भारत सरकार द्वारा वर्ष 2024-25 के लिए पेश किए गए आम बजट में GYAN मॉडल को मज़बूती देने की प्रतिबद्धता जताई गई है, यानी इस साल के बजट में ‘गरीब’, ‘युवा’, ‘अन्नदाता’ और ‘नारी’ को सशक्त बनाने के लिए काफ़ी कुछ किया गया है. इतना ही नहीं, मोदी 3.0 के पहले बजट में आर्थिक विकास, सामाजिक कल्याण और टिकाऊ विकास के उद्देश्य से ‘विकसित भारत’ के लिए एक व्यापक रणनीतिक खाका भी खींचा गया है. हालांकि, जिस तरह से इस बजट में महिलाओं और बच्चों के लिए चलाए जा रहे अहम सामाजिक कल्याण कार्यक्रमों के आवंटन पर कैंची चलाई गई है, उससे यह बजट कहीं न कहीं मायूस करने वाला और नाउम्मीदी पैदा करने वाला है. राष्ट्रीय खाद्य सुरक्षा अधिनियम के तहत भारत सरकार के लिए सभी तक अच्छी गुणवत्ता वाले किफ़ायती भोजन की पहुंच सुनिश्चित करना यानी हर नागरिक को पोषण सुरक्षा प्रदान करना अनिवार्य है. वर्ष 2011 की जनगणना के मुताबिक़ भारत में कुल आबादी में महिलाओं की संख्या 48 प्रतिशत है, जबकि बच्चों की संख्या 19 प्रतिशत है. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण के अनुसार भारत की आबादी में शामिल ये 48 प्रतिशत महिलाएं देश के सकल घरेलू उत्पाद (GDP) में 18 प्रतिशत का योगदान देती हैं. अगर भारत में लैंगिक असमानता की खाई को भर दिया जाए, यानी कामकाजी परिस्थितियों में महिलाओं को भी बराबरी का अवसर प्रदान किया जाए, तो भारत की जीडीपी में 30 प्रतिशत की वृद्धि हो सकती है. इससे ज़ाहिर होता है कि स्वस्थ भविष्य सुनिश्चित करने के लिए महिलाओं और बच्चों की देखभाल, सेहत और उनकी सुख-समृद्धि बेहद आवश्यक है. लेकिन अफसोस की बात यह है कि इस साल के बजट में महिलाओं और बच्चों की पोषण संबंधी ज़रूरतों को लगभग नज़रंदाज़ कर दिया गया है.
भारत सरकार द्वारा वर्ष 2024-25 के लिए पेश किए गए आम बजट में GYAN मॉडल को मज़बूती देने की प्रतिबद्धता जताई गई है, यानी इस साल के बजट में ‘गरीब’, ‘युवा’, ‘अन्नदाता’ और ‘नारी’ को सशक्त बनाने के लिए काफ़ी कुछ किया गया है.
