11 अप्रैल को वॉशिंगटन में अमेरिका, जापान और फिलीपींस के बीच पहला त्रिपक्षीय सम्मेलन हुआ था. इससे पहले 7 अप्रैल को अमेरिका, जापान, फिलीपींस और ऑस्ट्रेलिया ने मिलकर साउथ चाइना सी में पहला सैन्य युद्धाभ्यास किया था.
ये बहुत पुरानी बात नहीं है, जब सितंबर 2022 में अमेरिका, जापान, फिलीपींस ने मिलकर ‘रक्षा नीति पर पहला त्रिपक्षीय संवाद’ किया था और ये फ़ैसला किया था कि वो समुद्री सुरक्षा, मानवीय सहायता और आपदा से निपटने के मामले में आपसी सहयोग को और गहराई देंगे. फिर, दिसंबर 2022 में अमेरिकी थल सेना और प्रशांत क्षेत्र में तैनात मरीन कोर, फिलीपींस के सैन्य बलों और मरीन कोर और जापान की थल आत्मरक्षा बल ने टोक्यो में अपनी पहली त्रिपक्षीय बैठक की थी, जिसमें तीनों देशों की थल सेनाओं के बीच नियमित रूप से उच्च स्तरीय बात करने की बुनियाद रखी गई थी. जून 2023 में अमेरिका, जापान और फिलीपींस की राष्ट्रीय सुरक्षा एजेंसियों के प्रमुखों के बीच पहला त्रिपक्षीय सुरक्षा संवाद हुआ था, जो तीनों देशों के बीच सुरक्षा के मामले में सहयोग की व्यवस्था बनाने के एक नए मुकाम की मिसाल था. जुलाई और उसके बाद सितंबर 2023 में तीनों देशों के विदेश मंत्रियों ने पहली बार एक साथ बैठक की, ताकि वो ‘आर्थिक सुरक्षा, विकास, मानवीय सहायता, समुद्री सुरक्षा और रक्षा’ के क्षेत्र में आपसी सहयोग को आगे बढ़ा सकें. सितंबर 2023 में जापान के प्रधानमंत्री फूमियो किशिदा, फिलीपींस के राष्ट्रपति फर्डिनेंड मार्कोस जूनियर और अमेरिका की उप-राष्ट्रपति कमला हैरिस फिर मिले, ताकि त्रिपक्षीय सहयोग में गहराई ला सकें.
चीन का आकलन ये है कि हिंद प्रशांत क्षेत्र में क्षेत्रीय सुरक्षा का एक केंद्रीकृत और एकीकृत ढांचा तेज़ी से आकार ले रहा है, जिसके केंद्र में अमेरिका है.
अब चीन के इंटरनेट प्लेटफॉर्म पर इस बात की चर्चा बड़ी ज़ोर-शोर से चल रही है कि रक्षा मंत्रियों के बीच पहला संवाद आयोजित करने के एक साल से भी कम समय में चारों देश यानी अमेरिका, फिलीपींस, जापान और ऑस्ट्रेलिया शायद एक नई ‘चतुर्भुजीय सुरक्षा व्यवस्था’ का हिस्सा बनने जा रहे हैं. अमेरिका, जापान और फिलीपींस के बीच तेज़ी से विकसित होते त्रिपक्षीय संबंध और ‘दक्षिणी चीन सागर के मसले को ताइवान के मुद्दे से जोड़ने’ की वजह से चीन में ख़तरे की घंटियां बज रही हैं.
चीन का आकलन ये है कि हिंद प्रशांत क्षेत्र में क्षेत्रीय सुरक्षा का एक केंद्रीकृत और एकीकृत ढांचा तेज़ी से आकार ले रहा है, जिसके केंद्र में अमेरिका है. इसका ज़ोर चतुर्भुजीय सुरक्षा व्यवस्था पर है और इसकी मदद के लिए छोटे छोटे ‘कई बहुपक्षीय’ ढांचे भी खड़े किए जा रहे हैं.
चीन के साउथ चाइना सी रिसर्च इंस्टीट्यूट में सहायक रिसर्चर हू शिन ने गुआंचा में लिखे एक लेख में तर्क दिया है कि हाल के वर्षों में हिंद प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका की गठबंधन व्यवस्था में कई अहम बदलाव हुए हैं.
