Author : Nilanjan Ghosh

Expert Speak India Matters
Published on Jul 24, 2024 Updated 0 Hours ago

कुल मिलाकर देखा जाए तो इस बजट की अपनी ख़ासियत हैं तो कुछ कमियां भी हैं. लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि बजट में विकसित भारत के दीर्घकालिक लक्ष्य को दिमाग में रखा गया है.

बजट 2024-25: विकसित भारत की तरफ बढ़ते मज़बूत कदम

वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने 2024-24 का केंद्रीय बजट पेश कर दिया है. इसके साथ ही उन्होंने सबसे ज़्यादा बार बजट पेश करने के पूर्व प्रधानमंत्री मोरारजी देसाई के रिकॉर्ड को तोड़ दिया है. निर्मला सीतारमण ने लगातार 7वीं बार बजट पेश किया. मोदी सरकार के तीसरे कार्यकाल का ये पहला बजट था. ऐसे में उम्मीद थी कि मोदी 2.0 की सरकार के दौरान जो विज़न तय किए गए हैं, ये बजट उसी के मुताबिक होगा और हुआ भी वैसा ही. अगर हम वित्त मंत्री के पहले के बजट भाषणों को पढ़ें, जैसे कि कोविड काल के बाद  2020-21 और 2021-22 के बजट, तो उनमें कुछ समान सिद्धांत मिलते हैं. इन्हीं पर इस सरकार की विकास योजनाएं आधारित हैं. इनमें से एक है स्थायी विकास के लक्ष्य (SDGs). दूसरी महत्वपूर्ण चुनौती है उन समस्याओं का समाधान करना, जिनका हम इस वक्त वैश्विक स्तर पर सामना कर रहे हैं. इन "बहुसंकटों" में कोरोना महामारी के बाद की स्थिति, यूक्रेन-रूस से मची उथल पुथल, आपूर्ति चेन में बाधाएं शामिल हैं. तीसरी चुनौती अर्थव्यवस्था के आंतरिक समीकरण है, जहां कुशलता, समानता और स्थिरता के बीच संतुलन बनाना है. ये बजट भी कोई अपवाद नहीं है.

भारतीय अर्थव्यवस्था में परिवार, स्थिर पूंजी निर्माण के सबसे बड़े कारक हैं. कुल राष्ट्रीय बचत में इनकी भागीदारी 60 प्रतिशत से ज़्यादा है. दूसरे शब्दों में कहें तो अगर इन परिवारों के हाथ में ज़्यादा पैसा होगा तो ये विकास को बढ़ावा देगा.


भारत में पिछले तीन दशक में जो विकास देखा गया, वो उपभोग संचालित था लेकिन पिछले वित्तीय वर्ष में इसमें बदलाव देखा गया. इसमें जीडीपी की विकास दर तो 8.2 प्रतिशत रही, जबकि उपभोग में सिर्फ 4 फीसदी की बढ़ोत्तरी हुई. अब ऐसा लग रहा है कि आर्थिक विकास का कारण सकल स्थिर पूंजी निर्माण या निवेश में वृद्धि है, जिसमें करीब 9 प्रतिशत की बढ़ोत्तरी देखी गई. मामला चाहे उपभोग संचालित विकास का हो या फिर निवेश योग्य धन का, भारतीय परिवारों की हमेशा इसमें सबसे प्रमुख भूमिका रही है. जीडीपी में निजी उपभोग व्यय की हिस्सेदारी 55 प्रतिशत से ज़्यादा है. भारतीय अर्थव्यवस्था में परिवार, स्थिर पूंजी निर्माण के सबसे बड़े कारक हैं. कुल राष्ट्रीय बचत में इनकी भागीदारी 60 प्रतिशत से ज़्यादा है. दूसरे शब्दों में कहें तो अगर इन परिवारों के हाथ में ज़्यादा पैसा होगा तो ये विकास को बढ़ावा देगा. उच्च सीमांत उपभोग प्रवृत्ति वाला कम आय का परिवार (क्रमिक आय के साथ उपभोग की मांग पर खर्च की जाने वाली वृद्धिशील राशि) उपभोग पर खर्च करेगा, जबकि ज़्यादा आय वाला परिवार बचत करने की उच्च प्रवृत्ति (या उपभोग करने की कम प्रवृत्ति) की वजह से वित्तीय या गैर-वित्तीय बचत के रूप में पैसा बचाएगा. इससे अर्थव्यवस्था में निवेश करने योग्य पूंजी निधि तैयार होगी. ऐसे में उम्मीद थी कि अगर निजी आयकर में कुछ रियायत दी जाती तो इससे परिवारों को फायदा होता. ये विकास में उनके योगदान का पुरस्कार भी होता और इसकी वजह से प्रगति को और रफ़्तार मिलती.

