हिंद महासागर में स्थित चागोस द्वीप समूह को लेकर मॉरीशस और ब्रिटेन के बीच पिछले कई दशकों से विवाद चला आ रहा है. मज़ाक़ के तौर पर इनद्वीपों को ‘अफ्रीका में ब्रिटेन का आख़िरी उपनिवेश’ कहा जाता है. चागोस द्वीप समूह को लेकर विवाद, सिर्फ़ संप्रभुता ही नहीं, कई दूसरे अहम सवाल भीखड़े करता है. इसके साथ उपनिवेशों की आज़ादी, अंतरराष्ट्रीय क़ानून, सुरक्षा के नाम पर शोषण, मानव अधिकारों और न्याय के प्रश्न भी उठते हैं.
उपनिवेशवाद के दौर में चागोस द्वीप समूहों को मॉरीशस का ही एक हिस्सा माना जाता था. इसलिए, मौजूदा विवाद की जड़ को हम 1965 के उस फ़ैसले को मानते है, जब इन द्वीपों को मॉरीशस से अलग करके हिंद महासागर में ब्रिटेन के इलाक़े (BIOT) का दर्जा दिया गया था.
2023 की शुरुआत में नए साल पर अपने भाषण में मॉरीशस के प्रधानमंत्री प्रविंद जगन्नाथ ने कहा था कि चागोस द्वीप समूह पर अधिकार को लेकरब्रिटेन और मॉरीशस के बीच बातचीत शुरू हो गई है. उन्होंने ये भी कहा कि इस नई पहल से उनकी काफ़ी उम्मीदें जगी है. इसके बाद, फ़रवरी में प्रविंदजगन्नाथ ने ब्रिटेन के प्रधानमंत्री ऋषि सुनक के साथ फ़ोन पर बातचीत की. ये ख़बर दी गई कि ऋषि सुनक ने भी क्षेत्रीय और वैश्विक सुरक्षा की चुनौतियोंका मुक़ाबला करने के लिए ‘और भी नज़दीकी के साथ काम करने’ के अवसरों का स्वागत किया. तो क्या अब चागोस द्वीप समूह पर अधिकार को लेकरमॉरीशस का संघर्ष आख़िरकार ख़ात्मे की ओर बढ़ रहा है?
Source: Britannica Encyclopaedia, Britannica.com
चागोस द्वीप समूह पर किसका क़ब्ज़ा है?
चागोस द्वीप समूह, हिंद महासागर के बीचों-बीच 58 छोटे और बेहद नीचे स्थित जज़ीरों का समूह है. समुद्र में ज्वार की ऊंचाई और बालू के तटों केखिसकने के कारण अक्सर उनकी तादाद में फ़र्क़ आ जाता है. 18वीं सदी से ही ये द्वीप समूह, साम्राज्यवादी ताक़तों के क़ब्ज़े में रहे हैं. कुछ दिनों तक इनद्वीपों पर नीदरलैंड का क़ब्ज़ा रहा था, उसके बाद फ्रांस का नियंत्रण हो गया था. इसी दौरान, इन द्वीपों के पेड़ पौधों को साफ़ करके यहां पर नारियल केबाग़ान लगा दिए गए थे. चागोस द्वीपों के आज के बाशिंदे, उस दौर में वीरान द्वीपों पर लगाए गए बाग़ानों में काम करने के लिए दूसरे देशों से लाए गएबंधुआ मज़दूरों के वंशज हैं. जब 1814 में पेरिस संधि (जिससे नेपोलियन के युद्धों का अंत हुआ) पर दस्तख़त किए गए, तो मॉरीशस के साथ साथटोबैगो और सेंट लूसिया जैसे कुछ फ्रांसीसी उपनिवेश, ब्रिटेन के हवाले कर दिए गए. मॉरीशस 1968 में अपनी आज़ादी के वक़्त तक ब्रिटेन का उपनिवेशबना रहा था.
हालांकि, उपनिवेशवाद के दौर में चागोस द्वीप समूहों को मॉरीशस का ही एक हिस्सा माना जाता था. इसलिए, मौजूदा विवाद की जड़ को हम 1965 केउस फ़ैसले को मानते है, जब इन द्वीपों को मॉरीशस से अलग करके हिंद महासागर में ब्रिटेन के इलाक़े (BIOT) का दर्जा दिया गया था. मॉरीशस केआज़ादी हासिल करने से पहले से ही, अमेरिका और ब्रिटेन के बीच, हिंद महासागर में ब्रिटेन के अधिकार वाले किसी द्वीप पर एक सैनिक अड्डा बनाने कोलेकर गुप-चुप बातचीत चल रही थी. उपनिवेशवाद के ख़ात्मे के मंज़र, स्वेज़ नहर के पूरब से ब्रिटेन द्वारा अपना साम्राज्य समेटने और शीत युद्ध के कारणबढ़ते तनाव के चलते अमेरिका, हिंद महासागर में एक सैनिक अड्डा स्थापित करने पर गंभीरता से विचार कर रहा था.
