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Published on Aug 29, 2024 Updated 0 Hours ago

ख़ुदरा निवेशकों से जुड़े हालिया आंकड़े उभरते भारत की दास्तान के कई पहलुओं पर रोशनी डालते हैं. इससे भारतीय बाज़ारों के दुनिया भर के परिवारों का घर बनने का माहौल तैयार हो रहा है.

वसुधैव कुटुंबकम: वैश्विक निवेशकों के लिये भारत की व्यापक रणनीति का एक स्तंभ?

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तीन आंकड़े हमें बताते हैं कि किस तरह भारतीय निवेशक अपने आप में एक राजनीतिक वर्ग बन रहे हैं और भारत दुनिया भर के लोगों के लिए एक वित्तीय अवसर बनता जा रहा है. ये आंकड़े एक ऐसा नेक चक्र भी बनाते हैं जिसके अंतर्गत भारत के शेयर बाज़ारों का दुनिया के फ़ायदे के लिए इस्तेमाल करके उनको देश की व्यापक रणनीति में योगदान देने वाला बनाया जाना चाहिए, जिससे आख़िर में भारत के विकास की गाथा को ही ताक़त मिलेगी.

 

पहला आंकड़ा निवेशकों की संख्या का है. नेशनल स्टॉक एक्सचेंज (NSE) के मुताबिक़ भारत के शेयर बाज़ारों में 10 करोड़ से ज़्यादा रजिस्टर्ड और अनूठे निवेशक हैं, जो वियतनाम की कुल आबादी के लगभग बराबर ही है. आज भारत की 70 प्रतिशत जनता (98 करोड़ नागरिक) 18 साल या उससे ज़्यादा उम्र के ही हैं. ऐसे में हर दस में से एक व्यक्ति (सभी वयस्कों का 10.2 प्रतिशत) शेयर बाज़ार का निवेशक है. हालांकि, अभी भी भारत में शेयर बाज़ार के निवेशकों की संख्या जापान या जर्मनी के 15 प्रतिशत; ब्रिटेन के 23 फ़ीसद और अमेरिका के 62 प्रतिशत के आंकड़े से कम ही है. विकसित होती अर्थव्यवस्था के साथ जैसे जैसे समृद्धि बढ़ रही है, वैसे वैसे भारत में निवेशकों की संख्या में भी बढ़ोतरी होगी.

भारत के शेयर बाज़ारों में भाग लेकर निवेशकों की जो आकांक्षाएं बढ़ी हैं, वो आज बाज़ार को नई नई ऊंचाइयों पर पहुंचा रही हैं. भारत के शेयर बाज़ारों के लिए उड़ान भरने का सबब अब विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (FPI) के बजाय SIP हो गई हैं.

दूसरा आंकड़ा विशालता से जुड़ा है. बॉम्बे स्टॉक एक्सचेंज (BSE) में लिस्टेड कंपनियों की मार्केट कैपिटल 5.5 ट्रिलियन डॉलर के क़रीब है, जो अमेरिका के 50 ट्रिलियन, चीन के 10 ट्रिलियन और जापान के 6 ट्रिलियन डॉलर के बाद दुनिया में चौथा सबसे बड़ा आंकड़ा है. BSE में 5300 से ज़्यादा कंपनियां सूचीबद्ध हैं, और नेशनल स्टॉक एक्सचेंज में दर्ज कंपनियों की संख्या 2300 से अधिक है. आज की तारीख़ में दुनिया के वित्तीय बाज़ार पर नज़र रखने वालों के होमपेज पर अगर भारत के बाज़ारों के आंकड़े नहीं हैं, तो इसकी वजह ईमानदार चूक नहीं, बल्कि वैचारिक नज़रिए से किया गया चुनाव है.

