Author : Jyoti Shelar

Expert Speak Health Express
Published on Jul 05, 2025 Updated 0 Hours ago

भारत कैंसर के मरीज़ों के मामले में एशिया के सबसे बड़े देशों में से एक है. फिर भी इसके मरीज़ों की जानकारी दर्ज नहीं होने से मर्ज़ की शुरुआत में ही पहचान करने, इससे निपटने के नीतिगत क़दम उठाने और संसाधनों की योजना बनाने में दिक़्क़तें आ रही हैं

आंकड़ों की धुंध में छिपा है कैंसर का असली चेहरा! भारत कहां चूक रहा हैं?

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भारत में कैंसर, लोगों की सेहत के लिए एक भयंकर चुनौती बना हुआ है. इंडियन काउंसिल ऑफ मेडिकल रिसर्च के तहत आने वाले नेशनल कैंसर रजिस्ट्री प्रोग्राम (NCRP) के मुताबिक़, 2020 में भारत में कैंसर के 13.9 लाख मरीज़ थे, जिनकी तादाद बढ़कर इस साल 15.7 लाख पहुंच जाने की आशंका है. ये पूर्वानुमान NCRP के तहत कैंसर के मरीज़ों की जानकारी जुटाने वाली रजिस्ट्री के आंकड़ों पर आधारित हैंदेश भर में फैली कैंसर की ये रजिस्ट्रियां कैंसर के नए मामलों की जानकारी जुटाती हैं. शरीर के जिन अंगों में ये मर्ज़ ज़्यादा पाया जाता है, उनके आंकड़े जमा करती हैं. कैंसर के मरीज़ों का दर्जा और उनका मर्ज़ किस स्टेज में है, ये पता करती हैं. इनके आधार पर ये केंद्र कैंसर के मरीज़ों की बढ़ती तादाद, बीमारी के पैटर्न और कैंसर के शरीर के अंगों को प्रभावित करने की आशंका से जुड़ी जानकारियां देते हैं. हालांकि, एक बड़ी कमी इन कोशिशों पर भारी पड़ रही है. क्योंकि, भारत में आबादी पर आधारित कैंसर की रजिस्ट्री (PBCRs) की काफ़ी कमी है. इन केंद्रों के दायरे में केवल देश की 18 प्रतिशत आबादी आती है. जिससे देश के बड़े इलाक़ों पर इन रजिस्ट्रियों की नज़र नहीं है. ग्रामीण, आदिवासी और कम स्वास्थ्य सेवा वाले क्षेत्र ख़ास तौर से इस कमी का सामना कर रहे हैं.

 

देश में कैंसर के मरीज़ों की संख्या जुटाने के लिए NCRP ने 1981 में काम करना शुरू किया था. इसके लिए आबादी (PBCR) और अस्पताल पर आधारित (HBCR) तीन तीन रजिस्ट्रियों की स्थापना की गई थी. चार दशक बाद आज देश में आबादी पर आधारित 48 रजिस्ट्री काम कर रही हैं. इनमें से ज़्यादातर शहरी इलाक़ों में हैं और इनके दायरे में ग्रामीण इलाक़ों में रहने वाली केवल एक फ़ीसद आबादी आती है. वहीं देश में अस्पताल पर आधारित कैंसर की जानकारी जुटाने वाले केंद्रों की संख्या 324 है.

दुनिया भर में HPV के टीकाकरण और सर्विकल कैंसर की स्क्रीनिंग के लिए आबादी पर आधारित निगरानी बेहद आवश्यक मानी जाती है.

सभी तरह के कैंसर के मरीज़ों का रजिस्ट्रेशन बहुत अहम है; हालांकि, आबादी पर आधारित रजिस्ट्री को सबसे अच्छा मानक माना जाता है. क्योंकि इनके दायरे में तयशुदा भौगोलिक क्षेत्र आते हैं और ये केंद्र कैंसर के मरीज़ों की संख्या, मृत्यु दर और इससे जुड़े दूसरे ट्रेंड का आकलन करते हैं. ये सभी आंकड़े कैंसर का शुरुआत में ही पता लगाने और इसकी रोकथाम की राष्ट्रीय स्तर की रणनीति बनाने में बहुत कारगर होते हैं. वहीं दूसरी ओर, अस्पतालों में आने वाले कैंसर के मरीज़ों का रजिस्ट्रेशन करने वाले केंद्र (HCRB), कुछ चुनिंदा स्वास्थ्य केंद्रों पर मरीज़ों से जानकारी जुटाते हैं. ये आंकड़े स्वास्थ्य सेवा के उपलब्ध मूलभूत ढांचे और विशेष केंद्रों पर आधारित होते हैं और इनका इस्तेमाल अस्पताल की सेवाओं और मरीज़ों की देख-रेख सुधारने के लिए किया जा सकता है.

