Author : Saaransh Mishra

Published on Oct 07, 2021 Updated 0 Hours ago

एससीओ की दुविधा ये है कि अफ़ग़ानिस्तान की तेज़ आर्थिक गिरावट उसके सदस्य देशों के लिए चुनौतियों में इज़ाफ़ा कर सकती है.

क्या शंघाई सहयोग संगठन अफ़ग़ानिस्तान में एक दीर्घकालीन बदलाव ला सकता है?

ताजिकिस्तान की राजधानी दुशांबे में 16 और 17 सितंबर को शंघाई सहयोग संगठन (एससीओ) की 21वीं शिखर वार्ता में सभी सदस्य देशों (रूस, चीन और भारत वर्चुअली) के नेता शामिल हुए. साथ ही पिछले दिनों ईरान के राष्ट्रपति के तौर पर निर्वाचित इब्राहिम रईसी भी शामिल हुए क्योंकि एससीओ के पूर्ण सदस्य के तौर पर ईरान को शामिल करने की प्रक्रिया शुरू हुई. लेकिन 2012 से पर्यवेक्षक के तौर पर शामिल अफ़ग़ानिस्तान का कोई प्रतिनिधिमंडल नहीं आया जबकि वो एससीओ की स्थापना के समय से सबसे बड़ी चुनौती बना हुआ है.

जिस वक़्त एससीओ अपने अस्तित्व के 20 वर्ष का जश्न मना रहा है, उस समय शिखर वार्ता ने अफ़ग़ानिस्तान के इर्द-गिर्द कुछ बड़े मुद्दों के समाधान को लेकर एक उचित अवसर पेश किया है. इसलिए हैरानी की बात नहीं है कि सामाजिक-आर्थिक सहयोग बढ़ाने, जलवायु परिवर्तन, महामारी के असर से निपटने इत्यादि को लेकर चर्चा के बीच एससीओ के एजेंडे में अफ़ग़ानिस्तान पर काफ़ी प्रमुखता से बातचीत हुई. एससीओ में शामिल अलग-अलग देश अफ़ग़ानिस्तान के हालात को लेकर अलग-अलग ख़तरों के साथ-साथ साझा ख़तरे का भी सामना कर रहे हैं. 26 अगस्त को एससीओ सचिवालय द्वारा जारी एक बयान के द्वारा सदस्य देशों ने आतंकवाद, युद्ध और ड्रग्स से मुक्त एक स्थायी, शांतिपूर्ण और समृद्ध अफ़ग़ानिस्तान को लेकर अपनी प्रतिबद्धता फिर से ज़ाहिर की.

26 अगस्त को एससीओ सचिवालय द्वारा जारी एक बयान के द्वारा सदस्य देशों ने आतंकवाद, युद्ध और ड्रग्स से मुक्त एक स्थायी, शांतिपूर्ण और समृद्ध अफ़ग़ानिस्तान को लेकर अपनी प्रतिबद्धता फिर से ज़ाहिर की. 

सदस्य देशों ने अलग-अलग तौर-तरीक़ों जैसे रीजनल एंटी-टेररिस्ट स्ट्रक्चर (आरएटीएस), एससीओ कॉन्टैक्ट ग्रुप, सीएसटीओ, विस्तारित ट्रोइका, मॉस्को टॉक्स इत्यादि के ज़रिए अफ़ग़ानिस्तान से उत्पन्न होने वाले ख़तरे से निपटने के लिए एक-दूसरे के साथ समन्वय के लिए तैयार होने की इच्छा जताई. उन्होंने अफ़ग़ानिस्तान के स्थायित्व और विकास के लिए संयुक्त राष्ट्र की केंद्रीय भूमिका में अंतर्राष्ट्रीय कोशिशों में शामिल होने के लिए तैयार होने की भी इच्छा जताई. लेकिन अफ़ग़ानिस्तान की मौजूदा आर्थिक अस्थिरता के साथ-साथ निकट भविष्य में तालिबान शासन को अंतर्राष्ट्रीय मान्यता नहीं मिलने की संभावना एससीओ के लिए एक अनूठी और जटिल चुनौती पेश करती है.

