मानव तस्करी एक बहुत ही जटिल और व्यापक समस्या है. इस समस्या ने दक्षिण एशियाई और दक्षिण पूर्व एशियाई क्षेत्र के लगभग चार करोड़ लोगों के जीवन को प्रभावित किया है. अनुमान के मुताबिक़ इससे प्रभावित लोगों में महिलाओं और बच्चों की आबादी 71 प्रतिशत है. मानव तस्करी की शिकार महिलाओं और बच्चों की यह आबादी जबरन श्रम, यौन उत्पीड़न और जबरन विवाह के दुष्चक्र में फंसी हुई है.
समाज के ज़्यादातर वंचित और आर्थिक तौर पर कमज़ोर तबके से संबंध रखने वाले हज़ारों लोगों को हर साल तस्करों द्वारा भारत के बड़े शहरों और कस्बों में अच्छी नौकरी व रोज़गार के नाम पर लुभाया जाता है, लेकिन धोखे से उन्हें गुलामी करने के लिए बेच दिया जाता है.
दक्षिण एशिया में भारत और बांग्लादेश ऐसे देश हैं, जो विशेषरूप से मानव तस्करी के लिए स्रोत, आवागमन और गंतव्य के रूप में जाने जाते हैं. समाज के ज़्यादातर वंचित और आर्थिक तौर पर कमज़ोर तबके से संबंध रखने वाले हज़ारों लोगों को हर साल तस्करों द्वारा भारत के बड़े शहरों और कस्बों में अच्छी नौकरी व रोज़गार के नाम पर लुभाया जाता है, लेकिन धोखे से उन्हें गुलामी करने के लिए बेच दिया जाता है. इन असुरक्षित और कमज़ोर लोगों में बेघर हो चुके रोहिंग्या भी हैं, जो वर्तमान में बांग्लादेश के शिविर क्षेत्रों में रह रहे हैं और म्यांमार लौटने की उम्मीद छोड़ चुके हैं. ज़ाहिर है कि म्यांमार इन दिनों राजनीतिक उथल-पुथल और एक अंतहीन मानवीय संकट के बीच बुरी तरह से घिरा हुआ है.
भारतीय जांच दल ने हाल ही में मानव तस्करी के एक रैकेट का पर्दाफ़ाश किया था, जिसमें बांग्लादेशी लड़कियों/महिलाओं के साथ-साथ विस्थापित रोहिंग्याओं को भारत के विभिन्न हिस्सों में ग़ैर-क़ानूनी तरीक़े से लाया जा रहा था. इस संगठित अपराध में शामिल तस्करों का जाल दोनों देशों के विभिन्न क्षेत्रों में फैला हुआ है, जहां वह अपने दूसरे साथियों के साथ इसको अंज़ाम देते हैं. दरअसल, पिछले वर्ष 6 रोहिंग्याओं को बिना वैध दस्तावेज़ों के यात्रा करने के आरोप में गिरफ़्तार किया गया था और उसके बाद इस मामले की जांच की शुरू की गई थी. जांच के दौरान मानव तस्करों के इस नेटवर्क का भंडाफोड़ हुआ. इस नेटवर्क से जुड़े कुछ तस्करों को गिरफ़्तार भी किया गया है, जबकि कुछ अन्य को गिरफ़्तार किया जाना बाक़ी है. एक अन्य घटना में मई, 2022 में 26 विस्थापित रोहिंग्याओं को पकड़ा गया था, जिनमें 12 बच्चे और 8 महिलाएं शामिल थीं. ये लोग जम्मू में शरणार्थी शिविरों से भागकर बांग्लादेश जाने की कोशिश कर रहे थे. इन लोगों को फिलहाल असम के सिलचर में डिटेंशन सेंटर में रखा गया है.
