Published on Apr 13, 2021 Updated 0 Hours ago

विदेश नीति के हर कदम को चीन या अमेरिका के चश्मे से देखने के बजाय अगर श्रीलंका मध्यम दर्जे के देशों के साथ क़रीबी रिश्ते बनाए तो उसे फ़ायदा हो सकता है.

CCP के सौ बरस और श्रीलंका में चीन का बढ़ता दख़ल

Mahinda Rajapaksa — Flickr/CC BY-NC 2.0

इतिहास बताता है कि चीन में जब राजशाही थी, तब श्रीलंका जैसे कई देश उसके अधीन थे और उसे टैक्स देते थे. यानी तब भी चीन एक वैश्विक भूमिका में था. आज भी चीन की भूमिका कोई ख़ास नहीं बदली है. वैश्विक संस्थाओं में अब आधुनिक और सभ्य चीन यही काम ‘एक राष्ट्र’ के तौर पर कर रहा है. लेकिन वैश्विक भूमिका की ख़ातिर चीन को पहले तो बाकी दुनिया का भरोसा हासिल करना होगा. उनके साथ विश्वास का रिश्ता बनाना होगा. इसके साथ उसे अंतरराष्ट्रीय नियम-कायदों का पालन और अलग-अलग राजनीतिक मॉडलों का सम्मान करना होगा. वह जलधारा जो हिंद महासागर को प्रशांत महासागर से जोड़ती है, उसे लेकर काफी विवाद है. चीन इसे अपना ‘एनर्जी रूट’ मानता है यानी इस रास्ते को वह ख़ासतौर पर पेट्रोलियम गुड्स की सप्लाई की ख़ातिर जरूरी मानता है. हाल ही में इस क्षेत्र में पानी के नीचे चलने वाले चीनी ड्रोन पाए गए.  ये सबमरीन ड्रोन बताते हैं कि चीन ने समुद्र में जासूसी के लिए अच्छा-ख़ासा पैसा खर्च किया है. 

हाल ही में इस क्षेत्र में पानी के नीचे चलने वाले चीनी ड्रोन पाए गए.  ये सबमरीन ड्रोन बताते हैं कि चीन ने समुद्र में जासूसी के लिए अच्छा-ख़ासा पैसा ख़र्च किया है. 

इधर इस क्षेत्र में भारत और चीन के बीच भू-राजनीतिक टकराव काफी बढ़ा है. जगन्नाथ पांडा कहते हैं: ‘चीन का इरादा भारत को एक क्षेत्रीय शक्ति तक सीमित करने का है. इसके साथ भारत के शी जिनपिंग के बेल्ट एंड रोड इनीशिएटिव (BRI) की खुलकर आलोचना करने और भारत के सक्रिय विदेश नीति को अपनाने से स्थिति और बिगड़ी है. इस विदेश नीति में भारत अमेरिका और हिंद-प्रशांत क्षेत्र की अन्य शक्तियों के साथ साझेदारी बढ़ा रहा है.’ इस क्षेत्र में भारत की भूमिका क्या हो, इसे लेकर अमेरिका की भी एक सोच है, जो हाल ही में सार्वजनिक की गई अमेरिका-भारत प्रशांत रिपोर्ट से सामने आई है. इसमें चीन से मुकाबले के लिए भारत को इस क्षेत्र में सबसे अधिक तवज्जो दी गई है. चीन के लागत से कम कीमत पर सामान बेचने का इरादा जताया गया है, जिसकी वजह से दूसरे देशों के लिए विदेशी बाजार में उससे मुकाबला करना मुश्किल हो जाता है। इसके अलावा रिपोर्ट में यह भी लिखा है कि चीन 21वीं सदी की अर्थव्यवस्था में अपना दबदबा कायम करना चाहता है. इस मामले में भी उसे रोकने में भारत की बड़ी भूमिका होगी. श्रीलंका, भारत का सबसे क़रीबी पड़ोसी देश है, इसलिए इन दोनों ही मामलों में उसका संदर्भ भी आया है. 

