आप किसी ट्रैफिक सिग्नल के ऊपर लगे कैमरे के सामने से गुज़रते हैं. वहां लगा लंबा सफ़ेद कैमरा आपको देखता है, आपका फोटो खींचता है और फिर इसे पुलिस स्टेशन में मौजूद फेशियल रिकग्निशन सिस्टम के पास भेज देता है. वहां का सॉफ्टवेयर आपके चेहरे की ज्योमेट्री को खंगाल कर आपके चेहरे के फीचर्स की पहचान करने के लिए उसे डेटाबेस (पहले से उपलब्ध कम्प्यूटरीकृत जानकारी) से मिलाकर उसे पुलिस के पास भेज देता है. इसके बाद पुलिस आपको खोज कर आपसे संपर्क करती है. यह सब कुछ महज़ पंद्रह मिनटों के भीतर हो जाता है. फेशियल रिकग्निशन टेक्नोलॉजी (FRT) का उपयोग करने वाली पब्लिक सिक्योरिटी एवं सर्विलेंस की दुनिया में आपका स्वागत है.
1988 के अपने सेमिनल पीस में मार्च और ओल्सन ने ‘टू लॉजिक्स ऑफ़ एक्शन’ का विवरण दिया है. यह हैं: ‘लॉजिक ऑफ़ एप्रोप्रिएटनेस तथा ‘लॉजिक ऑफ कॉन्सिक्वेंसेज़) अर्थात ‘उपयुक्तता का तर्क’ एवं ‘परिणाम का तर्क’. FRT को इन टू लॉजिक्स ऑफ़ एक्शन के बीच संतुलित करते हुए विनियमित रेग्युलेट करना एक मुश्किल चुनौती है.
ऊपर का अनुच्छेद आपको भयभीत भी कर सकता है और रोमांचित भी. यह इस बात पर तय करेगा कि आप कार्रवाई के किस तर्क को ज्यादा महत्वपूर्ण मानते हैं. 1988 के अपने सेमिनल पीस में मार्च और ओल्सन ने ‘टू लॉजिक्स ऑफ़ एक्शन’ का विवरण दिया है. यह हैं: ‘लॉजिक ऑफ़ एप्रोप्रिएटनेस तथा ‘लॉजिक ऑफ कॉन्सिक्वेंसेज़) अर्थात ‘उपयुक्तता का तर्क’ एवं ‘परिणाम का तर्क’. FRT को इन टू लॉजिक्स ऑफ़ एक्शन के बीच संतुलित करते हुए विनियमित रेग्युलेट करना एक मुश्किल चुनौती है. युनाइटेड किंगडम का मामला साबित करता है कि विभिन्न स्टेकहोल्डर्स कार्रवाई के अलग-अलग तर्को पर ज़ोर दे सकते हैं. ऐसे में उन्हें सुलझाना और समझाना हमेशा आसान नहीं होता.
FRT एक परिपक्व तकनीक है, जिसका अनेक क्षेत्रों में उपयोग किया जाता है. (देखें टेबल 1) इसका उपयोग मुख्यत: दो बातों के लिए होता है- सत्यापन (verification) और पहचान (identification) करने के लिए. सत्यापन में छवियों का डेटाबेस में मौजूद पहले की छवि के साथ मिलान किया जाता है, जबकि पहचान के मामले में संभावित मिलान खोजने के लिए एक से ज्य़ादा मिलान करना होता है, ताकि पहचान का मिलान हासिल किया जा सके. वेरिफिकेशन का उपयोग आमतौर पर और व्यापक तौर दोनों तरीकों से किया जाता है. मसलन, जब हम हमारे स्मार्टफोन को अनलॉक करते हैं तो हम इसका उपयोग करते है. FRT का उपयोग लॉ एनफोर्समेंट एजेंसियां करती है और यह बेहद विवादित रहा है.