हालांकि, टैक्स में कुछ राहत तो मिली, लेकिन उतनी नहीं जितनी उम्मीद थी. टैक्स में मिली राहत कम आय वाले परिवारों में ज़्यादा दिखेगी क्योंकि मानक कटौती (स्टैंडर्ड डिडक्शन) के स्तर में वृद्धि की गई है. इसके अलावा टैक्स स्लैब में भी कुछ बदलाव किए गए हैं. इसमें तो कोई शक नहीं कि इनसे विकास पर सकारात्मक प्रभाव पड़ेगा लेकिन परिवारों में "निवेश करने योग्य फंड" की मांग शायद पूरी नहीं हो पाएगी. ऐसा तभी होता जब 30 प्रतिशत वाला टैक्स स्लैब 15 लाख रुपये की बजाय कम से कम 20-25 लाख रुपये से शुरू होता.

 

इस बजट में जो चीज सराहनीय हैं, वो हैं इसमें तय की गई निम्नलिखित 9 प्राथमिकताएं. 1-कृषि उत्पादकता और कृषि क्षेत्र में लचीलापन, 2- रोजगार और कौशल, 3- समावेशी मानव संसाधन विकास और सामाजिक न्याय, 4- मैन्यूफैक्चरिंग और सर्विसेज, 5- शहरी विकास, 6- ऊर्जा सुरक्षा, 7- बुनियादी ढांचा, 8- इनोवेशन, रिसर्च एंड डिवेलपमेंट और 9- अगली पीढ़ी के सुधार. 

इस संदर्भ में कुछ बिंदुओं पर बात करना ज़रूरी है क्योंकि वो विकसित भारत के विज़न और देश के महान भविष्य के लिए महत्वपूर्ण हैं. विकसित भारत लक्ष्य के तहत देश को 2047 यानी आज़ादी के 100 साल पूरे होने तक विकसित राष्ट्र बनाना है. पहला मुद्दा कृषि से संबंधित है. 22 जुलाई को ही एक आलोचनात्मक लेख में कहा गया था कि 2023-24 के आर्थिक सर्वे में कृषि उत्पादकता पर ज़्यादा बात नहीं की गई, जबकि कृषि विपणन पर अधिक ध्यान केंद्रित किया गया है. शायद इसी भ्रम को दूर करने के लिए बजट में कृषि उत्पादकता पर बात की गई है. बजट में कृषि क्षेत्र में इनोवेशन और रिसर्च की बात कही गई है. ख़ासकर जलवायु के हिसाब से और अधिक उत्पादकता वाली फसलों की ज़रूरत पर ज़ोर दिया गया है. इसके अलावा भविष्य में इस तरह की फसलों को बढ़ावा देने और कीमत निर्धारण का तंत्र बनाने की भी बात की गई है. इस प्रक्रिया को पहले ही शुरू किया जा चुका है. मोटे अनाज को बढ़ावा देने के अलग-अलग तरीके खोजे जा रहे हैं. इसके तहत कम पानी की खपत करने वाली फसलों को न्यूनतम समर्थन मूल्य के ज़रिए बढ़ावा दिया जा रहा है, जबकि धान और मक्के जैसी ज़्यादा पानी की खपत वाली फसलों के ख़िलाफ व्यापार शर्तों को कड़ा किया जा रहा है.

