Author : Vatsala Mishra

Published on May 01, 2021 Updated 0 Hours ago

चीन के लोगों को इतना धैर्यवान किसने बनाया? सत्ता द्वारा पेश किए गए ख़तरे ने या फिर उनकी मनोवृत्ति ही दमन सहने वाली हो गई है. 

चीनी मीडिया पर लागू सेंसरशिप की पड़ताल: मिंग से जिनपिंग तक

ऊपर के वाक्य 1949 में जॉर्ज ऑरवेल द्वारा आतंक राज्य पर लिखे गए उत्कृष्ट उपन्यास 1984 से लिए गए हैं. इससे स्पष्ट होता है कि किसी समाज पर पूरी तरह से प्रधानता कायम करने के लिए उसपर मनोवैज्ञानिक नियंत्रण हासिल करने का कितना महत्व है. इस लेख में चीन द्वारा सामने वाले की समझशक्ति और सोच पर नियंत्रण कायम करने की प्रवृत्ति को केंद्र में रखा गया है. इसके तहत मिंग राजशाही के दौरान सेंसरशिप के इतिहास और मौजूदा दौर में कड़े नियंत्रण वाली चीनी मीडिया से जुड़े संवैधानिक प्रावधानों का परीक्षण किया गया है. इसमें बताया गया है कि चीनी समाज में सेंसरशिप को आम बात मान लिए जाने के पीछे वहां के नागरिकों के मन में समा चुके सताए जाने का डर काम करता है. सैकड़ों सालों के इतिहास में यही होता आ रहा है. आख़िर में इस लेख में कड़ी निगरानी वाले मौजूदा समाज और नागरिकों के जीवन में राजसत्ता के ज़रूरत से ज़्यादा नियंत्रण पर कुछ निष्कर्ष निकाले गए हैं. 

चीन और उसका टोही स्वभाव

टोह लगाना या निगरानी करना चीनी कम्युनिस्ट पार्टी (सीसीपी) का अंतर्निहित स्वभाव मालूम होता है. कई घटनाओं से हमें ऐसे ही उदाहरण मिलते हैं. मसलन 1989 में थियानमेन स्क्वायर में हुए प्रदर्शनों में हिस्सा लेने वाले लियू शियाबो का मनोवैज्ञानिक अलगाव, विदेशी पत्रकारों पर यातनाएं, मानवाधिकारों की पड़ताल करने वाले पत्रकार डिंग लिंगजी की गुमशुदगी, वीगर लोगों का दमन और हॉन्गकॉन्ग की स्वतंत्रता पर अंकुश लगाने जैसे कई उदाहरण मौजूद हैं. ये सब उपन्यास 1984 में दर्शाए गए हालात बयां करते हैं. समाज की साझा समझबूझ पर काबू पाने के इस चीनी तरीके को काल्पनिक मिनिस्ट्री ऑफ़ ट्रुथ के नारे ‘युद्ध ही शांति है, आज़ादी ग़ुलामी है, नज़रअंदाज़ी ही ताक़त है’ से जोड़कर देखें तो कहीं से भी अतिशयोक्ति नहीं होगी.

उदारवादी विद्वान या फिर लुटियंस दिल्ली चाहे जो भी कहे या करे लेकिन ऐसा लगता है कि चीन अपने मीडिया पर सेंसरशिप या निगरानी के मामले में बहुत ही ख़ामोशी से काम लेता है. चीन के लोगों को इतना धैर्यवान किसने बनाया? क्या वहां सत्ता द्वारा जिस तरह के ख़तरे पेश किए जाते हैं वो इसके पीछे की वजह है या फिर चीनियों का मनोविज्ञान ही दमन सहकर चुप रहने वाला बन गया है. हम अगले चरणों में इन प्रश्नों के उत्तर ढूंढने का प्रयास करेंगे.

