Published on Jun 15, 2021 Updated 0 Hours ago

अब जबकि G7 देश नियमों पर आधारित विश्व व्यवस्था के लिए ज़ोर लगा रहे हैं, तो इसके सदस्य देशों ने चीन की ‘ग़ैर बाज़ार आधारित नीतियों और व्यवहार’ को चुनौती दी है.

चीन को 5 मोर्चों पर G-7 की चुनौती; बेहतर भविष्य के निर्माण में भारत की अहम साझेदारी

G7 देशों ने अपने सर्वशक्तिमान विजय रथ का रुख़ अगर अंतरराष्ट्रीय संवादों के प्राथमिक सिद्धांतों की ओर दोबारा मोड़ा है, तो इसका पूरा श्रेय अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन को जाता है. बाइडेन ने अतीत के भुला दिए गए नैतिक मानदंडों का पालन कराने के लिए अपनी पूरी ताक़त लगा दी है. उन्होंने विश्व में उन मूल्यों को फिर से स्थापित करने का ज़ोर डाला, जिनकी स्थिति वर्ष 2008 के बाद से लगातार ख़राब होती जा रही थी. 13 जून को कार्बिस बे में हुए G7 के शिखर सम्मेलन के छह बड़े विषय अपने आप में पवित्र मगर वैसे ही नीरस हैं, जिस तरह के मुद्दे हम G20 देशों द्वारा कई अवसरों पर तैयार किए गए बयानों में देखते आए हैं. लेकिन, G7 के एजेंडे में शामिल जो अंतिम विषय है (अपने मूल्यों को अंगीकार करना), उस पर विशेष रूप से ध्यान देने की ज़रूरत है. इस सम्मेलन के बाक़ी विषय- महामारी का ख़ात्मा करना और भविष्य के लिए तैयारी करना, अर्थव्यवस्थाओँ में नई जान फूंका, भविष्य की समृद्धि को संरक्षित करना, धरती की रक्षा करना और साझेदारियों को मज़बूत करना- ये वैसे ही पवित्र वचन देने वाले बयान हैं, जिन्हें देकर भुला दिया जाता है.

इन बातों से इतर, जो बाइडेन ने अपने पूर्ववर्ती डॉनाल्ड ट्रंप के ही रास्ते पर आगे बढ़ते हुए दुनिया के सामने खड़े नए दुष्ट और आक्रामक देश चीन का मुक़ाबला करने के लिए लोकतांत्रिक देशों द्वारा अपने मूल्यों को हथियार बनाने पर ज़ोर दिया है. चीन की आक्रामकता के सामने डटकर खड़े होने और उसका मुक़ाबला करने के लिए G7 देशों ने अपने बयान में चार सीधे उपायों और एक अप्रत्यक्ष एक्शन प्लान का ज़िक्र किया.

पहला, तो ये कि कोविड-19 को लेकर जिस तरह से चीन ने इसकी उत्पत्ति और इसकी शुरुआत में अपने यहां की प्रयोगशालाओं की भूमिका की जांच करने से रोका. G7 देशों ने सीधे तौर पर इस महामारी की शुरुआत में चीन की भूमिका की जांच करने की मांग की है. यहां पर विश्व स्वास्थ्य संगठन और दुनिया भर की वैज्ञानिक पत्रिकाओं ने चीन के आगे अपनी कमज़ोरी और उससे साठ-गांठ होने का एहसास कराया है. G7 को उम्मीद है कि वो इस ग़लती को सुधारेगा. साझा बयान का 16वां बिंदु कहता है:

B3W के तहत अमेरिका के नेतृत्व में G7 देश पूरी दुनिया में मूलभूत ढांचे के विकास के लिए नई साझेदारियां विकसित करेंगे. इसका लक्ष्य चीन के निरंतर चल रहे बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव का विरोध करना है.

-हम 2005 के अंतरराष्ट्रीय स्वास्थ्य नियमों को मज़बूत बनाने, उनके अंतर्गत जवाबदेही तय करने, इन नियमों को लागू करने और इनके पालन में सुधार लाने के प्रति अपनी वचनबद्धता को दोहराते हैं. इसमें अज्ञात उत्पत्ति वाली बीमारियों की जांच, उनकी सही रिपोर्टिंग और उनसे निपटने में पारदर्शिता लाना शामिल है. हम ये भी मांग करते हैं कि कोविड-19 की उत्पत्ति की जांच के लिए विश्व स्वास्थ्य संगठन की अगुवाई में विज्ञान आधारित, विशेषज्ञों के नेतृत्व वाली पारदर्शी और सही समय पर होने वाली दूसरे चरण की उस जांच की मांग करते हैं, जिसकी सिफ़ारिश विशेषज्ञों की रिपोर्ट ने चीन के बारे में की है.

