Published on Jan 09, 2023 Updated 0 Hours ago

अब जबकि चीन में कोरोना के मामले फिर से बढ़ने लगे हैं तो यह सवाल पैदा होने लगा है कि क्या चीन की अधिनायकवादी व्यवस्था महामारी के ख़िलाफ़ अपने संघर्ष को ख़तरे में डाल रही है.

चीन, भारत और कोरोना का संदर्भ: महामारी ने किस तरह से लोकतांत्रिक व्यवस्था को मज़बूत किया!



पिछले हफ़्ते में, जैसे कि कोरोना ने फिर से चीन में क़हर बरपाना शुरू किया है, बाकी दुनिया संक्रमण के एक और वैश्विक प्रसार से बचने के लिए सावधानी बरतने में लगी है. ज़्यादातर देश वायरस को नियंत्रित करने में सक्षम हैं लेकिन चीन के सख़्त उपायों के बावज़ूद कोरोना के ख़िलाफ़ जारी लड़ाई किसी को भी यह पूछने के लिए मजबूर करती है कि क्या चीन की अधिनायकवादी व्यवस्था महामारी के ख़िलाफ़ अपने संघर्ष को ख़तरे में डाल रही है.

भले ही दोनों देश 1970 के दशक तक, या कुछ मामलों में 1980 के दशक की शुरुआत तक एक-दूसरे के बहुत क़रीब थे लेकिन अगले तीन दशकों में चीन का विकास इतना तेज़ और वैश्विक स्तर पर पहचाना गया कि भारत इस रेस में कहीं पीछे छूट गया.

यह सब जानते हैं कि चीन विकास के सभी संकेतकों के मामले में भारत से बहुत आगे है. भले ही दोनों देश 1970 के दशक तक, या कुछ मामलों में 1980 के दशक की शुरुआत तक एक-दूसरे के बहुत क़रीब थे लेकिन अगले तीन दशकों में चीन का विकास इतना तेज़ और वैश्विक स्तर पर पहचाना गया कि भारत इस रेस में कहीं पीछे छूट गया. यह आर्थिक और मानव विकास संकेतकों दोनों के लिए ही सही था. हालांकि, कुछ प्रमुख स्वास्थ्य संकेतक बताते हैं कि चीन में प्रति 10,000 लोगों पर चिकित्सकों की संख्या 14 थी जबकि भारत में छह. और चीन में प्रति 10,000 लोगों पर अस्पताल के बिस्तर 30 थे जबकि भारत में पांच. इसके बावज़ूद भारत एक लोकतांत्रिक व्यवस्था के साथ कोरोना संक्रमण को काबू करने में काफी हद तक सफल रहा.

चीन का अधिनायकवादी मॉडल और पारदर्शिता की कमी

अपनी विकास यात्रा में तमाम उन्नति करने के बावज़ूद, चीन अपनी 'ज़ीरो कोविड' नीति को लेकर गहरे संकट में है, जबकि भारत सहित बाकी दुनिया यदि सभी नहीं भी, तो सबसे अधिक, कोविड प्रतिबंध हटाने के बाद सामान्य हो गई है? ऐसे में चीन की अधिनायकवादी व्यवस्था की वज़ह से सबसे पहले कोरोना संक्रमण और इससे जुड़ी मौतों का आंकड़ा चीन में इसकी भेंट चढ़ गया है. शुरुआती दौर में कोरोना की व्यापक लहर का सामना करने वाले पहले राष्ट्र के तौर पर चीन में 10 दिसंबर 2022 तक कोरोना संक्रमण के 1.86 मिलियन कंफर्म केस थे जो दूसरे देशों की तुलना में काफी कम हैं. प्रति मिलियन लोगों के संदर्भ में यह 1,307.77 आता है, जबकि भारत के लिए, इसी अवधि के लिए प्रति मिलियन कंफर्म केस की संख्या 31,524.76 थे. 10 दिसंबर 2022 तक कोरोना के कारण चीन में मौत की संख्या भारत में 5,30,658 के मुक़ाबले 5,235 थी; यानी, चीन की प्रति मिलियन रिपोर्ट की गई मौतें भारत के 374.45 के मुक़ाबले 3.67 हैं. जब हम चीन और संयुक्त राज्य अमेरिका (यूएस) या चीन और यूनाइटेड किंगडम (यूके) के बारे में सोचते हैं तो यह अंतर और भी गंभीर नज़र आता है.