 

और, तीसरा आंकड़ा परिवारों के लिए उभरते भारत की गाथा का हिस्सा बनने का रास्ता आसान होने से जुड़ा है. संस्थागत निवेश की योजनाओं (SIP) के ज़रिए छोटे भारतीय निवेशक न केवल अपने लिए संपत्ति का निर्माण कर रहे हैं, बल्कि वो घरेलू बचत को निवेश में तब्दील करके प्रगति का एक अच्छा चक्र भी बना रहे हैं. पिछले सात वर्षों के दौरान भारत में सिस्टमैटिक इन्वेस्टमेंट प्लान (SIP) के ज़रिए निवेश की रक़म, सालाना 24 प्रतिशत की दर से बढ़ते हुए दो लाख करोड़ रुपए पहुंच गई, और ये सालाना विकास दर के मामले में सेंसेक्स को हर साल लगभग 10 प्रतिशत की दर से पीछे छोड़ रही है.

 

निवेश की बढ़ती मात्रा 

 

भारत के शेयर बाज़ारों में भाग लेकर निवेशकों की जो आकांक्षाएं बढ़ी हैं, वो आज बाज़ार को नई नई ऊंचाइयों पर पहुंचा रही हैं. भारत के शेयर बाज़ारों के लिए उड़ान भरने का सबब अब विदेशी पोर्टफोलियो निवेशकों (FPI) के बजाय SIP हो गई हैं. इसका नतीजा ये हुआ है कि कंपनियों की आमदनी से ज़्यादा उनका बाज़ार मूल्य हो गया है. क़ीमत की तुलना में आमदनी का अनुपात 23.6 हो गया है और इस लिहाज़ से सेंसेक्स मूल्यांकन के मामले में अपने इतिहास के उच्चतम स्तर तक जा पहुंचा है. इसकी एक वजह तेज़ी से आगे बढ़ती अर्थव्यवस्था हो सकती है. दूसरी वजह SIP हो सकती है. दोनों मिलकर निवेशकों के रिटर्न में चक्रवृद्धि की दर से इज़ाफ़ा कर रहे हैं.

 

पिछले 25 सालों के दौरान बीएसई सेंसेक्स हर साल 11.9 प्रतिशत की दर से आगे बढ़ा है. वहीं, निफ्टी की विकास दर 12.1 प्रतिशत सालाना रही है. 1999 मे सेंसेक्स और निफ्टी में किया गया एक लाख रुपए का निवेश आज 16.6 लाख औऱ 17.4 लाख रुपए हो गया है. दोनों ही ने ‘फिक्स’ और ‘सुरक्षित’ रिटर्न को भारी अंतर से मात दे दी है.

 

सच तो ये है कि बैंकों की शाखाओं में फैली सड़न के बावजूद रिज़र्व बैंक का शेयर बाज़ार के ऊंचे रिटर्न पर रोना और परिवारों को कम रिटर्न वाले फिक्स्ड डिपॉजिट की तरफ़ वापस खींचना, निवेशकों के बदलते व्यवहार से क़तई मेल नहीं खाता है. पिछले दो दशकों के दौरान, बैंकों के फिक्स्ड डिपॉज़िट की ब्याज़ दरें 1999 के 10 से 10.5 प्रतिशत से घटकर 2020-21 में 5.05 से 5.35 प्रतिशत के बीच रह गई हैं; इस वक़्त फिक्स डिपॉज़िट की ब्याज दरें 7 से 7.25 प्रतिशत के इर्द गिर्द घूम रही हैं. निवेशकों द्वारा ज़्यादा जोखिमों वाले निवेशों की तरफ़ रुख़ करने से ये पता चलता है कि आज वो महंगाई की मार से बचने के लिए घाटे का ख़तरा मोल लेने के लिए तैयार हैं. इस वक़्त महंगाई की दर 3.5 प्रतिशत है. लेकिन, 2010 में महंगाई की दर 11.9 प्रतिशत, 1998 में 13.23 फ़ीसद और 1974 में 28.6 प्रतिशत तक जा पहुंची थी.

 

राजनीतिक रूप से 10 करोड़ निवेशकों की सामूहिक ताक़त 67 लोकसभा सीटों के बराबर है. ये निवेशक पूरे देश में बिखरे हुए हैं. इन निवेशकों में सात राज्यों- महाराष्ट्र, उत्तर प्रदेश, गुजरात, राजस्थान, पश्चिम बंगाल, कर्नाटक, मध्य प्रदेश और तमिलनाडु की हिस्सेदारी लगभग दो तिहाई (64.6 प्रतिशत) है. आज जब समृद्धि में इज़ाफ़ा हो रहा है, तो आने वाले समय में निवेशक एक मज़बूत तबक़ा बन जाएंगे. भारत की राजनीति को इस बात को समझना चाहिए और इस बदलाव के हिसाब से तैयारी करनी चाहिए.