दूसरा, अब जबकि G7 देश नियमों पर आधारित विश्व व्यवस्था के लिए ज़ोर लगा रहे हैं, तो इसके सदस्य देशों ने चीन की ‘ग़ैर बाज़ार आधारित नीतियों और व्यवहार’ को चुनौती दी है. दूसरे शब्दों में कहें तो G7 ने चीन के खुफ़िया पूंजीवाद पर निशाना साधा है. क्योंकि चीन ने पश्चिम के बाज़ारों तक पहुंच बनाकर अपना विकास तो कर लिया है. लेकिन, ख़ुद अपने बाज़ार को चुन-चुनकर बंद रखा है और इसके साथ ये सुनिश्चित किया है कि चीन की सरकारी पूंजी इसके उद्यमियों के कंधे पर सवार होकर पश्चिमी देशों के बाज़ारों में दाख़िल हो सके. लेकिन किसी का पर्दाफ़ाश करना एक बात है; और उस पर दबाव बनाना बिल्कुल अलग मसला है. G7 देशों द्वारा जारी बयान में सलाह-मशविरे और सामूहिक तरीक़ा अपनाने पर ज़ोर दिया गया है. ये एक ऐसी चीज़ है जो विविधता भरे इस समूह में शायद ही काम करे. क्योंकि ख़ुद इस संगठन के कई सदस्य देश ऐसे हैं, जो वित्तीय रूप से चीन के बेहद क़रीबी साझीदार हैं. साझा बयान में शायद ये सबसे कमज़ोर कड़ी है.

बयान का 49 बिंदु कहता है:

-हम दुनिया के सबसे बड़े देशों और अर्थव्यवस्थाओं की ये ख़ास ज़िम्मेदारी मानते हैं कि वो नियमों पर आधारित अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था और अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों का पालन कराना सुनिश्चित करें. हम इस काम में अपनी भूमिका निभाने का वचन देते हैं. हम इसके लिए अपने सभी साझीदारों और G20 के देशों, संयुक्त राष्ट्र और अंतरराष्ट्रीय समुदाय के अन्य सदस्यों के साथ मिलकर काम करेंगे. इसके साथ साथ हम अन्य देशों को भी ऐसा करने के लिए प्रोत्साहित करेंगे. हम ये काम अपने साझा एजेंडे और लोकतांत्रिक मूल्यों के आधार पर करेंगे. जहां तक चीन और विश्व अर्थव्यवस्था में प्रतिद्वंदिता की बात है, तो हम साझा नज़रिया बनाने के लिए सलाह मशविरा जारी रखेंगे. जिससे हम ऐसी बाज़ार विरोधी नीतियों और बर्ताव का विरोध कर सकें, जो विश्व अर्थव्यवस्था के निष्पक्ष और पारदर्शितापूर्ण संचालन को क्षति पहुंचाते हैं.

तीसरी बात ये कि G7 देशों ने अपने बयान में चीन द्वारा मानव अधिकारों का उल्लंघन करने और स्वतंत्रताओं का गला घोंटने के लिए उस पर निशाना साधा है. यहां पर एक बड़ा क़दम उठाते हुए इन देशों ने चीन के शिन्जियांग प्रांत के वीगर मुसलमानों के अधिकारों और उनकी स्वतंत्रताओं का ज़िक्र किया है. वीगर मुसलमानों का ज़िक्र इसलिए अहम है क्योंकि एक तो उन्हें उनका धर्म छीना जा रहा है, और दूसरे वो चीन के कारखानों में काम करने के लिए सस्ता श्रम जुटाने का ज़रिया बन गए हैं. G7 ने हॉन्गकॉन्ग की स्वायत्तता का ज़िक्र करके, चीन द्वारा तय की गई एक लक्ष्मण रेखा को भी पार किया है. बयान में कहा गया है कि:

-बहुपक्षीय व्यवस्था में अपनी संबंधित ज़िम्मेदारियों के संदर्भ में हम उन क्षेत्रों में आपस में सहयोग करेंगे, जहां हमारे हित एक हैं और जहां पर चुनौतियां वैश्विक हैं. ख़ासतौर से हम जलवायु परिवर्तन और जैव विविधता को हुए नुक़सान के क्षेत्र में पेरिस जलवायु समझौते और अन्य बहुपक्षीय वार्ताओं को जारी रखेंगे और इनमें तय बातों का पालन करेंगे. इसके साथ साथ ऐसा करते हुए हम अपने मूल्यों को प्रोत्साहन देंगे. इसमें चीन से मानव अधिकारों और मूल अधिकारों का सम्मान करने की मांग करना भी शामिल है. ये बात शिन्जियांग के संदर्भ में ख़ास तौर से लागू होती है. हम चीन से ये भी मांग करेंगे कि वो हॉन्गकॉन्ग को लेकर ब्रिटेन के साथ जारी साझा बयान और बेसिक लॉ में दर्ज अधिकारों, स्वतंत्रताओं और उच्च स्तर की स्वायत्तता देने के अपने वादे का पालन करे.

और, चौथी बात ये कि G7 ने अपने बयान में एक और लक्ष्मण रेखा को पार करते हुए ताइवान और दक्षिणी चीन सागर के आस-पास स्थित देशों का खुलकर समर्थन किया है. इन देशों को चीन पिछले कई वर्षो से लगातार निरंकुशता से परेशान करता आ रहा है और उनकी सुरक्षा के लिए ख़तरा पैदा करता आ रहा है.

अपने बयान में G7 देशों ने इस बारे में कहा कि:

-हम मुक्त और स्वतंत्र हिंद प्रशांत क्षेत्र को बनाए रखने की अहमियत को दोहराते हैं, क्योंकि ये समावेशी है और नियमों पर आधारित है. हम ताइवान जलसंधि के आर-पार शांति और स्थिरता को दोहराते हैं और इस जलसंधि के आर-पार के विवाद के शांतिपूर्ण समाधान को प्रोत्साहन देते हैं. हम पूर्वी और दक्षिणी चीन सागर के हालात को लेकर चिंतित बने हुए हैं, और यथास्थिति में किसी भी तरह से इकतरफ़ा बदलाव करने के प्रयासों और तनाव बढ़ाने की कोशिशों का सख़्ती से विरोध करते हैं.

G7 देशों के साझा बयान में एक विषय और है जहां पर चीन के प्रति कमज़ोर रुख़ दिखाया गया है. ये है बेहतर विश्व का निर्माण (B3W). इसकी परिकल्पना अमेरिका ने की थी, जिससे कि विकासशील देशों में मूलभूत ढांचे के विकास में आ रही 40 ख़रब डॉलर की कमी को पूरा किया जा सके. अब G7 देशों ने भी इस परिकल्पना को अपना लिया है. लेकिन, बयान में उस देश का नाम नहीं लिया गया, जिसकी चुनौती से निपटने के लिए परिकल्पना को स्वरूप दिया गया है. B3W के तहत अमेरिका के नेतृत्व में G7 देश पूरी दुनिया में मूलभूत ढांचे के विकास के लिए नई साझेदारियां विकसित करेंगे. इसका लक्ष्य चीन के निरंतर चल रहे बेल्ट ऐंड रोड इनिशिएटिव का विरोध करना है. हालांकि, अब BRI की रफ़्तार कमज़ोर पड़ती दिख रही है. G7 ने वादा किया है कि इस प्रोजेक्ट से शिक्षा और कौशल विकास को मज़बूती मिलेगी. श्रम बाज़ार की भागीदारी में सुविधा होगी. इसके अलावा ये प्रोजेक्ट क्षेत्रों, लैंगिकता, उम्र, शारीरिक कमी, जातीयता, यौन पसंद या आर्थिक स्तर की विविधता को एकजुट करेगा.

B3W के विचार को काफ़ी समर्थन मिलता दिख रहा है. भारत पहले ही इस प्रस्ताव का अध्ययन कर रहा है और उम्मीद यही है कि आने वाले समय में भारत भी इसमें शामिल होगा.