स्रोत : UNODC 2018
दरअसल, तस्करों द्वारा इन लोगों को अपने जाल में फंसाकर शिकार बनाना बेहद आसान होता है, क्योंकि नागरिकता नहीं होने की वजह से इनके पास मूलभूत अधिकार नहीं होते हैं. इतना ही नहीं, इनके पास दानदाताओं की तरफ से मानवीय आधार पर मिली मदद के अलावा इनकम का कोई वैध और स्थाई स्रोत भी नहीं होता है. शरणार्थी शिविरों में नहाने-धोने की सुविधा नहीं होने, खाने-पीने की कमी, स्वास्थ्य सुविधाओं की कमी और आजीविका के साधन नहीं होने जैसे हालात, इन्हें बेहतर अवसरों के लिए बाहर निकलने पर मज़बूर करते हैं. लेकिन बाहर पकड़े जाने पर इन्हें जेल में डाल दिया जाता है और पता नहीं होता है कि उन्हें कब छोड़ा जाएगा. ऐसा इसलिए होता है, क्योंकि ये लोग किसी देश की न्याय सीमा और अधिकार क्षेत्र में नहीं आते हैं. ये घटनाएं इन बेघर और संकट में घिरे लोगों की परेशानी को सामने लाती हैं.
ताज़ा रिपोर्टों में ज़िक्र किया गया है कि देह व्यापार के धंधे में धकेलने के लिए और जबरन मज़दूरी के लिए महिलाओं या लड़कियों को बेचने के अलावा, उन्हें जबरन आईवीएफ के धंधे के लिए भी विवश किया जा रहा है.
पारदर्शी सीमाएं
भारत और बांग्लादेश के सीमावर्ती इलाकों में मानव तस्करी बहुत आसान है. दोनों देश क़रीब 4,096.7 किलोमीटर लंबी और दुनिया की पांचवीं सबसे लंबी अंतरराष्ट्रीय सीमा को साझा करते हैं. इसमें से लगभग 60 प्रतिशत सीमा पर तो बाड़ लगी हुई है, लेकिन सीमा का बड़ा इलाका नदियों, तालाबों, खेतों, गांवों और यहां तक कि ऐसे घरों से लगा हुआ है, जहां उसका एक हिस्सा भारत में तो घर का दूसरा हिस्सा बांग्लादेश में पड़ता है. इतना ही नहीं, समुचित सड़कें नहीं होने और दुर्गम इलाक़ों की वजह से सीमावर्ती क्षेत्रों की सुरक्षा करना आसान काम नहीं है. परिणाम स्वरूप, अवैध समूहों के लिए सीमा के इन सुराखदार और अव्यवस्थित हिस्सों का उपयोग कर यहां-वहां आना-जाना आसान हो जाता है.
एक अध्ययन के मुताबिक़ बांग्लादेश से भारत की ओर होने वाली क़रीब-क़रीब आधी मानव तस्करी बांग्लादेश के जेसोर ज़िले के बेनापोल के माध्यम से की जाती है. भारत में अवैध रूप से प्रवेश करने के लिए दूसरे प्रमुख इलाके थानूरबैरी चंदूरिला, कैबा सुल्तानपुर, छोदरपुर, चपैनाबाबगुज, हिल अखवाड़ा, चुआडांगा और पोलाडंगा हैं.
वर्ष 2020 में अगस्त महीने तक भारत और बांग्लादेश के मध्य अंतरराष्ट्रीय सीमा पर पकड़ी जाने वाली महिलाओं की संख्या 915 थी. वर्ष 2019 में यह संख्या 936, वर्ष 2018 में 1,107 और वर्ष 2017 में 572 थी. मानव तस्करी रोधी एनजीओ जस्टिस एंड केयर द्वारा सीमा सुरक्षा बल (बीएसएफ) से साथ मिलकर किए गए एक अध्ययन के अनुसार पिछले दशक में 12 से 30 साल उम्र के 5 लाख से अधिक बांग्लादेशी महिलाओं और बच्चों को अवैध रूप से भारत भेजा गया है. हालांकि, ऐसे मामलों की शिकायत नहीं होना एक बड़ी समस्या है. परिवार की इज़्ज़त, बदनामी और डर की वजह से लोग अपनी दर्दनाक आपबीती को सामने नहीं लाते हैं और इस वजह से ऐसी घटनाओं के बारे में सही-सही जानकारी नहीं मिल पाती है.