महामारी के शुरुआती चरण में, विश्व स्वास्थ्य संगठन (डब्ल्यूएचओ) - चाइना ज्वाइंट मिशन ने अपनी रिपोर्ट में चीन की पीठ थपथपाई (फरवरी 2020) थी, जिसने देश भर में कोरोना मामलों को रोकने के चीन के तरीक़े पर अपनी मंज़ूरी की मुहर लगा दी. चीन ने दुनिया को यह बताते हुए 2020 को समाप्त कर दिया कि उसने बड़े पैमाने पर वायरस के ख़िलाफ़ युद्ध जीत लिया है और पश्चिमी लोकतंत्र के मुक़ाबले अपनी राजनीतिक मॉडल की श्रेष्ठता का दावा भी किया. लेकिन अफसोस की बात है कि एक बार फिर से कोरोना का ख़तरा चीन के अंदर घुस चुका है और लोग भारी दिक्क़तों का सामना कर रहे हैं. चीन की सफलता की कहानी अब धुएं में तब्दील हो चुकी है और चीन फिर से कोरोना जैसी महामारी का सामना करना पड़ सकता है, जो एक कड़वी सच्चाई है. फिर भी कोई रास्ता नहीं है कि चीन अपनी कुख्य़ात 'शून्य-कोविड' नीति पर वापस जा सकता है क्योंकि इसके ख़िलाफ़ बड़े पैमाने पर सड़क पर जनता ने उतरकर विरोध किया और राष्ट्रपति शी की अथॉरिटी को चुनौती दी, जिन्होंने यूरोपीय संघ के अध्यक्ष चार्ल्स मिशेल के साथ अपनी बातचीत में इस विरोध को चीन के छात्रों के कोरोना के दौरान तीन साल की निराशा का नतीजा बता कर इस पूरे मुद्दे को कमतर बताना चाहा.

साइंस नाम की पत्रिका ने डब्ल्यूएसओ-चीन ज्वाइंट कमिशन की रिपोर्ट का विश्लेषण करते हुए विचित्र कोरोना प्रतिबंध रणनीति को उजागर किया और तर्क दिया कि कड़े प्रतिबंधों के नागरिक अनुपालन को सुरक्षित करने के चीन के तरीक़े अन्य देशों में अव्यवहारिक हैं.

साइंस नाम की पत्रिका ने डब्ल्यूएसओ-चीन ज्वाइंट कमिशन की रिपोर्ट का विश्लेषण करते हुए विचित्र कोरोना प्रतिबंध रणनीति को उजागर किया और तर्क दिया कि कड़े प्रतिबंधों के नागरिक अनुपालन को सुरक्षित करने के चीन के तरीक़े अन्य देशों में अव्यवहारिक हैं. जॉर्जटाउन के सेंटर फॉर ग्लोबल हेल्थ साइंस एंड सिक्योरिटी में चीन के विशेषज्ञ एलेक्जेंड्रा फेलन ने इसे लेकर तर्क दिया कि दूसरे देश के नागरिकों को यह पालन भी नहीं करना चाहिए'. फेलन ने कहा कि "यह काम करता है या नहीं, यह एकमात्र मापदंड इस बात का नहीं है कि क्या कोई अच्छा सार्वजनिक स्वास्थ्य नियंत्रण उपाय है," "ऐसी बहुत सी चीजें हैं जो महामारी को रोकने के लिए काम कर सकती हैं और जिन्हें हम एक न्यायपूर्ण और मुक्त समाज में घृणित मानेंगे". चीन ने न केवल सख़्त 'ज़ीरो कोविड पॉलिसी' का पालन किया; बल्कि इसे सफल दिखाने के लिए, चीन ने स्टेट कंट्रोल्ड (राज्य-नियंत्रित) प्रेस को शांत करके और सोशल मीडिया को सेंसर करके सरकार से अलग राय या सूचना की अभिव्यक्ति पर भी नियंत्रण थोप दिया. चुप्पी और जनता की आज्ञाकारिता को अपनी क़ामयाबी की निशानी मानकर चीन ने समय से पहले लोकतंत्र पर अधिनायकवाद की जीत घोषित कर दी.

