Published on Jul 08, 2021 Updated 0 Hours ago

भारत के मुक़ाबले चीन को तरज़ीह देने का घरेलू फ़ैसला करने और अपनी विदेश नीति का संतुलन गंवाने का भारत और श्रीलंका के संबंधों पर गहरा असर होगा.

कोलंबो पोर्ट सिटी बिल पर दबाव बनाकर चीन का श्रीलंका की घरेलू राजनीति में बढ़ता दख़ल: शिकंजे में फंस रहा है द्वीप देश
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जून महीने की शुरुआत में राष्ट्रपति जो बाइडेन ने एक कार्यकारी आदेश जारी करके कुछ चीनी कंपनियों में अमेरिका के निवेश करने पर रोक लगा दी थी. अमेरिका ने ये क़दम ये कहते हुए उठाया था कि, ‘चीन की ये कंपनियां अमेरिका और उसके सहयोगियों की सुरक्षा और लोकतांत्रिक मूल्यों के लिए ख़तरा हैं’. वास्तविकता ये है कि बाइडेन के फ़ैसले से इन चीनी कंपनियों पर प्रतिबंध लग गया. अमेरिका ने चीन की जिन कंपनियों पर कार्रवाई की, उनमें श्रीलंका का पोर्ट सिटी विकसित करने वाली चाइना हार्बर इंजीनियरिंग कंपनी और उसकी मालिक कंपनी चाइना कम्युनिकेशन कंस्ट्रक्शन कंपनी भी शामिल हैं. चीन से जुड़ी अपनी सख़्त नीति पर अमेरिका के दोनों राजनीतिक दलों में आम सहमति है. इससे श्रीलंका जैसे देशों की चिंताएं बढ़ गई हैं. क्योंकि, वहां के मूलभूत ढांचे के विकास में चीन की कंपनियों ने काफ़ी पूंजी लगाई हुई है, और ये निवेश लगातार बढ़ भी रहा है.

क्षेत्रीय शक्तियां और आस-पास के इलाक़े

अमेरिकी प्रतिबंध की शिकार हुई चीन की कंपनियां सिर्फ़ श्रीलंका में निवेश तक सीमित नहीं हैं. सच तो ये है कि ये कंपनियां अमेरिका के बेहद क़रीब 82 किलोमीटर लंबी पनामा नहर को भी चला रही हैं. पनामा नहर का निर्माण अमेरिका का सामरिक विस्तार करने के लिए किया गया था, जिससे अटलांटिक और प्रशांत महासागर को जोड़ा गया. आज इस नहर के चारों तरफ़ चल रहे मूलभूत ढांचे के प्रोजेक्ट चीन ही बना रहा है. पनामा में बुनियादी ढांचे के विकास से चीन की कई कंपनियां जैसे कि सीएचईसी और सीसीसीसी भी जुड़ी हैं. 2017 में पनामा ने ताइवान के साथ अपने कूटनीतिक रिश्ते ख़त्म करके चीन के बीआरआई सहायता कार्यक्रम को अपना लिया था, जिसके तहत इन्फ्रास्ट्रक्चर के क्षेत्र में अरबों डॉलर का निवेश हो रहा है. आज चीन, पनामा नहर पर बन रहे एक पुल के निर्माण और 4 अरब डॉलर के एक रेलवे प्रोजेक्ट से भी जुड़ा है. पनामा के ऊर्जा क्षेत्र और खनन से भी चीन जुड़ा है और चीन की कंपनी हुआवेई, पनामा में दूरसंचार का एक इन्फ्रास्ट्रक्चर प्रोजेक्ट चला रही है. इसमें सैन मिगुएलिटो में एक डिजिटल मुक्त व्यापार क्षेत्र का निर्माण भी शामिल है. पनामा के चीन के पाले में जाने का व्यापक असर पड़ा है. आज लैटिन अमेरिका के 15 देशों ने चीन के बीआरआई प्रोजेक्ट को अपना लिया है. हालांकि, पनामा की मौजूदा सरकार ने संतुलन बनाए रखने की कोशिश की है और पुल समेत मूलभूत ढांचे से जुड़े कई प्रोजेक्ट में चीन की उपस्थिति कम की है. पनामा ने ये क़दम चीन के ‘क़र्ज़ के जाल’ में फंसने के डर और अमेरिका की जियोपॉलिटिकल सुरक्षा संबंधी चिंताओं को देखते हुए उठाया है.