भारत और बांग्लादेश दोनों देशों में मानव तस्करी से जुड़े मुद्दों को हल करने के लिए विधायी, संवैधानिक और अन्य प्रकार के क़ानूनी प्रावधान हैं, तो ज़रूरत है कि इन प्रावधानों पर अमल करने के लिए और इन्हें लागू करने के लिए समान रूप से पुरज़ोर प्रयास किए जाएं.
पुलिस की रिपोर्टों के अनुसार ऐसे मानव तस्करों का नेटवर्क लगातार बढ़ रहा है, जिनमें या तो महिलाएं हैं या अपने शिकार को फंसाने के लिए अलग-अलग महिलाओं का इस्तेमाल कर रहे हैं. रोहिंग्या महिलाओं का या तो अपहरण कर लिया जाता है या उन्हें नौकरी के झूठे वादे कर के भर्ती किया जाता है या फिर उनकी शादी कर दी जाती है और बेच दिया जाता है. पीड़ितों की घुसपैठ कराने के लिए तस्कर फर्ज़ी दस्तावेज़ तैयार करते हैं. ताज़ा रिपोर्टों में ज़िक्र किया गया है कि देह व्यापार के धंधे में धकेलने के लिए और जबरन मज़दूरी के लिए महिलाओं या लड़कियों को बेचने के अलावा, उन्हें जबरन आईवीएफ के धंधे के लिए भी विवश किया जा रहा है.
हालांकि, राष्ट्र विहीन होना रोहिंग्याओं की इस दुविधा को और बढ़ा देता है, क्योंकि पकड़े जाने के बाद उन्हें कोई सुरक्षा नहीं मिलती है. नतीजतन वे उचित समाधान और न्याय की प्रतीक्षा में जेल या आश्रय गृहों में रहने को मज़बूर हो जाते हैं.
वर्तमान क़ानूनी तंत्र
इस अपराध पर लगाम लगाने के लिए दोनों देशों में कई मानव तस्करी रोधी क़ानून हैं. भारत में संविधान के आर्टिकल 23(1), आईपीसी 366-373, अनैतिक व्यापार (रोकथाम) अधिनियम 1956 के अलावा महिलाओं एवं बच्चों की सुरक्षा से संबंधित दूसरे क़ानूनों के अंतर्गत भी प्रावधान हैं. मानव तस्करी (रोकथाम, देखभाल और पुनर्वास) विधेयक के मसौदे पर अभी काम चल रहा है, जिसके तहत मानव तस्करी की समस्या का पूर्णरूप से निवारण होने की उम्मीद है. इसी तरह बांग्लादेश में भी मानव तस्करी की रोकथाम और दमन अधिनियम, 2012, वर्ष 2000 का महिलाओं और बच्चों का दमन रोधी अधिनियम (2003 में संशोधित) और बांग्लादेश की दंड संहिता के अनुच्छेद 372 और 373 में बाल तस्करों को प्रतिबंधित और दंडित करने का प्रावधान है.
ऐसे में जबकि भारत और बांग्लादेश दोनों देशों में मानव तस्करी से जुड़े मुद्दों को हल करने के लिए विधायी, संवैधानिक और अन्य प्रकार के क़ानूनी प्रावधान हैं, तो ज़रूरत है कि इन प्रावधानों पर अमल करने के लिए और इन्हें लागू करने के लिए समान रूप से पुरज़ोर प्रयास किए जाएं. इसके लिए इसमें शामिल विभिन्न हितधारकों और सरकारी अधिकारियों के मध्य अधिक तालमेल और सहयोग की आवश्यकता है, ताकि इस तरह की मानव तस्करी के संभावित पीड़ितों की सुरक्षा की जा सके और इस आपराधिक कृत्य को अंज़ाम देने वाले अपराधियों के ख़िलाफ़ मुकदमा चलाया जा सके.
