Author : Shruti Jain

Published on May 26, 2022 Updated 16 Hours ago

नई चुनौतियों का सामना करते हुए भारत को G20 के एजेंडे तय करने में नियमितता का भी ध्यान रखना चाहिए.

भारत की आगामी G20 अध्यक्षता के लिए चुनौतियां

आज जब भारत इस साल G20 देशों की आधिकारिक तौर पर अध्यक्षता के लिए तैयारी कर रहा है, तो भारत को उन मुख्य चुनौतियों की पहचान करनी चाहिए जो उसके सामने खड़ी है, और उनका समाधान निकाले. अपना एजेंडा तय करने से पहले, ऐसे कई पहलू हैं जिनके बारे में भारत को विचार करना होगा- वो पिछली अध्यक्षताओं के दौरान हुई प्रगति को आगे कैसे बढ़ाए? भारत किन मुद्दों को प्राथमिकता दे? वो किस तरह से दुनिया के मामले में ख़ुद का एजेंडा आगे बढ़ा सकता है?

अंतरराष्ट्रीय वित्त

महामारी और यूक्रेन संकट ने दुनिया पर क़र्ज़ के बोझ को कई गुना बढ़ा दिया है. ये उस चुनौती से कहीं अधिक है, जिसका सामना ये क़र्ज़ लेने वाले देश महामारी की आमद से पहले कर रहे थे. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के हालिया वर्ल्ड इकोनॉमिक आउटलुक के मुताबिक़, उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं और मध्यम दर्जे की आमदनी वाले देशों में GDP की तुलना में क़र्ज़ का अनुपात साल 2021 में 60 प्रतिशत पहुंच चुका था. जबकि 2013 में GDP की तुलना में क़र्ज़ 40 फ़ीसद था. इसी तरह, कम आमदनी वाले देशों पर GDP के अनुपात में क़र्ज़ का बोझ, 2013 की तुलना में, 2021 में दोगुना हो चुका था.

2020 में G20 देशों के वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंक के गवर्नरों की असाधारण बैठक में ये माना गया था कि ऋण के संकट से उबरने के लिए, बहुत से देशों को क़र्ज़ अदायगी को निलंबित करने की पहल (DSSI) से आगे बढ़कर क़र्ज़ अदा करने में और ज़्यादा रियायत की दरकार होगी. इसी के बाद पूंजी की कमी और दिवालिया होने की चुनौतियों से निपटने के लिए कॉमन फ्रेमवर्क फॉर डेट ट्रीटमेंट्स का प्रस्ताव पेश किया गया था. हालांकि अब तक केवल तीन देशों- चाड, इथियोपिया और ज़ैम्बिया ने ही कॉमन फ्रेमवर्क के तहत रियायत मांगी है- और इन सबको रियायत देने में देर हो चुकी है. आज जब DSSI की मियाद ख़त्म हो रही है और क़र्ज़ लेने वाले मुल्कों के साथ साथ, दुनिया भर में मौद्रिक नीति सख़्त बनाई जा रही है, तो ये सुनिश्चित करना ज़रूरी हो गया है कि क़र्ज़ में रियायत का ये फ्रेमवर्क पूरी तरह से विकसित करके जल्द से जल्द रियायत दी जाए. G20 के लिए ये भी महत्वपूर्ण है कि वो निजी क़र्ज़दाताओं और अन्य आधिकारिक द्विपक्षीय क़र्ज़ देने वालों को भी ऋण चुकाने में आसान और तुलनात्मक दरों पर रियायत देने की प्रक्रिया का हिस्सा बनाए. क्योंकि निजी क़र्ज़दाताओं की भागीदारी के बिना ये सारी कोशिशें बेकार जाएंगी.

इसके अलावा G20 ने स्वैच्छिक रूप से स्पेशल ड्राइंग राइट्स (SDRs) के ज़रिए भी 100 अरब डॉलर की रक़म मुहैया कराने का वादा किया था. इसमें से अब तक 60 अरब डॉलर की रक़म ही उपलब्ध कराई जा सकी है. रियायती दरों पर उधार देने की इस व्यवस्था (SDR) के तहत अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष द्वारा हाल ही में स्थापित किए गए रेज़िलिएंस ऐंड सस्टेनिबिलिटी ट्रस्ट (RST) और उसके ग़रीबी घटाने और विकास के ट्रस्ट (PRGT) के ज़रिए, ग़रीब देश मदद ले सकते हैं. हालांकि, RST को वैसे तो G20 देशों की बड़ी उपलब्धि कहा जा सकता है. लेकिन, भारत और इंडोनेशिया की अध्यक्षता से पहले, इस माध्यम से ग़रीब देशों की मदद लेने से राह में कई मुश्किलें आ सकती हैं. RST की व्यवस्था इस तरह बनाई गई है कि क़र्ज़ लेने को नीतिगत शर्तों के साथ जोड़ा गया है और ये मदद किस्तों में ही हासिल की जा सकती है- कई आलोचकों का कहना है कि उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के लिए ये शर्तें मुश्किल हैं, और उनके रियायत ले पाने राह में रोड़े अटकाती हैं.