पनामा की ही तरह श्रीलंका की सरकार को भी चीन का पिछलग्गू बनने की विदेश नीति से पीछे हटना होगा और एक संतुलन बनाना होगा, जिससे वो चीन की मौजूदगी से पैदा होने वाली जियोपॉलिटिकल और क्षेत्रीय सुरक्षा संबंधी चिंताएं दूर करने के लिए सोचा समझा नज़रिया विकसित कर सके. 

इसी तरह से एक और क्षेत्रीय शक्ति भारत के बेहद क़रीब स्थित श्रीलंका ने चीन के बीआरआई का स्वागत किया है, जिसके तहत कई ऐसे प्रोजेक्ट बन रहे हैं, जो भारत के लिए चिंता का विषय हैं. श्रीलंका आज चीन के सधे तरीक़े से बिछाए गए क़र्ज़ के जाल मे फंस गया है, और अलग अलग तरह के उसके क़र्ज़ चुका रहा है. इसके लिए उसे अपने सामरिक संसाधनों को क़र्ज़ के बदले हिस्सेदारी से लेकर, व्यापक दायरे वाले विशेष आर्थिक क्षेत्र बनाने जैसे क़दम उठाने पड़ रहे हैं. पनामा की ही तरह श्रीलंका की सरकार को भी चीन का पिछलग्गू बनने की विदेश नीति से पीछे हटना होगा और एक संतुलन बनाना होगा, जिससे वो चीन की मौजूदगी से पैदा होने वाली जियोपॉलिटिकल और क्षेत्रीय सुरक्षा संबंधी चिंताएं दूर करने के लिए सोचा समझा नज़रिया विकसित कर सके. आपस में जुड़ी क्षेत्रीय भौगोलिक खेमेबंदी, जैसे कि भारत श्रीलंका और अमेरिका व उसके बेहद क़रीब स्थित पनामा के बीच संबंध को सिर्फ़ इसलिए अनदेखा नहीं किया जा सकता, क्योंकि एक बाहरी ताक़त चीन इसमें सामरिक दिलचस्पी दिखा रहा है. यही ‘मुनरो सिद्धांत’ चीन के आस-पास के इलाक़े पर भी लागू होता है.

कोलंबो के बंदरगाह शहर पर चीन की विजय

श्रीलंका की सरकार से दो तिहाई बहुमत से मंज़ूरी मिलने के बाद 27 मई को संसद के स्पीकर महिंदा यपा अभयवर्धना ने कोलंबो पोर्ट सिटी इकॉनमिक कमीशन बिल पर दस्तख़त किए थे. श्रीलंका के सुप्रीम कोर्ट ने इस विधेयक के कई प्रावधानों को असंवैधानिक ठहराया था. श्रीलंका की बेहद मज़बूत बहुमत वाली सरकार ने बहुत हड़बड़ी में पोर्ट सिटी बिल पास किया था. सरकार ने इस बात की भी अनदेखी कर दी थी, ये देश की संप्रभुता के लिए ख़तरनाक है. महामारी और लॉकडाउन के दौरान बिल पास करने को सही ठहराते हुए संसद के स्पीकर ने कहा कि, ‘इस बात की कई मिसालें मौजूद हैं जब आपातकालीन स्थिति में भी संसद बिना बाधा के चली. ऐसा दूसरे विश्व युद्ध भी हुआ था, जब श्रीलंका की संसद पर बम हमला हुआ था.’ महामारी के दौरान सरकार के लिए ये मौक़ा मुफ़ीद था कि वो जनता के विरोध, परिचर्चा और लोकतांत्रिक व्यवस्थाओं की अनदेखी करके बिल को पास करा ले. श्रीलंका की सरकार के पास ऐसे कई राजनीतिक औज़ार हैं, जिससे वो बिल को लौटा सकती है. लेकिन, इन्हें चीन के ख़िलाफ़ इस्तेमाल ही नहीं किया गया. ऐसे ही अन्य मामलों, जैसे कि भारत के ईस्टर्न कंटेनर टर्मिनल प्रोजेक्ट या अमेरिका के एमसीसी ग्रांट के मामलों को जनता के विरोध का भी सामना करना पड़ा था और जांच की विशेषज्ञ समितियां भी बनी थीं. ऐसे मामलों में स्थानीय संस्थाओं से निपटने की चीन की ताक़त और शायद ‘सरकार को अलग से भुगतान’ के ज़रिए ही इस प्रोजेक्ट को मंज़ूरी मिल सकी.

