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अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के कब्ज़े के बाद भारत को सामरिक सुरक्षा चिंताओं के साथ-साथ व्यापार के लिए भी मध्य एशिया के देशों के साथ और भी ज़्यादा नज़दीकी तौर पर भागीदारी निभानी चाहिए
पिछले कुछ वर्षों में भारत ने मध्य एशिया के देशों के साथ द्विपक्षीय संवाद का आयोजन किया है. सबसे ताज़ा संवाद अक्टूबर 2020 में द्वितीय भारत-मध्य एशिया संवाद का आयोजन हुआ था. शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) और कॉन्फ्रेंस ऑन इंटरएक्शन एंड कॉन्फिडेंस बिल्डिंग मेज़र्स इन एशिया (सीआईसीए) की बैठकें नियमित तौर पर इस क्षेत्र के साथ संपर्क का ज़रिया हैं और यहां तक कि प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी मध्य एशियाई नेताओं के साथ मुलाक़ात के लिए इस क्षेत्र का दौरा किया और मध्य एशियाई नेताओं ने प्रधानमंत्री मोदी के साथ मुलाक़ात के लिए भारत का दौरा किया. लेकिन मध्य एशिया के साथ नियमित जुड़ाव, स्थायी संबंधों के साथ-साथ ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संपर्कों के बावजूद भारत के बारे में कहा जाता है कि वो इस क्षेत्र में नाम मात्र का किरदार बना हुआ है. मगर अफ़ग़ानिस्तान में मौजूदा घटनाक्रम और वहां निहित हितों की वजह से मध्य एशियाई देशों के साथ संबंधों को बढ़ावा देना भारत के लिए काफ़ी फ़ायदेमंद होगा.
भौगोलिक और सामरिक कारणों से तालिबान के साथ जुड़ाव के मामले में मध्य एशिया की अपेक्षित केंद्रीयता विशेष तौर पर प्रासंगिक हो सकती है. संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद (यूएनएससी) की ताज़ा रिपोर्ट अफ़ग़ानिस्तान में अल-क़ायदा और इस्लामिक स्टेट की बढ़ती मौजूदगी की वजह से वहां ‘नाज़ुक’ सुरक्षा स्थिति की चेतावनी देती है. एक आकलन के मुताबिक़ पश्चिम एशिया में इस्लामिक स्टेट की हार के बाद मध्य एशिया से इस्लामिक स्टेट के पुराने लड़ाके फिर से अपने देश पहुंच गए हैं. इसकी वजह से वहां परेशानी की स्थिति है.
मध्य एशिया के साथ नियमित जुड़ाव, स्थायी संबंधों के साथ-साथ ऐतिहासिक और सांस्कृतिक संपर्कों के बावजूद भारत के बारे में कहा जाता है कि वो इस क्षेत्र में नाम मात्र का किरदार बना हुआ है. मगर अफ़ग़ानिस्तान में मौजूदा घटनाक्रम और वहां निहित हितों की वजह से मध्य एशियाई देशों के साथ संबंधों को बढ़ावा देना भारत के लिए काफ़ी फ़ायदेमंद होगा.
मध्य एशिया की नाज़ुक स्थिति तुर्कमेनिस्तान, उज़्बेकिस्तान और ताजिकिस्तान के द्वारा अफ़ग़ानिस्तान के साथ सीमा साझा करने की वजह से है. वर्तमान में पांच मध्य एशियाई गणराज्यों में से उज़्बेकिस्तान, तुर्कमेनिस्तान और किर्गिस्तान ने तालिबान के साथ जुड़ाव की कुछ इच्छा दिखाई है लेकिन कज़ाकिस्तान और ताजिकिस्तान ने कहा है कि जब तक तालिबान एक समावेशी और प्रतिनिधिक सरकार का गठन नहीं करता है तब तक उसके साथ कोई संबंध नहीं होगा. लेकिन संबंध हो या नहीं, पूरा क्षेत्र अफ़ग़ानिस्तान के हालात को लेकर ख़बरदार रहेगा.
