अप्रैल में राष्ट्रपति जो बाइडेन ने कहा कि अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिकी सेना की वापसी जहां अमेरिका के लंबे सैन्य अभियान का अंत है, लेकिन वो तब भी कूटनीतिक और मानवीय भागीदारी जारी रखेगा और रक्षा और सुरक्षा बलों को समर्थन भी जारी रखेगा. ऐसा माना जाता है कि सेना की वापसी के बाद भी अमेरिका के लिए ये नामुमकिन होगा कि वो पूरी तरह अफ़ग़ानिस्तान से हट जाए. इसकी वजह कुछ चुनौतियां हैं जो अफ़ग़ानिस्तान के बाहर विश्वसनीय ढंग से खड़ी हो सकती हैं जिनमें मुख्य रूप से आतंकवादी गुटों का फिर से उदय है जो बाद में संभवत: अमेरिका को निशाना बना सकते हैं. इसके कारण अफ़ग़ानिस्तान के इर्द–गिर्द सैन्य अड्डों को बनाए रखना और नागरिक स्वतंत्रता को सुनिश्चित करना, ख़ास तौर पर लड़कियों और महिलाओं के मानवाधिकार को क्योंकि समाज को पीछे की ओर ले जाने वाला तालिबान बढ़त बना रहा है, अमेरिका की ज़रूरत है. लेकिन अमेरिका को इन चुनौतियों से सही ढंग से निपटने में हर मोर्चे पर लाचारी का सामना करना पड़ रहा है. इसकी वजह से अमेरिका के लिए अपने हितों को सुरक्षित करना या अफ़ग़ानिस्तान को और ज़्यादा अराजकता में जाने से बचाना लगभग नामुमकिन हो सकता है.
2009 से तत्कालीन उप राष्ट्रपति जो बाइडेन अफ़ग़ानिस्तान में विस्तारवादी रणनीति, जिसके तहत बड़ी मात्रा में सैनिकों को भेजना शामिल था, के ख़िलाफ़ मुखर होकर अपना अविश्वास व्यक्त कर रहे हैं. राष्ट्र निर्माण और लोगों की सुरक्षा की जगह बाइडेन चाहते थे कि अमेरिका तालिबान को रोकने, अफ़ग़ान बलों की ट्रेनिंग को सुधारने पर ध्यान दे और मेल–जोल की कोशिशों का विस्तार करे ताकि कुछ तालिबान लड़ाकों को अलग किया जा सके. बाइडेन अल–क़ायदा को लेकर भी कुछ ज़्यादा चिंतित थे जो उस वक़्त ज़्यादातर पाकिस्तान में केंद्रित था. अप्रैल में बाइडेन ने ऐलान किया कि चूंकि अमेरिका ने अफ़ग़ानिस्तान को आतंकी गुटों जैसे अल–क़ायदा को अमेरिका पर हमले के लिए अफ़ग़ानिस्तान को पनाहगाह बनने से रोकने का लक्ष्य हासिल कर लिया है, इसलिए सैनिकों को वापस आने की ज़रूरत है.
चिंता की बात है कि अल-क़ायदा के दो सदस्यों ने हाल में सीएनएन को बताया कि “जब तक बाक़ी इस्लामिक दुनिया से अमेरिका को बाहर नहीं किया जाता तब तक उसके ख़िलाफ़ सभी मोर्चों पर युद्ध जारी रहेगा”.
