कनाडाई प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के सितारे इन दिनों गर्दिश में चल रहे हैं और आने वाले वक्त में भी उन्हें कोई राहत मिलती नहीं दिख रही है. विश्व की एक उभरती शक्ति यानी भारत के साथ रिश्ते बिगाड़ने पर आमादा जस्टिन ट्रूडो की बीते दिनों कनाडाई संसद में एक नाजी को सम्मानित करने पर दुनिया भर में फजीहत हुई. इस घटनाक्रम के बाद घरेलू राजनीतिक परिदृश्य उनके लिए फिसलन भरा साबित हो रहा है. उनकी लोकप्रियता में निरंतर गिरावट का सिलसिला बना हुआ है और आसार नहीं दिखते कि हाल-फिलहाल स्थिति में कोई सुधार होगा. इसके उलट उनके मुख्य प्रतिद्वंद्वी कंजरवेटिव नेता पिइरे पोलिविरे की लोकप्रियता का ग्राफ लगातार ऊपर चढ़ रहा है. हालिया सर्वे में वह 40 प्रतिशत कनाडाइयों की प्रधानमंत्री के रूप में पहली पसंद के तौर पर उभरे हैं. पोलिविरे की स्थिति में पिछले साल की तुलना में जहां पांच प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है वहीं जस्टिन ट्रूडो की लोकप्रियता गत वर्ष 31 प्रतिशत के स्तर पर जस की तस बनी हुई है.
हालिया सर्वे में वह 40 प्रतिशत कनाडाइयों की प्रधानमंत्री के रूप में पहली पसंद के तौर पर उभरे हैं. पोलिविरे की स्थिति में पिछले साल की तुलना में जहां पांच प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है वहीं जस्टिन ट्रूडो की लोकप्रियता गत वर्ष 31 प्रतिशत के स्तर पर जस की तस बनी हुई है.
अदूरदर्शी विदेश नीति के संवाहक ट्रूडो
ऐसा प्रतीत होता है कि कनाडा जिस दिशा में जा रहा है, उसे लेकर वहां भारी असंतोष है, क्योंकि आर्थिक हितों पर घरेलू राजनीतिक एजेंडा हावी है. इस दिशाहीन स्थिति को संभालने में ट्रूडो अक्षम दिखाई पड़ रहे हैं. ऐसे मुश्किल समय में अपनी स्थिति सुधारने के लिए नेता आम तौर पर विदेश नीति का सहारा लेते हैं, लेकिन ट्रूडो इस मोर्चे पर ही मात खा रहे हैं. पहले भारत के साथ अनावश्यक तनातनी और फिर अपनी संसद में एक नाजी के सम्मान पर वह दुनिया के निशाने पर आ गए. इस मामले में कनाडाई संसद के स्पीकर ने भले ही इस्तीफा दे दिया हो और ट्रूडो ने भी माफी मांग कर मामले को रफा-दफा करने की कोशिश हो, लेकिन इस प्रकरण का पटाक्षेप इतनी आसानी से होता नहीं दिखता.
ट्रूडो ने यह माफी भी भारी आक्रोश के चलते मांगी है, क्योंकि नाजी यारोस्लाव हुनका के सम्मान से कनाडा में राजनीतिक एवं सामाजिक बखेड़ा खड़ा हो गया. वैसे भी यह मामला केवल कनाडा तक ही सीमित नहीं रहने वाला. रूस ने भी इस मामले में कनाडा को आईना दिखाने में देर नहीं की, क्योंकि नाजी हुनका की जड़ें यूक्रेन से जुड़ी हैं और कनाडा की संसद में यह पूरा घटनाक्रम राष्ट्रपति जेलेंस्की की मौजूदगी में घटित हुआ. पोलैंड भी इस मामले में कनाडा से माफी मांगने की मांग कर रहा है. इस मामले की तपिश झेल रहे ट्रूडो के लिए भारत के साथ संबंधों को लेकर भी मुश्किलें बढ़ी हुई हैं. खालिस्तानी आतंकी हरदीप सिंह निज्जर की हत्या के पीछे भारत का नाम लेकर जस्टिन ट्रूडो ने न केवल कनाडा, बल्कि समूचे पश्चिम जगत को उलझा दिया है.
पहले भारत के साथ अनावश्यक तनातनी और फिर अपनी संसद में एक नाजी के सम्मान पर वह दुनिया के निशाने पर आ गए. इस मामले में कनाडाई संसद के स्पीकर ने भले ही इस्तीफा दे दिया हो और ट्रूडो ने भी माफी मांग कर मामले को रफा-दफा करने की कोशिश हो, लेकिन इस प्रकरण का पटाक्षेप इतनी आसानी से होता नहीं दिखता.