ताज़िकिस्तान ने रूस की अगुवाई वाले सैन्य गठबंधन कलेक्टिव सेक्युरिटी ट्रीटी ऑर्गेनाइज़ेशन (सीएसटीओ), जिसमें मध्य एशियाई गणराज्य (तुर्कमेनिस्तान और उज़्बेकिस्तान को छोड़कर) के साथ आर्मीनिया और बेलारूस शामिल हैं, से एकजुट होकर अफ़ग़ानिस्तान के हालात की वजह से उत्पन्न होने वाली किसी भी तरह की सुरक्षा चुनौतियों का मुक़ाबला करने की अपील की है. रूस ने मध्य एशिया में अपने सहयोगियों की रक्षा करने का संकल्प लिया है और सीएसटीओ ने किर्गिस्तान और ताज़िकिस्तान में बड़े पैमाने पर सैन्य अभ्यास आयोजित करने का ख़ुलासा किया है. इस बीच क्षेत्र की दो महाशक्तियों रूस और चीन को इस बात का डर सता रहा है कि अगर अफ़ग़ानिस्तान अस्थिर रहा तो मध्य एशिया के रास्ते कट्टरता, आतकंवाद और नशीले पदार्थों की तस्करी फैल सकती है. इसलिए अफ़ग़ानिस्तान से नज़दीकी की वजह से मध्य एशियाई गणराज्यों का सामरिक महत्व उन्हें बहुपक्षीय मंचों के केंद्र में ला सकता है.
दूसरी तरफ़, जायज़ वजहों के बावजूद अफ़ग़ानिस्तान को लेकर अंतर्राष्ट्रीय चर्चा को प्रभावित करने की भारत की क्षमता पर संदेह बना हुआ है क्योंकि तालिबान के साथ भारत के संपर्क में कमी है. भारत ने अफ़ग़ानिस्तान की विकास परियोजनाओं में तीन अरब डॉलर का निवेश किया, अफ़ग़ान छात्रों को स्कॉलरशिप की पेशकश की, 90 मिलियन अमेरिकी डॉलर की लागत के साथ वहां की संसद की इमारत के निर्माण में मदद की और वहां के 34 प्रांतों में भारत की 400 से ज़्यादा परियोजनाएं फैली हुई हैं. पिछले कुछ वर्षों के दौरान अफ़ग़ानिस्तान के साथ द्विपक्षीय व्यापार बढ़ते-बढ़ते 2019-20 में 1.5 अरब डॉलर पर पहुंच गया है. इससे भी बढ़कर, भारत जम्मू-कश्मीर पर सुरक्षा के असर को लेकर काफ़ी चिंतित है क्योंकि पाकिस्तान के साथ तालिबान की नज़दीकी सांठगांठ है.
भारत ने अफ़ग़ानिस्तान की विकास परियोजनाओं में तीन अरब डॉलर का निवेश किया, अफ़ग़ान छात्रों को स्कॉलरशिप की पेशकश की, 90 मिलियन अमेरिकी डॉलर की लागत के साथ वहां की संसद की इमारत के निर्माण में मदद की और वहां के 34 प्रांतों में भारत की 400 से ज़्यादा परियोजनाएं फैली हुई हैं.
वैसे तो भारत बहुपक्षीय मंचों जैसे एससीओ और अफ़ग़ानिस्तान के हालात से निपटने के लिए बने मॉस्को फॉर्मेट की बातचीत का एक हिस्सा है लेकिन ये देखना बाक़ी है कि भारत, जो कि ऐतिहासिक तौर पर तालिबान का विरोधी है, को इनके भीतर कितना महत्वपूर्ण किरदार माना जाएगा. लेकिन मध्य एशिया के साथ संबंधों को बेहतर बनाने और अफ़ग़ानिस्तान पर समन्वय के लिए एससीओ एक असरदार मंच हो सकता है क्योंकि तुर्कमेनिस्तान को छोड़कर सभी मध्य एशियाई गणराज्य और महत्वपूर्ण क्षेत्रीय देश इसके सदस्य हैं. ये ख़ास तौर पर मददगार होगा क्योंकि भारत के बारे में धारणा है कि वो अफ़ग़ानिस्तान में सिर्फ़ एक “तमाशाई” है जैसा कि अफ़ग़ानिस्तान में भारत के पूर्व राजदूत विवेक काटजू ने बताया है. इस धारणा को अफ़ग़ानिस्तान में रूस के विशेष दूत ज़मीर काबुलोव ने भी रेखांकित किया है जब उनसे ट्रोइका (रूस, चीन, पाकिस्तान और अमेरिका का एक मंच) और ट्रोइका प्लस में भारत को नहीं शामिल करने के बारे में पूछा गया. इस तरह अगर भारत मध्य एशियाई गणराज्यों के साथ ऐतिहासिक तौर पर स्थिर संबंधों को आगे बढ़ाकर एक मज़बूत साझेदार बनाने में सक्षम हुआ तो वो ख़ुद को नज़रअंदाज़ किए जाने को रोक सकता है.