आज़ाद अफ़ग़ानिस्तान से अमेरिका की मुश्किलें
लेकिन संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद का आकलन है कि अल–क़ायदा (जिसने अमेरिका को अफ़ग़ानिस्तान पर आक्रमण की वजह मुहैया कराई) के 400-600 सदस्य अभी भी अफ़ग़ानिस्तान में हैं. चिंता की बात है कि अल-क़ायदा के दो सदस्यों ने हाल में सीएनएन को बताया कि “जब तक बाक़ी इस्लामिक दुनिया से अमेरिका को बाहर नहीं किया जाता तब तक उसके ख़िलाफ़ सभी मोर्चों पर युद्ध जारी रहेगा”. इसके अलावा पिछले दशक के दौरान ओसामा बिन लादेन की मौत के बाद अल–क़ायदा कमज़ोर हुआ है और इस संगठन को आईएसआईएस ने भी पूरे यूरोप में बार–बार के हमलों और ज़ुल्मों से पीछे छोड़ दिया है. अमेरिका से आज़ाद अफ़ग़ानिस्तान में अस्थिर सुरक्षा का माहौल अल–क़ायदा को फिर से खड़ा करने के लिए आदर्श हालात हो सकते हैं, उसे और हिंसा करने के लिए पर्याप्त प्रेरणा मिल सकती है. साथ ही, अफ़ग़ानिस्तान में इस्लामिक स्टेट खोरासन प्रांत (आईएसकेपी) का ख़तरा बहुत ज़्यादा बना हुआ है. दिसंबर 2019 में अमेरिका के अधिकारियों के द्वारा आईएसकेपी को इस्लामिक स्टेट का सबसे शक्तिशाली और ख़तरनाक गुट बताया गया है. अपने नेतृत्व पर निशाने और कब्ज़े वाले इलाक़े को खोने के बावजूद आईएसकेपी ने ख़ुद को मुसीबतों से उबरने वाला साबित किया है. बड़े क्षेत्र पर कब्ज़ा न होने के बावजूद आईएसकेपी के पास समर्पित लड़ाकों की फ़ौज है जो पूरे अफ़ग़ानिस्तान में फैली हुई है. काबुल और संभवत: पूरे देश में भी आईएसकेपी को निचले स्तर पर बेहद मज़बूत समर्थन हासिल है, ख़ास तौर पर मध्य वर्ग के ताजिक समुदाय के बीच. साथ ही बड़े शहरों में उसके दर्जनों सेल मौजूद हैं जिनमें से हर सेल मुश्किल और भयानक हमला करने में सक्षम है. इस संगठन ने अतीत में खुलकर पश्चिमी देशों पर हमले का अपना इरादा ज़ाहिर किया है और कुछ हमले किए भी हैं. इस वजह से किसी विदेशी दबाव के नहीं होने पर अफ़ग़ानिस्तान में इसकी मौजूदगी को लेकर चिंता जताई जा रही है.
वैसे तो तालिबान ने आतंकी समूहों के साथ सहयोग नहीं करने का संकल्प लिया है लेकिन ऐसी ख़बरें आई हैं कि अल–क़ायदा के साथ उसने अपना गठजोड़ बरकरार रखा है, तालिबान ने अल–क़ायदा के आतंकियों को अफ़ग़ानिस्तान में ट्रेनिंग आयोजित करने की इजाज़त दे रखी है और तालिबान के साथ अल–क़ायदा के लड़ाके भी तैनात होते हैं. जहां तक बात आईएसकेपी की है तो ऐसी अटकलें लग रही हैं कि तालिबान और आईएसकेपी एक–दूसरे के दुश्मन बने रहेंगे लेकिन आतंक के ख़िलाफ़ अपनी रणनीति की बुनियाद के तौर पर तालिबान पर भरोसा करना अमेरिका के लिए काफ़ी जोखिम भरा है.
इसका नतीजा ये हुआ है कि अमेरिका के सैन्य कमांडर अफ़ग़ानिस्तान से सरहद साझा करने वाले मध्य एशियाई देशों जैसे ताजिकिस्तान और उज़्बेकिस्तान में सैनिकों, ड्रोन, लड़ाकू विमानों और तोप की तैनाती के लिए सैन्य अड्डा चाहते हैं ताकि इन चरमपंथियों पर निगरानी रखी जा सके.