 

इन कैंसर रजिस्ट्रेशन केंद्रों- ख़ास तौर से PBCR के आंकड़े नेशनल प्रोग्राम फॉर प्रिवेंशन ऐंड कंट्रोल ऑफ कैंसर, डायबिटीज़, कार्डियोवैस्कुलर डिज़ीज ऐंड स्ट्रोक (NPCDCS) को मार्गदर्शन देते हैं. ये स्वास्थ्य मंत्रालय का ग़ैर संक्रामक बीमारियों की रोकथाम का एक प्रमुख कार्यक्रम है. मंत्रालय ने कैंसर की रजिस्ट्रियों को ओरल, ब्रेस्ट और सर्विकल कैंसर की स्क्रीनिंग के कार्यक्रमों से भी जोड़ दिया है. भारत में कैंसर के कुल मरीज़ों में से इन तीनों की हिस्सेदारी 34 फ़ीसद है.

 

अभी हाल ही में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय की सर्विकल कैंसर टास्क फोर्स ने आबादी पर आधारित कैंसर रजिस्ट्री के आंकड़ों का इस्तेमाल करके ही 2024 में अपने श्वेत पत्र में ह्यूमन पैपिलोमावायरस (HPV) की वैक्सीन पूरे देश में लगाने का सुझाव दिया था. दुनिया भर में HPV के टीकाकरण और सर्विकल कैंसर की स्क्रीनिंग के लिए आबादी पर आधारित निगरानी बेहद आवश्यक मानी जाती है. PBCR के आंकड़ों ने कैंसर के मामलों और ख़ास तरह के कैंसर का संबंध भारत में तंबाकू के बेहद अधिक इस्तेमाल से होने का पता लगाने में मदद की थी. इसके बाद ही 2003 के सिगरेट ऐंड अदर टोबैको प्रोडक्ट्स एक्ट (COTPA) के तहत तंबाकू निषेध के कई क़दम उठाए गए थे. इनमें सिगरेट के पैकेटों पर सचित्र चेतावनी लिखना, फिल्मों और टीवी सीरियल्स में स्क्रीन पर वैधानिक चेतावनी देना, सिनेमा हॉल में इसके विज्ञापन दिखाना और तंबाकू की लत छोड़ने में मदद के लिए देशव्यापी टोलफ्री फोन लाइन शुरू करना और -सिगरेट पर पाबंदी लगाने जैसे क़दम शामिल हैं. COTPA क़ानून का दायरा बढ़ाकर इसमें बीड़ी, हुक्का, चबाने वाली तंबाकू, गुटका और पान मसाला को भी शामिल किया गया था और उसकी वजह से ही कई राज्यों में गुटके पर पाबंदी भी लगाई गई थी.

 

भारत में कैंसर की जानकारी देना अनिवार्य नहीं 

कैंसर के मामलों की निगरानी की एक बड़ी चुनौती ये है कि इस बीमारी की जानकारी देना भारत में अनिवार्य नहीं है. लंबे समय से ये मांग उठ रही है कि बीमारी की ख़बर देना अनिवार्य बनाया जाए, जिससे आबादी पर आधारित निगरानी की कवरेज की सख़्त ज़रूरत पूरी हो सके. हालांकि, 2024 में जब राष्ट्रीय मानवाधिकार आयोग में कैंसर की बीमारी की ख़बर करना अनिवार्य बनाने की मांग को लेकर एक मामला दर्ज किया गया था, तो स्वास्थ्य और परिवार कल्याण मंत्रालय ने कहा था कि कैंसर एक ग़ैर संक्रामक बीमारी है, संक्रामक नहीं. मंत्रालय ने कहा था कि, ‘ये एक इंसान से दूसरे इंसान में नहीं फैलती और ही समुदाय के बीच इसका संक्रमण फैलता है. मौजूदा हालात में इसकी जानकारी देना अनिवार्य नहीं बनाया जा सकता है.’