लोकतांत्रिक देशों को साथ लाने की अमेरिकी पहल और CCP की 100वीं जयंती

अमेरिका के राष्ट्रपति जो बाइडेन ने जेक सलिवन को अपना राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार (NSA) बनाया है. वह अब तक के सबसे युवा NSA में शामिल हैं. सलिवन ने आते ही अमेरिका की विदेश नीति की सीमा की पहचान की. वह सीमा यह है कि चीन के साथ अमेरिका अकेले व्यापार युद्ध में उलझा रहा. उसने इसमें सहयोगी देशों का साथ नहीं लिया. नए राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार की यह सोच ठीक है कि अकेले लड़ने के बजाय अमेरिका को चीन पर दबाव बनाने के लिए ‘समान सोच वाले लोकतांत्रिक देशों का साथ लेना चाहिए.’ बाइडेन के पास इस भूल को सुधारने का मौका है. वह इसके लिए लोकतांत्रिक देशों के साथ मजबूत गठजोड़ बना सकते हैं. जैसा कि सलिवन ने कहा भी है, ‘नेतृत्व की जिम्मेदारी अमेरिका की है. किसी और देश के पास इसका सामर्थ्य नहीं है. किसी अन्य देश का यह बुनियादी आइडिया नहीं रहा है.’ 

जैसा कि सलिवन ने कहा भी है, ‘नेतृत्व की जिम्मेदारी अमेरिका की है. किसी और देश के पास इसका सामर्थ्य नहीं है. किसी अन्य देश का यह बुनियादी आइडिया नहीं रहा है.’

इस साल चीन की कम्युनिस्ट पार्टी (CCP) 100 साल पूरे होने और इस दौरान अपनी उपलब्धियों का जश्न मनाएगी. वह ख़ासतौर पर आर्थिक मोर्चे पर अपनी सफलताओं को दुनिया को दिखाना चाहती है. लेनिनवादी राजनीतिक ढांचे के साथ CCP ने सिर्फ अंदर से चीन को प्रभावित नहीं किया है. उसने दूसरे विकासशील देशों पर भी असर डाला है, जो बेल्ट एंड रोड इनिशिएटिव (BRI) जैसी इसकी विशाल इंफ्रास्ट्रक्चर योजनाओं से जुड़े हैं. इसी वजह से लोकतांत्रिक देशों में डेवलपमेंट रिफॉर्म शुरू हुए हैं. इस मामले को चाइनीज रिफॉर्म फोरम (CRF) की मदद से समझा जा सकता है. यह एक अकादमिक शोध संस्थान है, जो कम्युनिस्ट पार्टी की सेंट्रल कमेटी के पार्टी स्कूल से जुड़ा है. वह श्रीलंका में अपनी जड़ें जमा रहा है. इसमें उसे राजपक्षे के राजनीतिक दल SLPP और एक लोकल थिंक टैंक से मदद मिल रही है. यह थिंक टैंक राजपक्षे सरकार को सलाह देता है. श्रीलंका में स्थानीय रणनीतिक समूह को समझाया जा रहा है कि अगर लोकतंत्र का वैकल्पिक मॉडल अपनाया गया, तो उसके खतरनाक अंजाम हो सकते हैं. ख़ासतौर पर उदारवादी लोकतांत्रिक मूल्यों और सिद्धांतों की रक्षा के लिहाज से. 

श्रीलंका में चाइनीज इंफ्रास्ट्रक्चर

हम पाते हैं कि ब्रिटिश साम्राज्यवाद के दौर में इंफ्रास्ट्रक्चर एक औपनिवेशिक औजार था. 1820 ईस्वी यानी श्रीलंका के कैंडी राज पर अंग्रेजों के कब्जे के बाद, इस पहाड़ी क्षेत्र से कोलंबो के तटीय इलाके तक सड़क बनाने का काम शुरू हुआ. यह काम इंजीनियरिंग के लिहाज से चुनौतीपूर्ण था. कॉलोनियल रॉयल मिलिट्री इंजीनियरिंग के कैप्टन विलियन फ्रांसिस डॉसन के हाथों में इस परियोजना की कमान थी. इंजीनियरिंग के इस करिश्मे की ख़ातिर उनके नाम पर यहां एक स्मारक भी बना. अफसोस की बात है कि कोलंबो से कैंडी तक श्रीलंका के पहले सड़क मार्ग को पूरा होते वह नहीं देख सके. इस सड़क मार्ग के कारण चाय और कॉफी के व्यापार में तेजी आई, जिन्हें ब्रिटिश साम्राज्य के अधीन देशों में भेजा जाता था. लेकिन इस सड़क से कैंडी राज की सुरक्षा में भी मदद मिली, जो इससे पहले तक तटीय क्षेत्र से अलग-थलग था. 

