Published on Mar 25, 2021 Updated 0 Hours ago

आइए घर और ऑफ़िस को लैंगिक दृष्टि से अधिक समान बनाने की कोशिश करें. ग्रामीण इलाक़ों में ज़रूरी आधारभूत सुविधाएं उपलब्ध कराएं, और कम से कम महामारी के वक़्त महिलाओं द्वारा किए गए शानदार काम के लिए महिलाओं को तय भुगतान करें.

पितृसत्तात्मक ढंग से ‘नारी शक्ति’ का जश्न या शोक?

8 मार्च की तारीख़ साल का वो वक्त़ होता है जब हम सफलता की भावनात्मक कहानियों के ज़रिए महिलाओं की उपलब्धियों का उत्सव मनाते हैं. ये सफल महिलाएं वे हैं, जिन्होंने ओलंपिक खेलों में स्वर्ण पदक जीते हैं, कॉरपोरेट बोर्ड रूम में अपनी जगह बनाई है, मर्दों की दुनिया में कई मुक़ाम हासिल किए हैं, मर्दों की प्रभुत्व वाली गोष्ठियों (all male-panels) में अकेली महिला रहीं (तो क्या हुआ अगर उन्हें किसी अहम व्यक्ति से जुड़े होने की वजह से आमंत्रित किया गया?) या फिर 10वीं की परीक्षा पास की है, किसी दूर दराज़ के इलाक़े से स्कूल पहुंचने के लिए 50 किलोमीटर साइकिल चलाकर. तमाम ‘विषम परिस्थितियों के बावजूद मिली इन सफलताओं’ का उत्सव मनाया जाना चाहिए ताकि महिलाएं इन मुश्किलों के बावजूद और इन्हें पार कर, सफलता हासिल करने के लिए प्रेरित हों. महिलाओं को अपनी शारीरिक और मानसिक सेहत को दरकिनार कर, विषम परिस्थितियों से और मज़बूती से लड़ना चाहिए, उन उपलब्धियों को हासिल करने के लिए, जिन्हें एक पुरुष उपलब्धि मानने से ही इंकार कर देगा, और इस बीच भारतीय समाज उसी तरह चलता रहेगा, जिस तरह से वह पिछले पांच सौ सालों से चलता आ रहा है.

दुखद यह है कि भारतीय घरों में, लैंगिक समानता और लगातार ‘काम करने के अवसर’ ने, श्रम के लिंग विभाजन को नहीं बदला है. जो महिलाएं कामकाजी हैं उन्हें परिवार और काम का दोहरा बोझ उठाना पड़ता है. इतना ही नहीं उन्हें वह उचित सम्मान भी नहीं मिलता जो घर में पुरुष सदस्यों को मिलता है. महिलाएं आज भी ऑफिस के कामों और लक्ष्यों को पूरा करने की कोशिश के साथ, खाना पकाना, सफ़ाई, बच्चों और बुज़ुर्गों की देखभाल जैसी घर की अधिकतर ज़िम्मेदारियां उठाती हैं. वैसे महिलाओं की स्थिति को लेकर पूरी दुनिया की सच्चाई ऐसी ही है लेकिन भारत में स्थिति ज़्यादा ख़राब है, क्योंकि भारतीय संयुक्त परिवारों में लैंगिक भूमिका को लेकर कठोर रुख़ अपनाया जाता है. इन संयुक्त परिवारों में ऐसे कई लोग होते हैं जिनको देखभाल की ज़रूरत होती है. इसके साथ जटिल धार्मिक रीति-रिवाज़ में अधिक समय लगना और बात-बात पर अन्य महिलाओं से तुलना भी भारत में आम बात है.

दुखद यह है कि भारतीय घरों में, लैंगिक समानता और लगातार ‘काम करने के अवसर’ ने, श्रम के लिंग विभाजन को नहीं बदला है. जो महिलाएं कामकाजी हैं उन्हें परिवार और काम का दोहरा बोझ उठाना पड़ता है. 