पश्चिमी देश इसे कैसे देखते हैं
निज्जर हत्याकांड में भारत के विरुद्ध लगाए कनाडाई प्रधानमंत्री के आरोपों के पीछे पश्चिम में एक तबका इसे गैरजिम्मेदाराना नेतृत्व और निरर्थक बयानबाजी के रूप में देखने के साथ ही इसमें चीन के बढ़ते हस्तक्षेप का कोण भी देख रहा है. भारत ने कनाडा के आरोपों को स्पष्ट रूप से राजनीति से प्रेरित बताते हुए उन्हें सिरे से खारिज किया है. संयुक्त राष्ट्र महासभा में विदेश मंत्री एस. जयशंकर ने दोटूक लहजे में कहा भी कि आतंकवाद, अलगाववाद और हिंसा को लेकर राजनीतिक सुविधावादी नजरिया नहीं अपनाया जाना चाहिए. उन्होंने कहा कि देशों की क्षेत्रीय अखंडता का सम्मान और आंतरिक मामलों में दखलंदाजी का मामला अपनी सहूलियत के हिसाब से नहीं तय हो सकता. इसके बाद उन्होंने यह भी कहा कि वहां (कनाडा में) किस तरह अलगाववादियों और गैंगस्टरों को संरक्षण दिया जा रहा है.
हरदीप सिंह निज्जर मामले ने भारत को एक बड़ा अवसर प्रदान किया है कि वह अलगाववाद और आतंकवाद को लेकर कनाडा के संदिग्ध रवैये को पूरी दुनिया के सामने उजागर करे. भारत पिछली सदी के नौवें दशक से ही कनाडा के उस पाखंडपूर्ण रवैये का भुक्तभोगी रहा है, जिसमें कनाडा कथित मानवाधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अपने यहां आतंक को शह देता आ रहा है. जहां भारत पंजाब में अपनी आंतरिक सुरक्षा की स्थिति को नियंत्रित करने में सफल रहा, वहीं कनाडा अपने यहां पनप रहे अतिवाद पर अंकुश लगाने में असफल रहा. अब वह भारत की सीमाओं से परे एक बड़े खतरे के रूप में उभर रहा है. भारत द्वारा बार-बार इस दिशा में अपेक्षित कदम उठाने के अनुरोध के बावजूद कनाडा इस मुद्दे पर आंखें मूंदे बैठा हुआ है. जस्टिन ट्रूडो द्वारा इस खतरे की अनदेखी से ही वर्तमान दुर्दशा हुई है.
भारत पिछली सदी के नौवें दशक से ही कनाडा के उस पाखंडपूर्ण रवैये का भुक्तभोगी रहा है, जिसमें कनाडा कथित मानवाधिकारों और अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर अपने यहां आतंक को शह देता आ रहा है.
जब अमेरिका दूसरे देशों में अपने दुश्मनों को ठिकाने लगता है तो ट्रूडो को कोई आपत्ति नहीं होती, लेकिन जब भारत की शिकायतों की बात आती है तो न केवल उन्हें अनदेखा किया जाता है, बल्कि भारत की संप्रभुता को मिलने वाली चुनौतियों का घरेलू स्तर पर राजनीतिक लाभ भी उठाया जाता है. ट्रूडो के आरोपों पर नई दिल्ली की प्रतिक्रिया यही दर्शाती है कि उसे यह रवैया बर्दाश्त नहीं और कनाडा या कहीं से भी उत्पन्न ऐसी चुनौतियों का कड़ा जवाब दिया जाएगा. यही कारण है कि भारत के मामले में कनाडा के आरोपों को लेकर उसके निकट सहयोगी भी पूरी सतर्कता बरत रहे हैं. कनाडा के चुनावों में चीनी हस्तक्षेप से जुड़े आरोपों को लेकर ट्रूडो का सतर्क रवैया और भारत को निशाना बनाने में उनकी तत्परता देखना भी कम दिलचस्प नहीं. इस पूरे प्रकरण में भारत और व्यापक वैश्विक बिरादरी के लिए बहुत कुछ दांव पर लगा हुआ है.
जस्टिन ट्रूडो की चुनौतियाँ
भले ही जस्टिन ट्रूडो अब यह राग अलाप रहे हों कि भारत एक उभरती हुई अर्थव्यवस्था और वैश्विक मंच पर बड़ी ताकत है, जिससे अच्छे और करीबी रिश्ते बनाए रखना महत्वपूर्ण है, लेकिन इस सच्चाई को भी नहीं झुठलाया जा सकता कि उन्होंने भारत-कनाडा रिश्तों को अविश्वास की ऐसी गहरी खाई में धकेल दिया है, जिसका जल्द भरा जाना संभव नहीं लगता. हालांकि बतौर प्रधानमंत्री जस्टिन ट्रूडो के लिए केवल भारत के मोर्चे ने ही मुश्किलें नहीं बढ़ाई हुई हैं. बीता एक हफ्ता इसका गवाह है कि वह एक के बाद एक मुश्किलों की भंवर में फंसते जा रहे हैं. उन्हें उससे उबरने की कोई राह भी नहीं सूझ रही.
यह लेख दैनिक जागरण में प्रकाशित हो चुका है.
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