सिरे से उसका आकलन करने को मजबूर हो जाए। दरअसल, इस बात का आर्थिक पहलु यह है कि चीन हर साल पाकिस्तान में उसके व्यापार और निवेश से प्राप्त होने वाले धन से ज्यादा धन भारत से कमाता है। भारत को चीन-पाकिस्तान संबंधों को अपरिवर्तनीय मानने की जगह, चीन के साथ अपने आर्थिक संबंधों से लाभ उठाना चाहिए और उसे चीन को मजबूर करना चाहिए कि वह कुख्यात पाकिस्तानी आतंकवादी देश को अपने समर्थन के आर्थिक और राजनीतिक परिणामों को समझे। भारत, चीन-पाकिस्तान की सांठ-गांठ को छिन्न-भिन्न करने का दाव चल सकता है, बशर्ते वह इस दाव को चलते समय चीन का साहस के साथ सामना कर सकता हो, जिसमें क्वाड (Quad) को मजबूत बनाने और खासतौर पर सामरिक रूप से अमेरिका को साथ जोड़ने में सक्रिय और सघन साझेदारी करने का इच्छुक हो।

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