व्यापक आर्थिक नीतियां

इसके अलावा, महामारी और रूस-यूक्रेन युद्ध के चलते पैदा हुई अनिश्चितताओं ने वैश्विक आपूर्ति को झटके दिए हैं. इसके चलते कृषि और ऊर्जा के अलावा अन्य सेक्टर में भी उपलब्धता का संकट पैदा हो गया है. युद्ध के चलते आपूर्ति की कमी ने ऊर्जा और कृषि क्षेत्र पर तो ख़ास तौर से महंगाई का दबाव बढ़ा दिया है. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के मुताबिक़, आपूर्ति में कमी का ये संकट 2023 तक बना रहेगा. इसके कारण विकसित और विकासशील देशों में महंगाई की दर ऊंची बनी रहेगी. साल 2022 के लिए विकसित देशों में महंगाई की दर 5.7 प्रतिशत और विकासशील और उभरते हुए देशों में महंगाई की दर 8.7 फ़ीसद रहने का अनुमान लगाया गया है.

2020 में G20 देशों के वित्त मंत्रियों और केंद्रीय बैंक के गवर्नरों की असाधारण बैठक में ये माना गया था कि ऋण के संकट से उबरने के लिए, बहुत से देशों को क़र्ज़ अदायगी को निलंबित करने की पहल (DSSI) से आगे बढ़कर क़र्ज़ अदा करने में और ज़्यादा रियायत की दरकार होगी. इसी के बाद पूंजी की कमी और दिवालिया होने की चुनौतियों से निपटने के लिए कॉमन फ्रेमवर्क फॉर डेट ट्रीटमेंट्स का प्रस्ताव पेश किया गया था.

महंगाई के दबाव के चलते G20 की ज़्यादातर अर्थव्यवस्थाओं में मौद्रिक नीति सख़्त बनाई गई है. इसी तरह संकट के चलते जो वित्तीय मदद दी जा रही थी, वो भी धीरे-धीरे ख़त्म की जा रही है. बहुत सी उन्नत अर्थव्यवस्थाओं (ऑस्ट्रेलिया, जापान और अमेरिका) में संपत्ति की ख़रीद में भी कमी आई है. वैसे तो हर देश की मौद्रिक नीति अलग रहने वाली है. लेकिन, G20 के लिए ये सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण होगा कि केंद्रीय बैंक, महंगाई और मौद्रिक नीति को लेकर अपना अनुमान स्पष्ट रूप से सामने रखें, ताकि पारदर्शिता बनी रहे और चौंकाने वाले नीतिगत क़दम न उठाए जाएं.

सार्वजनिक स्वास्थ्य के सामान सबको मुहैया कराना

महामारी से उबरने की प्रक्रिया पूरी दुनिया में अलग-अलग रही है. इसकी बड़ी वजह ज़रूरी स्वास्थ्य सेवा की अपर्याप्त उपलब्धता है. साल 2021 तक विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) के केवल आधे सदस्य ही अपनी 40 प्रतिशत आबादी को टीका लगाने का लक्ष्य हासिल कर सके थे, और कम आमदनी वाले देशों में केवल 10 प्रतिशत नागरिकों को ही वैक्सीन की कम से कम एक ख़ुराक दी जा सकी थी. चूंकि स्वास्थ्य संबंधी चुनौतियों से निपटने की हर देश की क्षमता अलग-अलग है. हर देश में सार्वजनिक सेवाओं तक पहुंच में भी असमानता है. तो, ऐसे में सेहत से जुड़े भविष्य के ख़तरों से निपटने के लिए स्वास्थ्य सेवाओं को वित्तीय मदद देना बहुत अहम हो जाता है.

2019 में G20 देशों ने अपने वित्त और स्वास्थ्य मंत्रियों की पहली बैठक आयोजित की थी और ये माना था कि स्वास्थ्य संबंधी ख़तरों से निपटने के लिए विश्व स्तर पर आपसी तालमेल वाला नज़रिया तब तक विकसित नहीं किया जा सकता, जब तक वित्त की पर्याप्त व्यवस्था न बनाई जाए. भारत की अध्यक्षता में अब महामारी की रोकथाम, तैयारी और निपटने के उपायों के लिए एक नई वित्तीय व्यवस्था की संभावनाएं तलाशने की ज़रूरत है. भारत को चाहिए कि वो इसके लिए वित्तीय मदद की कमियों को दूर करे और वित्त व स्वास्थ्य मंत्रियों के बीच सहयोग बढ़ाए जिससे भविष्य में सेहत के लिए पैदा होने वाले ख़तरों से वित्तीय, मौद्रिक और आर्थिक संकट पैदा न हों और वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य से जुड़े निर्णय ज़्यादा तालमेल के साथ लिए जाएं. अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष के मुताबिक़, वैश्विक सार्वजनिक स्वास्थ्य की भलाई के लिए कोविड-19 महामारी से निपटने के औज़ारों (ACT) को हासिल करने में 23.4 अरब डॉलर की कमी को तेज़ी से पूरा करना एक और अहम क़दम हो सकता है.