समाज पर नियंत्रण पाने की चीनी तरीकों के इतिहास पर एक नज़र

इस तरह की प्रवृति चीनी समाज में मिंग राजवंश के समय से रही है. इसी राजवंश ने आधुनिक चीन में कंफ्यूशियस के नियमों को मज़बूती प्रदान की है.(1) समझा जाता है कि मिंग राजवंश के नियम-कायदे कंफ्यूशियस के विचारों पर आधारित रहे थे. उनकी किताब को इतिहास में अधिनायकवादी सत्ता का पहला मसौदा माना जाता है. 1370 से लेकर 1450 तक के कालखंड (मिंग राजवंश) को चीनी बुद्धिजीवियों के लिए सबसे काला अध्याय माना जाता है. साहित्यिक इतिहास में इस कालखंड के दौरान राजनीतिक विरोधियों पर एक के एक दमनकारी उपाय लागू किए गए. कवियों और विद्वानों को शाही महल में काम करने पर मजबूर किया गया. उनसे राजकीय दस्तावेज़ों की लिखाई-पढ़ाई का काम करवाया जाता था. इस दौरान न सिर्फ़ कवियों और विद्वानों पर ज़ुल्म ढाए जाते थे बल्कि राजनीतिक सत्ता की मुख़ालफ़त का महज शक़ भर होने से भी उनके पूरे परिवार को सज़ा दी जाती थी. इतिहास की ऐसी ही एक घटना गाओ की के साथ घटित हुई थी. इसकी चर्चा नीचे की गई है.

गाओ की कलाकारों के सुझोऊ दल के सदस्य थे. असलियत में ये एक स्थान का नाम है. उन्हें सुझोऊ के चार प्रकांड साहित्यकारों में गिना जाता था. उन्होंने कला के क्षेत्र में कई मशहूर प्रस्तुति दी थी. उनकी प्रसिद्ध रचनाओं में लॉएन फ़ॉरेस्ट गार्डन शामिल है. झांग यू (1335-1385), यांग जी (1334-1383), शु बेन (1335-1380) और गाओ की साहित्य जगत में बेजोड़ प्रतिभा के धनी थे. हांगवु सुल्तान झू युआनझांग साहित्य और कला को कतई पसंद नहीं करता था. उसी ने मिंग राजवंश की स्थापना की थी और वो इस राजवंश का प्रथम शासक था. 

1370 से लेकर 1450 तक के कालखंड (मिंग राजवंश) को चीनी बुद्धिजीवियों के लिए सबसे काला अध्याय माना जाता है. साहित्यिक इतिहास में इस कालखंड के दौरान राजनीतिक विरोधियों पर एक के एक दमनकारी उपाय लागू किए गए. 

एक बार वेई गुआन सुझोऊ दल का सबसे मशहूर कलाकार बनकर उभरे. उन्होंने झांग द्वारा कब्ज़ा किए गए इलाक़े में अपने कार्यालय को एक बार फिर से खड़ा किया. तब गाओ की ने उन्हें बधाई देते हुए एक कविता लिखी थी. इस कविता से झांग बेहद ग़ुस्से में आ गए. इसके बाद उन्होंने बेहद उग्र कदम उठाया. उन्होंने गाओ की और बाक़ी दो कवियों को सरेआम मृत्यु दंड देने का हुक्म दिया. उस वक़्त इस तरह के क़त्लेआमों को लुंज-पुंज तर्कों के साथ न्यायोचित ठहराया जाता था ताकि लोगों की नाख़ुशी को छिपाया जा सके. ऐसे तमाम उदाहरण चीनी इतिहास में भरे पड़े हैं. इनसे साबित होता है कि लोगों के नज़रिए और विमर्श पर नियंत्रण पाने और सेंसरशिप के लिए चीन के इतिहास में किस तरह के कठोर प्रावधान किए जाते रहे हैं.

अधिकारों के उल्लंघन के ज़रिए मीडिया पर नियंत्रण

मिंग राजवंश के समय से चीनी समाज में इस तरह के सार्वजनिक नियंत्रण की परंपरा चलती आ रही है. आधुनिक समाज में भी इसी ढर्रे को अपनाया जा रहा है. राजनीतिक दमन का ऐसा स्वभाव और सत्ता के प्रति किसी भी तरह के विरोध पर असहिष्णुता चीनी संविधान के प्रावधानों में शामिल किए गए हैं. यहां एक ताज्जुब की बात ये है कि 1994 में जब इंटरनेट लॉन्च हुआ था उस वक़्त इस पर किसी भी तरह का सेंसर नहीं था. हालांकि 1997 में गोल्डन शील्ड प्रोजेक्ट की शुरुआत के साथ ही इंटरनेट का पूरा खाका बदल गया