1. अपने मक़सद, संरचना और सदस्यों के मामले में इस ढांचे में व्यापक अंदरूनी एकीकरण हासिल कर लिया है.
- जहां तक मक़सद की बात है तो दूसरे विश्व युद्ध के बाद अमेरिका ने गठबंधन की जो व्यवस्था बनाई थी वो एक ढीली ढाली संरचना थी और उसका कोई एकीकृत सामरिक मक़सद नहीं था. लेकिन, अब चीन से ख़तरे का एक साझा सामरिक नज़रिया, अमेरिका की गठबंधन व्यवस्था को जोड़ने का एक साझा मक़सद बन गया है.
- जहां तक बनावट की बात है, तो मूल द्विपक्षीय व्यवस्था (अमेरिका और संबंधित देश जैसे कि जापान, दक्षिणी कोरिया, फिलीपींस और थाईलैंड) का स्वरूप अब बदलकर अमेरिका और इस क्षेत्र में सुरक्षा के उसके तमाम साझीदारों और गठबंधनों ‘छोटे छोटे बहुपक्षीय गठबंधनों के जाल’ में तब्दील हो गया है. इस वजह से हिंद प्रशांत क्षेत्र में अमेरिका की गठबंधन व्यवस्था के भौगोलिक दायरे को वैधता दिलाने में काफ़ी अहम भूमिका अदा की जा रही है.
- अमेरिका अपने गठबंधन के सदस्य देशों (साझीदारों/ सहयोगियों) के बीच सैन्य और सुरक्षा संबंधी संवाद और सहयोग को बढ़ावा दे रहा है, ताकि गठबंधन के भीतर आपस में एकीकरण, संवाद और प्रबंधन को बेहतर बनाया जा सके. मिसाल के तौर पर जापान और फिलीपींस, जापान और ऑस्ट्रेलिया, जापान और भारत, भारत और ऑस्ट्रेलिया, भारत और दक्षिण कोरिया इन सब ने एक दूसरे के रक्षा और विदेश मंत्रियों के बीच संवाद की 2+2 व्यवस्था स्थापित कर ली है.
जापान और भारत ने एक ‘विशेष सामरिक और वैश्विक साझेदारी’ स्थापित कर ली है; जापान और ऑस्ट्रेलिया ने वियतनाम के साथ एक ‘व्यापक सामरिक साझेदारी’ का गठन कर लिया है; ऑस्ट्रेलिया और भारत ने अपने द्विपक्षीय संबंधों को बढ़ाकर 2020 में व्यापक सुरक्षा साझेदारी में तब्दील कर लिया है; 2022 में जापान और ऑस्ट्रेलिया ने ‘सुरक्षा में सहयोग की साझा घोषणा’ पर दस्तख़त किए थे; अब जापान और फिलीपींस भी एक दूसरे की सेनाओं के साथ सहयोग के समझौते पर बातचीत कर रहे हैं.
2. अमेरिका की गठबंधन व्यवस्था का बाहर की तरफ़ भी विस्तार हो रहा है. अब इस क्षेत्र के बाहर के देशों को भी इलाक़ाई मामलों में शामिल किया जा रहा है और सुरक्षा एवं रक्षा के अलावा अन्य विषयों को भी इस सहयोग का हिस्सा बनाया जा रहा है. मिसाल के तौर पर चीन में इस बात पर बड़ी चिंता जताई जा रही है कि किस तरह ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी को इस क्षेत्र के देशों के साथ 2+2 संवाद करने के लिए प्रोत्साहन देकर उन्हें हिंद प्रशांत की राजनीति का हिस्सा बना लिया गया है और अब ये देश या तो यहां अपने जंगी जहाज़ तैनात कर रहे हैं, या फिर उच्च स्तर के सैनिक अभ्यासों में भाग ले रहे हैं.
इसके अलावा, चीन की चुनौतियों को और बढ़ाते हुए अमेरिका की गठबंधन व्यवस्था अब सिर्फ़ बहुचर्चित राजनीतिक विषयों जैसे कि सुरक्षा और रक्षा के मसलों तक ही सीमित नहीं है. बल्कि अब इनका दायरा निम्न स्तर के राजनीतिक और अन्य फ़ौरी मसलों जैसे कि अर्थव्यवस्था और व्यापार, मूलभूत ढांचा और आपूर्ति श्रृंखला और नई ऊर्जा तक बढ़ा दिया गया है. हू शिन रेखांकित करते हैं कि इन छोटे बहुपक्षीय गठबंधनों के अलग अलग विषयों के ज़रिए अमेरिका की चीन से दूरी बनाने की रणनीति को और धारदार बनाया जा रहा है.