टेबल1 — FRT के नियत उपयोग
कार्रवाई के दो तर्को पर जोर देने के अंतर की वजह से यह विवाद पैदा होता है. जो लोग ‘लॉजिक ऑफ़ कॉन्सीक्वेंसेज़’ का उपयोग करते हैं, वे पुलिसिंग की विभिन्न गतिविधियों में FRT की उपयोगिता की ओर ध्यान आकर्षित करते है. पुलिसिंग में अपराध रोकने से लेकर लापता लोगों की खोज करना शामिल है. इस तर्क के पक्ष में खड़े लोग FRT का उपयोग करने पर खर्च में आने वाली कमी और भीड़ में लोगों की उनके सहयोग के बग़ैर पहचान करने में इसकी उपयोगिता के कायल हैं. ऐसे हितधारकों का सवाल है कि, ‘आख़िर FRT के उपयोग का क्या परिणाम होता है?’ और ‘इन परिणामों की तुलना हम FRT के विकल्पों से कैसे कर सकते हैं?’
कोई भी हितधारक कार्रवाई के किसी एक तर्क का उपयोग करने में विश्वास नहीं करते. उदाहरण के तौर पर लॉ एनफोर्समेंट एजेंसियां स्कूलों में FRT का उपयोग करने को तैयार नहीं हैं, क्योंकि उन्हें यह अनुपयुक्त लगता है. लेकिन, वे अपराध नियंत्रण और अन्वेषण में इसके उपयोग को सही मान सकते हैं.
इसके विपरीत अधिकांश समाजसेवी संगठन FRT के उपयोग को अधिकारों का हनन मानते हैं. उपयुक्तता के तर्क को आगे करते हुए यह कहते हैं कि सार्वजनिक स्थानों पर नागरिकों को घूमने की आजादी होनी चाहिए और उनकी सहमति के बग़ैर उनकी किसी भी निजी जानकारी को एकत्रित नहीं किया जाना चाहिए. ऐसे हितधारकों ने हमेशा ही अल्पसंख्यक और पीपुल ऑफ़ कलर के साथ यूएस में होने वाले नस्लीय भेदभाव की ओर ध्यान आकर्षित किया है. उनका तर्क है कि पक्षपाती और अत्याचारी पुलिस FRT का उपयोग रेशियल प्रोफाइलिंग करने और नस्लीय पक्षपात करने के लिए कर सकती है.
सामाजिक संगठनों की चिंता
UK का मामला इस मुद्दे को साफ-साफ दर्शाता है. कॉलेज ऑफ पुलिसिंग ने अपने हालिया दस्तावेज में सार्वजनिक एजेंसियों को FRT का सुरक्षित उपयोग कैसे करना चाहिए, इसे लेकर कुछ दिशा-निर्देश जारी करते हुए ‘लॉजिक ऑफ कॉन्सीक्वेंसेज़’ का हवाला देकर इसके उपयोग को उचित ठहराया है. UK के समाजसेवी संगठन ऐसे दिशा-निर्देशों से संतुष्ट नहीं हैं, क्योंकि उनका मानना है कि स्टेट यानी शासनकर्ताओं के पास अपने ही नागरिकों की सतत् निगरानी का अधिकार नहीं होना चाहिए. वे यह भी मानते हैं कि कॉलेज ऑफ़ पुलिसिंग की ओर से जारी दिशा-निर्देश पिछले कुछ वर्षो में इस बात को लेकर जताई जा रही चिंताओं को संबोधित करने का काम भी नहीं करते.
2020 का आर. ब्रिजेस बनाम चीफ़ कॉन्सेटबल ऑफ़ साऊथ वेल्स पुलिस का मामला एक खेल परिसर में साऊथ वेल्स पुलिस द्वारा FRT के गैरक़ानूनी उपयोग के मामले की ओर ध्यान आकर्षित करता है. इस मामले ने यह ख़ुलासा किया कि पुलिस के पास वॉच लिस्ट बनाने और डिप्लॉयमेंट लोकेशन को लेकर कितनी ज्य़ादा आजादी थी और इससे ‘डेटा सब्जेक्ट्स’ (वॉच लिस्ट में शामिल लोगों) के अधिकारों और आजादी का हनन हो रहा था. FRT के उपयोग के कारण इक्वेलिटी एक्ट 2010 का भी उल्लंघन हुआ, क्योंकि किसी भी नस्ल, लिंग अथवा उम्र को लेकर प्रौद्योगिकी पूर्वाग्रह (टेक्नॉलॉजी बायस) परीक्षण नहीं किया गया था. यह एक लैंडमार्क केस था, जिसकी वजह से विभिन्न ‘कार्रवाई के तर्को’ का हवाला देने वाले हितधारक अदालत में एक-दूसरे के सामने खड़े हो गए थे.