चीन में देशभर के प्रकाशनों पर निगरानी रखने वाली संस्था का नाम है द रेगुलेशन ऑन एडमिनिस्ट्रेशन ऑफ़ पब्लिकेशंस. इसी तरह ऑन लाइन सामग्रियों, न्यूज़ मीडिया और टेलीविज़न प्रसारण आदि पर नज़र रखने के लिए दूसरी नियामक संस्थाएं हैं. ये तमाम संस्थाएं चीनी संविधान के चार मूलभूत सिद्धांतों के हिसाब से प्रेस के क्रियाकलापों पर अंकुश लगाती हैं. ये चार मूलभूत सिद्धांत चीनी संविधान के आर्टिकल 5 के अंतर्गत ‘राजसत्ता, समाज और सामूहिक हित’ के शीर्षक के अधीन उल्लिखित हैं. इनकी रूपरेखा 1979 में डेंग जियाओपिंग ने तैयार की थी. इसमें कहा गया है कि:

  • हमें समाजवाद के रास्ते का ही अनुसरण करते रहना है
  • हमें सर्वहारा वर्ग की तानाशाही को कायम रखना है
  • हमें कम्युनिस्ट पार्टी का नेतृत्व बनाए रखना है
  • हमें मार्क्सवाद-लेनिनवाद और माओ जेडोंग के विचारों पर टिके रहना है

नियामक संस्थाओं के स्तर पर भी इसी तरह की पाबंदियां लागू की जाती हैं. ऐसे में इंटरनेट के इस युग में नीचे से ऊपर तक सूचनाओं का प्रसार भी असंभव प्रतीत होता है. संविधान के आर्टिकल 25 के तहत प्रकाशकों के लिए कठोरता से प्रतिबंधित सामग्रियों की बाकायदा सूची दी गई है. इनमें ‘अलगाव को बढ़ावा देना’, ‘राष्ट्रीय सद्भाव को नुकसान पहुंचाना’, ‘राज्य की गोपनीय जानकारियों का खुलासा करना’, ‘अश्लीलता, अंधविश्वास या हिंसा को बढ़ावा देना’ और ‘समाज के नैतिक मूल्यों और देश की उत्कृष्ट सांस्कृतिक परंपराओं को क्षति पहुंचाना’ शामिल हैं. आर्टिकल 8 के तहत उन क्रियाकलापों की सूची दी गई है जो ‘तथ्यों को ग़लत ढंग से पेश कर या तोड़मरोड़कर’ या ‘भाषणों या विचारों के प्रसार या प्रकाशन’ के ज़रिए ‘नस्ली संघर्ष पैदा करते हैं और अलगाववाद को बढ़ावा देते हैं’.

हालांकि स्पष्ट तौर पर ये नहीं बताया गया है कि किस तरह के लेखन से राष्ट्रीय सुरक्षा को नुकसान पहुंचता है या फिर राजसत्ता की गोपनीय जानकारियां बाहर आती हैं. नियमों में इस अस्पष्टता के चलते सरकारी अधिकारी आसानी से किसी भी समय प्रकाशकों की गिरेबां पकड़कर उनपर नियम तोड़ने का आरोप लगा सकते हैं. राष्ट्रीय सुरक्षा को किन बातों से ख़तरा पहुंचता है, इसको लेकर भी बेहद ढीले-ढाले और अनिश्चित प्रावधान हैं. ऐसे माहौल में सोशल मीडिया पर कोई भी व्यक्ति अपने विचार खुलकर प्रकट नहीं कर सकता. 

2012 का अंत होते-होते “दस्तावेज़ नंबर 9” सामने आया. इस खुफ़िया मसौदे के तहत विचारधारा के स्तर पर सात अहम ख़तरों की पहचान की गई. इनमें पाश्चात्य संविधानवाद को प्रोत्साहन देना, सार्वभौम मूल्यों, सिविल सोसाइटी, नवउदारवादी अर्थशास्त्र, प्रेस की स्वतंत्रता, ऐतिहासिक शून्यवाद और चीनी चरित्र वाले समाजवाद को चुनौती देना शामिल हैं. 