 

शेयर बाज़ार में निवेश 

 

बाज़ार में निवेशकों का यक़ीन पैदा होने में समय लगया है. पूंजी बाज़ार के विनियामक सिक्योरिटीज़ एंड एक्सचेंज बोर्ड ऑफ इंडिया (SEBI) 1992 में एक वैधानिक संस्था बनी थी. उसके बाद से विनियमन का जो ढांचा घोटालों के शोर के बीच बनना शुरू हुआ था, उसने निवेशकों के विश्वास को मज़बूत किया है. आज शेयरों या सूचकांकों की क़ीमतों में उतार चढ़ाव को देखकर निवेशकों को बाज़ार में इन्वेस्ट करने के जोखिमों का अंदाज़ा है. उनकी SIP हमें ये बता रही हैं कि वो निवेश से बेहतर रिटर्न के लिए घाटे का जोखिम उठाने के लिए भी तैयार हैं. शर्त बस ये है कि घोटालों के जोखिम पर क़ाबू बना रहे.

 

10 करोड़ निवेशकों की संख्या तक पहुंचने में वक़्त लगा है. भारत के शेयर बाज़ार में पहले एक करोड़ निवेशक पहुंचने में 14 साल लगे थे. अगले एक करोड़ सिर्फ़ सात वर्षों में जुड़ गए. 2021 में जब भारत के स्टॉक मार्केट में निवेशकों की संख्या चार करोड़ पहुंची, तो ये मकाम हासिल करने में 25 बरस लग गए थे. इन दस करोड़ निवेशकों की औसत उम्र 32 साल है; इनमें से 40 फ़ीसद तो तीस साल से कम उम्र के हैं. पांच साल पहले निवेशकों की औसत आयु 38 बरस थी.

पता चलता है कि भारत के शेयर बाज़ारों का ‘युवाकरण’ हो रहा है. आख़िरी एक करोड़ निवेशक पिछले पांच महीनों के दौरान शेयर बाज़ार में दाख़िल हुए हैं. 

इससे पता चलता है कि भारत के शेयर बाज़ारों का ‘युवाकरण’ हो रहा है. आख़िरी एक करोड़ निवेशक पिछले पांच महीनों के दौरान शेयर बाज़ार में दाख़िल हुए हैं. इससे आने वाले समय की आकांक्षाओं के बने रहने का पता चलता है. पिछले पांच महीनों के दौरान सेंसेक्स 8 प्रतिशत बढ़ चुका है; पिछले 12 महीनों में सेंसेक्स में 36 प्रतिशत का उछाल आ चुका है और पिछले चार वर्षों में ये दोगुने से अधिक बढ़ चुका है.

 

शेयर बाज़ार इसमें रजिस्टर्ड कंपनियों के मज़बूत आधार का भी संकेत देता है. कम अवधि में तो इन आंकड़ों की भविष्यवाणी नहीं की जा सकती है. लेकिन, लंबी अवधि की बात करें, तो इन कंपनियों से अर्थव्यवस्था की सेहत का पता चलता है. वहीं, अर्थव्यवस्था देश की कंपनियों के दम पर आगे बढ़ती है. इनमें से बेहतरीन कंपनियां ही शेयर बाज़ार में लिस्ट होती हैं. अगर वो सब मिलकर अच्छा प्रदर्शन करती हैं, तो इससे न केवल रोज़गार, अवसर और संपत्ति पैदा होती हैं, बल्कि ये कंपनियां देश विदेश के निवेशकों के लिए एक ज़्यादा समावेशी मंच भी बनती हैं. ऐसे में ये ज़रूरी है कि स्थिर और बढ़ते हुए शेयर बाज़ार देश के अहम राष्ट्रीय लक्ष्यों और भारत की विशाल रणनीति में एक आर्थिक स्तंभ के तौर पर भी शामिल की जाएं.