हालांकि, यह कोई आश्चर्य की बात नहीं थी. अधिनायकवादी व्यवस्थाएं हमेशा लोकतांत्रिक व्यवस्था के मुक़ाबले तेज़ और अधिक कुशल होती हैं, क्योंकि लोकतंत्र में बहुस्तरीय जवाबदेह शासन प्रक्रियाएं शुरू में लड़खड़ाती, अनिर्णायक और सार्वजनिक आलोचना का शिकार हो सकती हैं लेकिन अधिनायकवादी सफलता हमेशा थोड़े वक़्त के लिए होती हैं. लंबे समय तक लोकतांत्रिक व्यवस्था के ज़रिए बहुत कुछ प्राप्त किया जाता है. महान दार्शनिक अरस्तू के इस ज्ञान को हमारे महामारी के अनुभव में फिर से अहमियत मिलती है. क्योंकि यह बताता है कि भारत आज चीन की तुलना में वायरस के मुक़ाबले बेहतर स्थिति में क्यों है.

भारत में लोकतांत्रिक जवाबदेही का काम करना

 

यह निर्विवाद रूप से सच है कि महामारी के प्रकोप के बाद से भारत ने शासन की कई बाधाओं और चुनौतियों का सामना किया है लेकिन विभिन्न राज्यों में सत्ता में कई दलों के साथ इसकी संघीय संरचना, सतर्क मीडिया, स्वतंत्र न्यायपालिका और सिविल सोसाइटी जैसे उत्तरदायित्व के विभिन्न संस्थानों ने केंद्र और राज्यों, दोनों सरकारों के लिए निरंतर सुधार में शामिल होने के लिए अनुकूल परिस्थितियों का निर्माण किया है और महामारी के दौरान लोगों को बेहतर सेवाएं प्रदान की हैं. हालांकि, भारत पर कभी-कभी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के संबंध में सख़्ती बरतने के आरोप लगते रहे हैं लेकिन एक अज्ञात और विनाशकारी महामारी जैसे दुश्मन के सामने, सरकार ने सोचा कि मौलिक लोकतांत्रिक स्वतंत्रता पर तब तक कोई पाबंदियां नहीं लगानी चाहिए जब तक यह एकदम ज़रूरी न हो जाए. इसका परिणाम यह हुआ है कि देश में एक सक्रिय मीडिया - प्रिंट, टेलीविजन और डिज़िटल मौज़ूद रहा, जिसने सरकार, केंद्र और राज्य दोनों को हर ग़लत क़दम के लिए, नीतियों के लिए और नीतिगत भ्रम और अस्पष्टता के लिए ज़िम्मेदार बनाना शुरू कर दिया. निस्संदेह, यह सरकारों के लिए बेचैनी का और साथ ही सीखने का एक बड़ा स्रोत साबित हुआ.

केंद्र द्वारा मार्च 2020 में नेशनल लॉकडाउन की अचानक घोषणा कर दी गई और इसके बाद जनता, को ख़ास तौर पर प्रवासी श्रमिकों की भारी संख्या के कारण होने वाली अत्यधिक कठिनाई की प्रेस द्वारा कड़ी आलोचना की गई और न्यायिक जांच के दायरे में भी यह विषय आया. मई 2020 तक केंद्र ने राज्यों के दबाव में, कंटेनमेंट ज़ोन और आर्थिक गतिविधियों को शुरू करने के संबंध में राज्यों को अधिकार देना शुरू कर दिया. कुछ मीडिया रिपोर्ट्स में डिज़ास्टर मैनेजमेंट एक्ट (आपदा प्रबंधन अधिनियम) का इस्तेमाल कर स्वास्थ्य के संबंध में राज्यों के अधिकार को दरकिनार कर केंद्र की संवैधानिकता का मुद्दा भी उठाया गया था. राज्यों को वित्तीय सहायता और जीएसटी मुआवज़े की कमी के संबंध में, विशेष रूप से विपक्षी दलों द्वारा शासित राज्यों द्वारा आलोचना का सामना करने पर, केंद्र ने अप्रैल 2020 में राज्यों को 17,000 करोड़ रु. की धनराशि हस्तांतरित करने पर सहमति व्यक्त की और कोरोना राहत पैकेज़ के लिए आत्मनिर्भर कार्यक्रम की शुरुआत की. हालांकि, कोरोना महामारी के दौरान राज्यों को धन हस्तांतरण का मुद्दा संघीय विवाद का एक प्रमुख मुद्दा बना रहा. इसके अलावा ग़रीबों को नकद हस्तांतरण पर विशेषज्ञों द्वारा दोहराई गई बात ने भी केंद्र और कई राज्यों को महामारी के दौरान रोजी रोटी के संकट का सामना कर रहे कमज़ोर वर्गों की सहायता के लिए नकद हस्तांतरण योजनाएं शुरू करने के लिए प्रेरित किया. यहां तक ​​कि दूसरी लहर के बीच में सुप्रीम कोर्ट ने भी हस्तक्षेप किया, ताकि राज्यों को राशन के मुफ़्त वितरण के लिए पहचान पत्र पर जोर न दिया जाए और फंसे हुए प्रवासी श्रमिकों के लिए भोजन और परिवहन की व्यवस्था की जा सके.