मध्य एशियाई देशों में अमेरिका चाहता है सैन्य अड्डा
इसका नतीजा ये हुआ है कि अमेरिका के सैन्य कमांडर अफ़ग़ानिस्तान से सरहद साझा करने वाले मध्य एशियाई देशों जैसे ताजिकिस्तान और उज़्बेकिस्तान में सैनिकों, ड्रोन, लड़ाकू विमानों और तोप की तैनाती के लिए सैन्य अड्डा चाहते हैं ताकि इन चरमपंथियों पर निगरानी रखी जा सके. अफ़ग़ानिस्तान में सैन्य अड्डा इसलिए नहीं चाहते क्योंकि अमेरिका और तालिबान के बीच ये विवाद की बड़ी वजह रहा है. इसके कारण 2018 से अमेरिका और तालिबान के बीच कई बातचीत असफल हुई क्योंकि अमेरिका बगराम और शोराबाक सैन्य अड्डों को बनाए रखने की बात करता था जबकि तालिबान इसका घोर विरोधी था. इस बात को देखते हुए कि तालिबान ने अभी भी अपना रुख़ नहीं बदला है, अफ़ग़ानिस्तान के लिए अमेरिका के विशेष प्रतिनिधि ने मई की शुरुआत में इस पर और चर्चा करने के लिए मध्य एशियाई देशों की यात्रा की. इस बात की ख़बरों के बावजूद कि रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने अफ़ग़ानिस्तान में सूचना इकट्ठा करने के लिए मध्य एशिया में अपने सैन्य अड्डों की पेशकश की, रूस के उप विदेश मंत्री सर्गेई रयाबकोव ने 9 जुलाई के सम्मेलन में ज़ोर दिया कि मध्य एशिया में अमेरिकी सैना की तैनाती को रूस स्वीकार नहीं करेगा और इस चीज़ को बेहद साफ़ शब्दों में अमेरिका को बता दिया गया है. अमेरिका के लिए सैन्य अड्डे का एक और विकल्प पाकिस्तान है लेकिन ये विकल्प भी उस वक़्त ख़त्म हो गया जब पाकिस्तान के प्रधानमंत्री इमरान ख़ान ने बयान दिया कि पाकिस्तान अमेरिकी सैन्य अड्डों की मेज़बानी नहीं कर सकता क्योंकि ऐसा करने पर अफ़ग़ानिस्तान में गृह युद्ध की स्थिति में पाकिस्तान ‘आतंकियों के द्वारा बदले’ का लक्ष्य बन जाएगा. वास्तव में अमेरिका उन देशों में सैन्य अड्डा बनाने में नाकाम रहेगा जो अफ़ग़ानिस्तान तक तुरंत पहुंच बनाते हैं और इसकी वजह से सैनिकों की वापसी के बाद आतंकवाद विरोधी ऑपरेशन और आसानी से खुफिया जानकारी इकट्ठा करने पर बेहद ख़राब असर पड़ेगा.
महिलाओं और युवतियों को तालिबान से अपनी नागरिक स्वतंत्रता पर तुरंत ख़तरा है क्योंकि महिलाओं को लेकर तालिबान की विचारधारा रूढ़िवादी, पुरातनपंथी और पूरी तरह चरमपंथी है. तालिबान के सत्ता से बेदखल होने के बाद 2004 के संविधान ने महिलाओं को सभी तरह के अधिकार दिए. इन अधिकारों की वजह से तालिबान शासन के मुक़ाबले महिलाओं का सामाजिक रुतबा बढ़ा है. 2003 में अफ़ग़ानिस्तान की 10 प्रतिशत से भी कम लड़कियां प्राथमिक स्कूल में पढ़ती थीं लेकिन 2017 तक ये आंकड़ा बढ़कर 33 प्रतिशत हो गया. माध्यमिक शिक्षा में लड़कियों की भागीदारी 2003 के 6 प्रतिशत से बढ़कर 2017 तक 39 प्रतिशत हो गई. महिलाओं की औसत आयु 2001 के 56 वर्ष से बढ़कर 2017 में 66 वर्ष हो गई. जन्म के दौरान शिशु मृत्यु वर्ष 2000 में 10,000 जन्म पर 1,100 मौत से घटकर 2015 में 10,000 जन्म पर 396 मौत पर रह गई. और आख़िर में, 2021 तक 21 प्रतिशत अफ़ग़ान सिविल सेवा के अधिकारी महिलाएं थीं. साथ ही वरिष्ठ मैनेजमेंट स्तर में 16 प्रतिशत और अफ़ग़ान संसद के 27 प्रतिशत सांसद महिलाएं थीं.
14 मई 2021 को अमेरिकी कांग्रेस में एक द्विपक्षीय “अफ़ग़ानिस्तान में महिलाओं और लड़कियों के अधिकारों की सुरक्षा का अधिनियम” पेश किया गया. इस क़ानून में कहा गया है कि अगर महिलाओं और लड़कियों से व्यवहार के न्यूनतम मानक को पूरा नहीं किया गया तो अफ़ग़ानिस्तान की सरकार को आर्थिक मदद मुहैया नहीं कराई जाएगी.
