जलवायु परिवर्तन चिंताजनक नतीजों, जिनमें जलवायु से जुड़े सदमों की वजह से लोगों का विस्थापन शामिल है, के साथ एक वैश्विक चुनौती है. संयुक्त राष्ट्र के प्रवासन (माइग्रेशन) के लिए अंतर्राष्ट्रीय संगठन (IMO) का अनुमान है कि 2050 तक पर्यावरण से जुड़े कारणों से 20 करोड़ लोगों को एक जगह से दूसरी जगह जाने के लिए मजबूर होना पड़ेगा. 2022 में मॉनसून में हुई अभूतपूर्व बारिश के बाद आई भीषण बाढ़ की वजह से पाकिस्तान में 80 लाख लोगों को विस्थापित होना पड़ा. आंतरिक विस्थापन पर नज़र रखने वाले संगठन IDMC की रिपोर्ट के मुताबिक जलवायु से जुड़ी घटनाओं से 2021 में लगभग 50 लाख भारतीयों को अपना घर छोड़ना पड़ा. जलवायु की वजह से अपना घर छोड़ने वाले लोग (क्लाइमेट माइग्रेंट) बेहतर जीवन के लिए शरण और अवसर की तलाश में आम तौर पर शहरी इलाकों में जाते हैं. लेकिन ये शहरी इलाके उन्हें शरण देने के लिए तैयार नहीं है. साथ ही वो जलवायु के परिणामों को लेकर भी अतिसंवेदनशील हैं. इसे देखते हुए पर्याप्त जलवायु वित्त का इंतज़ाम महत्वपूर्ण हो जाता है. संसाधनों और तैयारी के उद्देश्य से इस आकस्मिक आवश्यकता का समाधान करने के लिए विशेष जलवायु वित्तीय तौर–तरीके में काफी निवेश की ज़रूरत पड़ती है.
जलवायु वित्त मुख्य रूप से दो प्रमुख क्षेत्रों पर ध्यान देता है: पहला क्षेत्र है राहत का उपाय करना जिसमें ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन कम करना और टिकाऊ (सस्टेनेबल) पद्धतियों को बढ़ावा देना शामिल है. दूसरा क्षेत्र है अनुकूलन जिसमें जलवायु परिवर्तन के असर को देखते हुए लचीलेपन का निर्माण करना शामिल है.
जलवायु वित्त मुख्य रूप से दो प्रमुख क्षेत्रों पर ध्यान देता है: पहला क्षेत्र है राहत का उपाय करना जिसमें ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन कम करना और टिकाऊ (सस्टेनेबल) पद्धतियों को बढ़ावा देना शामिल है. दूसरा क्षेत्र है अनुकूलन जिसमें जलवायु परिवर्तन के असर को देखते हुए लचीलेपन का निर्माण करना शामिल है. लचीलेपन के निर्माण की व्यापक कोशिशों और सतत विकास योजनाओं का समर्थन करके जलवायु वित्त से जुड़ी कुछ पहल ने अप्रत्यक्ष रूप से जलवायु से प्रेरित इमिग्रेशन के पहलुओं का समाधान किया है लेकिन ये सीधे तौर पर शामिल नहीं किया गया है.