 

भारत के शेयर बाज़ार और उनको ताक़त देने वाली कंपनियों का लाभ न केवल भारत के ख़ुदरा निवेशकों के लिए संपत्ति के निर्माण के लिए किया जाना चाहिए; बल्कि, इन दोनों को दुनिया भर के आकांक्षी ख़ुदरा निवेशकों का ठिकाना बनना चाहिए. एक तरह से देखें, तो ये काम चल भी रहा है. मारुति सुज़ुकी इंडिया का मार्केट कैपिटलाइज़ेशन 45 अरब डॉलर के आस-पास है, जो उसकी मालिक जापानी कंपनी सुज़ुकी मोटर कॉर्प से दोगुना है, जिसका जापान के शेयर बाज़ार में मूल्य 23 अरब डॉलर के आस-पास है. यूनिलीवर पीएलसी का बाज़ार मूल्य 152 अरब डॉलर है, जबकि उसकी भारतीय शाखा हिंदुस्तान यूनिलीवर का बाज़ार मूल्य 77 अरब डॉलर है. ह्युंडै इंडिया का आने वाला इनिशियल पब्लिक ऑफर (IPO) का मूल्य 30 अरब डॉलर के आस-पास आंका जा रहा है और इस IPO के ज़रिए कंपनी द्वारा 2.5 अरब डॉलर की रक़म जुटाने की उम्मीद है. ये आंकड़े ह्युंडै भारत की मालिकाना दक्षिण कोरियाई कंपनी ह्युंडै मोटर के 48 अरब डॉलर के बाज़ार मूल्य के 60 फ़ीसद के बराबर है.

 

हालांकि, भारत के शेयर बाज़ारों को केवल कारोबारियों के बीच रिश्तों को ही नहीं आगे बढ़ाना चाहिए. नीतिगत माहौल को इस तरह बेहतर किया जाना चाहिए, जिससे अंतरराष्ट्रीय बचत को भारत में निवेश करने की राह आसान बनाई जा सके. इसका मतलब है कि अमेरिका, यूरोपीय संघ और जापान के परिवारों को अपनी बचत भारत में निवेश करने के लिए आकर्षित करने की क्षमता विकसित की जानी चाहिए. चूंकि अगले दो दशकों के दौरान भारत की औसत विकास दर 8.5 प्रतिशत सालाना रहने की उम्मीद है. ऐसे में दुनिया के बड़े स्टॉक मार्केट की तुलना में भारत के शेयर बाज़ारों का प्रदर्शन काफ़ी बेहतर रहने की संभावना है. आज सेंसेक्स के 2034 तक 200,000 का आंकड़ा छूने की कल्पना करना मुश्किल नहीं है.

 

भारत के शेयर बाज़ारों की ज़बरदस्त तेज़ी हो सकता है कि अर्थव्यवस्था की प्रगति और SIP के ज़रिए भारी निवेश के प्रति अति उत्साह का नतीजा हो. किसी भी स्थिति में ये अतार्किक नहीं है. आज बहुत से लोग हैं जो भारत के बाज़ारों के उछाल को बुलबुला या झाग कहकर चेतावनी दे रहे हैं. जो शॉर्ट टर्न कारोबारी शेयर की क़ीमतों में मामूली उछाल पर फलते फूलते हैं और हर दिन उनके लिए नया होता है, उनके लिए ये बात शायद सही हो. लेकिन, ख़ुदरा निवेश करने वाले जो परिवार पांच साल या इससे ज़्यादा की अवधि के लिए निवेश का विकल्प देख रहे हैं, उनके लिए ये उतार चढ़ाव जोखिम का हिस्सा हैं.