चित्र 1: बजट आवंटन 2024-25
भारत सरकार की पोषण 2.0 और सक्षम आंगनवाड़ी ऐसी व्यापक योजनाएं, जो महिलाओं और बच्चों की पोषण संबंधी ज़रूरतों को पूरा करने पर केंद्रित हैं. इन योजनाओं का मकसद पोषण सहायता, बच्चों की देखभाल और शिक्षा व पोषण अभियान के ज़रिए महिलाओं एवं बच्चों में कुपोषण को दूर करना है. जब इन योजनाओं की शुरू किया गया था और तब इनका व्यापक लक्ष्य वर्ष 2025 तक बच्चों में स्टंटिंग यानी बौनापन, कम वजन और जन्म के समय बच्चों में कम वजन की समस्या को हर साल 2 प्रतिशत और बच्चों में एनीमिया की समस्या को हर साल 3 प्रतिशत कम करने का था. पिछले सर्वेक्षण के आंकड़ों के मुताबिक़ देश में पांच साल से कम उम्र के बच्चों में से 35.5 प्रतिशत बच्चे बौनापन, 19.3 प्रतिशत बच्चे कम वजन और 32.1 प्रतिशत बच्चे जन्म के समय कम वजन की समस्या से पीड़ित हैं. इन महत्वपूर्ण योजनाओं को पिछले वर्ष (2023-24) के 20,552 करोड़ रुपये के बजट अनुमान के मुक़ाबले वित्तीय वर्ष 2024-25 के लिए 21,200 करोड़ रुपये आवंटित किए गए हैं (चित्र 1). अगर इस राशि में मुद्रास्फ़ीति को समायोजित कर लिया जाए तो इन योजनाओं के लिए आवंटित बजट में जो 3 प्रतिशत की मामूली वृद्धि की गई है, वो 2 प्रतिशत से भी कम हो जाती है. ग्लोबल हंगर इंडेक्स 2023 में शामिल 125 देशों में भारत का स्थान 11वां है. इतना ही नहीं भारत में बच्चों में बौनेपन की दर सबसे अधिक है. इसके अलावा, दुनिया में कम वजन वाले कुल बच्चों में से 49 प्रतिशत भारत में हैं. कुल मिलाकर देखा जाए तो महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के कुल बजट में इस बार बहुत कम बढ़ोतरी हुई है. वर्ष 2023-24 में महिला एवं बाल विकास मंत्रालय के कुल बजट 25,448 करोड़ रुपये था, जो कि वर्ष 2024-25 में बढ़कर 26,092 करोड़ रुपये हो गया है यानी इसमें 2.5 प्रतिशत की बेहद मामूली वृद्धि हुई है.
सामर्थ्य योजना
महिला एवं बाल विकास मंत्रालय की सामर्थ्य सब-स्कीम (SAMARTHYA) बहुत महत्वपूर्ण योजना है और इसके अंतर्गत महिला छात्रावास, स्वाधार गृह व प्रधानमंत्री मातृ वंदना योजना जैसे कार्यक्रमों का संचालन किया जाता है. इस साल के बजट में सामर्थ्य उप-योजना के लिए 2,517 करोड़ रुपये का आवंटन किया गया है, जो कि पिछले वर्ष के बजटीय अनुमान 2,582 करोड़ रुपये की तुलना में 2.5 प्रतिशत कम है. हालांकि, इस योजना के लिए इस साल के बजट में जो धनराशि आवंटित की गई है, वो वर्ष 2023-24 के संशोधित बजट 1,864 करोड़ रुपये से बहुत ज्य़ादा है. जिस प्रकार से वर्ष 2023-24 के लिए इस योजना का संशोधित बजट कम रहा, उससे प्रतीत होता है कि पिछले वर्ष इस योजना के लिए आवंटित धनराशि का समुचित उपयोग नहीं किया गया. इसका विस्तार से विश्लेषण करने पर पता चलता है कि लाभार्थियों को इस योजना का पर्याप्त लाभ नहीं मिल पाया. राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वेक्षण-5 (NFHS 5) के मुताबिक़ नवजात बच्चों को 6 महीने तक सिर्फ़ स्तनपान कराने के आंकड़े में सुधार हुआ है और यह आंकड़ा 64 प्रतिशत तक पहुंच गया है, जबकि 46 प्रतिशत बच्चों को समय पर पूरक आहार मिलता है और सिर्फ़ 11 प्रतिशत बच्चे (6-23 महीने) ही ऐसे हैं, जिन्हें न्यूनतम पर्याप्त आहार मिल पाता है. NFHS 5 में यह भी सामने आया कि बच्चों में एनीमिया भी बढ़ रहा है. इससे पता चलता है कि यह योजना हर ज़रूरतमंद तक नहीं पहुंच पाई है, साथ ही इससे यह भी पता चलता है कि योजना की रकम को ख़र्च नहीं किया जा रहा है. इसके अलावा, सर्वेक्षण के आंकड़े यह भी बताते हैं कि महिलाओं में जागरूकता की कमी है और इस योजना को लागू करने में गंभीरता का अभाव है. योजना के मूल्यांकन से सामने आया है कि अगर इसे ज़मीनी स्तर पर पूरी गंभीरता से लागू किया जाए तो बच्चों में एनीमिया की स्थिति को सुधारा जा सकता है.