राज्य सुरक्षा कानून का आर्टिकल 9 “राज्य की गोपनीय जानकारियों” की परिभाषा के तौर पर ‘राज्य की सुरक्षा और हित से जुड़े’ किसी भी तत्व को शामिल करता है. इसमें कहा गया है कि इनको उजागर किए जाने से ‘राज्य की सुरक्षा और उसके राजनीतिक, आर्थिक, रक्षा, कूटनीतिक और दूसरे क्षेत्रों’ को नुकसान पहुंच सकता है. इसमें ‘राज सत्ता के सभी मामलों से जुड़े तमाम प्रमुख फ़ैसलों’ को भी शामिल किया गया है (खंड 1). इसके साथ ही ‘राष्ट्रीय अर्थव्यवस्था और सामाजिक विकास से जुड़े गोपनीय मामले’ (खंड 4) और ‘राजनीतिक दलों की राजकीय गोपनीयता से जुड़े मामले’ भी इसमें शामिल हैं. इस तरह की भ्रामक परिभाषाओं से लोगों के विचार उनके दिमाग़ में ही क़ैद होकर रह जाते हैं. एक और दिलचस्प धारा वैसी मीडिया एजेंसियों को लेकर है जिनके निबंधन से जुड़े आवेदन ख़ारिज कर दिये जाते है. ऐसी एजेंसियों को संदिग्ध मानकर उन्हें ग़ैर-कानूनी तक घोषित कर दिया जाता है. ऐसी तमाम पाबंदियों की वजह से लोग अपने विचारों और क्रियाकलापों में कांटछांट कर उनका दायरा सीमित कर लेते हैं. 

2012 का अंत होते-होते “दस्तावेज़ नंबर 9” सामने आया. इस खुफ़िया मसौदे के तहत विचारधारा के स्तर पर सात अहम ख़तरों की पहचान की गई. इनमें पाश्चात्य संविधानवाद को प्रोत्साहन देना, सार्वभौम मूल्यों, सिविल सोसाइटी, नवउदारवादी अर्थशास्त्र, प्रेस की स्वतंत्रता, ऐतिहासिक शून्यवाद और चीनी चरित्र वाले समाजवाद को चुनौती देना शामिल हैं. यहां दीगर बात ये है कि “इंटरनेट और शैक्षणिक जगत को” विचारधारा के स्तर पर इस तरह के ख़तरों से भरे सबसे प्रमुख स्थान के तौर पर बताया गया है. ऐसे में आम जनता और शिक्षा जगत में होने वाले शोध कार्यों पर भी कई प्रकार के अंकुश लग गए हैं. 

मानो इतना ही काफ़ी नहीं था कि हॉन्ग कॉन्ग सिक्योरिटी लॉ ने हालात बद से बदतर बना दिए. हॉन्ग कॉन्ग में स्थिरता बहाल करने और हिंसक प्रदर्शनों पर लगाम लगाने के बहाने चीन ने ये कानून पास किया है. इस मामले से जुड़ा एक दिलचस्प पहलू ये है कि कानून पारित किए जाने के बावजूद इसके प्रावधानों को सार्वजनिक नहीं किया गया है. इन प्रावधानों से सिर्फ़ सरकारी मीडिया को वाकिफ़ कराया गया है. मौजूदा समय में केवल उन्हीं के पास इससे जुड़ी जानकारियां मौजूद हैं. बीबीसी की एक रिपोर्ट के मुताबिक इस कानून के तहत तोड़फोड़, अलगाव, लोगों और सार्वजनिक संपत्तियों के ख़िलाफ़ हिंसा को आपराधिक गतिविधि करार दिया गया है. इसके साथ ही राष्ट्रीय सरकार की सत्ता को नुकसान पहुंचाने के लिए विदेशी तत्वों के साथ किसी भी तरह की सांठगांठ को गुनाह का दर्जा दिया गया है. यहां तोड़फोड़- ‘राज्य सत्ता की अवहेलना’ जैसी शब्दावलियों का मतलब समझना ज़रूरी है. इसका सीधा-सीधा अर्थ यही है कि कोई भी शख्स राज सत्ता की आलोचना नहीं कर सकता और न ही उसपर सवाल खड़े कर सकता है. 

मिंग से जिनपिंग तक ऐसे ही चलता रहा है

सॉन्ग राजवंश (960-1279) से लेकर अबतक चली आ रही सेंशरशिप की इस व्यवस्था से स्पष्ट है कि चीन अपने लोगों के ऊपर नियंत्रण की इस व्यवस्था को किसी भी सूरत में खोना नहीं चाहता. 