इसके दो सदी बाद आज श्रीलंका का भूगोल चीन बदल रहा है. वह यहां हाईवे, पुल, बंदरगाह और हवाई अड्डे बना रहा है. आर्थिक राजधानी कोलंबो में पोर्ट सिटी डेवलपमेंट प्रोजेक्ट के जरिये वह जमीन भी हासिल कर रहा है. इसका मतलब है कि चीन यहां से कहीं नहीं जा रहा. वह लंबे वक्त तक टिकने वाला है. श्रीलंका में चीन जो इंफ्रास्ट्रक्चर खड़ा कर रहा है, वह लोगों को दिख रहा है. इससे दूरदराज के ग्रामीण इलाकों में रहने वालों के साथ शहरी मध्यवर्ग को भी फ़ायदा हो रहा है. कुछ स्थानीय मध्यवर्गीय लोग इन परियोजनाओं से ठेकेदार के तौर पर जुड़े हैं. वे इनके लिए कच्चे माल की आपूर्ति कर रहे हैं. ये लोग चीन से सामान आयात करके उन्हें श्रीलंका में चीनी कंपनियों को बेच रहे हैं. इन परियोजनाओं से दोनों पक्षों को लाभ हो रहा है. इनकी वजह से श्रीलंका में चीन की छवि उसके सबसे बड़े व्यापारिक साझेदार की बन गई है. चीन का मेटलर्जिकल ग्रुप कॉरपोरेशन (MCC) कोलंबो से कैंडी तक 1.164 अरब डॉलर की लागत से सेंट्रल एक्सप्रेसवे के एक हिस्से का निर्माण कर रहा है. यह तीसरा एक्सप्रेसवे है, जिसका निर्माण कंपनी ने श्रीलंका में किया है. 

श्रीलंका में स्थानीय रणनीतिक समूह को समझाया जा रहा है कि अगर लोकतंत्र का वैकल्पिक मॉडल अपनाया गया, तो उसके खतरनाक अंजाम हो सकते हैं. ख़ासतौर पर उदारवादी लोकतांत्रिक मूल्यों और सिद्धांतों की रक्षा के लिहाज से. 

जहां चीन को विशाल इंफ्रास्ट्रक्चर प्रॉजेक्ट्स मिल रहे हैं, वहीं यूएस मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन (MCC) जैसी कंपनियों को दिक्कत हो रही है. स्थानीय समितियों ने ऐसी कंपनियों को लेकर राजनीति की है, जिससे नीति-निर्माता गुमराह हो गए. इसी वजह से श्रीलंका के हाथ से 48 करोड़ डॉलर का अनुदान निकल गया जो उसे ट्रांसपोर्ट और लॉजिस्टिक्स इंफ्रास्ट्रक्चर की बेहतरी के लिए मिलने वाला था. यह मौका इसलिए हाथ से निकल गया क्योंकि पार्टनर कंट्री एंगेजमेंट नहीं हो पाया. इसी तरह से कोलंबो में ईस्ट कंटेनर टर्मिनल परियोजना लटकी हुई है. इस परियोजना से भारत और जापान जुड़े हुए हैं. इसकी भी अभी समीक्षा चल रही है. ध्यान देने की बात है कि यह टर्मिनल कोलंबो इंटरनेशनल कंटेनर टर्मिनल के साथ बनना है, जिसे चीन मैनेज करता है. 

भारत के विदेश मंत्री एस जयशंकर इस साल सबसे पहले श्रीलंका गए. इस यात्रा के दौरान उन्होंने कुछ भारतीय परियोजनाओं के शुरू होने की अहमियत पर जोर दिया. उनका इशारा ईस्ट कंटेनर टर्मिनल की ओर था. स्थानीय मीडिया ने इस ख़बर को बड़े स्पष्ट तरीके से पेश किया, ‘भारत की चिंता है कि चीन के कारण ऐसा हुआ है…उसे लगता है कि ईस्ट कंटेनर टर्मिनल के बारे में चीन की खुफिया एजेंसियों ने भ्रम फैलाया है. उसका मकसद इस परियोजना को रुकवाना है.’ ईस्ट कंटेनर टर्मिनल पर डॉ. जयशंकर की राय ठीक है. श्रीलंका में नीति-निर्माताओं की विदेश नीति का झुकाव चीन की तरफ है, इसलिए इस परियोजना को रोका गया है. इसकी वजह यह रही है कि रणनीतिक विकल्पों को लेकर श्रीलंका की विदेश नीति का रुख क़मजोर रहा है. इसलिए वह अक्सर पहले लिए गए फैसलों को बदलता है ताकि विदेशी शक्तियां उससे खुश रहें. लेकिन इसी वजह से उसके स्वतंत्र रूप से सामरिक फैसले लेने की क्षमता प्रभावित होती है. 