बाइडेन ने ख़ुद को मानवाधिकार के चैंपियन के तौर पर पेश किया है. ऐसे में वो तालिबान के हाथ में सत्ता जाने पर इन बदलावों के पलटने के ख़तरे की तरफ़ आंख मूंदकर रखने में सक्षम नहीं होंगे. महिलाओं और लड़कियों की सुरक्षा की अहमियत को मान्यता देते हुए 14 मई 2021 को अमेरिकी कांग्रेस में एक द्विपक्षीय “अफ़ग़ानिस्तान में महिलाओं और लड़कियों के अधिकारों की सुरक्षा का अधिनियम” पेश किया गया. इस क़ानून में कहा गया है कि अगर महिलाओं और लड़कियों से व्यवहार के न्यूनतम मानक को पूरा नहीं किया गया तो अफ़ग़ानिस्तान की सरकार को आर्थिक मदद मुहैया नहीं कराई जाएगी. ये समझा जा सकता है कि अमेरिका अफ़ग़ानिस्तान की महिलाओं के लिए ऐसा भविष्य सुनिश्चित करने के लिए आतुर है जहां मानवाधिकार का संकट नहीं हो लेकिन 2001 से अफ़ग़ानिस्तान की बर्बाद अर्थव्यवस्था को फिर से खड़ा करने के लिए जो अरबों डॉलर भेजे गए हैं, उसने अफ़ग़ानिस्तान को पूरी तरह नागरिक सहायता पर निर्भर बना दिया है. अफ़ग़ानिस्तान हर साल सार्वजनिक खर्च के तौर पर क़रीब 11 अरब अमेरिकी डॉलर खर्च करता है जिसमें से 75 प्रतिशत हिस्सा उसे अंतर्राष्ट्रीय अनुदान के तौर पर मिलता है जिसका एक बड़ा भाग अमेरिका देता है. अतीत में जब 2013-14 में अमेरिका ने नागरिक सहायता में कटौती की तो ग़रीबी की दर में तीन प्रतिशत का इज़ाफ़ा हो गया, बेरोज़गारी दर तीन गुनी हो गई और 2007-08 से जिन ग्रामीण नौकरियों का निर्माण हुआ था, उनमें से 76 प्रतिशत नष्ट हो गईं. इसके अलावा नाटो ने चेतावनी दी है कि तालिबान संपूर्ण वित्तीय नियंत्रण हासिल करने के बेहद नज़दीक है. ऐसा होने पर वो किसी भी अंतर्राष्ट्रीय दबाव से अप्रभावित रहेगा. इसलिए अमेरिका के पास अफ़ग़ानिस्तान के आम लोगों पर व्यापक असर डालने वाले उपायों का इस्तेमाल किए बिना अफ़ग़ानिस्तान में महिलाओं के अधिकारों और नागरिक स्वतंत्रता की रक्षा के लिए बेहद कम विकल्प रह जाएंगे.
अमेरिका के बाहर निकलने के बाद की चुनौतियां
ये मत भूलिए कि अफ़ग़ानिस्तान में इतनी ज़्यादा सुरक्षा और अन्य चुनौतियों के बावजूद अपने सैनिकों को वापस लेने के फ़ैसले के लिए अमेरिका पहले से ही लगातार आलोचना का सामना कर रहा है. इनमें से ज़्यादातर आलोचना ख़ुद अमेरिका की हस्तियां कर रही हैं. कई प्रतिष्ठित शख़्सियतों जैसे पूर्व राष्ट्रपति जॉर्ज डब्ल्यू. बुश, हिलेरी क्लिंटन और यहां तक कि रक्षा विशेषज्ञों ने भी इस फ़ैसले के विनाशकारी नतीजों को लेकर गंभीर चिंता जताई है. शांति समझौते को नाकाम बताया गया है और ये आकलन पहले से ही लगाया गया है कि विदेशी सेना के वापस जाने के छह महीनों के भीतर अफ़ग़ानिस्तान की सरकार गिर सकती है. अमेरिका के बाहर निकलने के बाद की चुनौतियों से निपटने में नाकामी भी अफ़ग़ानिस्तान में अमेरिका की काफ़ी हद तक ख़राब भूमिका की छानबीन को और बढ़ाएगी और उसे उस स्थिति में ले जाएगी जिसमें वो आज ख़ुद को पाता है. लेकिन ऐसा नहीं लगता कि अमेरिका इस वक़्त किसी भी चुनौती से निपटने की स्थिति में है. ऐसा करके वो अपने दीर्घकालीन हितों और अमेरिका के लौटने के बाद अफ़ग़ानिस्तान में स्थिरता को भी जोख़िम में डालेगा.
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