जलवायु माइग्रेंट को समर्थन मुहैया कराने के लिए अंतर्राष्ट्रीय संगठनों, सरकारों और NGO ने शरणार्थियों की रक्षा की योजना (रिफ्यूजी एनवायरमेंटल प्रोटेक्शन फंड, IOM प्रोग्राम, जलवायु परिवर्तन के असर से जुड़ी वॉरसा इंटरनेशनल मेकेनिज़्म फॉर लॉस एंड डैमेज), अलग–अलग देशों की पहल (स्विट्ज़रलैंड और नॉर्वे के द्वारा नैनसेन इनिशिएटिव) और फंडिंग की शुरुआत की है. लेकिन जलवायु वित्त के तंत्र के भीतर केवल जलवायु से प्रेरित प्रवासन के लिए ख़ास फंड सीमित हैं. हालांकि मल्टीलेटरल डेवलपमेंट बैंकों (MDB) ने भी जलवायु को लेकर उपायों को फंडिंग देने और विस्थापन के आपातकाल का समाधान करने में आगे रहने की प्रतिबद्धता जताई है लेकिन जलवायु प्रवासन पर ये पहल और वित्तीय परियोजनाएं शायद ही एक–दूसरे के आमने–सामने आई हैं. वैसे जलवायु परिवर्तन का समाधान करने के महत्व को लेकर नीति निर्माताओं के बीच स्वीकार्यता बढ़ रही है लेकिन माइग्रेशन एक विवादित और काफी हद तक राजनीति में फंसा विषय बना हुआ है. ये संवेदनशीलता नीति निर्माताओं को जलवायु से जुड़ी विशेष नीतियों के बारे में माइग्रेशन से जुड़ी सोच को बुनने से रोकती है और इसके परिणामस्वरूप MDB की गुंजाइश सीमित हो जाती है. वो सिर्फ उस तरह के प्रोजेक्ट को तैयार कर सकते हैं जो हर देश की विकास से जुड़ी प्राथमिकताओं से संबंधित हैं और स्थानीय प्रवासन से जुड़ी परिस्थितियों के बारे में शायद ही कोई आंतरिक विशेषज्ञता रखते हैं. जलवायु में योगदान देने वालों, ज़्यादातर ऊंची आमदनी वाले देशों के बीच, ने जलवायु से जुड़ी पहल की तरफ काफी बड़ी रकम का वादा भी किया है लेकिन जलवायु प्रेरित प्रवासन से जुड़ी परियोजनाओं के लिए बहुत समर्थन नहीं जुटा पाए हैं. ये महत्वपूर्ण है कि जो लोग अपनी आजीविका को सुरक्षित करने के लिए जलवायु के ख़तरे वाले क्षेत्रों से नई जगह जाते हैं, उनकी मदद करने के लिए जलवायु से जुड़े डोनेशन को पहुंचाया जाए.
क्या G20 कमी को पूरा कर सकता है?
जलवायु से प्रेरित माइग्रेशन एक बहुआयामी मुद्दा है जो अलग–अलग देशों और संदर्भों तक फैला हुआ है. इसकी वजह से व्यापक तौर पर इसको हल करना एक चुनौती है. G20 सक्रिय रूप से ज़्यादा पर्यावरण अनुकूल ऊर्जा प्रणालियों की तरफ बदलाव की वकालत कर रहा है. वो पर्यावरण से जुड़ी चुनौतियों को हल करने में संगठित कोशिशों की महत्वपूर्ण भूमिका को भी स्वीकार करता है. अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सहयोग का बहुपक्षीय मंच होने की वजह से G20 जलवायु प्रवासियों के लिए एक समर्पित फंड के निर्माण के उद्देश्य से तालमेल स्थापित करने में एक उचित प्लैटफॉर्म के तौर पर काम कर सकता है. इस संगठन का काफी असर है और इसके पास संसाधनों की कोई कमी नहीं है. इस तरह G20 जलवायु माइग्रेंट की चुनौतियों का समाधान करने और वैश्विक उदाहरण तय करने के हिसाब से एक अच्छी स्थिति में है.
G20 की अध्यक्षता के टाइमलाइन को देखते हुए सुर्खियों के केंद्र में IBSA (इंडिया, ब्राज़ील, साउथ अफ्रीका) है जो कि ग्लोबल साउथ के बड़े देश हैं. अपने सामूहिक संसाधनों, विशेषज्ञता और असर का फायदा उठाकर ये देश जलवायु प्रवासियों की मदद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं.