श्रीलंका की हालिया हलचलों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि लोकतंत्र को चोट पहुंचाकर निरपेक्ष एजेंसियों को हथियार बनाया जा रहा है. वरना किसी असरदार लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसी संस्थाएं कोई इकतरफ़ा क़दम उठाने से रोकने का काम करती हैं

रॉबर्ट पुटनाम की किताब डिप्लोमैसी ऐंड डोमेस्टिक पॉलिटिक्स: द लॉजिक ऑफ़ टू-लेवल गेम्स के हवाले से देखें तो पता चलता है कि श्रीलंका की घरेलू राजनीति और कूटनीति किस क़दर आपस में उलझे हुए हैं. गोटाबाया राजपक्षे की मौजूदा सरकार घरेलू स्तर पर निर्णय लेने की प्रक्रिया और मोल-भाव की गुंजाइश ख़त्म कर दी है. किसी विदेशी ताक़त से अफ़सरशाही के अलग अलग स्तरों पर मोल-भाव करने की सरकारी व्यवस्था भी मौजूद नहीं है. जब बड़े फ़ैसले सीधे शीर्ष स्तर (गोटाबाया और शी जिनपिंग के बीच) पर लिए जाते हैं, तो मोल-भाव की गुंजाइश एकदम ख़त्म हो जाती है. चीन के प्रस्तावों को बिना बातचीत के मंज़ूर कर लेने के गंभीर नतीजे होंगे. चीन के बीआरआई प्रोजेक्ट से जुड़ने और किसी अन्य खिलाड़ी को तरज़ीह दिए बग़ैर, बिना वार्ता के पूरी तरह चीन के पाले में जाने से किसी और ताक़त, ख़ास तौर से श्रीलंका के सबसे क़रीबी पड़ोसी भारत के साथ जुड़ने का विकल्प ख़त्म हो जाता है. गुलबिन सुल्ताना चेतावनी देती हैं कि, ‘भले ही अमेरिका के उलट भारत ने पोर्ट सिटी को लेकर आधिकारिक रूप से चिंता नहीं जताई है. लेकिन, भारत और चीन के संबंधों के आयाम को देखते हुए, श्रीलंका को ये उम्मीद नहीं करनी चाहिए कि भारत कोलंबो पोर्ट सिटी को की तरफ़ से आंखें बंद कर लेगा और ख़ामोश बैठ जाएगा.’ भारत के मुक़ाबले चीन को तरज़ीह देने का घरेलू फ़ैसला करने और अपनी विदेश नीति का संतुलन गंवाने का भारत और श्रीलंका के संबंधों पर गहरा असर होगा.

चीन के प्रति हालिया झुकाव ने राष्ट्रपति गोटाबाया की जीत को मज़बूत किया है- घरेलू राजनीतिक स्तर पर श्रीलंका पीपुल्स पार्टी के गठबंधन को उन्हें राष्ट्रपति चुनवा पाने में मदद मिली. यही गठबंधन था जिसने लोगों के मन में अमेरिका के एमसीसी प्रोजेक्ट को लेकर ये कहते हुए डर बैठाया था कि ये राष्ट्रीय संप्रभुता के लिए ख़तरा है. अब इसी गठबंधन ने चीन को पोर्ट सिटी देने का बिल पास करके घरेलू स्तर पर राजनीतिक विजय हासिल की है. मौजूदा सरकार ये समझ पाने में नाकाम रही है कि बिल पास करने से उसे घरेलू राजनीति में जो जीत हासिल हुई है, उससे विदेश नीति की चुनौतियां ख़त्म नहीं हुईं. जबकि श्रीलंका के एक संतुलित विदेश नीति अपनाने की ये बुनियादी ज़रूरत है. चीन का आक्रामक रुख़ और श्रीलंका के विदेश सचिव द्वारा शिंजियांग पर बोलने जैसे क़दमों से चीन का असामान्य रूप से बचाव करने से श्रीलंका की विदेश नीति पर कई तरह के बाहरी दबाव पड़ रहे हैं. श्रीलंका की हालिया हलचलों का विश्लेषण करने पर पता चलता है कि लोकतंत्र को चोट पहुंचाकर निरपेक्ष एजेंसियों को हथियार बनाया जा रहा है. वरना किसी असरदार लोकतांत्रिक व्यवस्था में ऐसी संस्थाएं कोई इकतरफ़ा क़दम उठाने से रोकने का काम करती हैं. चुने हुए पदाधिकारी कम से कम लोकतंत्र का सम्मान करने का दिखावा करते हैं और ज़ुबानी तौर पर ही सही, लेकिन विदेश नीति में संतुलन बनाने का काम करते हैं. लेकिन, हक़ीक़त में वैकल्पिक चीनी मॉडल का समर्थन करके वो लोकतंत्र को अंदर से कमज़ोर करते हैं.

चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के मॉडल में शी जिनपिंग को श्रीलंका के पोर्ट सिटी के प्रोजेक्ट की चिंता करने की ज़रूरत ही नहीं है. श्रीलंका की सरकार का इस बिल को मंज़ूर करके पास कराना राष्ट्रपति जिनपिंग की बीआरआई रणनीति की एक और सफ़लता है. ये उनकी घरेलू नीति से ज़्यादा विदेश नीति की जीत है. वही, गोटाबाया के लिए पैमाना अलग है. उन्होंने ये विधेयक अपने देश की लोकतांत्रिक व्यवस्था को देखते हुए घरेलू राजनीतिक समीकरण के हिसाब से पास कराया है. अगर ये विधेयक घोषित वादे पूरे नहीं करता, तो गोटाबाया की राष्ट्रपति की कुर्सी भी छिन सकती है. वहीं, राष्ट्रपति जिनपिंग को ऐसी कोई फ़िक्र करने की ज़रूरत नहीं है.

सरकार ने एक महीने के भीतर की पोर्ट सिटी बिल पास कराने की हड़बड़ी दो वजहों से दिखाई. 

पहली, ये कि महामारी के कारण श्रीलंका की आर्थिक स्थिति और बिगड़ गई है. श्रीलंका में आने वाली विदेशी रक़म पर असर पड़ा है और क़र्ज़ का प्रबंधन एक गंभीर चिंता बन गया है. अगस्त 2020 तक श्रीलंका के ऊपर कुल 35.3 अरब डॉलर का बाहरी क़र्ज़ बाक़ी था. राष्ट्रपति के सचिव पीबी जयसुंदरा ने पोर्ट सिटी विधेयक पास करने को ये कहते हुए जायज़ ठहराया कि, ‘इसी वजह से पोर्ट सिटी क़ानून अहम है…पोर्ट सिटी का विधेयक पास होने से श्रीलंका को एक सर्विस सेंटर बनाने में मदद मिलेगी और उससे श्रीलंका में विदेशी निवेश के इच्छुक लोगों का हौसला बढ़ेगा.’ उन्होंने विदेशी क़र्ज़ों पर सरकार की स्थिति और स्पष्ट की और कहा कि, ‘भविष्य में विदेश से क़र्ज़ लेकर प्रोजेक्ट बनाने से बचा जाना चाहिए.’ श्रीलंका सरकार की बिगड़ती वित्तीय स्थिति को देखते हुए, चीन के पोर्ट सिटी से, बीमार अर्थव्यवस्था में नई जान डालने की उम्मीद की जा रही है.

दूसरी बात ये कि मानव अधिकार परिषद में चीन ने श्रीलंका को जिस राजनीतिक सुरक्षा का वादा किया था, वो चीन ने निभाया जब, संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद में मौजूदा सरकार के ख़िलाफ़ लाए गए प्रस्ताव का उसने विरोध किया. इस प्रस्ताव में 2009 में ख़त्म हुए गृह युद्ध के दौरान श्रीलंका पर मानव अधिकारों के उल्लंघन के आरोप लगाए गए थे. यूएनएचआरसी में वोट के बाद चीन के नेतृत्व की तरफ़ से की गई फ़ोन कॉल बिल्कुल सही समय पर आई थी. राजपक्षे भाइयों के अस्तित्व के लिए ऐसी राजनीतिक सुरक्षा बहुत ज़रूरी है. चीन खुलकर इस बात का समर्थन करता है. चीन ने अपने स्टेट काउंसलर और रक्षा मंत्री वेई फेंघे को श्रीलंका के उच्च स्तरीय दौरे पर भेजकर ये प्रतिबद्धता दोहराई थी. वेई फेंघे ने कहा था कि, ‘ताइवान, हॉन्ग कॉन्ग विशेष प्रशासनिक क्षेत्र, और शिंजियांग वीगर स्वायत्त क्षेत्र के मुद्दों पर श्रीलंका के रुख़ का चीन की सरकार स्वागत करती है. हम मानव अधिकारों से जुड़े मसलों पर हमेशा श्रीलंका के साथ खड़े रहेंगे.’