हालांकि डिजिटलीकरण द्वारा संचालित बाज़ार एकीकरण की कोशिशों के माध्यम से बेहतर संस्थागत तंत्र को बढ़ावा दिए जाने की आवश्यकता है. अगर ऐसा नहीं हुआ तो इसके लिए निर्धारित 1.52 लाख करोड़ रूपये बेकार चले जाएंगे

मानव पूंजी पर काम करना

इस बजट की एक महत्वपूर्ण बात मौजूदा डेमोग्राफिक डिविडेंड यानी जनसांख्यिकी का फायदा उठाना, शिक्षा, स्वास्थ्य और कौशल विकास के ज़रिए मानव पूंजी को बढ़ावा देना है. बजट में इस बात को ईमानदारी से स्वीकार किया गया है. ये हर लिहाज़ से एक स्वागतयोग्य कदम है. भारत में श्रम तो बड़ी मात्रा में उपलब्ध है लेकिन कौशल विकास नहीं होने की वजह से ये भारत की वर्तमान और भविष्य की ज़रूरतों को पूरा करने में नाकाम रहा है. रोज़गार के क्षेत्र में भी इससे बाधाएं पैदा होती है. ऐसे में शिक्षा और कौशल विकास पर ध्यान केंद्रित करने से भारत में मौजूद व्यापक श्रम बल को देश की प्रगति के लिए ज़रूरी मानव पूंजी में बदला जा सकेगा. इससे श्रमिकों की गुणवत्ता और उत्पादकता भी बढ़ेगी. अलग-अलग क्षेत्रों में इसका लाभ भी दिखेगा. लेकिन इस बजट में जो एक सबसे खास प्रावधान किया गया है, वो है कर्मचारी भविष्य निधि संगठन (EPFO) में नामांकन को रोज़गार से जोड़कर प्रोत्साहित करना (ELIs). इसका मतलब ये हुआ कि उत्पादन से जुड़े प्रोत्साहन (PLIs) जहां उत्पाद पक्ष में काम करेंगे, वहीं रोज़गार से जुड़े प्रोत्साहन (ELIs) कारक पक्ष होंगे. ये एक तरफ श्रमबल को कुशल बनाकर दक्षता संबंधी चिंताओं को संबोधित करता है तो वहीं दूसरी तरफ रोज़गार सृजन के ज़रिए समानता और न्याय की बात करता है. इसमें कोई शक नहीं कि मानव पूंजी पर ज़ोर देना एक सराहनीय और भविष्यवादी कदम है. ये भारतीय अर्थव्यवस्था के एक महत्वपूर्ण अंतर को पाटता है, साथ ही विकसित भारत की तरफ हमारे बढ़ते कदमों में हुई प्रगति का भी उल्लेख करता है. 

भारत में श्रम तो बड़ी मात्रा में उपलब्ध है लेकिन कौशल विकास नहीं होने की वजह से ये भारत की वर्तमान और भविष्य की ज़रूरतों को पूरा करने में नाकाम रहा है. रोज़गार के क्षेत्र में भी इससे बाधाएं पैदा होती है. ऐसे में शिक्षा और कौशल विकास पर ध्यान केंद्रित करने से भारत में मौजूद व्यापक श्रम बल को देश की प्रगति के लिए ज़रूरी मानव पूंजी में बदला जा सकेगा.