महामारी की दूसरी लहर के दौरान, ऑक्सीजन संकट से निपटने में केंद्र की लापरवाही और स्वास्थ्य सुविधाओं के लिए कई राज्यों में तैयारियों की कमी और एहतियाती उपायों को विपक्ष, मीडिया, विशेषज्ञों, न्यायपालिका और अंतर्राष्ट्रीय समुदाय सहित सभी तरफ से भारी आलोचना का सामना करना पड़ा. उच्चतम न्यायालय और कई उच्च न्यायालयों ने ऑक्सीजन संकट, अस्पताल में बिस्तरों की कमी और एंटी-वायरल दवाओं से संबंधित याचिकाओं पर सुनवाई की और सरकारों को इन कमियों से निपटने के निर्देश भी दिए. कुछ राज्यों में शवों के दाह संस्कार को लेकर चौंकाने वाली कमी को लोगों ने टेलीविजन स्क्रीन और सोशल मीडिया साइटों पर देखा, जिसकी जानकारी देश की सतर्क मीडिया और मुखर नागरिकों के वर्गों द्वारा दी गई थी. यहां तक कि जब टीके उपलब्ध हो गए, तो उनका वितरण और मूल्य निर्धारण केंद्र और राज्यों के बीच विवाद का मुद्दा बन गया और यहां भी केंद्र ने राज्यों की मांगों को मान लिया जिसका मीडिया और आम तौर पर आम जनता ने समर्थन किया.

अधिनायकवादी ज़बरदस्ती के मुक़ाबले लोकतांत्रिक ज़वाबदेही बेहतर 


ये कुछ उदाहरण हैं जो बताते हैं कि कैसे केंद्र और राज्य सरकारों को मीडिया और सार्वजनिक आलोचनाओं का सामना करना पड़ा और उन्होंने अपने तरीक़ों को ठीक करने की कोशिश की, जिसने भारत को कोरोना महामारी के मुक़ाबले बेहतर स्थिति प्रदान की. अधिनायकवादी चीन में इनमें से कुछ भी संभव नहीं था, यही वज़ह है कि वह आज कोरोना महामारी के गंभीर संकट से जूझ रहा है. बेशक भारत के लिए इससे सबक यह है कि निकट भविष्य में किसी भी लाभ के लिए लोकतांत्रिक मूल्यों से कभी समझौता नहीं किया जाना चाहिए लेकिन चीन में बढ़ते और मुंह खोले खड़े कोरोना महामारी के संकट के बीच अभी वहां की अधिनायकवादी व्यवस्था की आलोचना का सही समय नहीं है. ये समय है जब कोरोना के एक और वैश्विक प्रसार को रोकने के लिए बफ़र्स बढ़ाने पर जोर दिया जाए. आज की वास्तविकता को बताने के लिए 19वीं सदी के ऑस्ट्रियाई चांसलर प्रिंस मेटर्निच के शब्दों में कहें तो, जब चीन छींकता है, तो बाक़ी दुनिया को जुकाम हो जाता है.

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Authors

Ambar Kumar Ghosh

Ambar Kumar Ghosh

Ambar Kumar Ghosh is an Associate Fellow under the Political Reforms and Governance Initiative at ORF Kolkata. His primary areas of research interest include studying ...

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Amlan Bibhudatta

Amlan Bibhudatta

Amlan Bibhudatta hails from Odisha and currently works at CEEW Centre for Energy Finance as a Research Analyst. He holds a BA in economics from ...

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