मानव अधिकारों को लेकर श्रीलंका के किसी भी तरह के रुख़ का चीन समर्थन करता है, और उसे स्वीकार भी करता है. लेकिन, पश्चिमी देश श्रीलंका में अल्पसंख्यकों की लंबे समय से जताई जा रही चिंताएं उजागर करना चाहेंगे. हाल ही में श्रीलंका पर अमेरिका की हाउस फॉरेन अफेयर्स कमेटी ने एक प्रस्ताव पारित किया था. इससे साफ है कि श्रीलंका की सरकार पर घरेलू प्रक्रिया से जुड़े कुछ विश्वसनीय और पारदर्शी क़दम उठाने का दबाव बढ़ा है. अमेरिका में श्रीलंका के राजदूत ने समिति के प्रस्ताव में कही गई बातों को ग़लत ठहराते हुए कहा कि, ‘जब श्रीलंका की मौजूदा सरकार ने ऐसी व्यवस्था बना दी है, उस समय एक अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था की मांग करना बेहद कपट भरा है.’ इनकार की ये नीति श्रीलंका का आम रवैया है और ठीक ऐसा ही रुख़ श्रीलंका ने संयुक्त राष्ट्र मानव अधिकार परिषद के प्रस्ताव पर भी अपनाया था; श्रीलंका के समाज में एक विश्वसनीय व्यवस्था का अभाव साफ़ दिखता है. नई यूरोपीय संसद ने श्रीलंका को कारोबारी रियायतें देने वाली जनरलाइज़्ड स्कीम ऑफ़ प्रेफ़रेंसेज को वापस ले लिया था. ये श्रीलंका की सरकार को सीधी चेतावनी है. इस प्रस्ताव में कहा गया है कि, ‘श्रीलंका मानव अधिकारों के उल्लंघन वाले बेहद ख़तरनाक रास्ते पर आगे बढ़ रहा है.’

चीन के लिए तो पोर्ट सिटी समझौते का दबाव बनाना पहली प्राथमिकता है. ख़ास तौर से तब और जब चीन पर अपने आस-पड़ोस के इलाक़ों और अन्य जगहों पर आक्रामक रवैया अपनाने के आरोप लग रहे हों. ऐसे में श्रीलंका को अपने प्रभाव के दायरे में लाना, चीन की बीआरआई नीति की बड़ी जीत है.

केवल चीन की आर्थिक मदद और सुरक्षा के भरोसे रहना निश्चित रूप से ग़लत आकलन है. चीन के लिए तो पोर्ट सिटी समझौते का दबाव बनाना पहली प्राथमिकता है. ख़ास तौर से तब और जब चीन पर अपने आस-पड़ोस के इलाक़ों और अन्य जगहों पर आक्रामक रवैया अपनाने के आरोप लग रहे हों. ऐसे में श्रीलंका को अपने प्रभाव के दायरे में लाना, चीन की बीआरआई नीति की बड़ी जीत है. इसके अलावा, पोर्ट सिटी विधेयक की तय समय सीमा मौजूदा सरकार के कार्यकाल से कहीं अधिक है. ऐसे में क्या भविष्य में कोई सरकार इस विधेयक पर नए सिरे से विचार करेगी या ये समझौता तोड़ देगी? इससे पहले की सरकार ने हंबनटोटा बंदरगाह समझौता करने के बाद उस पर नए सिरे से विचार किया था. अगर समझौते पर फिर से विचार संभव है, और ये समझौता उचित है, तो निश्चित रूप से इससे श्रीलंका की शक्ल बदल जाएगी. लेकिन, राष्ट्रपति गोटाबाया ने 99 साल के लिए दस्तख़त किए गए हंबनटोटा बंदरगाह समझौते पर पुनर्विचार का जो चुनावी वादा किया था, वो कभी पूरा नहीं किया. इतिहास हमें बताता है कि अगर पोर्ट सिटी विधेयक पर फिर से विचार हुआ भी, तो चीन से कुछ ख़ास लचीलेपन की उम्मीद नहीं है.

पोर्ट सिटी विधेयक को जिस तरह हड़बड़ी में मंज़ूरी दी गई, उससे पता चलता है कि इस क्षेत्र में चीन का प्रभाव किस तरह बढ़ रहा है और वो किसी स्थानीय सरकार को किस तरह अपने इशारे पर नचा रहा है. श्रीलंका की विदेश नीति की हालत इस समय एक डोनट जैसी है जो केवल चीन के विदेशी हितों पर ही केंद्रित है. चिंता की बात ये है कि ये भीतर से खोखली है और संप्रभुता की रक्षा करने वाले राष्ट्रीय हितों की पूरी तरह से अनदेखी की जा रही है. जब कोई विदेशी साझीदार घरेलू मामलों में दख़ल देना शुरू करेगा, तो ये विदेश नीति हिलने लगेगी और श्रीलंका की सरकार घरेलू राजनीति पर अपनी पकड़ गंवा देगी.

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