वर्ष 2015 में नई दिल्ली और ढाका के मध्य किए गए एमओयू में सभी प्रकार की मानव तस्करी, विशेष रूप से महिलाओं और बच्चों की तस्करी को रोकने, उनके बचाव और उनकी रिकवरी के लिए सहयोग को बढ़ाने का एक व्यापक दृष्टिकोण रहा है. यह पीड़ितों के प्रत्यावर्तन के साथ ही, किसी भी देश में मानव तस्करों और संगठित अपराधियों के सिंडिकेट की त्वरित जांच और उन्हें दंड के प्रावधान के साथ पीड़ितों की सुरक्षा व संरक्षण करता है. हालांकि, इस तरह के मामलों की लगातार बढ़ती संख्या पूरे तंत्र के भीतर की गड़बड़ी को प्रकट करती है, जिसे ज़ल्द से ज़ल्द दुरुस्त करने की आवश्यकता है.
चुनौतियां
इस समस्या से निपटने में एक सबसे बड़ी बात जो सामने आती है, वो है कि जिस स्तर पर दोनों देशों में मानव तस्करी के मामले सामने आते हैं, उनकी तुलना में इसमें लिप्त लोगों की जांच, अपराध सिद्ध होने और सज़ा मिलने की दर बहुत कम है. यह भी देखा गया है कि जिन अधिकारियों पर मानव तस्करी पर लगाम लगाने की ज़िम्मेदारी है, वो ही कई मामलों में अपराधियों के साथ इन घटनाओं में संलिप्त पाए गए हैं. इसके अतिरिक्त, ऐसे मामलों और आरोपों की रिपोर्ट दर्ज़ करने में दोनों देशों की सरकारों की ओर से लगातार चूक हुई है. ऐसे मामलों में सज़ा मिलने में कमी और केस ख़ारिज़ होने के पीछे एक और बड़ी वजह गवाहों की कमी होना है. ऐसा देखा गया है कि जब कभी भी पीड़ितों और गवाहों की ज़रूरत पड़ती है तो उन्हें यात्रा के लिए ख़र्च करना पड़ता है, और इसके लिए उन्हें ना तो कोई मुआवज़ा दिया जाता है और ना ही कोई सुरक्षा दी जाती है.
मानव तस्करी के मामलों में रोहिंग्याओं को क़ानून के मुताबिक़ केस दर्ज़ करने की अनुमति दी जाने के बावज़ूद, अफसोस की बात यह है कि न्यायपालिका द्वारा उनसे जुड़े मामलों को तरजीह नहीं दी जाती है. इन्हीं ख़ामियों और दोषी साबित करने की प्रक्रिया में देरी की वजह से देश में मानव तस्करों और अपराधियों को अपनी गतिविधियों को अधिकारियों की नाक के नीचे अंज़ाम देना आसान हो जाता है.
भारत और बांग्लादेश दोनों ही देश चूंकि 1951 रिफ्यूजी कन्वेशन और इसके 1967 के प्रोटोकॉल के पक्षकार नहीं हैं, इसलिए ये रोहिंग्याओं को शरणार्थी नहीं मानते हैं. पर दोनों देश कई प्रमुख संधियों या समझौतों के हस्ताक्षरकर्ता हैं. इन समझौतों के मुताबिक़ देशों के लिए ना सिर्फ़ सभी लोगों के बुनियादी मानवाधिकारों की रक्षा और मानव गरिमा सुनिश्चित कराना, बल्कि शरण में आने वाले लोगों को बुनियादी सुरक्षा प्रदान करना ज़रूरी है. ऐसे में इस रोहिंग्याओं के लिए उचित क़ानूनी चैनल आवश्यक हैं. इसके लिए इनके शिविरों के अंदर निष्पक्ष क़ानूनी तंत्र स्थापित करने की ज़रूरत है, जो इन लोगों को अपनी आवाज़ उठाने, न्याय पाने और उन्हें इन हालात में पहुंचाने वाले अपराधियों को सज़ा दिलाने में सहायता करेगा.