हिंद महासागर में अमेरिका अपना सैनिक अड्डा ऐसी जगह बनाना चाहता था, जो सामरिक ठिकाने पर स्थित हो और जिसमें निगरानी और वायरलेससंदेशों को सुनने का केंद्र बनने की संभावना हो. इसके साथ साथ अमेरिका ये भी चाहता था कि उसका ये सैनिक अड्डा ऐसी जगह पर हो, जो तुलनात्मकरूप से अलग थलग हो, जहां कोई रहता न हो और वहां तक पहुंचने के विकल्प भी बहुत सीमित हों. चूंकि चागोस द्वीप समूहों का एक द्वीप डिएगोगार्सिया, ये शर्तें पूरी करता था, तो ये मान लिया गया था कि वहां बसे लोगों को मुआवज़ा देकर आसानी से दूसरी जगह बसाया जा सकता था.
अमेरिका और ब्रिटेन की ख़ुफ़िया बातचीत के अंत में सहमति इस बात पर बनी कि ज़मीन का अधिग्रहण करने, वहां के लोगों को दूसरा जगह बसाने औरउनको मुआवज़ा देने की ज़िम्मेदारी ब्रिटेन की सरकार की होगी; वहीं, ये सैनिक अड्डा तैयार करने और उसके रखरखाव की ज़िम्मेदारी अमेरिका की होगी. दोनों देशों के बीच इस बात पर भी सहमति बनी कि ब्रिटेन की सरकार ‘डिएगो गार्सिया और चागोस द्वीप समूह के दूसरे द्वीपों के प्रशासन को जल्दी सेजल्दी मॉरीशस से अपने हाथ में लेने की संभावनाएं तलाशेगा.’
Source: The World Factbook, cia.gov
1965 में चागोस द्वीप समूह का मॉरीशस से अलगाव
उस वक़्त का ब्रिटेन के विदेश विभाग का एक दस्तावेज़ ये बताता है कि ब्रिटेन को ये लगता था कि मॉरीशस को आज़ादी देने से पहले चागोस द्वीपसमूहों को उससे अलग करके सीधे ब्रिटिश सरकार के अंतर्गत लेने से ही हिंद महासागर में ब्रिटेन और अमेरिका के हितों की पूर्ति हो सकेगी. उसी दस्तावेज़में ये भी लिखा था कि मॉरीशस की सहमति के बग़ैर ऐसा करने से ब्रिटेन को संयुक्त राष्ट्र की आलोचना का सामना करना पड़ेगा.
फिलिप सैंड्स (मानवाधिकार मामलों और मॉरीशस सरकार के वकील) ने अपनी किताब द लास्ट कॉलोनी में दबाव की उन रणनीतियों के बारे में विस्तारसे जानकारी दी है, जिनका इस्तेमाल ब्रिटेन ने मॉरीशस के प्रतिनिधियों के साथ बातचीत के दौरान किया था. जब ब्रिटेन के तत्कालीन प्रधानमंत्री हैरोल्डविल्सन ने मॉरीशस के प्रधानमंत्री सर शिवसागर रामगुलाम से मुलाक़त की, तो इस मुलाक़ात की तैयारी के लिए ब्रिटिश सरकार द्वारा एक दस्तावेज़तैयार किया गया था. इसमें हैरोल्ड विल्सन को सुझाव दिया गया था कि, ‘मॉरीशस के प्रधानमंत्री को उम्मीद के साथ साथ डर भी दिखाया जाए. येउम्मीद कि हो सकता है उन्हें आज़ादी मिल जाए; डर इस बात का कि अगर वो चागोस द्वीप समूहों को मॉरीशस से अलग करने को राज़ी नहीं होते तोशायद उन्हें आज़ादी न भी मिले.’ इस दस्तावेज़ में ब्रिटिश प्रधानमंत्री को सलाह दी गई थी कि, ‘ऐसे में माननीय प्रधानमंत्री शायद इशारों में इस तथ्य काज़िक्र करना चाहें कि ऑर्डर इन काउंसिल के तहत ब्रिटिश सरकार को इस बात का क़ानूनी अधिकार है कि वो मॉरीशस की रज़ामंदी के बग़ैर भी चागोसद्वीप समूह को मॉरीशस से अलग कर सकें. लेकिन, ऐसा करना ग़लत क़दम होगा.’