दुनिया के सबसे ग़रीब देशों में शुमार है अफ़ग़ानिस्तान

 

2020 में लगभग 508.80 अमेरिकी डॉलर प्रति व्यक्ति जीडीपी के साथ अफ़ग़ानिस्तान एशिया का सबसे ग़रीब और दुनिया के सबसे ग़रीब देशों में से एक है. दशकों के विनाशकारी युद्ध ने अफ़ग़ानिस्तान के उद्योगों और औपचारिक अर्थव्यवस्था के विकास को वाकई मुश्किल बना दिया और उसे काफ़ी हद तक सहायता पर निर्भर देश के तौर पर छोड़ दिया. अफ़ग़ानिस्तान की जीडीपी का 40% हिस्सा मदद और अंतर्राष्ट्रीय अनुदान से आता है. मौजूदा राजनीतिक परिस्थितियों ने अफ़ग़ानिस्तान को आर्थिक विनाश के और भी क़रीब ला दिया है. संयुक्त राष्ट्र विकास कार्यक्रम (यूएनडीपी) के मुताबिक़ अफ़ग़ानिस्तान की 47.3% आबादी वर्तमान में ग़रीबी रेखा के नीचे रहती है लेकिन मौजूदा हालात बने रहे तो 2022 के मध्य तक ये आंकड़ा बढ़कर 97% तक हो सकता है. पिछली सरकारों के दौरान राजनीतिक उथल-पुथल और तालिबान के कब्ज़े के बाद आसमान को छूती महंगाई, ध्वस्त होता स्वास्थ्य और शिक्षा सेक्टर इत्यादि का नतीजा ये निकला है कि 1 करोड़ 80 लाख से ज़्यादा लोगों को किसी-न-किसी तरह की मानवीय सहायता की ज़रूत है जिनमें से 75% महिलाएं और बच्चे हैं.

तालिबान अफ़ग़ानिस्तान की सत्ता को किसी भी दूसरे काम-काजी सरकार की तरह चलाना चाहता है. तालिबान ने अफ़ग़ानिस्तान की अर्थव्यवस्था को बेहतर करने का दावा किया है और उम्मीद की जाती है कि इस वक़्त जो मानवीय संकट अफ़ग़ानिस्तान को बर्बाद कर रहा है, उससे वो उबार लेगा. इसका नतीजा ये हुआ है कि अंतर्राष्ट्रीय आर्थिक सहायता हासिल करने के लिए तालिबान उदारवादी शासन, जिसमें महिलाओं के अधिकारों का सम्मान होगा, मीडिया को आज़ादी होगी, विदेशी दूतावासों की पवित्रता बनी रहेगी इत्यादि, का वादा करके मान्यता हासिल करने की कोशिश कर रहा है.

पिछली सरकारों के दौरान राजनीतिक उथल-पुथल और तालिबान के कब्ज़े के बाद आसमान को छूती महंगाई, ध्वस्त होता स्वास्थ्य और शिक्षा सेक्टर इत्यादि का नतीजा ये निकला है कि 1 करोड़ 80 लाख से ज़्यादा लोगों को किसी-न-किसी तरह की मानवीय सहायता की ज़रूत है जिनमें से 75% महिलाएं और बच्चे हैं. 

लेकिन इसके बावजूद दुनिया सशंकित है और सशंकित होना भी चाहिए. वर्तमान में तालिबान अंतर्राष्ट्रीय मान्यता हासिल करने के लिए ठोस दावा करने में नाकाम हो रहा है. तालिबान ने एक ऐसी अंतरिम सरकार बनाई है जिसमें सभी वर्गों की भागीदारी नहीं है, संयुक्त राष्ट्र द्वारा प्रतिबंधित आतंकवादी उस सरकार में शामिल हैं, ख़बरों के मुताबिक तालिबान आनन-फानन में आम लोगों और अफ़ग़ान सुरक्षा बलों के सदस्यों को मौत के घाट उतार रहा है, महिलाओं की सुरक्षा के लिए जब तक कोई सिस्टम नहीं बन जाता, तब तक उन्हें घरों में रहने के लिए मजबूर किया गया है, महिला छात्रों के लिए पीछे की ओर ले जाने वाले नियमों का एलान किया गया है, दूसरी चीज़ों के साथ महिलाओं के खेल-कूद मे शामिल होने पर भी पाबंदी लगाई गई है.