 

एक देशव्यापी क़ानूनी बाध्यता का आदेश तो नहीं है. लेकिन, कम से कम 15 राज्य ऐसे हैं जिन्होंने कैंसर के मर्ज़ की ख़बर देना अनिवार्य बना दिया है. इसके बावजूद, देश की बड़ी आबादी वाले कुछ प्रमुख राज्य जैसे कि महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश और बिहार इन राज्यों में नहीं आते हैं. कैंसर की अनिवार्य रूप से जानकारी देने के लिए आंकड़ों और पहचान के संरक्षण की मज़बूत व्यवस्था की आवश्यकता है. कई राज्यों में इनकी कमी देखी गई है. इसके अलावा, राज्यों को कैंसर के मामले दर्ज करने वाली रजिस्ट्री के कर्मचारियों को एक जैसी ट्रेनिंग देने, पर्याप्त मूलभूत ढांचा उपलब्ध कराने और स्वास्थ्य संस्थाओं में आपस में जुड़ी हुई व्यवस्था बनाने की ज़रूरत है, तभी कैंसर के मरीज़ों की सटीक जानकारी मिल सकेगी. ऐसी पहल करने से शहरों और ग्रामीण क्षेत्रों के बीच इस मर्ज़ के रजिस्ट्रेशन की कमी को दूर किया जा सकता है और कैंसर पर नियंत्रण की लक्ष्य आधारित योजनाओं के लिए बजट आवंटन बढ़ाने की मांग को मज़बूती दी जा सकती है.

 स्टडी के दौरान एक करोड़ 70 लाख लोगों को कवर करने वाले मुंबई के PBCR ने प्रति व्यक्ति केवल 0.01 डॉलर की लागत दिखाई थी. अभी हाल के वर्षों यानी 2019 में सहारा क्षेत्र के देशों की एक स्टडी में भी ये पाया गया था कि आबादी पर आधारित रजिस्ट्री में प्रति व्यक्ति लागत 0.01 से लेकर 0.17 डॉलर प्रति व्यक्ति आ रही थी.

कैंसर की रजिस्ट्री को चलाने और इसके रख-रखाव की ज़रूरतें पूरी करने के लिए लगातार फंडिंग भी एक अहम पहलू है. निम्न और औसत आमदनी वाले देशों (LMICs) में जिन रजिस्ट्रियों के दायरे में आबादी का बड़ा हिस्सा आता है, उनमें प्रति व्यक्ति लागत बहुत कम आती है. वैसे तो ये 2016 के एक अध्ययन पर आधारित है. लेकिन, स्टडी के दौरान एक करोड़ 70 लाख लोगों को कवर करने वाले मुंबई के PBCR ने प्रति व्यक्ति केवल 0.01 डॉलर की लागत दिखाई थी. अभी हाल के वर्षों यानी 2019 में सहारा क्षेत्र के देशों की एक स्टडी में भी ये पाया गया था कि आबादी पर आधारित रजिस्ट्री में प्रति व्यक्ति लागत 0.01 से लेकर 0.17 डॉलर प्रति व्यक्ति रही थी.

 

वैश्विक दृष्टिकोण

कैंसर के रजिस्ट्रेशन का कोई भी आदर्श कार्यक्रम, तयशुदा आबादी के भीतर 100 प्रतिशत मरीज़ों का कवरेज सुनिश्चित करता है. हालांकि, इंटरनेशनल एजेंसी फॉर रिसर्च ऑन कैंसर (IARC) द्वारा 2021 में प्रकाशित किए गए कैंसर इन्सिडेंस इन फाइव कॉन्टिनेंट्स (CI5) के छठवें भाग के मुताबिक़ इसका वैश्विक औसत महज़ 15 फ़ीसद है. कैंसर रजिस्ट्रेशन का कवरेज अलग अलग इलाक़ों में अलग है. अफ्रीका में ये एक प्रतिशत है, मध्य और दक्षिणी अमेरिका में 8 फ़ीसद और उत्तरी अमेरिका में 98 प्रतिशत तो, एशिया में 7, यूरोप में 46 और ओशानिया में 77 प्रतिशत कवरेज है.