1968 में जब मॉरीशस आज़ाद हुआ, तो ब्रिटेन ने चागोस द्वीप समूह पर अपना क़ब्ज़ा बरक़रार रखा था. मॉरीशस की आज़ादी के तीन साल पहले, 1965 में ब्रिटेन और मॉरीशस के प्रतिनिधियों के बीच इस बात पर सहमति बन गई थी. ये समझौता लैंकेस्टर हाउस संधि के नाम से जाना जाता है. इसमें ब्रिटेनकी तरफ़ से ये वादा भी किया गया था कि ‘चागोस द्वीप समूहों के लोगों को दूसरी जगह बसाने के लिए उनकी ज़मीनों और बसने के ख़र्च का सीधामुआवज़ा देने के साथ साथ, ब्रिटिश सरकार मॉरीशस की सरकार को भी तीस लाख पाउंड देगी.’ हालांकि मॉरीशस ने बाद में ये दावा करते हुए इससमझौते की वैधता पर सवाल उठाए थे कि ये समझौता दबाव में कराया गया था; अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) ने भी अपनी सलाह देने वाली राय में येपाया था कि, ‘उस वक़्त मॉरीशस के प्रतिनिधियों के पास वास्तविक क़ानूनी या शासकीय अधिकार नहीं थे और ऐसे में इसे अंतरराष्ट्रीय समझौता कहनाअसंभव है. क्योंकि, द्वीप समूह को मॉरीशस से अलग करने का फ़ैसला, मॉरीशस की जनता की राय की स्वतंत्र और वास्तविक अभिव्यक्ति नहीं था.’
1968 में जब मॉरीशस आज़ाद हुआ, तो ब्रिटेन ने चागोस द्वीप समूह पर अपना क़ब्ज़ा बरक़रार रखा था. मॉरीशस की आज़ादी के तीन साल पहले, 1965 में ब्रिटेन और मॉरीशस के प्रतिनिधियों के बीच इस बात पर सहमति बन गई थी. ये समझौता लैंकेस्टर हाउस संधि के नाम से जाना जाता है.
उसके बाद के वर्षों में ब्रिटिश सरकार को चागोस द्वीप समूह पर अपने अधिकार को चुनौती देने वाले और बाशिंदों के साथ बर्ताव को लेकर कई क़ानूनीमुक़दमों का सामना करना पड़ा. इनमें से कई केस तो दोनों देशों की सरकारों के बीच चल रहे थे. इनके अलावा, चागोस द्वीपों के बाशिंदों ने भी उन द्वीपोंपर वापसी के अधिकार की क़ानूनी तरीक़े से मांग की है. ब्रिटेन की अदालतों में ये मुक़दमा लंबे समय से चल रहे हैं. साल 2000 में डिविज़नल कोर्ट में, 2006 में कोर्ट ऑफ़ अपील में और 2008 में हाउस ऑफ़ लॉर्ड्स में. 2012 में ये मामला यूरोप की मानव अधिकारों की अदालत में भी दायर किया गयाथा; 2015 इंटरनेशनल ट्रिब्यूनल फॉर द लॉ ऑफ़ द सी (ITLOS); 2018 में अंतरराष्ट्रीय न्यायालय (ICJ) और अभी 2019 में ये मामला संयुक्त राष्ट्रकी महासभा (UNGA) में भी उठाया गया था. सच तो ये है कि मॉरीशस 1980 के दशक से ही इन द्वीपों पर ब्रिटेन के क़ब्ज़े को चुनौती देता आया है.
ब्रिटेन की नीति में बदलाव
पिछले कई दशकों से ब्रिटेन, इन द्वीपों पर मॉरीशस के दावे और चागोस द्वीपों के नागरिकों की उन द्वीपों पर वापसी को ग़लत बताता रहा है. चागोसद्वीपों पर रहने वालों को जिस तरह से बेघर करके हटाया गया, उस पर तो ब्रिटेन ने अफ़सोस जताया. मगर ब्रिटिश सरकार लगातार ये कहती रही है किचागोस द्वीप समूह पर उसका अधिकार तो 1814 की पेरिस संधि से ही चला आ रहा है. ब्रिटेन ने इन द्वीपों के निवासियों की वापसी में अड़ंगे लगाए हैंऔर बार बार अपनी रणनीति बदलता रहा है. इसके अलावा ब्रिटेन ने चागोस द्वीपों के निवासियों के दोबारा बसने की उपयोगिता पर सवाल उठाते हुएब्रिटेन के करदाताओं के लिए इसकी भारी क़ीमत को भी बहाना बनाया है. ब्रिटेन, चागोस द्वीपों के समुद्री क्षेत्रों को संरक्षित इलाक़ा बताकर, रक्षा औरसुरक्षा के बहाने बनाकर लोगों को दोबारा बसने से रोकता रहा है और वो चागोस से पुराने बाशिंदों को केवल विरासत की देखभाल के लिए इन द्वीपों मेंजाने की इजाज़त देता है.