B3W चीन के BRI प्रोजेक्ट जैसा कोई वित्तीय विकल्प नहीं है. न ही इसके माध्यम से चीन द्वारा अपनी राजनीतिक महत्वाकांक्षा के लिए क़र्ज़ के जाल में फंसाने वाली नीति का मुक़ाबला किया जाएगा. ये तो एक ऐसी भू-राजनीतिक घेरेबंदी है, जिसके माध्यम से BRI को चुनौती देते हुए विकास का एक नया मॉडल पेश किए जाने की उम्मीद है. हालांकि, अभी ये स्पष्ट नहीं है कि ये परिकल्पना कैसा स्वरूप लेगी और कैसे आगे बढ़ेगी. इसे ज़मीनी स्तर पर उतारने के लिए वित्तीय संस्थानों और तकनीकों की ज़रूरत होगी. इसमें सरकारों के साथ-साथ बड़ी कंपनियों को शामिल करना पड़ेगा और इसका प्रभाव लोगों और समुदायों पर पड़ेगा. इस विचार की आवश्यकता तो लंबे समय से थी. लेकिन, इसकी अभिव्यक्ति अभी जटिल है. विशेष रूप से इसलिए भी क्योंकि G7 के सभी देशों, जिनमें कॉर्नवाल में आमंत्रित किए गए अन्य देश (भारत, ऑस्ट्रेलिया, दक्षिण कोरिया और दक्षिण अफ्रीका) भी शामिल हैं, आम तौर पर शोर-शराबे वाले लोकतांत्रिक देश माने जाते हैं. ऐसे में होना तो ये चाहिए कि B3W, विश्व के विकास के लिए चीन के BRI प्रोजेक्ट के विकल्प के रूप में उभरे.

अब G7 देशों की इस सहमति का इम्तिहान इसकी सबसे कमज़ोर कड़ियों को लेकर होना है. ख़ास तौर से इसके सदस्य देश (कनाडा, फ्रांस, जर्मनी, इटली, जापान और ब्रिटेन व अमेरिका के साथ यूरोपीय संघ) किस तरह से अपने अंदरूनी संघर्षों का समाधान करते हैं. क्योंकि ये संघर्ष इन देशों के चीन के साथ व्यक्तिगत संबंधों को सामूहिक रूप देकर ठोस साझा क़दम उठानेसे रोकता है. यहां पर सबसे ज़्यादा बारीक़ नज़र जर्मनी के बर्ताव पर होगी. इसकी वजह भी साफ है. जर्मनी केवल यूरोप की सबसे बड़ी आर्थिक शक्ति भर नहीं है, बल्कि वो यूरोपीय संघ की भी आर्थिक धुरी है, और ऐसा माना जाता है कि जर्मनी पाला बदलकर चीन के साथ हो गया है. उसने पैसों के लिए मूल्यों से समझौता कर लिया है. लेकिन, अब वो बदल रहा है: 9 जून 2021 को जर्मनी ने एक क़ानून पारित किया है, जिससे श्रमिकों के शोषण को लेकर अंतरराष्ट्रीय नियमों का पालन करना अनिवार्य हो गया है.

वहीं दूसरी तरफ़, अमेरिका का रुख़ बिल्कुल स्पष्ट है- वो चीन से सीधे दो-दो हाथ करने को तैयार है और उसको आर्थिक रूप से अलग थलग करके, सुधारों के लिए मजबूर करना चाहता है. जो बाइडेन प्रशासन ने अपनी ताक़त अपने भू-राजनीतिक इरादों को हक़ीक़त बनाने में झोंकने का फ़ैसला किया है. अब वो शी जिनपिंग के BRI के मुक़ाबले में एक नया विकल्प पेश कर रहे हैं. इसके अलावा मूलभूत ढांचे का विकास करके वो निजी कंपनियों के लिए संभावित मुनाफ़े कमाने के द्वार भी खोल रहे हैं. जर्मनी और अमेरिका के बीच G7 के अन्य पांच देश खड़े हैं. कम से कम इस समय तो अमेरिका का पलड़ा भारी लग रहा है.

B3W के विचार को काफ़ी समर्थन मिलता दिख रहा है. भारत पहले ही इस प्रस्ताव का अध्ययन कर रहा है और उम्मीद यही है कि आने वाले समय में भारत भी इसमें शामिल होगा. चूंकि भारत, चीन के BRI प्रोजेक्ट का विरोध करने वाले अग्रणी देशों में शामिल रहा है, विशेष रूप से इसलिए कि ये पाकिस्तान के क़ब्ज़े वाले कश्मीर से होकर गुज़रता है. लेकिन, भारत ने इसलिए भी चीन के इस प्रोजेक्ट का विरोध किया था क्योंकि इसमें उन देशों के साथ अपारदर्शी समझौते किए जा रहे थे, जहां से ये गुज़र रहा है. ऐसे में B3W में शामिल होना भारत के लिए ठीक वैसा ही है, जैसे उसका क्वाड का सदस्य बनना रहा था. ये बिल्कुल सही दिशा में उठाया गया क़दम है. ये उभरती हुई भू-राजनीति के हिसाब से भी विकल्पों के सही पाले में जाने का निर्णय होगा.

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