Author : Abagail Lawson

Published on Oct 20, 2021 Updated 0 Hours ago

अगर तकनीकी तानाशाही की जगह सरकारी अतिवाद लेता है, तो इससे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म के कारण पैदा हुई समस्याएं और बढ़ जाएंगी

क्या प्रतिद्वंदिता को बढ़ावा देकर सोशल मीडिया को अनुशासित किया जा सकता है?

जब 06 जनवरी को अमेरिकी कैपिटॉल पर हुए हमले के बाद ट्विटर, फ़ेसबुक, यूट्यूब और पिंटरेस्ट जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म ने तत्कालीन अमेरिकी राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप पर प्रतिबंध लगाया था, तो पूरी दुनिया के नेताओं ने ऑनलाइन अभिव्यक्ति के क्षेत्र में बड़ी तकनीकी कंपनियों की उस ताक़त को लेकर चिंताएं ज़ाहिर की थीं, जो इन कंपनियों ने पिछले कुछ सालों के दौरान हासिल कर ली हैं. पिछले कई वर्षों से अमेरिकी संसद में रिपब्लिकन पार्टी के नेता फ़ेसबुक और ट्विटर पर ये आरोप लगाते रहे हैं कि वो अपनी ताक़त का बेज़ा इस्तेमाल करके, सोशल मीडिया रूढ़िवादी अभिव्यक्ति को सेंसर कर रहे हैं. इसी तरह, डेमोक्रेटिक पार्टी के नेता भी बुरे बर्ताव को लेकर तकनीकी कंपनियों पर लगाम लगाने की बातें कर रहे हैं. इनमें कॉन्टेंट पर नियंत्रण को लेकर उठाए जाने वाली नीतियां और क़दम शामिल हैं.

बड़ी सोशल मीडिया और तकनीकी कंपनियों के चलते पैदा हुई हर समस्या का समाधान एकाधिकार विरोधी और प्रतिद्वंदिता की नीतियों से नहीं हो सकता है. लेकिन, इस क्षेत्र में कंपनियों के बीच होड़ को बढ़ावा देने और एक या दो कंपनियों के प्रभुत्व को कम करने के लिए ऐसे उपाय काफ़ी अहम हो जाते हैं. 

दुनिया भर में सरकारें, ताक़त के इस संतुलन को अपने क़ाबू में लेने की कोशिशें कर रही हैं. इसके लिए वो नुक़सानदेह ऑनलाइन कॉन्टेंट के लिए संबंधित प्लेटफॉर्म की जवाबदेही तय करने के लिए नए क़ानून और प्रस्ताव ला रही हैं. इसके अलावा बहुत से देशों में इन कंपनियों पर लगाम लगाने के लिए एकाधिकार विरोधी और प्रतिद्वंदिता को बढ़ावा देने के लिए नए नियमों पर चर्चा कर रही हैं. सबका मक़सद एक है- बड़ी तकनीकी कंपनियों के प्रभाव को कम करना. हालांकि, बड़ी सोशल मीडिया और तकनीकी कंपनियों के चलते पैदा हुई हर समस्या का समाधान एकाधिकार विरोधी और प्रतिद्वंदिता की नीतियों से नहीं हो सकता है. लेकिन, इस क्षेत्र में कंपनियों के बीच होड़ को बढ़ावा देने और एक या दो कंपनियों के प्रभुत्व को कम करने के लिए ऐसे उपाय काफ़ी अहम हो जाते हैं. इससे सोशल मीडिया पर यूज़र्स के अधिकार सुनिश्चित हो सकेंगे और हमारे सामाजिक संवाद पर कुछ मुट्ठी भर कंपनियों का नियंत्रण भी कमज़ोर होगा. सरकार द्वारा शक्ति के इस संतुलन को दोबारा स्थापित करने के दौरान इस बात का भी ख़याल रखना होगा कि इससे कुछ ख़ास बड़ी तकनीकी कंपनियों की दादागीरी ही न बनी रहे, बल्कि इन कंपनियों पर लोकतांत्रिक निगरानी, पारदर्शिता और यूज़र के अधिकारों को बढ़ावा दिया जा सके.

मुक़ाबले को बढ़ावा देने वाला समाधान

अमेरिका में कुछ सांसदों ने बड़ी तकनीकी कंपनियों के बाज़ार पर एकाधिकार और ऑनलाइन स्पीच पर उनके नियंत्रण के बावजूद, उससे जुड़ी जवाबदेही भरे फ़ैसले न लेने के मुद्दों को एक साथ जोड़ दिया है. इसीलिए ऑनलाइन अभिव्यक्ति से जुड़ी समस्याओं के समाधान के लिए कंपनियों के एकाधिकार को ख़त्म करने के उपाय सुझाए जा रहे हैं. कहा जा रहा है कि इन बड़ी कंपनियों को तोड़कर उनसे जो नई कंपनियां निकलेंगी उससे ऑनलाइन अभिव्यक्ति के क्षेत्र में नए प्रतिद्वंदी सामने आएंगे. फिर इन क़दमों से पूरे क्षेत्र पर नियंत्रण के लिए किसी एक कंपनी द्वारा किए जाने वाले फ़ैसलों के असर को कम किया जा सकेगा. वैसे तो बड़ी तकनीकी कंपनियों की ताक़त पर लगाम लगाना और बाज़ार में और इनोवेशन को बढ़ावा देना, मोटे तौर पर सकारात्मक क़दम होगा. लेकिन, एकाधिकार ख़त्म करने के लिए उठाए जाने वाले क़दमों भर से ही ग़लत सूचनाओं की भरमार, कॉन्टेंट पर नियंत्रण को लेकर दुविधा, इको चेंबर या फिर सोशल मीडिया की अन्य समस्याओं जैसे कि बड़े पैमाने पर निगरानी करने वाले बिज़नेस मॉडल और यूज़र्स के साथ छल-कपट जैसी चुनौतियों से नहीं निपटा जा सकता है.