लेकिन, आज ये स्पष्ट दिख रहा है कि ब्रिटेन की नीति में बदलाव आया है, जिससे ब्रिटेन की घटती सॉफ्ट पावर का अंदाज़ा होता है. इसके अलावा, ब्रिटेन के साम्राज्यवादी इतिहास की बेहद हिंसक घटनाओं पर से पर्दा उठने और बारबाडोस जैसे पूर्व उपनिवेशों में ब्रिटेन के ख़िलाफ़ आवाज़ बुलंद होनेसे भी ब्रिटेन की स्थिति कमज़ोर हुई है. 2019 में संयुक्त राष्ट्र महासभा में ब्रिटेन को अब तक की सबसे बड़ी हार का सामना करना पड़ा था, और ब्रिटेन केकई पुराने साथियों ने भी उसके ख़िलाफ़ और मॉरीशस के पुरज़ोर समर्थन में मतदान किया था. उसके बाद ही ब्रिटेन को दीवार पर लिखी इबारत समझ मेंआ गई थी. वैसे तो ब्रिटेन हमेशा ही ये कहता रहा है कि वो ICJ और UNGA के विचार मानने के लिए बाध्य नहीं है. लेकिन, ब्रेग्ज़िट के बाद की दुनियामें ब्रिटेन की सरकार ये मानती है कि अगर उनके बारे में दुनिया की राय ये बनेगी कि ब्रिटेन, अंतरराष्ट्रीय न्यायालय और संयुक्त राष्ट्र महासभा के ख़िलाफ़है, तो उसके लिए परेशानी की बात होगी. इसके अलावा, ब्रिटेन को ये भी पता है कि उसका अंतरराष्ट्रीय क़ानूनों और नियमों पर आधारित विश्व व्यवस्थाके ख़िलाफ़ जाकर बर्ताव करना ठीक नहीं होगा.
चागोस द्वीप समूह का विवाद बहुआयामी और पेचीदा तो है ही, ये एक ऐसी मार्मिक कहानी भी है, जो अभी ख़त्म नहीं हुई है. इससे मानव अधिकारों, न्याय, अंतरराष्ट्रीय क़ानून और क़ानूनी मंचों के अलावा, संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता और उपनिवेशवाद से पूरी तरह आज़ादी के मसले भी जुड़े हुए हैं.
चागोस द्वीप समूह का विवाद बहुआयामी और पेचीदा तो है ही, ये एक ऐसी मार्मिक कहानी भी है, जो अभी ख़त्म नहीं हुई है. इससे मानव अधिकारों, न्याय, अंतरराष्ट्रीय क़ानून और क़ानूनी मंचों के अलावा, संप्रभुता, क्षेत्रीय अखंडता और उपनिवेशवाद से पूरी तरह आज़ादी के मसले भी जुड़े हुए हैं. इसकहानी के दो मुख्य पहलू हैं- चागोस द्वीप समूह को मॉरीशस से अलग किया जाना और उसके बाद चागोस के रहने वालों को उनके घरों से उजाड़ना. पहले क़दम के कारण दो सरकारों के बीच संप्रभुता को लेकर लड़ाई चल रही है. जबकि दूसरा मामला एक समुदाय के साथ की गई नाइंसाफ़ी का है. दोनों ही क़दम, ब्रिटेन और अमेरिका की इस ख़्वाहिश का नतीजा थे कि वो डिएगो गार्सिया में सैनिक अड्डा बनाना चाहते थे. वैसे तो ब्रिटेन और मॉरीशसके बीच संप्रभुता के मसले पर बातचीत जारी है और ब्रिटेन ने सभी विवादित मुद्दों के समाधान का वादा किया है. लेकिन, डिएगो गार्सिया की सामरिकअहमियत को देखते हुए, ये साफ़ नहीं है कि अगर इन द्वीपों पर मॉरीशस का क़ब्ज़ा हो भी जाता है, तो क्या चागोस के पुराने निवासियों को इन द्वीपों परदोबारा बसने की इजाज़त मिलेगी. कई अदालती जंगें जीतने के बाद भी मॉरीशस के लिए ज़मीनी सच्चाई में कोई बदलाव नहीं आया है.
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