 

अपने दो अहम रजिस्ट्रेशन कार्यक्रमों के ज़रिए अमेरिका अपनी कुल आबादी के बीच कैंसर के लगभग सभी मामले दर्ज करता है. 2018 के एक अध्ययन के मुताबिक़ अमेरिका के नेशनल प्रोग्राम ऑन कैंसर रजिस्ट्रीज़ (NPCR) के तहत उसकी लगभग 96 प्रतिशत आबादी जाती है. वहीं, 2022 के आंकड़ों के अनुसार सर्विलांस, एपिडेमिओलॉजी ऐंड एन्ड रिज़ल्ट्स (SEER) कार्यक्रम आबादी के लगभग 45.9 फ़ीसद हिस्से को कवरेज देता है. 2024 के एक लेख में बताया गया था कि ब्रिटेन, ऑस्ट्रेलिया और दक्षिण कोरिया जैसे उच्च आमदनी वाले देशों में कैंसर के मामले दर्ज करने के लिए क़रीब क़रीब 100 प्रतिशत आबादी को कवरेज मिलता है

 

2024 के एक लेख के अनुसार, चीन में कैंसर के मामले दर्ज करने के प्रयासों के दायरे में अब लगभग 40 प्रतिशत आबादी गई है, जो काफ़ी सुधार को दर्शाता है. नेपाल में अभी आबादी पर आधारित कैंसर रजिस्ट्रेशन की व्यवस्था का निर्माण ही हो रहा है. वहीं, बांग्लादेश में अभी भी ऐसी कोई व्यवस्था नहीं है. अपने यहां कैंसर के मरीज़ों के रजिस्ट्रेशन के मामले में अफ्रीका के कई देश अभी भी क्षमता के मामले में चुनौतियों का सामना कर रहे हैं. जबकि, सीमित संसाधनों के बावजूद थाईलैंड और ब्राज़ील जैसे देशों ने इस मामले में काफ़ी प्रगति की है.

 

IARC ने 2011 में ग्लोबल इनिशिएटिव फॉर कैंसर रजिस्ट्री डेवलपमेंट (GICR) की शुरुआत की थी. इस कार्यक्रम ने निम्न और मध्यम आमदनी वाले तमाम देशों में तो ख़ास तौर से कैंसर की निगरानी की क्षमताओं के विकास, इससे जुड़े कर्मचारियों के ट्रेनिंग मॉड्यूल बनाने में काफ़ी अहम भूमिका निभाई है. मुंबई में 2012 से ही इसका दक्षिणी, पूर्वी और दक्षिणी पूर्वी एशिया का केंद्र कार्यरत है और ये केंद्र भारत के साथ साथ पड़ोसी देशों के कैंसर रजिस्ट्री केंद्रों को मार्गदर्शन और प्रशिक्षण देने का काम करता है. इन साझेदारियों के बावजूद, जानकारी साझा करने के अवसर और इस इलाक़े में भारत की अग्रणी भूमिका के विकास को देखते हुए यहां आबादी पर आधारित निगरानी की प्रक्रिया सुस्त रही है.

 

आगे की राह

भारत को चाहिए कि वो मौजूदा संस्थागत क्षमता को और बढ़ाए, उपलब्ध अंतरराष्ट्रीय विशेषज्ञता और डिजिटल इकोसिस्टम की मदद से कैंसर की निगरानी की अपनी व्यवस्था को सुधारकर इसका विकास करे. अभी विकसित हो रहे आयुष्मान भारत डिजिटल मिशन के तहत आयुष्मान भारत हेल्थ एकाउंट (ABHA) से जुड़े रजिस्ट्रेशन केंद्रों की स्थापना करना सही दिशा में उठाया गया क़दम हो सकता है, जिससे वास्तविक समय में आंकड़े मिल सकेंगे और उनके दोहराव से बचा जा सकेगा.

