वर्ष 2009 में पहली बार भारत के चुनाव आयोग ने चुनावी भागीदारी के आकड़ों में व्याप्त लैंगिक अंतर को प्रमुख चुनौती के रूप में पहचान की. साल 2009 के चुनाव में पुरुषों की कुल 60.36 प्रतिशत की उपस्थिति की तुलना में, महिलाओं ने चार प्रतिशत से भी ज्य़ादा प्रतिशत में यानी 55.8 प्रतिशत की भागीदारी दर्ज की थी. इस अंतर को कम करने की दिशा में, भारत के चुनाव आयोग ने सिस्टमैटिक वोटर्स एजुकेशन एंड इलेक्टोरल पार्टिसिपेशन (SVEEP) नाम के एक प्रोग्राम को लॉन्च किया था, जिसके परिणामस्वरूप देशभर में मतदाताओं में जागरूकता बढ़ाने के साथ-साथ मतदाताओं की चुनावी मतदान में भागेदारी में भी काफी बढ़त दर्ज की है. SVEEP ने ज़मीनी स्तर पर मतदाताओं के साथ जुड़ने के लिए रचनात्मक रूप से महिला कार्यकर्ताओं को इस मुहिम में अपने साथ जोड़ा, महिलाओं के लिये रैलियां निकालीं और देशभर में अभियान चलाए.
SVEEP ने ज़मीनी स्तर पर मतदाताओं के साथ जुड़ने के लिए रचनात्मक रूप से महिला कार्यकर्ताओं को इस मुहिम में अपने साथ जोड़ा, महिलाओं के लिये रैलियां निकालीं और देशभर में अभियान चलाए.
देश की सबसे घनी आबादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश में, जहां सबसे ज्य़ादा संख्या में महिला मतदाताएं हैं जो कठोर सामाजिक नियमों में जीतीं हैं, उन मतदाताओं को प्रोत्साहित करने की दिशा में, स्वीप द्वारा चलाई जा रही मास-मोबिलाइज़ेशन का यह कैंपेन, इस दिशा में एक उदाहरण है. जैसे:
पुत्री: “माँ, मुझे मत रोको, मैं वोट देने जाऊँगी.” माँ: “बेटी सुनो, मैं तुम्हें बाहर जाने नहीं दूँगी. घर पर रहो और अपना काम करो.”
पुत्री: “माँ, तुम्हारी आंटियाँ, अपना वोट देने जाएंगी. तुम्हारी बूढ़ी दादी भी वोट देने जाएंगी. माँ मेरी बात ध्यान से सुनो; मुझे मेरी वोटर पर्ची मिल चुकी है. वोटर लिस्ट में भी मेरा नाम दर्ज हो चुका है और इसलिए मैं भी अब एक बालिग मतदाता हूँ.”
माँ: बेटी तुमने मुझे जागरूक किया इसके लिये तुम्हारा धन्यवाद, मैं अपना मत देने अवश्य जाऊँगी और ये निश्चित करूंगी कि तुम भी अपना वोट ज़रूर दो.”
2014 के चुनाव में फिर इस कार्यक्रम का बेहतर प्रभाव दिखा, जिसके तहत, मतदाता मतदान में, अभूतपूर्व वृद्धि से लैंगिक अंतर में व्याप्त कमी तो दूर हुई ही, महिला वोटरों में भारी इज़ाफा भी देखा गया. 2019 के चुनाव में, पुरुष वोटरों के कुल 67.01 प्रतिशत भागीदारी के सामने, 67.18 प्रतिशत महिलाओं ने चुनाव में भाग लेकर, उन्हें पीछे धकेल दिया है. ये ट्रेंड इस साल भी जारी रहेगा, क्योंकि इलेक्शन कमिशन ऑफ इंडिया (ECI) द्वारा जारी नामांकन सूचियों से ये पता चलता है कि जिन 12 राज्यों में मतदाताओं के नाम दर्ज किये गये हैं उनमें पुरुष मतदाताओं की तुलना में महिला मतदाताओं का प्रतिशत अधिक है, इसके अलावा, नए मतदाताओं की सूची में भी पुरुषों की तुलना में 15 प्रतिशत ज़्यादा महिलाओं को जोड़ा गया है.