G20 की अध्यक्षता के टाइमलाइन को देखते हुए सुर्खियों के केंद्र में IBSA (इंडिया, ब्राज़ील, साउथ अफ्रीका) है जो कि ग्लोबल साउथ के बड़े देश हैं. अपने सामूहिक संसाधनों, विशेषज्ञता और असर का फायदा उठाकर ये देश जलवायु प्रवासियों की मदद करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकते हैं. ये तीन उभरती अर्थव्यवस्थाएं पर्यावरण से जुड़े बदलाव की वजह से अपनी डेमोग्राफी (जनसांख्यिकी) में अहम परिवर्तन का अनुभव कर रहे हैं, लोग मजबूर होकर दूसरी जगह जा रहे हैं. हाल के वर्षों में भारत ने अपनी नीतियों और अंतर्राष्ट्रीय भागीदारी में जलवायु पर विचार को शामिल करने के प्रति बढ़ती प्रतिबद्धता दिखाई है. नेशनल एक्शन प्लान फॉर क्लाइमेट चेंज (NAPCC) के समानांतर कई भारतीय राज्यों ने जलवायु परिवर्तन को लेकर राज्य स्तर का अपना एक्शन प्लान बनाया है. इन्हें राज्य की जलवायु से जुड़ी असुरक्षा की रणनीति के हिसाब से तैयार किया गया है. वैसे तो भारत जलवायु को लेकर प्रतिक्रिया के मामले में उल्लेखनीय प्रगति दर्ज कर रहा है लेकिन जलवायु प्रवासन की चुनौतियों के लिए वो अभी भी तैयार नहीं है. विश्व बैंक की भारत को लेकर जलवायु जोखिम से जुड़ी रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि कुछ ख़ास इलाके महत्वपूर्ण रूप से प्रवासियों के आने और जाने का अनुभव करेंगे, इस तरह ये ‘हॉटस्पॉट’ ज़ोन होंगे. अनुमान के मुताबिक समुद्र के बढ़ते स्तर की वजह से 2050 तक बांग्लादेश के लगभग 17 प्रतिशत ज़मीनी इलाके समुद्र में समा जाएंगे. बड़े स्तर पर आंतरिक माइग्रेशन को संभालने में बांग्लादेश की सीमित क्षमता को देखते हुए अनगिनत जलवायु प्रवासी भारत की तरफ जा सकते हैं. बांग्लादेश में सुंदरबन डेल्टा को एक गंभीर रिस्क ज़ोन माना जाता है. अनुमानों के अनुसार लगभग 5 करोड़ से लेकर 12 करोड़ जलवायु प्रवासी भारत जा सकते हैं. एक्शन ऐड और क्लाइमेट एक्शन नेटवर्क की 2020 की रिपोर्ट का अनुमान है कि 2050 तक पर्यावरण से जुड़े बदलावों की वजह से भारत में 4.5 करोड़ से ज़्यादा लोग विस्थापित हो जाएंगे. भारत में जलवायु प्रेरित विस्थापन और प्रवासन के आधार पर समुद्र का बढ़ता स्तर केवल दो राज्यों– पश्चिम बंगाल और ओडिशा– में समुद्र के किनारे रहने वाले लगभग 3.6 करोड़ लोगों पर प्रभाव डाल सकता है.
काफी लंबे समय से ब्राज़ील के पूर्वोत्तर क्षेत्रों में भी अल नीनो की वजह से सूखे और बाढ़ के कारण आंतरिक माइग्रेशन देखा जा रहा है. पानी की कमी और बाढ़ जैसे मुद्दों से जूझ रहा दक्षिण अफ्रीका भी जैसे–जैसे हालात बिगड़ रहे हैं, वैसे–वैसे आंतरिक और सीमा पार माइग्रेशन में बढ़ोतरी का अनुमान लगा रहा है. 2022 के अप्रैल में पूर्वी दक्षिण अफ्रीका के क्वाज़ुलु–नटाल प्रांत में भीषण बाढ़ का नतीजा 40,000 लोगों के विस्थापन के रूप में निकला.
G20 पहले से ही वैश्विक जलवायु वित्त के तौर-तरीकों जैसे कि ग्रीन क्लाइमेट फंड में योगदान देता है लेकिन वो ज़्यादातर जलवायु परिवर्तन से राहत और अनुकूलता की परियोजनाओं का समर्थन करता है.