डिजिटल अर्थव्यवस्था

रूस और यूक्रेन के युद्ध के चलते क्रिप्टो संपत्तियों के ग़लत उपयोग और वैश्विक वित्तीय स्थिरता पर इसके बुरे असर की चिंताएं एक बार फिर से पैदा हो गई हैं. क्रिप्टो संपत्तियां बड़ी तेज़ी से विकसित हो रही हैं. ऐसे में G20 देशों को चाहिए कि वो मानक तय करने वाली संस्थाओं के बीच बेहतर वैश्विक तालमेल बिठाकर डिजिटल संपत्तियों के नियमन में अहम भूमिका अदा करें. इन संपत्तियों के नियमन के दौरान निगरानी की ऐसी व्यवस्था सुनिश्चित की जानी चाहिए जिससे सुरक्षित इनोवेशन के लिए ज़रूरी माहौल बना रहे.

2019 में G20 देशों ने अपने वित्त और स्वास्थ्य मंत्रियों की पहली बैठक आयोजित की थी और ये माना था कि स्वास्थ्य संबंधी ख़तरों से निपटने के लिए विश्व स्तर पर आपसी तालमेल वाला नज़रिया तब तक विकसित नहीं किया जा सकता, जब तक वित्त की पर्याप्त व्यवस्था न बनाई जाए. भारत की अध्यक्षता में अब महामारी की रोकथाम, तैयारी और निपटने के उपायों के लिए एक नई वित्तीय व्यवस्था की संभावनाएं तलाशने की ज़रूरत है.

इसके साथ-साथ, डिजिटल अर्थव्यवस्था सबके लिए सहज तौर पर उपलब्ध कराने के लिए आज एक ऐसा वैश्विक ढांचा बनाने की ज़रूरत है, जिससे सरहदों के आर-पार व्यापार करना इस लिहाज़ से आसान हो कि वो अलग अलग अर्थव्यवस्थाओं की रफ़्तार, बाज़ार की प्रतिद्वंदिता और विकासशील देशों की आपूर्ति श्रृंखलाओं की अपनी ख़ूबियों का भी ध्यान रखे. इस वक़्त ई-कॉमर्स को लेकर विश्व व्यापार संगठन (WTO) के सदस्य देशों के बीच मतभेद हैं. अगर ये मतभेद लंबे समय तक बने रहते हैं, तो डिजिटल व्यापार और सीमा के आर- पार डेटा के प्रवाह और आंकड़ों को स्थानीय स्तर पर जमा करने और ऑनलाइन ग्राहकों के संरक्षण करने की ज़िम्मेदारी उन लोगों को उठानी होगी, जो ई-कॉमर्स पर साझा बयान की पहल (JSI) का विरोध कर रहे हैं.

इसके अलावा, कुछ बड़ी तकनीकी कंपनियों द्वारा ऐसे एकाधिकारवादी क़दम उठाने को लेकर चिंताएं बढ रही हैं, जिससे व्यापार में सबको समान अवसर नहीं मिल पाते. उभरती हुई अर्थव्यवस्थाओं के लिए इंटरनेट के प्लेटफॉर्म का नियमन भी बहुत महत्वपूर्ण है. डिजिटल प्लेटफॉर्म तक बेहतर पहुंच से छोटे उद्यमियों के लिए विशाल बहुराष्ट्रीय कंपनियों से मुक़ाबला कर पाना आसान होगा और डिजिटल बाज़ार तक सबको निरपेक्ष रूप से पहुंच हासिल हो सकेगी.

भारत को G20 की त्रिपक्षीय व्यवस्था का इस्तेमाल करते हुए इंडोनेशियाई अध्यक्षता के सामने खड़ी मुख्य चुनौतियों को भी स्वीकार करना होगा.

कई अन्य बहुपक्षीय संगठनों से अलग G20 का अपना कोई स्थायी सचिवालय नहीं है. इससे वैसे तो हर सदस्य देश को G20 का अपना एजेंडा तय कर पाने का मौक़ा मिलता है. लेकिन इसके चलते हर नई अध्यक्षता से पुरानी उम्मीदों और पिछले एजेंडे के अधूरे लक्ष्य भी छूट जाते हैं. नई चुनौतियों का सामना करते हुए भारत को G20 के एजेंडे तय करने में नियमितता का भी ध्यान रखना चाहिए. इसके लिए भारत को G20 की त्रिपक्षीय व्यवस्था का इस्तेमाल करते हुए इंडोनेशियाई अध्यक्षता के सामने खड़ी मुख्य चुनौतियों को भी स्वीकार करना होगा.

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