 

आबादी पर आधारित (PBCRs) और अस्पताल पर आधारित (HBCRs) रजिस्ट्रेशन केंद्र एक दूसरे के पूरक हैं. अस्पताल के आंकड़े अक्सर आबादी पर आधारित व्यवस्था के आंकड़ों को ही दोहराते हैं. इसके बावजूद अस्पतालों और ख़ास तौर से प्राइवेट हॉस्पिटल्स की संपूर्ण और विश्वसनीय भागीदारी अभी भी एक चुनौती बनी हुई है. इसकी वजह कैंसर के मरीज़ों की सूचना देने की अनिवार्यता का आदेश होना, आंकड़े साझा करने में अनिच्छा, गोपनीयता को लेकर चिंताएं और कैंसर के आंकड़े देने की मानक डिजिटल व्यवस्था का अभाव है. इस कमी को पूरा करने के लिए भारत नेशनल कैंसर ग्रिड (NCG) का लाभ उठा सकता है. ये निजी और सार्वजनिक क्षेत्र की साझेदारी वाली मौजूदा व्यवस्था है, जिसमें क़रीब 360 कैंसर केंद्र और रिसर्च संस्थान शामिल हैं. वैसे तो NCG का मुख्य मक़सद कैंसर के इलाज, जांच पड़ताल के प्रोटोकॉल और प्रशिक्षण के मानक तैयार करना है. लेकिन, इसके पास भी कैंसर के मर्ज़ के स्वरूपों की जानकारी और रजिस्ट्रेशन केंद्रों और बीमारी के अध्ययन से जुड़े आंकड़ों का अभाव है. NCG का नेटवर्क सालाना देश के लगभग 60 प्रतिशत कैंसर के नए मामलों का इलाज करता है और अब ये डिजिटल टूल्स और डेटा पर आधारित योजनाओं के ज़रिए कैंसर के इलाज को बेहतर बनाने का प्रयास कर रहा है. NCG औऱ NCRP के कैंसर रजिस्ट्रेशन के प्रयासों को एक दूसरे से जोड़ दिया जाए, तो आबादी पर आधारित कैंसर निगरानी की मौजूदा व्यवस्था को और मज़बूत बनाकर उसे विस्तार दिया जा सकता है.

 भारत को चाहिए कि वो आबादी पर आधारित कैंसर की निगरानी की मौजूदा व्यवस्था को सुधारे और नियमित फंडिंग, डिजिटल तकनीक और AI के इस्तेमाल के साथ साथ और मरीज़ों की जानकारी देने में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाकर से उसका विस्तार करे.

इसके अलावा, नेशनल कैंसर ग्रिड आर्टिफ़िशियल इंटेलिजेंस के औज़ारों का इस्तेमाल करके सेहत के आंकड़ों का डिजिटलीकरण कर रहा है. AI से चलने वाले नेचुरल लैंग्वेज प्रॉसेसिंग (NLP) टूल्स इधर उधर बिखरे जांच के नतीजों को जमा करके ज़रूरी जानकारी हासिल करते हैं और कैंसर रजिस्ट्रेशन व्यवस्था को कुशल बनाने में काफ़ी योगदान देते हैं. इन तौर-तरीक़ों का इस्तेमाल नई पीढ़ी के कैंसर रजिस्ट्रेशन केंद्र बनाने में किया जा सकता है.


कैंसर के मरीज़ों के मामले में चीन और अमेरिका के बाद भारत तीसरे नंबर पर आता है; इस बीमारी से मौत के मामले में चीन के बाद भारत का दूसरा नंबर है. 2022 के आंकड़े के मुताबिक़ भारत में कैंसर से नौ लाख से ज़्यादा मौतें हुई थीं. जैसे-जैसे रहन सहन से जुड़ी बीमारियों और जलवायु परिवर्तन की वजह से सेहत पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों में तेज़ी रही है और कैंसर का चलन बजल रहा है, तो आधे अधूरे या फिर अस्पष्ट आंकड़ों पर निर्भरता घातक हो सकती है. इसीलिए, भारत को चाहिए कि वो आबादी पर आधारित कैंसर की निगरानी की मौजूदा व्यवस्था को सुधारे और नियमित फंडिंग, डिजिटल तकनीक और AI के इस्तेमाल के साथ साथ और मरीज़ों की जानकारी देने में निजी क्षेत्र की भागीदारी बढ़ाकर से उसका विस्तार करे. भविष्य में कैंसर के संकट से बचने के लिए निगरानी की व्यवस्था को आज मज़बूत बनाने की ज़रूरत है.

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