 

कोविड महामारी की वजह से किए गए फ़ैसलों के चलते हाल के वर्षों में दुनिया भर के बाज़ारों में सबसे भयानक गिरावट के दौरान, सेंसेक्स में एक तिहाई की गिरावट आई थी और ये सिर्फ़ 29 कारोबारी दिनों में 41 हज़ार से गिरकर 28 हज़ार पर पहुंच गया था. हालांकि, अगले 149 कारोबारी दिनों में सेंसेक्स ने 50 प्रतिशत की वृद्धि की और 41 हज़ार के ऊपर जा पहुंचा था. मई 2004 में वामपंथी नेता एबी बर्धन का ‘भाड़ में जाए सेंसेक्स’ वाले बयान से सिर्फ़ दो दिनों में 894 अंकों या 16.5 प्रतिशत की गिरावट आई थी. इसकी वजह यूपीए सरकार के कारोबार और बाज़ार विरोधी होने की आशंका थी. फिर भी, सेंसेक्स ज़्यादा वक़्त तक गिरावट में नहीं रहा. यूपीए सरकार के दस साल के दौरान देखें, तो पहले पांच वर्षों में सेंसेक्स दोगुना हो गया था और दूसरे कार्यकाल के पांच वर्षों के दौरान सेंसेक्स में पांच गुने से अधिक की बढ़ोतरी हुई थी.

 

पूंजी का आवागमन सिर्फ़ वैश्विक कंपनियों के लिए ही नहीं, बल्कि अन्य देशों के परिवारों के लिए भी आसान बनाया जाए, तो भारत के विकास में वो भी हिस्सेदार बन जाएंगे. हां, इससे दुनिया के बाज़ारों के उतार चढ़ाव के भारत पर असर होने की आशंका तो बढ़ जाएगी. लेकिन, रिज़र्व बैंक के रूढ़िवादी रवैये और सेबी के कठोर विनियमन ढांचे की वजह से इन जोखिमों से निपटा जा सकता है. जिस तरह 1997 में इंडोनेशिया, दक्षिण कोरिया और थाईलैंड के शेयर बाज़ार लुढ़के थे, वैसा भारत में होने की आशंका न के बराबर है.

 

निष्कर्ष

 

व्यापक रणनीति के आर्थिक पहलू को देखें, तो पश्चिमी देशों ने प्रतिबंधों का हथियार की तरह इस्तेमाल किया है. भारत को इसका उल्टा करना चाहिए और दुनिया को अपने यहां के बाज़ारों के उछाल और उभरते भारत की गाथा में उनको निवेश का अवसर देना चाहिए. पूरी दुनिया में निवेशकों के लिए भौगोलिक विविधता लाना एक सामान्य चलन है. जैसे कि अमेरिका के एक्सचेंज ट्रेडेड फंड (ETF) या जापान के शेयर बाज़ार में निवेश करना. उसी भावना के अनुरूप भारत भी निवेशकों के सुस्त पड़े पोर्टफोलियो में नई संभावनाओं के द्वार खोलने के मौक़े मुहैया करा सकता है.

भारत एक वित्तीय ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का निर्माण कर सकता है. यानी वैश्विक निवेशकों के लिए पूरी दुनिया को एक परिवार बना सकता है.

GIFT सिटी के एक अंतरराष्ट्रीय वित्तीय केंद्र बनने की भूमिका भी अहम हो जाती है. इसके ज़रिए निवेश के ऐसे विकल्प तैयार किए जा सकते हैं, जो आने वाले समय में शुरू होने वाले प्रगति के सफ़र को आसान बनाएं. आज जब ऐसा लग रहा है कि पश्चिमी देश ख़ुद को भूमंडलीकरण से अलग करके अपनी चारदीवारी में क़ैद कर रहे हैं और लगभग ‘अमेरिकी वामपंथी उदारवाद’ की दिशा में आगे बढ़ रहे हैं. वैसे में भारत इन देशों के आर्थिक तौर पर मुश्किल में पड़े परिवारों के लिए बेहतर रिटर्न हासिल करने का ठिकाना बन सकता है. दूसरे शब्दों में कहें तो, भारत एक वित्तीय ‘वसुधैव कुटुंबकम’ का निर्माण कर सकता है. यानी वैश्विक निवेशकों के लिए पूरी दुनिया को एक परिवार बना सकता है.

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Author

Gautam Chikermane

Gautam Chikermane

Gautam Chikermane is Vice President at Observer Research Foundation, New Delhi. His areas of research are grand strategy, economics, and foreign policy. He speaks to ...

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