चीनी समाज में स्वंय पर सेंसरशिप लागू करने की प्रवृति गहरे पैठ बना चुकी है. इससे साफ़ ज़ाहिर है कि सच्चाई, आलोचना और स्वतंत्रता एक साथ अस्तित्व में नहीं रह सकते. जांच पड़ताल और सज़ा के डर ने लोगों को अपने विचारों को मन में ही क़ैद करके रखने पर मजबूर कर दिया है. अगर लोगों को धमकाया जाएगा, उन्हें अपने विचारों को सीमित करने पर मजबूर किया जाएगा तो उनकी ओर से राजनीतिक व्यवस्था में किसी भी स्तर पर भागीदारी नहीं की जाएगी. चीन में तो विद्यालयों की कक्षाओं तक में निगरानी के लिए कैमरे लगे हुए हैं और इन कैमरों की कमान सीधे कम्युनिस्ट पार्टी के हाथों में हैं. ऐसे में बच्चों को भी अपने बर्ताव को लेकर सतर्क रहना पड़ता है. हम भले ही चीनी मीडिया से जुड़े इन पहलुओं को वहां की जनता पर लगाई पाबंदियों के तौर पर देखते हैं लेकिन असलियत यही है कि चीन की सरकार ऐसे ही काम करती आ रही है.

मौजूदा राजसत्ता की कठोर नियंत्रण वाली नीति लागू करने में तकनीक की मदद 

पहले से तय नियम-कायदों पर चलने वाले इंटरनेट पर ज़ोर देकर चीन डिजिटल माध्यमों में एक अनुदारवादी व्यवस्था कायम कर रहा है. शी जिनपिंग ने इंटरनेट माध्यमों पर संप्रभुता पर ज़ोर दिया है. इसके तहत आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस, इंटरनेट ऑफ़ थिंग्स (आईओटी), और लोगों के व्यवहार पर काबू पाने के लिए बिग-डेटा का सघन इस्तेमाल हो रहा है. जैसा कि इस लेख के पिछले हिस्सों में बताया गया है इस चरम निगरानी व्यवस्था के ज़रिए पार्टी के ख़िलाफ़ किसी भी तरह की नाराज़गी से जुड़े विचारों या फिर क्रियाकलापों पर कसकर लगाम लगाई जाती है. 2013 में सुप्रीम पीपुल्स कोर्ट ने पार्टी के ख़िलाफ़ अवमानना से भरे लेखों और फ़र्जी ख़बरों को सोशल मीडिया पर 500 से अधिक बार शेयर किए गए जाने पर तीन साल तक के कारावास का फ़ैसला सुनाया था. सोशल मीडिया के इस ज़माने में 500 से ज़्यादा बार शेयर हासिल करना कोई कठिन काम नहीं है. इस फ़ैसले के बाद आम लोग अधिकारियों के डर से सोशल मीडिया पर अपनी मूल समस्याओं और चिंताओं की चर्चा करने से भी कतराने लगे हैं. इतना ही नहीं 2017 में वॉल स्ट्रीट जर्नल में छपी एक ख़बर में बताया गया था कि चीनी कम्युनिस्ट पार्टी वहां की बड़ी इंटरनेट कंपनियों जैसे वीबो और टेंसेंट में एक फ़ीसदी हिस्सेदारी लेने पर विचार कर रही है. ऐसे फ़ैसलों से अभिव्यक्ति की आज़ादी पर कई तरह के अंकुश लग जाते हैं और लोग हमेशा ही अधिकारियों द्वारा पकड़े जाने या हिरासत में लिए जाने के डर के साए में जीते हैं. इस तरह के हालात शिनजियांग इलाक़े में तो और भी बदतर हैं.

