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अमेरिका और चीन के बीच व्यापार को लेकर हुए 90 दिन के समझौते ने लंबे समय से चले आ रहे टैरिफ युद्ध को कुछ समय के लिए शांत किया है. इससे आपूर्ति श्रृंखलाओं और परेशान वैश्विक बाज़ारों को राहत मिली है.
Image Source: Getty
महीनों तक बढ़ते टैरिफ और आर्थिक तनाव के बाद अमेरिका और चीन व्यापारिक युद्ध विराम के लिए तैयार हो गए हैं और उन्होंने एक दूसरे पर लगाए गए अपने ज़्यादातर टैरिफ को वापस ले लिया है. इससे वैश्विक बाज़ारों को राहत मिली है. दोनों देशों के बीच ये समझौता ऐसे वक़्त हुआ है, जब भारत और पाकिस्तान से लेकर रूस और यूक्रेन के बीच युद्ध विराम की संभावनाएं तलाशी जा रही हैं. भले ही ये व्यापारिक समझौता अस्थायी हो. लेकिन, दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच बेहद नुक़सानदेह टकराव के बीच ये बेहद अहम विराम है.
भले ही ये व्यापारिक समझौता अस्थायी हो. लेकिन, दुनिया की दो सबसे बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के बीच बेहद नुक़सानदेह टकराव के बीच ये बेहद अहम विराम है.
दुनिया की दो सबसे बड़ी आर्थिक ताक़तों के बीच आर्थिक युद्ध की लागत शायद असली युद्ध से भी कहीं अधिक है. किसी राष्ट्रीय युद्ध से बचना तो शायद मुमकिन हो, लेकिन सुस्ती से नहीं बचा जा सकता. इस व्यापार युद्ध की शुरुआत डोनाल्ड ट्रंप के दूसरे कार्यकाल के आग़ाज़ के साथ ही हो गई थी. 1 फरवरी को 2025 ट्रंप ने शुरुआती क़दम उठाते हुए चीन पर दस प्रतिशत टैरिफ लगाया था, जो बढ़ते बढ़ते 10 अप्रैल तक 145 फ़ीसद जा पहुंचा था. चीन ने भी अमेरिका द्वारा हर बार टैरिफ बढ़ाने पर पलटवार किया और उसकी ओर से भी अमेरिकी उत्पादों पर टैरिफ की दर 125 प्रतिशत पहुंच गई थी. इस वजह से दोनों देशों के बीच व्यापार कम-ओ-बेश ठहर गया था और शेयर बाज़ारों में भारी गिरावट आई थी.
Figure 1: अमेरिका और चीन के एक दूसरे और बाक़ी दुनिया (ROW) पर लगाए गए टैरिफ की दरें
यहां ग्राफ़ है...
जहां अमेरिका, चीन को सोयाबीन, फार्मास्यूटिकल्स, एयरक्राफ्ट और पेट्रोल का निर्यात करता है, वहीं वो चीन से स्मार्टफोन, लैपटॉप, बैटरी और दूसरे इलेक्ट्रॉनिक उपकरणों का आयात करता है. चीन से अमेरिका का आयात उसके निर्यात से बहुत अधिक- लगभग 300 अरब डॉलर ज़्यादा है. वैसे तो ट्रंप ने अपनी इस संरक्षणवादी मुहिम की शुरुआत को फेंटानिल और अवैध अप्रवासियों के संकट से जोड़कर जायज़ ठहराया था. लेकिन इसके पीछे असल में अमेरिका का गुरूर और राष्ट्रवाद की भावना थी. ट्रंप प्रशासन ने टैरिफ युद्ध की शुरुआत ये सोचकर की थी कि इससे घरेलू निर्माण क्षेत्र बहाल होगा, अमेरिका में रोज़गार पैदा होंगे और समृद्धि आएगी. लेकिन, ट्रंप ने अंतरराष्ट्रीय स्तर पर तुलनात्मक बढ़त की भूमिका को पूरी तरह से ख़ारिज कर दिया था.