सोशल मीडिया कंपनियों के बीच होड़ को बढ़ावा देने, और कॉन्टेंट की काट-छांट को लेकर एक बेहद आकर्षक प्रस्ताव सामने आया है. इस प्रस्ताव से सोशल मीडिया की कुछ समस्याओं से पार पाने के साथ साथ इनोवेशन को बढ़ावा देने और कुछ अधिकार यूज़र्स को वापस देने जैसे लक्ष्य हासिल किए जा सकते हैं

हालांकि, सोशल मीडिया कंपनियों के बीच होड़ को बढ़ावा देने, और कॉन्टेंट की काट-छांट को लेकर एक बेहद आकर्षक प्रस्ताव सामने आया है. इस प्रस्ताव से सोशल मीडिया की कुछ समस्याओं से पार पाने के साथ साथ इनोवेशन को बढ़ावा देने और कुछ अधिकार यूज़र्स को वापस देने जैसे लक्ष्य हासिल किए जा सकते हैं; इन प्रस्तावों को अलग अलग वर्गों में बांटने (एक जैसे या काफ़ी मिलते जुलते प्रस्तावों को एक ही वर्ग में रखने) से कुछ मोटे वर्ग इस तरह सामने आते हैं- ‘जादुई API’, ‘प्लेटफॉर्म नहीं प्रोटोकॉल’ और ‘मिडिलवेयर’. अलग-अलग ज़रूरतें छांटने का काम पूरा होने के बाद, फ़ेसबुक जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म को इस बात के लिए मजबूर किया जा सकता है कि वो कॉन्टेंट पेश करने के काम और इसमें हेर-फेर करने की भूमिकाएं अलग अलग करे. इसके साथ कॉन्टेंट की निगरानी और काट-छांट करने वाली अन्य कंपनियों को फ़ेसबुक के प्लेटफॉर्म पर काम करने को कहा जा सकता है. इससे यूज़र्स को छांटने का विकल्प देने वाली एक वैकल्पिक व्यवस्था तैयार हो सकेगी. ज़रूरतों को अलग अलग वर्गों में बांटने का ये नुस्खा दूरसंचार क्षेत्र के नियमन में इस्तेमाल किया जा चुका है. जब प्रतिद्वंदी सेवाओं को एक ही इन्फ्रास्ट्रक्चर के भीतर आपस में होड़ लगाने की इजाज़त दी गई थी. माइक मैसनिक ने अपने लेख, ‘प्रोटोकॉल नॉट प्लेटफॉर्म्स: ए टेक्नोलॉजिकल एप्रोच टू फ्री स्पीच’ में इस नई व्यवस्था की तुलना ई-मेल से की है. जिसमें जीमेल, आउटलुट और याहू जैसी कई ई-मेल सेवाएं खुले मानकों या प्रोटोकॉल के तहत अपनी सेवाएं देती हैं और ये एक दूसरे के साथ इस्तेमाल की जा सकती हैं. कहने का मतलब ये कि आप अपने जीमेल खाते से किसी अन्य व्यक्ति के याहू मेल पर ई-मेल भेज सकते हैं और दोनों मेल के बीच संवाद की लागत बहुत कम होती है.

हालांकि, इस नज़रिए से जुड़ी अपनी चुनौतियां भी हैं. इसमें सेवा के एक केंद्र का सवाल भी है; क्या फ़ेसबुक तब भी होस्टिंग प्लेटफॉर्म का संचालन करता रहेगा और यूज़र के सभी डेटा उसी के पास रहेंगे. या फिर सोशल मीडिया का खुला प्रोटोकॉल होगा और इस पर अपनी सेवाएं देने वाली तमाम कंपनियों में से एक फ़ेसबुक भी होगी? ये सभी सवाल किसी यूज़र की निजता पर गंभीर असर डालने वाले हैं. इन विकल्पों को आज़माने के लिए बड़ी तकनीकी चुनौतियों से भी पार पाना होगा. ये सुझाव भी दिया गया है कि फ़ेसबुक के ख़िलाफ़ अमेरिका के फेडरल ट्रेड कमीशन (FTC) द्वारा दायर किए गए एकाधिकार विरोधी मामले से सुई इस दिशा में आगे बढ़ने का इशारा दे सकती है. लेकिन, ऐसा तब होगा जब नियामक संस्थाएं ये साबित कर सकें कि फ़ेसबुक का कॉन्टेंट में हेर-फेर करना एक अलग बाज़ार है, जिसमें फ़ेसबुक़ ख़ुद को फ़ायदा पहुंचाने वाले क़दम उठाता है, और अन्य कंपनियों को इस क्षेत्र में मुक़ाबला करने से रोकता है.