यहां यह बताना भी जरूरी है कि कोई भी हितधारक कार्रवाई के किसी एक तर्क का उपयोग करने में विश्वास नहीं करते. उदाहरण के तौर पर लॉ एनफोर्समेंट एजेंसियां स्कूलों में FRT का उपयोग करने को तैयार नहीं हैं, क्योंकि उन्हें यह अनुपयुक्त लगता है. लेकिन, वे अपराध नियंत्रण और अन्वेषण में इसके उपयोग को सही मान सकते हैं. इसी प्रकार, सभ्य समाज और जनता FRT के उपयोग करने को लेकर निजी संस्थाओं (उदाहरण के रूप में शॉपिंग मॉल) के बजाय पुलिस पर ज्य़ादा भरोसा कर सकते हैं. कुल मिलाकर कार्रवाई के दोनों तर्को का उपयोग करते हुए ही हम तकनीक की अच्छाई और बुराई को समझने के बाद ही इसके उपयोग को लेकर एक सही और जानकारीयुक्त़ फैसला ले सकते हैं.
कमज़ोर तबकों पर निशाना
अब जब पॉलिसीमकेर्स यानी नीति निर्माता भारत में FRT का तेजी से उपयोग करने लगे हैं तो नागरिकों की प्राइवेसी और कमज़ोर तबकों को संभावित लक्ष्य बनाकर इसका दुरुपयोग होने की संभावना को लेकर स्वाभाविक रूप से सक्रिय चिंताएं बनी हुई हैं. UK की तरह भारत में प्राइवेट डेटा प्रोटेक्शन लॉ नहीं है और न ही FRT के उपयोग को लेकर कोई दिशा-निर्देश अथवा उसे विनियमित करने वाला कानून ही है. ऐसे में जनता के बीच FRT के उपयोग को लेकर फैले अविश्वास और बेकार के मुक़दमेबाज़ी से बचने के लिए संसद में इस मसले पर बहस होना आवश्यक है. ऐसे अनजान नागरिक, जिनकी सहमति के बग़ैर उन्हें तकनीक के संभावित पूर्वाग्रह का सामना करना हो, फिलहाल हमारे लोकतंत्र की आवश्यकता नहीं है.
कार्रवाई के दोनों तर्क महत्वपूर्ण हैं, लेकिन यह भी ज़रूरी है कि हम दोनों के बीच संतुलन साध सके. Logic of consequence के हिसाब से नीति निर्माताओं को FRT के पूर्वाग्रही परिणामों के बारे में और पुलिस द्वारा इसके संभावित दुरुपयोग के बारे में विचार करना होगा. उन्हें यह भी पूछना होगा कि क्या यही काम करने के प्रभावशाली वैकल्पिक तरीके उपलब्ध हैं. मसलन कार्ड बेस्ड वेरिफिकेशन. लॉजिक ऑफ़ कॉन्सीक्वेंस की दृष्टि से नीतिनिर्माताओं को नागरी सर्वेक्षण करना चाहिए, जैसा UK में करवाया गया था. उन्हें यह समझना होगा कि आख़िर जनता FRT के उपयोग को उपयुक्त कैसे मानती है और अपनी बात साफ़-साफ़ सामने रखते हुए उसका भरोसा जीतना और बढ़ाना होगा. टेक्नोलॉजी से न तो हमें डरना चाहिए और न ही रोमांचित होना चाहिए. बल्कि इस बात की निष्पक्ष जांच होनी चाहिए कि क्या यह समाज के संदर्भ में नीतिगत समस्या को हल कर सकता है.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.