संरक्षणवादी नीतियां आम तौर पर प्रतिस्पर्धी क़ीमतों में हेर-फेर कर देती हैं और इससे घरेलू दाम बढ़ जाते हैं, जिससे ग्राहकों की ख़रीदने की क्षमता घट जाती है. ये उन्हीं अमेरिकी नागरिकों के साथ हो रहा था, जिनका संरक्षण ट्रंप करना चाहते थे. तुलनात्मक बढ़त का नियम ये कहता है कि मुक्त अंतरराष्ट्रीय व्यापार में हर देश वही चीज़ें बनाएगा, जिनको बनाने में उसे सबसे ज़्यादा महारत होगी. चीन, जिसने ज़्यादा श्रमिक पूंजी वाले उत्पादों के निर्यात के ज़बरदस्त उछाल के साथ शुरुआत की थी, उसको इन उत्पादों में तुलनात्मक बढ़त हासिल है. अगर चीन ये उत्पाद बनाकर निर्यात करता रहता है, तो इससे अमेरिका को भी फ़ायदा होगा. चीन के निर्यातों को सीमित करने से अमेरिकी अर्थव्यवस्था पर असंतुलित बोझ पड़ता जिससे महंगाई बढ़ जाती और आपूर्ति कम हो जाती.
अमेरिका और चीन के टैरिफ़ को सिम्युलेट करने के लिए किएल इंस्टीट्यूट फॉर वर्ल्ड इकॉनमी अपनी किएल इंस्टीट्यूट ट्रेड नीति मूल्यांकन (KITE) के मॉडल का इस्तेमाल करती है. इसमें पाया गया कि अगर टैरिफ की यही स्थिति रहती तो लंबी अवधि में अमेरिका और चीन के बीच आपसी व्यापार 70 प्रतिशत तक घट सकता था. महंगाई 5.5 प्रतिशत तक बढ़ जाती और इससे अमेरिका का सकल घरेलू उत्पाद (GDP) 1.6 फ़ीसद तक कम हो सकता था. चीन की उत्पादकता भी 0.6 प्रतिशत तक घट जाती. लेकिन, क़ीमतों पर इसका असर अलग होता. चूंकि, चीन विशुद्ध निर्यातक देश है. ऐसे में व्यापार घटने से उसके घरेलू बाज़ार में उत्पादों की बाढ़ आ जाती. घरेलू प्रतिस्पर्धा बहुत अधिक बढ़ जाती, जिससे क़ीमतें और गिर जातीं, और ये उत्पादकों के लिए अच्छी बात नहीं होती. बाक़ी दुनिया पर भी इसका असर होता उनकी आमदनी में गिरावट आती तो क़ीमतों में उछाल आता. ये आंकड़े बताते हैं कि अमेरिका को क्यों चीन से हाथ मिलाना पड़ा. संरक्षणवाद की नीतियां न केवल अमेरिका को महंगी पड़ रही थीं, बल्कि इसका असल दबाव परिवारों के बजट, कारोबारी स्थिरता और सरकार द्वारा असरदार तरीक़े से क़र्ज़ लेने की क्षमता पर भी पड़ रहा था.
आंकड़े बताते हैं कि अमेरिका को क्यों चीन से हाथ मिलाना पड़ा. संरक्षणवाद की नीतियां न केवल अमेरिका को महंगी पड़ रही थीं, बल्कि इसका असल दबाव परिवारों के बजट, कारोबारी स्थिरता और सरकार द्वारा असरदार तरीक़े से क़र्ज़ लेने की क्षमता पर भी पड़ रहा था.
न केवल अंतरराष्ट्रीय अर्थशास्त्र के नियमों ने ट्रंप को अपने फ़ैसले पर पुनर्विचार के लिए मजबूर किया, बल्कि बॉन्ड के संरक्षको ने भी इसमें बहुत अहम भूमिका अदा की. बॉन्ड की बनावट की वजह से इसकी क़ीमतें और इनसे होने वाले लाभ एक दूसरे से उल्टी दिशा में जा रहे थे. जब बॉन्ड के संरक्षक इनको बेचना शुरू करते हैं, तो क़ीमतें गिर जाती हैं और इस पर रिटर्न बढ़ने लगता है. ऐसे में सरकार के लिए क़र्ज़ लेना महंगा होता जाता है. आम तौर पर वैश्विक संकट के वक़्त ख़रीदार अमेरिकी बाज़ार का रुख़ करते हैं और अमेरिकी बॉन्ड पर रिटर्न कम होने लगता है. हालांकि, इस बार हालात अलग थे. अमेरिकी बॉन्ड बाज़ार से भारी तादाद में लोग निकल रहे थे. इससे क़र्ज़ लेना महंगा और वित्तीय घाटा कहीं अधिक क़ीमती होता जा रहा था.