इसके अलावा, पूरी स्थिति को अनुकूल बनाने के लिए कुछ और भी ऐसे घटक या कारक हैं, जिन पर ध्यान देने की ज़रूरत है. जैसे, सबसे पहले इस प्रकार की क्षमता विकसित करने की ज़रूरत है, जिससे दोनों देशों की सीमा सुरक्षा एजेंसियों और कानून प्रवर्तन एजेंसियों को पीड़ितों की पहचान, एजेंसी रेफरल और प्रत्यावर्तन प्रक्रियाओं के बारे में ज़ागरूकता बढ़ाने के लिए प्रशिक्षण दिया जा सके. इससे सीमा प्रबंधन प्रभावी ढंग से हो पाएगा.
भारत और बांग्लादेश दोनों ही देश चूंकि 1951 रिफ्यूजी कन्वेशन और इसके 1967 के प्रोटोकॉल के पक्षकार नहीं हैं, इसलिए ये रोहिंग्याओं को शरणार्थी नहीं मानते हैं. पर दोनों देश कई प्रमुख संधियों या समझौतों के हस्ताक्षरकर्ता हैं.
दूसरा, भारत और बांग्लादेश के ज्वाइंट टॉस्क फोर्स यानी संयुक्त कार्य बल की बैठकों को नियमित तौर आयोजित करने और उनकी संख्या को बढ़ाने की आवश्यकता है. ये सही जानकारी के प्रसार, प्रोटोकॉल पालन और त्वरित कार्रवाई में भी मददगार होगा.
तीसरा, कार्यक्रमों के निर्बाध संचालन और पूरी प्रक्रिया के डिजिटलीकरण के लिए धन की आवश्यकता को पूरा करना.
चौथा, मानव तस्करी के इस दुष्चक्र में शामिल सरकारी कर्मचारियों की पहचान बहुत ज़रूरी है. इसके साथ ही ग़ैरक़ानूनी वित्तीय सौदों जैसे भ्रष्टाचार पर लगाम के लिए और ऐसे मामलों में त्वरित कार्रवाई के लिए एक तंत्र तैयार करना भी महत्वपूर्ण होगा.
पांचवा, पीड़ित की देखभाल और सुरक्षा सबसे महत्त्वपूर्ण है. पीड़ितों के साथ सम्मानपूर्वक व्यवहार करने और उन्हें पर्याप्त स्वास्थ्य सुविधाएं एवं सुरक्षा उपलब्ध कराने की आवश्यकता है.
अंत में, दोनों देशों के बीच उपरोक्त सभी मुद्दों को संबोधित करने वाले एक एकीकृत एसओपी की भी आवश्यकता है, जो अपेक्षित नतीज़े पाने के लिए बेहद प्रभावी साबित होगा. वर्तमान में एक एसओपी प्रक्रिया में है, लेकिन इसके ज़ल्द से ज़ल्द सामने लाने और कार्यान्वित करने की ज़रूरत है.
उपरोक्त तर्कों और तथ्यों से यह स्पष्ट है कि भारत और बांग्लादेश दोनों ही एकीकृत एसओपी का गठन कर अनिवार्य रूप से सीमा-पार प्रबंधन की मौजूदा ख़ामियों को तत्काल दूर करें. निश्चित तौर पर यह मानव तस्करी जैसे आपराधिक कृत्य को रोकने में सहायक सिद्ध होगा.
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