NFHS 5 में यह भी सामने आया कि बच्चों में एनीमिया भी बढ़ रहा है. इससे पता चलता है कि यह योजना हर ज़रूरतमंद तक नहीं पहुंच पाई है, साथ ही इससे यह भी पता चलता है कि योजना की रकम को ख़र्च नहीं किया जा रहा है.
हालांकि, यह ध्यान रखना बेहद अहम है कि ऊपर जिन उप-योजनाओं का जिक्र किया गया है, उन्हें एक साथ जोड़ दिया गया है और इन उप-योजनाओं में अलग-अलग बजटीय आवंटन का कोई इंतज़ाम नहीं है, इस वजह से इन योजनाओं का विस्तृत विश्लेषण करना नामुमकिन है.
चित्र 2: पिछले तीन केंद्रीय बजटों में खाद्य सब्सिडी का आवंटन
इसके अतिरिक्त, इस साल के बजट में खाद्य सब्सिडी के लिए आवंटन को भी कम कर दिया गया.(चित्र 2) यह जानते हुए भी कि कुपोषण और खाद्य असुरक्षा जैसी गंभीर समस्याओं से निपटने के लिए खाद्य सब्सिडी को बजटीय सहायता दिया जाना बेहद महत्वपूर्ण है, सामाजिक कल्याण से जुड़े इस मद में बजट आवंटन को कम किया गया है. हाल ही में 24 घंटे की अवधि में कुछ भी नहीं खाने वाले 6 से 23 महीने के बच्चों की व्यापकता को लेकर किए गए अध्ययन के मुताबिक़ दुनिया के 92 निम्न एवं मध्यम आय वाले ऐसे देशों में भारत शीर्ष पर था. भारत में 6 से 23 महीने के ऐसे बच्चों की संख्या 19.3 प्रतिशत है, जो रात में भूखे पेट सोते हैं. भारत में 2022-23 के घरेलू उपभोग सर्वेक्षण के आंकड़ों का अध्ययन करने से यह भी सामने आता है कि देश में खाने-पीने को वस्तुओं पर होने वाले ख़र्च में गिरावट आई है, साथ ही अधिक कैलोरी वाले भोजन की तरफ रुझान बढ़ा है. इतना ही नहीं, इससे यह भी पता चला है कि मैक्रो और माइक्रो न्यूट्रिएंट वाले खाद्य पदार्थों तक परिवारों की पहुंच कम हुई है. हालांकि, इन हालातों के मद्देनज़र वर्ष 2024-25 के आम बजट में ‘कृषि में उत्पादकता और लचीलापन’ पर विशेष ध्यान दिया गया है और इस दिशा में काफ़ी कुछ प्रावधान किए गए हैं, बावज़ूद इसके वर्ष 2023-24 के बजट अनुमान की तुलना में इस मद में बजट आवंटन में सिर्फ़ 4.6 प्रतिशत की ही वृद्धि की गई है. ऐसे में इस साल इतना कम बजट आवंटन खाद्य सुरक्षा एवं मुद्रास्फ़ीति की चुनौतियों का सामना करने के लिहाज़ से नाकाफ़ी लग रहा है.