एक तरह SVEEP द्वारा किए जा रहे कामों को महिलाओं को एकजुट करने, युवाओं एवं हाशिये पर धकेल दी गई आबादी को मतदान की धारा में लाने का श्रेय दिया जा रहा है जो सही भी है. पर भारत में महिला वोटरों की संख्या में वृद्धि के पीछे, महिलाओं में साक्षरता एवं बढ़ती जागरूकता, रोज़गार के लिए पुरुषों का शहरी क्षेत्रों की ओर पलायन करने के बाद पीछे गांव-घर में अकेले रह जाने वाली महिलाओं का बड़ी संख्या में मतदान के लिए उपस्थित रहना भी एक महत्वपूर्ण कारण है. इसके अलावा महिलाओं को अपने निर्वाचन क्षेत्र में महत्वपूर्ण मतदाता के तौर पर मान्यता देने वाली राजनैतिक दलों द्वारा प्रचार में बढ़ोत्तरी - जैसे कई अन्य कारकों का भी महत्वपूर्ण योगदान है.
चित्र1: भारत के राष्ट्रीय चुनावों में भागीदारी करने वाले मतदाताओं में लैंगिक अंतर.
स्त्रोत: वॉयस.नेट (वोटर इंफॉर्मेशन , कम्यूनिकेशन एंड एजुकेशन नेटवर्क)
महिला फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं एवं महिला स्वयं-सहायता समूहों की मतदान% बढ़ाने में भूमिका
महिला मतदाताओं की मतदान में उपस्थिति बढ़ाने की दिशा में SVEEP द्वारा इस्तेमाल किया गया सबसे कारगर प्रयास ये था कि उन्होंने उन महिला कार्यकर्ताओं की पहचान की जो ज़मीनी तौर पर संदेश का प्रसार कर सके. उदाहरण के लिए, गुजरात के एक आदिवासी ज़िले में, जहां ये पाया गया था कि काफी बड़ी संख्या में महिलायें अपने मत के अधिकार संबंधी जानकारी से अनजान थी, उन्हें जागरूक करने के लिये आशा एवं आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं, और स्वयं-सहायता समूहों के कार्यकर्ता (SHGs), जिस दिन ज़िले की ये सभी महिलाएं अपने बच्चों के सामूहिक टीकाकरण के लिये एक जगह केंद्र आतीं थीं तो उस दिन उन्हें जागरूक करने के लिये उनके सामने ही सामूहिक रैलियाँ निकाली जातीं थीं. एक अनुमान के अनुसार, भारत भर में कुल 60 लाख से भी ज़्यादा आशा कार्यकर्तायें और आंगनवाड़ी में काम करने वाली बहनें एएनएम (Auxiliary Nurse and Midwife) नियोजित हैं. ये महिलाएं स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक सुरक्षा प्रदान करने, आपदाओं के दौरान राहत सुरक्षा प्रदान करने और आपात स्थितियों के दौरान सहायता प्रदान करने के अलावा आम दिनों में “सामाजिक कार्यकर्ता” के तौर पर लगातार देशभर में आगे के मोर्चे पर काम करती हैं.
SHGs में महिला कैडर, फ्रंटलाइन कार्यकर्ताओं की तुलना में और भी ज़्यादा मज़बूत है. दुनिया भर में, भारत के पास, नेशनल रूरल लाइवलीहुड मिशन ((NRLM), के अंतर्गत 100 मिलियन महिला सदस्यों के साथ, महिला एसएचजी का नेटवर्क सबसे बड़ा नेटवर्क है. और इस कार्यक्रम ने देशभर में महिला मतदाताओं को गतिशीलता प्रदान करने में कोई छोटा-मोटा योगदान नहीं दिया है. रिसर्च से ये पता चलता है कि एसएचजी के कार्यकर्ता, किसी गैर-सदस्य की तुलना में राजनैतिक रूप से ज़्यादा सक्रिय होते हैं. ये लोग ग्राम सभा बैठकों में शामिल होने के अलावा, अन्य महिलाओं को जानने, उनसे बातचीत करने, उनपर प्रभाव डालने, बेहतर उम्मीदवार को चुनाव करने और किसे वोट देना है इस पर निर्णय लेने में ज़्यादा सक्षम होते हैं.