अर्थव्यवस्था का उदारीकरण, जो अनौपचारिक रूप से बढ़ रहा है, और ठेका आधारित काम ने महिला कामगारों को और भी असुरक्षित बना दिया है. महिलाओं को कम मज़दूरी दी जाती है और वह हमेशा इस डर में रहती हैं कि उनकी यह अस्थिर नौकरी भी छूट जाएगी. रेनाना झाबवाला और शालिनी सिन्हा के एक अध्ययन के मुताबिक उदारीकरण के कारण असंगठित क्षेत्र में महिला कामगारों के लिए काम के अवसरों में कमी आई है. इसके साथ ही यहां कामकाज की स्थिति बेहद ख़राब है वहीं उन्हें कम मज़दूरी दी जाती है, उन के लिए कामकाज की असुरक्षा बनी रहती है, और नियमित श्रमिकों की अल्पकालिक पुनर्नियुक्ति (casual work culture) बढ़ता जा रहा है.

जिनके पास रोज़गार है, उनके लिए कार्य स्थल (workplace) पर मुश्किल से कोई खुली जगह होती है. भारत में कार्यस्थल महिलाओं के अनुकूल नहीं होते हैं और वहां यौन शोषण की घटनाएं बेहद आम हैं. केवल मुट्ठी भर महिलाएं इस शोषण के खिलाफ शिकायत कर पाती हैं क्योंकि अधिकतर महिलाओं के सामने नौकरी छूटने का डर रहता है. वैसे तो मातृत्व लाभ क़ानून, 2017 (Maternity Benefit Act 2017) 50 से अधिक कर्मचारियों को रखने वाले नियोक्ता के लिए क्रेच (crèche) उपलब्ध कराने को अनिवार्य बनाता है, लेकिन भारत में अधिक से अधिक कार्य स्थलों पर क्रेच की सुविधा नहीं है.

टॉयलेट जैसी बुनियादी ज़रूरतों का अभाव 

यहां तक कि भारत में कार्यस्थलों या स्कूलों में टॉयलेट की भी उचित व्यवस्था नहीं है. ग्रामीण भारत में हर साल लाखों किशोरियां केवल इसलिए बीच में ही पढ़ाई छोड़ देती हैं क्योंकि उनके स्कूल में साफ़ सुथरे टॉयलेट की व्यवस्था नहीं है. लैंगिक मामलों के जानकार बताते हैं कि भारत के बड़े शहरों जैसे बेंगलुरू, मुंबई और पुणे में स्वच्छ टॉयलेट की कमी के कारण महिलाएं मज़दूरी का काम नहीं कर पाती हैं. जो महिलाएं ऐसी गंदी स्थिति में काम करती हैं, उनके स्वास्थ्य को गंभीर ख़तरा रहता है. सभी वर्गों की 312 महिला मज़दूरों के बारे में किए गए एक अध्ययन के मुताबिक भारत के कई कार्य स्थलों पर उचित साफ़ सफाई का अभाव और काम के दौरान लगातार गर्मी का सामना करने की वजह से महिला मज़दूरों के स्वास्थ्य को गंभीर ख़तरा बना रहता है.

भारत में कार्यस्थल महिलाओं के अनुकूल नहीं होते हैं और वहां यौन शोषण की घटनाएं बेहद आम हैं. केवल मुट्ठी भर महिलाएं इस शोषण के खिलाफ शिकायत कर पाती हैं क्योंकि अधिकतर महिलाओं के सामने नौकरी छूटने का डर रहता है. 

अध्ययन में पाया गया कि कार्य स्थल को लेकर 71 फ़ीसदी महिला मज़दूरों ने बताया कि वहां गर्मी की स्थिति निर्धारित व अधिकतम सीमा से अधिक होती है, जबकि 87 फीसदी महिलाओं, जिनके लिए कार्य स्थल पर टॉयलेट की उचित सुविधा नहीं थी, ने बताया कि उन्हें पेशाब संबंधी चिकित्सीय परेशानियां हैं. 10 फ़ीसदी महिलाओं में कोर बॉडी टेंपरेचर (Core Body Temperature, CBT), स्वेट रेट यानी पसीना बहने का स्तर (Sweat Rate, SwR) और यूरिन स्पेसफिक ग्रेविटी (Urine Specific Gravity, USG) सामान्य से अधिक थी.