भारत के लिए मध्य एशिया के साथ जुड़ाव बढ़ाने का एक स्वीकार्य रास्ता ज़्यादा व्यापार के ज़रिए हो सकता है. चीन ने इस क्षेत्र का सबसे महत्वपूर्ण व्यापार साझेदार बनकर मध्य एशिया में अपना असर स्थापित किया है. मध्य एशिया के साथ चीन का व्यापार क़रीब 100 अरब अमेरिकी डॉलर है. इसके उलट, मध्य एशिया के साथ भारत का व्यापार महज़ 2 अरब अमेरिकी डॉलर का है, वो भी तब जब मध्य एशिया के गणराज्य ऊर्जा और खनिज संसाधनों जैसे तेल, प्राकृतिक गैस, यूरेनियम, सोना, चांदी इत्यादि में समृद्ध हैं और भारत ऊर्जा ज़रूरतों के मामले में काफ़ी हद तक आयात पर निर्भर देश है. भारत और मध्य एशिया के गणराज्यों के बीच ऊर्जा, फार्मास्युटिकल्स, केमिकल, कृषि उत्पाद, रक्षा उपकरण, इत्यादि का व्यापार होता है लेकिन व्यापार की मात्रा संतोषजनक होने से काफ़ी दूर है. भारत ने बार-बार मध्य एशिया पर व्यापक नीतियां बनाने की इच्छा जताई है. पिछले एक दशक में तो कम-से-कम ज़रूर ऐसा हुआ है लेकिन लगता है कि इसका सीमित सकारात्मक नतीजा आया है. 2012 की कनेक्ट सेंट्रल एशिया नीति की कोशिश भारत के राजनीतिक, सुरक्षा, आर्थिक और सांस्कृतिक संपर्क का इस क्षेत्र में विस्तार करना था. इसके बाद प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 2015 में मध्य एशिया का दौरा करके और आगे आने वाले वर्षों में मध्य एशिया के नेताओं से कई बार मुलाक़ात करके इस नीति को आगे बढ़ाया.
मध्य एशिया के गणराज्यों के समुद्र से नहीं जुड़े होने के कारण भारत और इस क्षेत्र के बीच सीधा समुद्री रूट नहीं है. पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के ज़रिए जमीनी रास्ता भी नहीं है क्योंकि पाकिस्तान के साथ भारत के रिश्ते ख़राब हैं जबकि अफ़ग़ानिस्तान में अस्थिरता फैली हुई है.
उम्मीद से बेहद कम आर्थिक संबंधों की सबसे बड़ी वजहों में संपर्क की कमी का ज़िक्र किया जाता है. मध्य एशिया के गणराज्यों के समुद्र से नहीं जुड़े होने के कारण भारत और इस क्षेत्र के बीच सीधा समुद्री रूट नहीं है. पाकिस्तान और अफ़ग़ानिस्तान के ज़रिए जमीनी रास्ता भी नहीं है क्योंकि पाकिस्तान के साथ भारत के रिश्ते ख़राब हैं जबकि अफ़ग़ानिस्तान में अस्थिरता फैली हुई है. ईरान में चाबाहार बंदरगाह से उम्मीद की गई थी कि वो संपर्क में इस कमी को काफ़ी हद तक दूर करेगा लेकिन ईरान पर आर्थिक प्रतिबंधों की वजह से बंदरगाह का ऑपरेशन शुरू होने में देरी हुई है. इस देरी ने कथित तौर पर आर्थिक रूप से हताश ईरान को बंदरगाह में चीन के निवेश का पता लगाने के लिए भरमाया जिसकी वजह से भारत में चिंताएं है. दूसरी परियोजनाएं जो व्यापार और संपर्क को सहारा दे सकती हैं, जैसे तुर्कमेनिस्तान-अफ़ग़ानिस्तान-पाकिस्तान-इंडिया (टीएपीआई) पाइपलाइन और इंटरनेशनल नॉर्थ-साउथ ट्रांसपोर्ट कॉरिडोर (आईएनएसटीसी) आर्थिक प्रतिबंधों और भू-राजनीतिक दिक़्क़तों के कारण अभी तक पूरी नहीं हो पाई हैं.