शिनजियांग और वहां का एकाधिकारवादी ढांचा

2009 में उरुमकी शहर में हुए दंगों के बाद शिनजियांग इलाक़े में दमनकारी अभियान छेड़ा गया. कम्युनिस्ट पार्टी ने वहां के सभी निवासियों के डीएनए, फिंगर प्रिंट्स, आंखों की पुतलियों के स्कैन और थ्री डी इमेज इकट्ठा करने शुरू कर दिए. अधिकारियों ने एलान किया कि उन्होंने वहां के तमाम निवासियों की इस तरह की जानकारियां जुटा ली हैं और उन्हें एक नए सोशल क्रेडिट सिस्टम (एससीएस) में दर्ज कर लिया गया है. ये सिस्टम हरेक नागरिक के दैनिक जीवन से जुड़े आम बर्तावों तक को एकत्रित कर उनका आकलन करता है. इनमें शॉपिंग से जुड़े व्यवहार, सोशल मीडिया पर की गई टिप्पणियों, लोगों के निजी समूहों और उनकी कर्तव्यपरायणता से जुड़ी जानकारियां इकट्ठा की जाती हैं. इसके साथ ही एक्सयूएआर (शिनजियांग वीगर स्वायत्त क्षेत्र) के हरेक निवासी के लिए अपने फ़ोन में “क्लीननेट बॉडीगार्ड” नामक साइबर सिक्योरिटी एप्लीकेशन इंस्टॉल करना अनिवार्य कर दिया गया है. ये ऐप फ़ोन पर सर्च की गई वेबसाइटों, पढ़ी गई सामग्रियों और सोशल मीडिया के इस्तेमाल से जुड़ी तमाम जानकारियां इकट्ठा करता रहता है. चीन ने तीन बुराइयों से निपटने के बहाने इस तरह के फ़ैसले को अंजाम दिया है. ये बुराइयां हैं- आतंकवाद, नस्लीय अलगाववाद और मजहबी उग्रवाद. यहां उस वाकये की मिसाल देना ज़रूरी है जब अधिकारियों ने शत्रुओं के ख़िलाफ़ सामूहिक घृणा की भावना जगाने के लिए एक साझा माहौल बनाने का आह्वान किया था. जॉर्ज ऑरवेल ने आतंक राज्य पर आधारित अपने उपन्यास 1984 में इसी प्रकार के क्रियाकलापों को नफ़रत फैलाने वाली बयानबाज़ियों की संज्ञा दी थी.

निष्कर्ष

यहां ये बात उल्लेखनीय है कि चीन के नागरिकों ने (एक्सयूएआर के इलाके समेत) स्थिरता और सुरक्षा के बदले स्वेच्छा से अपनी स्वतंत्रता का त्याग कर दिया है. हमें भले ही ये हालात हमारे आम जनजीवन के लिए रुकावट जैसे लगते हों, पसंद न आते हों लेकिन हो सकता है कि चीन के लोगों के लिए ये सामा्य सी बात हो जिसपर चर्चा करने की भी उन्हें ज़रूरत न लगती हो. पश्चिमी जगत के विद्वान भले ही कुछ भी कहते रहें लेकिन लगता ऐसा ही है कि चीन अपने मीडिया पर सेंसरशिप को लेकर ख़ामोशी बरतने में ही खुशी महसूस करता है. ऐसे में हम घूम फिरकर दोबारा उसी सवाल पर आ जाते हैं जो हमने इस लेख की शुरुआत में पूछा था. चीन के लोगों को इतना धैर्यवान किसने बनाया? सत्ता द्वारा पेश किए गए ख़तरे ने या फिर उनकी मनोवृत्ति ही दमन सहने वाली हो गई है. जवाब है दोनों. इसके साथ ही चीन में सेंशरशिप के ऐतिहासिक विश्लेषण से ये बाद साबित हो चुकी है कि वहां के समाज में इस तरह का नियंत्रण एक सामान्य सी बात हो गई है.

हमने इस लेख की शुरुआत ऑरवेल के कथन से की थी. ऐसे में लेख की समाप्ति के वक़्त भी उन्हीं के कथन को याद करना प्रासंगिक रहेगा. चीन या उसके भविष्य की असली तस्वीर  को समझने के लिए जॉर्ज ऑरवेल के उपन्यास 1984 का अध्ययन ज़रूरी हो जाता है. जर्नल ऑफ़ कंटेम्प्रोरी चाइना में छपे एक लेख में भी आतकं राज से जुड़े ऑरवेल के उपन्यास 1984 और चीन के हालात में समानता का ज़िक्र किया गया था. इतना ही नहीं था आम लहजे में स्टाट्सी के नाम से जाने जाने वाले पूर्ववर्ती पूर्वी जर्मनी की इंटेलिजेंस एजेंसी के साथ भी चीन की एक किस्म की समानता का उल्लेख इस लेख में था. राष्ट्रीय सुरक्षा की भ्रामक परिभाषाओं, विचारों और मीडिया पर संपूर्ण नियंत्रण के चलते यहां जेम्स लेइबोल्ट के एक कथन का उल्लेख करना प्रासंगिक जान पड़ता है. उन्होंने कहा था कि “पति अपनी पत्नियों पर, बहनें अपने भाइयों पर, एक वीगर दूसरे वीगर पर और पार्टी का हरेक अधिकारी दूसरे अधिकारी पर अविश्वास रखता है”.

यहां एलेजांद्रो जोरदोइरोवस्की की उस बात की चर्चा करना ग़लत नहीं होगा कि “पिंजड़े में पैदा हुआ पंछी सोचता है कि आकाश में उड़ना एक रोग है.”

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