इस बीच एशिया में अमेरिका की तथाकथित नई गठबंधन व्यवस्था से मुक़ाबला करने के लिए चीन ने आसियान (ASEAN) के साथ अपना संपर्क बड़ा दिया है. एक प्रतीकात्मक क़दम के तौर पर चीन ने इंडोनेशिया के निर्वाचित राष्ट्रपति प्रबोवो सुबियांतो को उनके चुनाव जीतने के दस दिनों के भीतर अपना मेहमान बनाकर आमंत्रित किया और उनसे ये वादा लेने की कोशिश की कि वो चीन के प्रति अपने पूर्ववर्ती जोको विडोडो वाली नीतियों को ही अपनाए रखेंगे. इसके तुरंत बात चीन के विदेश मंत्री वैंग यी ने लाओ और तिमोर-लेस्ट के विदेश मंत्रियों के साथ एक के बाद एक मुलाक़ातें कीं. बहुत जल्दी ही वैंग यी इंडोनेशिया, कंबोडिया और पापुआ न्यू गिनी के छह दिनों के दौरे पर भी जाने वाले हैं. उम्मीद ये की जा रही है कि चीन, आसियान के कुछ देशों के साथ अपने अच्छे संबंधों का लाभ उठाकर फिलीपींस पर क़ाबू पाने का प्रयास कर रहा है.
इस बात पर बड़ी चिंता जताई जा रही है कि किस तरह ब्रिटेन, फ्रांस और जर्मनी को इस क्षेत्र के देशों के साथ 2+2 संवाद करने के लिए प्रोत्साहन देकर उन्हें हिंद प्रशांत की राजनीति का हिस्सा बना लिया गया है
वहीं दूसरी तरफ़, चीन के कुछ विद्वानों की राय ये है कि ताइवान के अलावा दक्षिणी और पूर्वी चीन सागर को लेकर सख़्त रुख़ अपनाने के बावजूद, अमेरिका के लिए वास्तविक तौर पर कोई ठोस क़दम उठा पाना मुश्किल होगा. उनका तर्क ये है कि घरेलू स्तर पर अंदरूनी राजनीतिक विभाजन की सीमाओं और अमेरिकी संसद की लगाम के कारण और अंतरराष्ट्रीय स्तर पर यूक्रेन, इज़राइल और कोरियाई प्रायद्वीप के संघर्षों की वजह से अमेरिका, चीन से सीधे तौर पर उलझने से बच रहा है. इन विद्वानों का तर्क ये है कि इसके बजाय अमेरिका अपनी वित्त मंत्री जेनेट येलेन या फिर विदेश मंत्री एंटनी ब्लिंकेन को चीन भेजने को मजबूर होगा, ताकि दोनों देशों के बीच बातचीत चलती रहे और आख़िर में अमेरिका कुछ हद तक चीन की आकांक्षाओं को जगह देने के लिए तैयार हो जाएगा. तीसरा, चीन को इस बात की उम्मीद भी है कि ट्रंप की सत्ता में वापसी की संभावना की वजह से जो बाइडेन की सरकार ने अमेरिका की गठबंधन व्यवस्था को मज़बूत करने के मामले में जो उपलब्धियां हासिल की हैं, वो मिट्टी में मिल जाएंगी और इस तरह अप्रत्यक्ष रूप से फ़ायदा चीन को ही होगा.
हमें चीन के अन्य मोर्चों यानी साउथ और ईस्ट चाइना सी और ताइवान की जलसंधि में हो रही गतिविधियों पर नज़र रखनी चाहिए, ताकि हम इन घटनाओं का लाभ अपने हित में उठा सकें.
भारत के लिए वास्तविक नियंत्रण रेखा (LAC) के हालात अनिर्णय की स्थिति में अटके हुए हैं. ऐसे में हमें चीन के अन्य मोर्चों यानी साउथ और ईस्ट चाइना सी और ताइवान की जलसंधि में हो रही गतिविधियों पर नज़र रखनी चाहिए, ताकि हम इन घटनाओं का लाभ अपने हित में उठा सकें.
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