तालिबान को बदलने के लिए अफ़ग़ानिस्तान की आर्थिक निर्भरता का फ़ायदा उठाने की कोशिश के तहत पश्चिमी देशों ने अफ़ग़ानिस्तान को विदेशी सहायता बंद कर दी है. विश्व बैंक और अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ) ने भी अफ़ग़ानिस्तान को सहायता बंद कर दी है. इसके अलावा अफ़ग़ानिस्तान का 9.5 अरब डॉलर का विदेशी मुद्रा भंडार, जिनमें से ज़्यादातर अमेरिका में है, को भी ज़ब्त कर लिया गया है. विदेशी सहायता के अलावा अफ़ग़ानिस्तान की जीडीपी का 4% हिस्सा विदेशों से भेजी गई रक़म है. इसकी वजह से अफ़ग़ानिस्तान दुनिया के उन देशों में शामिल है जो विदेशी से भेजी गई रक़म पर निर्भर है. लेकिन अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के कब्ज़े के बाद वेस्टर्न यूनियन और मनीग्राम जैसी अंतर्राष्ट्रीय ट्रांसफर कंपनियों ने कुछ हफ़्तों के लिए अफ़ग़ानिस्तान में अपनी सेवाएं बंद कर दी हैं. इसकी वजह से विदेशों से अफ़ग़ान नागरिकों को पैसे की सप्लाई थम गई है और उनकी आर्थिक दिक़्क़तें बढ़ गई हैं.

तब भी अफ़ग़ानिस्तान के लोगों की व्यापक पीड़ा को कम करने में तालिबान की नाकामी का ये नतीजा निकला है कि मानवीय मदद का कोई-न-कोई रूप शुरू हो गया है. जब संयुक्त राष्ट्र महासचिव एंटोनियो गुटेरेस ने अलग-अलग देशों से अफ़ग़ानिस्तान को सहायता देने का अनुरोध किया तो पिछले दिनों जेनेवा में एक सम्मेलन के दौरान दानकर्ताओं ने 1 अरब डॉलर से ज़्यादा मानवीय सहायता का संकल्प लिया. इस मानवीय सहायता को बढ़ाने की उत्सुकता के बावजूद अलग-अलग देशों ने बार-बार इस बात को दोहराया कि तालिबान शासन को मान्यता तालिबान के बर्ताव पर निर्भर करेगा. ये ऐसी बात है जिसे एससीओ की शिखर वार्ता में भी दोहराया गया.

बिना मान्यता के मानवीय मदद

ये ध्यान देने योग्य है कि तालिबान बिना मान्यता के भी मानवीय सहायता हासिल करने में सक्षम हो सकता है. लेकिन अलग-अलग देशों या अंतर्राष्ट्रीय मुद्रा कोष और विश्व बैंक से विकास सहायता या बड़े कर्ज़ के लिए कोई सीधा माध्यम नहीं होगा क्योंकि तालिबान के पास पैसा हासिल करने के लिए कोई वैश्विक मान्यता प्राप्त संस्थागत संरचना नहीं है. वैसे ये पक्का है कि तालिबान के पास राजस्व के अपने संसाधन हैं. संयुक्त राष्ट्र के आकलन के मुताबिक़ 2011 के बाद तालिबान की सालाना आमदनी 400 मिलियन डॉलर के आसपास है और ख़बरों के मुताबिक़ 2018 के अंत में तालिबान की आमदनी ने 1.5 अरब डॉलर को भी छुआ था. लेकिन ये रक़म जवाबी कार्रवाई करने के लिए भले ही पर्याप्त हो, 4 करोड़ लोगों के देश को चलाने के लिए इससे काफ़ी ज़्यादा रक़म की ज़रूरत होगी. दूसरी बात, इनमें से ज़्यादातर राजस्व अवैध संसाधनों से जुटाया जाता है. इसका ये मतलब हुआ कि अंतर्राष्ट्रीय मान्यता हासिल करने के लिए उसे उन अवैध तौर-तरीक़ों को छोड़ना होगा.

अफ़ग़ानिस्तान पर तालिबान के कब्ज़े के बाद वेस्टर्न यूनियन और मनीग्राम जैसी अंतर्राष्ट्रीय ट्रांसफर कंपनियों ने कुछ हफ़्तों के लिए अफ़ग़ानिस्तान में अपनी सेवाएं बंद कर दी हैं. इसकी वजह से विदेशों से अफ़ग़ान नागरिकों को पैसे की सप्लाई थम गई है और उनकी आर्थिक दिक़्क़तें बढ़ गई हैं. 