महामारी के दौरान दोहरी मार

महामारी की सबसे बड़ी मार महिला कामगारों पर पड़ी और बीते दशकों में महिलाओं द्वारा हासिल किए गए तमाम आर्थिक लाभ एक झटके में स्वाहा हो गए. हाल में संयुक्त राष्ट्र महिला द्वारा जारी एक रिपोर्ट के मुताबिक कोविड-19 की महामारी 2021 तक 9.6 करोड़ लोगों को भीषण ग़रीबी में धकेल देगी. इसमें 4.7 करोड़ महिलाएं और लड़कियां शामिल हैं. अंतरराष्ट्रीय श्रम संगठन ने अनुमान जताया है, कि महामारी की वजह से 140 मिलियन पूर्णकालिक नौकरियां ख़त्म हो जाएंगी और इस में पुरुषों की तुलना में महिलाओं के सामने नौकरी गंवाने का खतरा 19 फ़ीसदी अधिक है. महामारी की वजह से ग़रीबी में जो वृद्धि हो रही है, वह मौजूदा रूप में महिलाओं व पुरुषों की मज़दूरी में अंतर (gender wage gap) को और बढ़ा देगा. स्वास्थ्य क्षेत्र की बात करें तो यहां भी महिलाओं की स्थिति ठीक नहीं है. इस सेक्टर में उनकी हिस्सेदारी अनुपातहीन रूप में है (disproportionate) और वह कोविड-19 के ख़िलाफ़ लड़ाई में अग्रणी रही हैं, फिर भी महिला स्वास्थ्य कामगारों को कम वेतन मिलता है. भारत में महिला स्वास्थ्य कामगारों को अक्सर मरीज़ों का दुर्व्यवहार झेलना पड़ता है, और उन्हें बिना किसी रक्षात्मक उपकरण के काम करना होता है. साथ ही नर्सों के वेतन में कटौती की गई है, और आशा वर्कर (ASHA) को उनका नियमित मेहनताना नहीं मिला है.

.भारत में महिला स्वास्थ्य कामगारों को अक्सर मरीज़ों का दुर्व्यवहार झेलना पड़ता है, और उन्हें बिना किसी रक्षात्मक उपकरण के काम करना होता है. साथ ही नर्सों के वेतन में कटौती की गई है, और आशा वर्कर (ASHA) को उनका नियमित मेहनताना नहीं मिला है.

ऐसे में तमाम विषम परिस्थितियों के बावजूद सफलता हासिल करने वाली मुट्ठी भर महिलाओं की उपलब्धि की कहानी का उत्सव मनाने की ज़रूरत नहीं है. ऐसा करने से युवा महिलाओं पर अतिरिक्त दबाव आ जाता है कि वे सभी विषम परिस्थितियों से लड़ें और इन महिलाओं की तरह लक्ष्य हासिल करें. इसके बजाय हमें इन विषम परिस्थितियों को हटाने की दिशा में काम करने की ज़रूरत है, जिससे कि भारत में एक युवा महिला के लिए आज़ाद ज़िंदगी जीना मुश्किलों से भरा काम न हो. इसके साथ ही उनकी वास्तविक क्षमता को स्वीकार किया जाए. हमें यह कोशिश करनी चाहिए कि घर और कार्य स्थलों को लैंगिक रूप से अधिक से अधिक समान बनाया जाए, ग्रामीण इलाकों में जरूरी बुनियादी ढांचा स्थापित हो, समान कार्यों के लिए समान वेतन दिया जाए और महामारी के दौरान महिलाओं ने जो शानदार काम किए हैं, उसके बदले उन्हें सही भुगतान किया जाए. लेकिन क्या उन राज्यों में लैंगिक न्याय संभव है, जहां न्याय देने वाले खुद, वैवाहिक बलात्कार (marital rape) को उचित ठहराते हैं? जो अपराध करने वालों को नाबालिग पीड़िता से शादी करने के लिए कहते हैं, और जो खुद यौन दुर्व्यवहार के आरोपी हैं? चलिए पितृसत्तात्मक तरीक़े से ‘नारी शक्ति’ का उत्सव न मनाकर इस तरह के दिनों का शोक मनाएं.

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