IBSA साउथ–साउथ कोऑपरेशन (विकासशील देशों के बीच सहयोग) के मंच की अपनी असरदार स्थिति का फायदा उठाकर जलवायु प्रवासन का समाधान करने में विकासशील देशों के बीच एकता और सहयोग को बढ़ावा दे सकता है. अनुभवों, विशेषज्ञता और संसाधनों को साझा करके IBSA जलवायु से जुड़ी इसी तरह की चुनौतियों का सामना कर रहे दूसरे क्षेत्रों के साथ सहयोग को बढ़ावा दे सकता है और पारस्परिक समर्थन और सीख को आसान बना सकता है.
संभावित चुनौतियां:
- अगर G20 को जलवायु प्रवासियों के लिए एक विशेष फंड बनाना हो तो उस फंड का दायरा, मक़सद और काम–काज के तौर–तरीकों को निर्धारित करने की ज़रूरत होगी. इसमें योग्यता की शर्तें, गवर्नेंस का ढांचा, फंडिंग का तौर–तरीका, निगरानी एवं समीक्षा और पारदर्शिता से जुड़े सवालों को हल करना शामिल हो सकता है.
- G20 के पास इस तरह के फंड को बनाने के उद्देश्य से तालमेल की वकालत और मदद करने की क्षमता है. हालांकि उसे ये तय करने की ज़रूरत पड़ेगी कि “क्लाइमेट माइग्रेंट” बनने के लिए योग्य कौन है. “क्लाइमेट माइग्रेंट” ऐसा शब्द है जिसकी दुनिया भर में कोई एक परिभाषा नहीं है. इसके लिए इस मुद्दे का समाधान करने की भी ज़रूरत पड़ेगी कि फंड पर्याप्त रूप से और एक समान वितरित करने को कैसे सुनिश्चित किया जाए.
जलवायु प्रवासन को हल करने के लिए अधिक समग्र दृष्टिकोण की आवश्यकता होगी और एक समर्पित फंड निश्चित रूप से समाधान का एक हिस्सा होगा.
सिफारिशें
G20 पहले से ही वैश्विक जलवायु वित्त के तौर–तरीकों जैसे कि ग्रीन क्लाइमेट फंड में योगदान देता है लेकिन वो ज़्यादातर जलवायु परिवर्तन से राहत और अनुकूलता की परियोजनाओं का समर्थन करता है. उसे हर हाल में अपने फंड का एक विशेष हिस्सा क्लाइमेट माइग्रेंट की ज़रूरतों की तरफ लगाना चाहिए. G20 मल्टीलेटरल डेवलपमेंट बैंकों (MDB) की वित्तीय कोशिशों को रास्ता दिखाने में स्थानीय प्रवासन की स्थितियों के सीमित आंतरिक ज्ञान को बढ़ावा देने में भी एक महत्वपूर्ण भूमिका निभा सकता है. इसके अलावा वो MDB एवं स्थानीय समुदायों को जोड़ने का काम कर सकता है और जलवायु प्रेरित माइग्रेशन से सबसे ज़्यादा प्रभावित क्षेत्रों में रिसर्च की पहल में खर्च का ज़िम्मा भी उठा सकता है. जलवायु के मामले में असुरक्षित देशों में उनके माइग्रेशन मैनेजमेंट को बढ़ाने के लिए वो ट्रेनिंग कार्यक्रमों की मदद कर सकता है. स्थानीय तौर पर इकट्ठा ये जानकारी MDB को बारीक जानकारी मुहैया करा सकती है जिसे वैश्विक रिपोर्ट नज़रअंदाज़ कर सकती हैं. ये उनकी विशेषज्ञता का फायदा उठाने, एक ही चीज़ को दोहराने और संसाधनों के असरदार इस्तेमाल को सुनिश्चित करने में मदद कर सकती है.
प्रियांशु मेहता ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में इंटर्न हैं.
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