बजट के सामाजिक पक्ष


इसके अलावा बजट की इस बात के लिए भी तारीफ करनी चाहिए कि इसमें मध्यम, लघु और सूक्ष्म उद्योग (MSMEs), महिला सशक्तिकरण और महिला उद्यमियों को बढ़ावा देने के लिए कई महत्वपूर्ण कदम उठाए गए हैं. MSMEs जिस वक्त मुश्किल में होते हैं, वैसे समय में उन्हें क्रेडिट गारंटी स्कीम और क्रेडिट सपोर्ट स्कीम की मदद देना इस संबंध में काफी महत्वपूर्ण होता है. लेकिन यहां पर इस बात को समझना भी ज़रूरी है कि MSMEs को और ज़्यादा प्रतिस्पर्धी बनाया जाए. भारत विदेशी निवेश को आकर्षित करने के लिए दुनिया के कई देशों के साथ मुक्त व्यापार समझौतों (FTAs) और व्यापक आर्थिक साझेदारी समझौतों (CEPAs) पर दस्तख़त करने जा रहा है. ऐसे में MSMEs को कड़ी प्रतियोगिता का सामना करना पड़ेगा. इसलिए ये ज़रूरी है कि इस क्षेत्र के उद्योग बेहतर उत्पादकता मानदंड और प्रबंधन के बेहतर नियमों के साथ ख़ुद को आने वाली चुनौतियों के लिए मज़बूत करें.

बात अगर मुद्रा योजना की करें तो इसमें लोन की राशि मौजूदा 10 लाख रूपये से बढ़ाकर 20 लाख रूपये कर दी गई है. इससे ना सिर्फ MSMEs को फायदा होगा बल्कि महिला उद्यमियों को भी बढ़ावा मिलेगा. ये याद रखे जाने की ज़रूरत है कि भारत जैसे बड़े देश में रोज़गार पैदा करने का सबसे बेहतर तरीका उद्यमिता का मल्टीप्लायर इफेक्ट है. इसके अलावा महिला कार्यबल को बढ़ावा देकर भी अर्थव्यवस्था की समग्र कौशलता का विकास किया जा सकता है. इसके लिए महिला उद्यमियों को आगे लाने की आवश्यकता है क्योंकि तभी महिला श्रमबल का पूरी तरह इस्तेमाल किया जा सकेगा. 

बात अगर मुद्रा योजना की करें तो इसमें लोन की राशि मौजूदा 10 लाख रूपये से बढ़ाकर 20 लाख रूपये कर दी गई है. इससे ना सिर्फ MSMEs को फायदा होगा बल्कि महिला उद्यमियों को भी बढ़ावा मिलेगा.

इसके अलावा इस बजट में ग्रीन फाइनेंस की बात भी कही गई है. इसके लिए संयोजन और शमन की आवश्यकता पर ज़ोर दिया गया है. ग्रीन टैक्सोनॉमी का मसौदा तैयार कर दोनों को इसमें समायोजित किए जाने की बात कही गई है. ये भी एक सराहनीय पहल है. इससे पता चलता है कि भारतीय अर्थव्यवस्था अपनी वैश्विक जिम्मेदारियों को बेहतर तरीके से समझती है. लेकिन ये कमज़ोर क्षेत्रों और समुदायों की अनुकूलन वित्तीय सहायता की तात्कालिक ज़रूरतों से भी अनजान नहीं है. 

प्रतिभूति और राजकोषीय क्षेत्र की क्या स्थिति?