तालिका 1: केंद्रीय बजट 2022-23, 2023-24, 2024-25 में पोषण से संबंधित कार्यक्रम
कार्यक्रम
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2023-24 BE
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2023-24 RE
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2024-25 BE
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राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल मिशन
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70000
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70000
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70162
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मनरेगा (MNREGA)
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60000
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86000
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86000
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पीएम-पोषण
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11600
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10000
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12467
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कुपोषण की समस्या बहुत व्यापक है और बहुआयामी होने साथ-साथ यह कई तरीक़ों से सामने आती है. कहने का मतलब है कि कुपोषण की कई सारी वजहें हैं. कुपोषण की वजहों का समाधान निकालने के लिए पोषण संबंधी कार्यक्रमों या पहलों को अमल में लाया जाना बेहद ज़रूरी है, क्योंकि इसी के माध्यम से इस समस्या से निपटा जा सकता है. कुपोषण की समस्या का अलग से समाधान निकालना नामुमकिन है, इसके लिए सबसे उचित तरीक़ा यह है कि बजट में रोज़गार, साफ-सफाई या स्वच्छता की स्थिति, खाद्य सुरक्षा और स्वास्थ्य देखभाल सेवाओं तक पहुंच जैसे मुद्दों को संबोधित किया जाए, यानी इन क्षेत्रों में बजटीय आवंटन को बढ़ाकर कुपोषण का समाधान किया जा सकता है. तालिका-1 में राष्ट्रीय ग्रामीण पेयजल मिशन, महात्मा गांधी राष्ट्रीय ग्रामीण रोजगार गारंटी योजना (MNREGA), पीएम-पोषण और कृषि एवं खाद्य सुरक्षा कार्यक्रमों के लिए बजटीय अनुमान और संशोधित अनुमान को दिखाया गया है. इस तालिका में दिए गए तीन वर्षों के बजटीय अनुमान से प्रतीत होता है कि स्वच्छ पेयजल उपलब्ध कराने के लिए आवंटित किए गए बजट में कोई परिवर्तन नहीं हुआ है. वहीं मनरेगा के लिए आवंटित धनराशि भी पिछले साल के संशोधित बजट के ही बराबर है, जबकि पीएम-पोषण या स्कूल में भोजन दिए जाने वाली योजना के लिए आवंटित बजट को पिछले साल के बजट अनुमान की तुलना में 7.5 प्रतिशत बढ़ाया गया है. अगर 2023-24 के संशोधित अनुमान से तुलना करें, तो इस योजना के लिए आवंटित बजट में इस साल 25 प्रतिशत की वृद्धि हुई है. हालांकि, इस योजना के अंतर्गत जिस प्रकार से निम्न और ख़राब गुणवत्ता का भोजन दिया जा रहा है, वो अत्यधिक चिंता का मुद्दा है.
कुपोषण की वजहों का समाधान निकालने के लिए पोषण संबंधी कार्यक्रमों या पहलों को अमल में लाया जाना बेहद ज़रूरी है, क्योंकि इसी के माध्यम से इस समस्या से निपटा जा सकता है.
तमाम अध्ययनों और पूर्व के अनुभवों के आधार पर अगर यह सुनिश्चित करना है कि कमज़ोर वर्गों और हाशिए पर पड़े समुदायों तक समुचित सहायता पहुंचे, तो इसके लिए न केवल विशेष प्रकार के नीतिगत क़दम उठाने की ज़रूरत है, बल्कि इसके लिए न्यायसंगत बजट आवंटन की भी आवश्यकता है. ज़ाहिर है कि जिस प्रकार से भारत सरकार ने इस साल के बजट में महिला एवं बाल कल्याण से जुड़ी विभिन्न योजनाओं, जैसे कि सक्षम आंगवाड़ी और पोषण 2.0 से लेकर मातृत्व लाभ योजनाओं एवं पीएम-पोषण योजना तक के बजटीय आवंटन में बेहद मामूली सी बढ़ोतरी की है, उससे यह स्पष्ट हो जाता है कि इस दिशा में सरकार कतई गंभीर नहीं है और भूख से लड़ने व पोषण सुरक्षा सुनिश्चित करने के लिए सरकार के स्तर पर अभी बहुत किया जाना बाक़ी है.
शोभा सूरी ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो हैं.
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