ऐसा तब होगा जब नियामक संस्थाएं ये साबित कर सकें कि फ़ेसबुक का कॉन्टेंट में हेर-फेर करना एक अलग बाज़ार है, जिसमें फ़ेसबुक़ ख़ुद को फ़ायदा पहुंचाने वाले क़दम उठाता है, और अन्य कंपनियों को इस क्षेत्र में मुक़ाबला करने से रोकता है.

शक्ति का संतुलन बनाना

अक्सर ये तर्क दिया जाता है कि फ़ेसबुक और ट्विटर जैसे सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म अपने अपने क्षेत्र पर क़ुदरती तौर पर एकाधिकार रखते हैं. इसकी वजह नेटवर्क का असर है: किसी भी नेटवर्क पर जितने ही ज़्यादा लोग होंगे, उतना ही वो नेटवर्क अपने दोस्तों से जुड़ने में उपयोगी हो जाएगी. इस तर्क को मानने से ये संकेत मिलता है कि फ़ेसबुक को टुकड़ों कई छोटी-छोटी सोशल मीडिया कंपनियों में बांटने से बस यही होगा कि सबसे लोकप्रिय कंपनी, बाक़ी प्रतिद्वंदियों को हराकर पुराने फ़ेसबुक की जगह एक नई दादागीरी स्थापित कर देगी. हालांकि, ऐसा तभी सही होगा जब किसी कंपनी का यूज़र को बंधक बनाने वाला बर्ताव जारी रखने दिया जाएगा. उसे दूसरी कंपनी के यूज़र से संवाद करने से रोका जाएगा. अपने डेटा को एक कंपनी से दूसरी कंपनी में स्थानांतरित करने से रोका जाएगा या हर स्तर पर मुक़ाबले को कमज़ोर करने दिया जाएगा. FTC द्वारा दायर किए गए एकाधिकार विरोध के मौजूदा मुक़दमे और अमेरिकी संसद के निचले सदन में प्रस्तावित विधेयकों में इस बात की काफ़ी संभावनाएं हैं कि वो ऐसे हालात बनने से रोक सकें. लेकिन, हमें ये ध्यान रखना होगा कि बड़ी तकनीकी कंपनियों के चलते सार्वजनिक क्षेत्र में पैदा हुई सभी समस्याओं का समाधान एकाधिकार का ख़ात्मा और प्रतिद्वंदिता को बढ़ावा देना नहीं हो सकता है. बिज़नेस के उस मौजूदा मॉडल में ख़लल डालने के लिए और भी क़दम उठाने होंगे, जिनसे यूज़र को जज़्बाती प्रतिक्रिया देने के लिए उकसाया जाता है और कॉन्टेंट को काट-छांट कर पेश किया जाता है. तभी कंपनियों को यूज़र का शोषण और उसे वरगलाने से रोका जा सकेगा. इन क़दमों में किसी एक प्लेटफॉर्म का डेटा दूसरी कंपनी में ले जाने की संभावनाएं और एक यूज़र द्वारा एक साथ कई मंचों पर अभिव्यक्ति देने के विकल्प शामिल हैं. इसके लिए निजता के संरक्षण के व्यापक उपाय, विज्ञापन के बाज़ार को नियमित करने और संरक्षित वर्गों को निशाना बनाकर किए जाने वाले विज्ञापनों पर नियंत्रण शामिल है. इसके अलावा यूज़र को अपने डेटा पर और अधिक नियंत्रण देना होगा जिससे उसे ये मालूम हो कि उसके डेटा को कैसे जुटाया जा रहा है और उनके ऑनलाइन तजुर्बे पर असर डालने के लिए कैसे इसमें छेड़खानी की जा रही है.

 बिज़नेस के उस मौजूदा मॉडल में ख़लल डालने के लिए और भी क़दम उठाने होंगे, जिनसे यूज़र को जज़्बाती प्रतिक्रिया देने के लिए उकसाया जाता है और कॉन्टेंट को काट-छांट कर पेश किया जाता है. तभी कंपनियों को यूज़र का शोषण और उसे वरगलाने से रोका जा सकेगा. 

आख़िर में बड़ी तकनीकी कंपनियों की जवाबदेही तय करने की ये बहस असल में ताक़त की लड़ाई की चर्चा है. ताक़त के इस संघर्ष में न तो कॉरपोरेट तानाशाही के ऊपर सरकारी तानाशाही को और न ही इसके उलट तरज़ीह दी जा सकती है. बड़ी तकनीकी कंपनियों की जवाबदेही तय करने का कोई भी तरीक़ा ऐसा होना चाहिए, जिसके केंद्र में यूज़र के अधिकार और उसके व्यक्तित्व का संरक्षण हो.

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