बजट अनुमान के मुताबिक राजकोषीय घाटा 4.9 प्रतिशत है. अगर स्थिति ऐसी ही रहती है तो ये मौजूदा 5.9 प्रतिशत की तुलना में बेहतर प्रदर्शन होगा. बजट भाषण में ये भी कहा गया है कि 2025-26 तक राजकोषीय घाटे को कम करके 4.6 प्रतिशत तक लाने की कोशिश की जाएगी. अब सवाल है कि ये राजस्व कहां से आएगा? सिक्योरिटीज ट्रांजैक्शन टैक्स (STT) बढ़ाने का क्या औचित्य था, ये स्पष्ट नहीं दिख रहा है. बजट में प्रस्ताव किया गया है कि “शेयर बाज़ार में किसी विकल्प की बिक्री पर एसटीटी की दरों को ऑप्शन प्रीमियम के 0.0625 प्रतिशत से 0.1 प्रतिशत तक बढ़ाया जाता है. इसी तरह प्रतिभूतियों में वायदा की बिक्री पर ये दर 0.0125 प्रतिशत से बढ़ाकर 0.02 प्रतिशत तक, उस कीमत पर जिस पर ऐसे वायदा कारोबार किए जाते हैं, की गई है. यानी फ्यूचर एंड ऑप्शन में ऑप्शन को बेचने पर पहले 0.0625 फीसदी टैक्स लगता था. इसे बढ़ाकर 0.10 फीसदी कर दिया गया है. 

फ्यूचर एंड ऑप्शन में फ्यूचर बेचने पर पहले 0.0125 फीसदी का टैक्स लगता था. अब इसे बढ़ाकर 0.02 फीसदी कर दिया गया है. आसान भाषा में समझें तो 100 रुपये का ऑप्शन बेचने पर अब 10 पैसे का STT लगेगा जबकि 100 रुपये का फ्यूचर बेचने पर 2 पैसे का STT लगेगा. इकोनॉमिक सर्वे में फ्यूचर एंड ऑप्शंस ट्रेडिंग में बढ़ती भागीदारी पर चिंता जताई थी. इसमें यहां तक ​​​​कहा गया है कि इस तरह के स्पेकुलेटिव ट्रेडिंग की भारत जैसे विकासशील देश में कोई जगह नहीं है. प्रतिशत वृद्धि के नज़रिए से देखें तो इससे वायदा कारोबार पर लेनदेन लागत 60 प्रतिशत बढ़ जाती है. अभी टैक्स रेवेन्यू में एसटीटी का योगदान 1 प्रतिशत से भी कम है. एसटीटी में बढ़ोत्तरी का शेयर बाज़ार पर विपरीत असर भी पड़ सकता है. टैक्स दर का नतीजा ये भी हो सकता है कि शेयर बाज़ार में लेन-देन में कमी (लैफेराइजेशन फैक्टर की वजह से) आ जाए. अगर ऐसा होता है तो राजस्व में और कमी आ सकती है. इसके अलावा ये भी स्पष्ट नहीं है कि "प्रतिभूतियों" की परिभाषा केवल इक्विटी बाज़ार पर लागू होती है या इसमें कॉमोडिटी मार्केट भी शामिल हैं. अगर इसमें कॉमोडिटी मार्केट भी शामिल है तो फिर गैर-कृषि वस्तुओं की हेजिंग लागत और बढ़ जाएगी.

कुल मिलाकर देखा जाए तो इस बजट की अपनी ख़ासियत हैं तो कुछ कमियां भी हैं. लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि बजट में विकसित भारत के दीर्घकालिक लक्ष्य को दिमाग में रखा गया है.

कुल मिलाकर देखा जाए तो इस बजट की अपनी ख़ासियत हैं तो कुछ कमियां भी हैं. लेकिन इस बात से इनकार नहीं किया जा सकता है कि बजट में विकसित भारत के दीर्घकालिक लक्ष्य को दिमाग में रखा गया है. आने वाले वर्षों में अर्थव्यवस्था में विनिर्माण और सेवा क्षेत्र पर ज़ोर देने के साथ उपभोग और निवेश की ताकतों के साथ मिलकर काम करना होगा. एक विकसित भारत के लक्ष्य को तभी हासिल किया जा सकता है, जब विकास के सभी कारक एक साथ काम करें. विकास के मानदंडों में कौशलता, स्थिरता, समानता और न्याय के सिद्धांतों को भी शामिल किया जाए.


(नीलांजन घोष ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में निदेशक हैं)

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