महिला मतदाताओं की मतदान में उपस्थिति बढ़ाने की दिशा में SVEEP द्वारा इस्तेमाल किया गया सबसे कारगर प्रयास ये था कि उन्होंने उन महिला कार्यकर्ताओं की पहचान की जो ज़मीनी तौर पर संदेश का प्रसार कर सके.
दिसंबर 2023 के आंकड़ों के आधार के अनुसार देश के प्रत्येक गांव में कम से कम 14 सेल्फ़ हेल्प ग्रुप हैं और देश की हर 8वीं महिला इन समूहों की सदस्य हैं. एसएचजी अनिवार्य रूप से एक बचत समूह है जो बैंकों संग जुड़ कर बचत एवं ऋण तक के पहुँच के माध्यम से महिलाओं के लिए वित्तीय समावेशन एवं आजीविका के अवसर को प्रोत्साहित करता है. इन कार्यक्रमों के पहुँच एवं इसके द्वारा बनाए गए एकजुटता नेटवर्क के माध्यम से, महिलाओं को सामाजिक अभियानों में शामिल करना, आम बात बन चुकी है. कोविड-19 महामारी के प्रकोप के दौरान, दूर दराज के क्षेत्रों में राहत सहायता प्रदान करने में ये समूह सबसे आगे थे. एसएचजी, महिलाओं के सामाजिक, राजनीतिक, और आर्थिक सशक्तिकरण, जिसमें उनकी राजनीतिक सहभागिता, प्रशासनिक ज्ञान, वित्तीय साक्षरता, गतिशीलता, और निर्णय लेने की क्षमता पर काफी मज़बूत प्रभाव डालता है.
जम़ीनी स्तर पर जो संकेत मिलते हैं उसके अनुसार NRLM और स्वयं-सहायता समूहों का प्रभाव काफी हद तक नज़र आता है. आंध्र प्रदेश से हालिया प्राप्त रिपोर्ट के अनुसार, जिसे अक्सर भारत में स्वयं-सहायता आंदोलन की शुरुआत किए जाने का श्रेय जाता है, ये दर्शाता है कि राज्य में 60 प्रतिशत महिला मतदाता एसएचजी से जुड़ी हुई हैं. और आगामी चुनावों में वे एक काफी महत्वपूर्ण भूमिका निभाएंगी. हालांकि, कई अन्य राज्यों से संबंधित आँकड़े उपलब्ध नहीं होने की वजह के बावजूद, ये कहा जा सकता है कि एसएचजी ने लोकतंत्र एवं शासन को मज़बूत करने में अपने प्रभाव का समुचित उपयोग किया है.
भारत की चुनावी राजनीति में महिलाओं द्वारा सामूहिक भागीदारी की प्रवृत्ति एक विसंगति है, जो राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर, श्रम एवं विधायी निकायों में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व से साफ होता है.
भारत की चुनावी राजनीति में महिलाओं द्वारा सामूहिक भागीदारी की प्रवृत्ति एक विसंगति है, जो राज्य एवं राष्ट्रीय स्तर पर, श्रम एवं विधायी निकायों में महिलाओं के कम प्रतिनिधित्व से साफ होता है. ये बताता है कि जब बात अर्थपूर्ण राजनीतिक सहभागिता की आती है तो, महिलाओं को एक बड़े अंतर को पाटने की ज़रूरत है, जिसके लिये वे इच्छुक और सक्षम दोनों ही है. इस साल, संसद में महिला आरक्षण बिल के पेश किये जाने के साथ ही, स्थानीय निकायों (ग्रामीण एवं शहरी दोनों ही) में महिलाओं के अनुभवों को देखते हुए, आगे की राह तय हो सकती है, वहाँ स्थानीय निकायों में महिलाओं द्वारा अर्जित 44 प्रतिशत सीटों के साथ, उनकी उपलब्धियों एवं असफलताओं से सीखने एवं इस मौके का लाभ उठाने का वक्त आ गया है. हम इस बात को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते हैं कि महिलाओं को मिले 30 वर्षों के आरक्षण का काफी परिवर्तनकारी प्रभाव रहा है.
The views expressed above belong to the author(s). ORF research and analyses now available on Telegram! Click here to access our curated content — blogs, longforms and interviews.