जहां चीन को विशाल इंफ्रास्ट्रक्चर प्रॉजेक्ट्स मिल रहे हैं, वहीं यूएस मिलेनियम चैलेंज कॉरपोरेशन (MCC) जैसी कंपनियों को दिक्कत हो रही है. स्थानीय समितियों ने ऐसी कंपनियों को लेकर राजनीति की है, जिससे नीति-निर्माता गुमराह हो गए. इसी वजह से श्रीलंका के हाथ से 48 करोड़ डॉलर का अनुदान निकल गया 

हिंद-प्रशांत पहल की तुलना में श्रीलंका की विदेश नीति का झुकाव चीन और उसके BRI प्रॉजेक्ट की तरफ अधिक रहा है. विदेश नीति का विश्लेषण ‘झूठे दोहरे’ मनोवैज्ञानिक ट्रैप में फंस गया है, जो श्रीलंका सरकार की विदेश नीति बनाने वालों की गलती है. सिंगापुर के राजनयिक बिलाहरि कौशिकन ने इस झूठे दोहरे ट्रैप को समझाया है, जो रोरी मेडकाफ की किताब में भी मिलता है. इसमें इस बात जोर दिया जाता है कि हर चीज यहां आकर रुक जाती है कि भविष्य के लिए चीन है, जैसे अतीत में अमेरिका था. इनमें से आप किसे चुनेंगे? श्रीलंका अगर अपनी सारी विदेश नीति इस लिहाज से तय न करता और मध्यम दर्जे की शक्तियों के साथ क़रीबी रिश्ते रखता तो इससे उसे कहीं अधिक फ़ायदा हो सकता था. 

UNHRC और तमिल समुदाय की शिकायतें

चीन के उलट भारत का श्रीलंका के साथ व्यापक रिश्ता है और यह सिर्फ इंफ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र तक सीमित नहीं है. श्रीलंका में तमिल समुदाय की शिकायतों को दूर करने और उन्हें संतुष्ट करने को लेकर पर्याप्त प्रयास नहीं हुए हैं, जिसे लेकर भारत चिंतित है. डॉ. जयशंकर ने भी अपनी यात्रा के दौरान यह मुद्दा उठाया. उन्होंने इसी वजह से अपने आधिकारिक बयान में सत्ता के विकेंद्रीकरण के लिए 13वें संशोधन की बात शामिल की. श्रीलंका को मार्च में संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार सत्र का भी सामना करना पड़ा. इधर, भारत में तमिलनाडु में भी चुनाव हुए हैं. इसलिए भारत इन मुद्दों को लेकर गंभीर है. डॉ. जयशंकर ने संयुक्त राष्ट्र संघ के मानवाधिकार सत्र से काफी पहले तमिल समुदाय की तकलीफों को लेकर चिंता जाहिर की. एक तरह से उन्होंने यह बात सही समय पर उठाई. इसे मार्च के सत्र से पहले श्रीलंका पर दबाव घटाने के संकेत के रूप में देखा गया. ऐसे में जयशंकर की यात्रा के कुछ दिन बाद जाफना यूनिवर्सिटी में रातोंरात तमिल वॉर मेमोरियल का हटाया जाना हैरान करता है. जहां श्रीलंका की सरकार को तमिल समुदाय को संतुष्ट करने की कोशिश करनी चाहिए थी, उसने ठीक इसके उलट काम किया. तमिल समुदाय की शिकायतों के बढ़ते दबाव से भारत-श्रीलंका के रिश्तों पर बुरा असर पड़ सकता है. 

ईस्ट कंटेनर टर्मिनल पर डॉ. जयशंकर की राय ठीक है. श्रीलंका में नीति-निर्माताओं की विदेश नीति का झुकाव चीन की तरफ है, इसलिए इस परियोजना को रोका गया है. इसकी वजह यह रही है कि रणनीतिक विकल्पों को लेकर श्रीलंका की विदेश नीति का रुख क़मजोर रहा है.

विदेश मामलों के जानकार सी राजा मोहन लिखते हैं, ‘भारत इसके लिए श्रीलंका को प्रोत्साहित कर सकता है, वह उसे मजबूर नहीं कर सकता’. हालांकि, इस मामले में अगर श्रीलंका की घरेलू नीतियां बार-बार असफल होती रहीं तो भारत दबाव डालने के लिए मज़बूर हो सकता है. इसलिए श्रीलंका की सरकार को प्रगतिशील तरीके और ईमानदारी से इसकी कोशिश करनी चाहिए. उसे अपनी विदेश नीति में बदलाव करना चाहिए और लोकतंत्र के आदर्शों की रक्षा भी करनी चाहिए. अगर ऐसा नहीं किया गया तो आने वाले वर्षों में वह सिर्फ नाम का लोकतंत्र रह जाएगा. 

The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.