सभी सरकारों की तरह तालिबान को भी देश चलाने और स्थायी आर्थिक विकास को बढ़ावा देने के लिए पैसा चाहिए जो उसके पास नहीं है. ये ज़रूरत तालिबान को मानवाधिकार का सम्मान करने के लिए उस पर दबाव बनाने का एक तरीक़ा समझा जा सकता है लेकिन इसका एक बड़ा नुक़सान भी है. अफ़ग़ानिस्तान पहले से ही दुनिया का एक सबसे ज़्यादा असुरक्षित और अस्थिर देश है. राजनीतिक अस्थिरता और आर्थिक विकल्पों की पुरानी समस्याओं ने चरमपंथ, ड्रग्स का व्यापार, जातीय संघर्ष से उत्पन्न गृह युद्ध इत्यादि के फलने-फूलने लायक हालात पैदा किए हैं. इसलिए लगातार आर्थिक अस्थिरता और राजनीतिक अस्थिरता बढ़ाने वाला असंतोष अफ़ग़ानिस्तान के लिए बेहद ख़तरनाक है क्योंकि इन परिस्थितियों का इस्तेमाल कट्टर विचारधारा को और भी ज़्यादा बढ़ाने में किया जा सकता है जो न सिर्फ़ अफ़ग़ानिस्तान के भीतर बल्कि एससीओ देशों समेत पूरे इलाक़े में सुरक्षा पर ख़तरे को बढ़ाएगा. लेकिन इसका ये मतलब नहीं है कि आर्थिक विकास ऊपर बताई गई समस्याओं को ख़त्म कर देगा. ये ज़रूर हो सकता है कि काफ़ी हद तक हालात को स्थिर करने में मदद करे.

अफ़ग़ानिस्तान के मौजूदा सुरक्षा हालात में एससीओ के बड़े दांव को देखते हुए बिना किसी संदेह के सदस्य देशों के लिए ये काफ़ी फ़ायदेमंद होगा कि वो अफ़ग़ानिस्तान के विकास में मदद करें और वहां की ध्वस्त अर्थव्यवस्था को संभालें. लेकिन इसके बावजूद वर्तमान समय में एससीओ देश मिल-जुलकर ज़्यादा-से-ज़्यादा अफ़ग़ानिस्तान को बेहद ज़रूरी मानवीय सहायता ही दे सकते हैं. साथ ही अफ़ग़ानिस्तान के भविष्य को लेकर अंतर्राष्ट्रीय कोशिशों में शामिल हो सकते हैं और अफ़ग़ानिस्तान के भीतर एक समावेशी बातचीत में मदद कर सकते हैं. एससीओ शिखर वार्ता के दौरान रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने इसका ज़िक्र भी किया था. ऐसा करने से अल्पकाल में अफ़ग़ानिस्तान के हालात को संभालने में मदद मिलेगी. लेकिन इसके बाद भी विकास और स्थिरता की स्थिति पूरी तरह से तालिबान के अपने बर्ताव बदलने और वैश्विक मान्यता हासिल करने पर निर्भर करेगी. लेकिन वैश्विक मान्यता हासिल करना फिलहाल दूर की कौड़ी लगती है.

वैसे ये पक्का है कि तालिबान के पास राजस्व के अपने संसाधन हैं. संयुक्त राष्ट्र के आकलन के मुताबिक़ 2011 के बाद तालिबान की सालाना आमदनी 400 मिलियन डॉलर के आसपास है और ख़बरों के मुताबिक़ 2018 के अंत में तालिबान की आमदनी ने 1.5 अरब डॉलर को भी छुआ था

निष्कर्ष के तौर पर कहें तो एससीओ की दुविधा ये है कि अफ़ग़ानिस्तान की तेज़ आर्थिक गिरावट उसके सदस्य देशों के लिए चुनौतियों में इज़ाफ़ा कर सकती है. लेकिन इसे टालने के लिए एससीओ की सामूहिक प्रतिबद्धता के बावजूद उसके मुक़ाबला करने के विकल्प दूसरे कारणों से बाधित होते हैं जिन पर उसका सीमित नियंत्रण है.

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