मध्य एशिया की बढ़ी हुई सामरिक अहमियत को मान्यता देते हुए भारत को आदर्श रूप में इस क्षेत्र के साथ व्यापार को लेकर आक्रामक रुख़ अपनाना चाहिए. इसके लिए न सिर्फ़ लंबित कनेक्टिविटी परियोजनाओं को पूरा करने को सुनिश्चित करना चाहिए बल्कि क्षेत्रीय मौजूदगी को बेहतर बनाने की संभावना मुहैया कराने वाले दूसरे क्षेत्रों जैसे डिजिटल इंफ्रास्ट्रक्चर और शिक्षा की भी पहचान करनी चाहिए. चूंकि सुरक्षा भारत और मध्य एशिया के गणराज्यों- दोनों के लिए साझा चिंता की बात है, ऐसे में रक्षा सहयोग भी ऐसा एक और क्षेत्र होना चाहिए जहां मौजूदा स्थिति से बढ़कर संभावना की तलाश करनी चाहिए. ये सहयोग काफ़ी हद तक भारत और कज़ाकिस्तान के बीच पिछले दिनों हुए साझा सैन्य अभ्यास “काजिंड” की तरह होना चाहिए.
भारत मध्य एशिया के साथ संपर्क को बढ़ाने के लिए रूस के साथ अपनी पुरानी दोस्ती का इस्तेमाल करने पर भी विचार कर सकता है क्योंकि रूस मध्य एशिया में सबसे असरदार देशों में से एक है. इस दिशा में एक सकारात्मक क़दम भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच ताज़ा बातचीत है.
भारत मध्य एशिया के साथ संपर्क को बढ़ाने के लिए रूस के साथ अपनी पुरानी दोस्ती का इस्तेमाल करने पर भी विचार कर सकता है क्योंकि रूस मध्य एशिया में सबसे असरदार देशों में से एक है. इस दिशा में एक सकारात्मक क़दम भारतीय प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन के बीच ताज़ा बातचीत है. इस बातचीत के दौरान दोनों नेताओं ने दूसरे मुद्दों के अलावा मध्य एशिया में सहयोग का विस्तार करने को लेकर व्यापक चर्चा की.
अभी तक मध्य एशिया को भारत उसकी भौगोलिक स्थिति और प्राकृतिक संसाधनों की वजह से हमेशा सामरिक तौर पर महत्वपूर्ण क्षेत्र के तौर पर देखता रहा है. लेकिन तालिबान के साथ भारत के सीमित संपर्क के अलावा अफ़ग़ानिस्तान में बदलते परिदृश्य के मार्गनिर्देशन में मध्य एशिया का महत्व वहां के देशों के साथ भारत के बेहतर संपर्क की अहमियत बढ़ाता है. मध्य एशिया के गणराज्यों की मदद से अफ़ग़ानिस्तान को लेकर अपनी चिंताओं को बातचीत की मेज पर रखने की क्षमता में बढ़ोतरी करने के लिहाज से भारत के लिए ये फ़ायदेमंद रहेगा कि वो मध्य एशिया के साथ व्यापार और संपर्क बढ़ाने की ओर सक्रिय दृष्टिकोण रखे. साथ ही सहयोग के नये क्षेत्रों की पहचान और उसे विकसित भी करे.
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Saaransh Mishra was a Research Assistant with the ORFs Strategic Studies Programme. His research focuses on Russia and Eurasia.
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