राष्ट्रवाद कितना भी अहम क्यों न हो, मगर सबको अदृश्य हाथ की ताक़त के आगे झुकना ही पड़ता है. हालांकि, ज़रूरी नहीं है कि बाज़ार और राष्ट्रवाद अलग अलग हों. हां, अगर विनियमन के ढांचे ऐसे हों जो ज़बरन वसूली न करें तो ये दोनों ही संसाधनों का अधिक कुशलता से आवंटन करते हैं. चीन और अमेरिका ने 12 मई को नया व्यापारिक समझौता किया. दोनों देशों ने टैरिफ़ को 115 फ़ीसद घटा दिया और 10 प्रतिशत के अतिरिक्त बेसलाइन टैरिफ को बरक़रार रखा था. वैसे तो टैरिफ हटाने का ये फ़ैसला शुरुआती तौर पर 90 दिनों के लिए लागू रहेगा. लेकिन, इस बात की संभावना कम ही है कि बाद में भी दोनों देश टैरिफ की इस वाहियात दर को आगे वापस लागू करेंगे.
अमेरिका ये अतिरिक्त टैरिफ चीन के साथ अपने व्यापार घाटे पर क़ाबू पाने और अमेरिकी नौकरियों को दूसरे देशों में जाने से रोकने के लिए लगाए हुए है. चीन भी पलटवार में लगाए गए टैरिफ को हटाएगा और ग़ैर टैरिफ़ जवाबी क़दम को या तो निलंबित करेगा या फिर हटाएगा. चीन से सौदेबाज़ी करने का ये ट्रंप का पहला प्रयास नहीं था; अमेरिका के चालू खाते के घाटे को कम करने और व्यापारिक व्यवहार में चीन के साथ सहयोग करने के लिए 15 जनवरी 2020 को दोनों देशों के बीच पहले चरण का व्यापार समझौता हुआ था. हालांकि, ये सौदा नाकाम रहा था, क्योंकि चीन ने अमेरिका से आयात करने के अपने वादे को नहीं निभाया था. वहीं, अमेरिका की तरफ़ से विशेष रूप से महामारी के दौरान जो संस्थागत सहयोग मिलना चाहिए था, वो नहीं मिला था.
अब चीन और अमेरिका अपने व्यापारिक समझौते को किस तरह देखते हैं, ये बात ख़ुद उन दोनों देशों और बाक़ी उभरती अर्थव्यवस्थाओं पर गहरा असर डालेगी. क्योंकि, विकासशील देश ख़ुद को वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं.
हो सकता है कि इस बार चीज़ें अलग हों. लेकिन, ऐसा तब होगा जब दोनों देशों के बीच एक व्यापक समझौता तैयार किया जाए, जिसमें पहले चरण की डील के कुछ पहलुओं को शामिल किया जाए और इसमें ज़्यादा ठोस और स्पष्ट प्रतिबद्धताओं को शामिल किया जाए. वैसे तो ऐसी दख़लंदाज़ियों से बाज़ार में ख़लल पड़ता है. लेकिन, इनका इस्तेमाल सामाजिक रूप से अपेक्षित दिशा में जाने के लिए भी किया जा सकता है. अब चीन और अमेरिका अपने व्यापारिक समझौते को किस तरह देखते हैं, ये बात ख़ुद उन दोनों देशों और बाक़ी उभरती अर्थव्यवस्थाओं पर गहरा असर डालेगी. क्योंकि, विकासशील देश ख़ुद को वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाओं में स्थापित करने का प्रयास कर रहे हैं. अंतरराष्ट्रीय व्यापार का दो हिस्सों में बंटना महंगा सौदा होगा और इससे वैश्विक उत्पादन का बेहतरीन वितरण करने में बाधा आएगी. आर्थिक व्यवस्थाओं को राजनीति से आज़ाद रहना चाहिए तभी जलवायु परिवर्तन जैसे वैश्विक मसलों पर दुनिया के तमाम देशों के बीच सहयोग हासिल हो सकेगा.
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Arya Roy Bardhan is a Research Assistant at the Centre for New Economic Diplomacy, Observer Research Foundation. His research interests lie in the fields of ...
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