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वित्त वर्ष 2022-23 के केंद्रीय बजट अनुमानों (BE) में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग के लिए 83,000 करोड़ रु का आवंटन किया गया है. 2021-22 में आवंटित 82,921 करोड़ के मुक़ाबले ये रकम लगभग जस की तस है. हालांकि, महामारी से पहले के दौर (वित्त वर्ष 2019-20) की तुलना में इसमें 33 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. टेक्नोलॉजी के बूते विकास को बढ़ावा देने के रुख़ के हिसाब से नए बजट में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी गुणवत्तापूर्ण सेवाओं के लिए राष्ट्रीय टेली-मेंटल हेल्थ कार्यक्रम के गठन का प्रस्ताव किया गया है. इसके तहत 23 समर्पित केंद्रों से मुफ़्त टेली-काउंसलिंग सेवा मुहैया कराई जाएगी. नेशनल इंस्टीट्यूट ऑफ़ मेंटल हेल्थ एंड न्यूरो साइंसेज़ (NIMHANS) के तत्वावधान और दिशानिर्देशों और IIIT बेंगलुरु के तकनीकी सहयोग के ज़रिए ये सेवा मुहैया करवाई जाएगी. वित्त मंत्री निर्मला सीतारमण ने देश में डिजिटल हेल्थ इकोसिस्टम के विकास पर ज़ोर देते हुए कहा: “इसके तहत स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं और स्वास्थ्य सुविधाओं के डिजिटल दस्तावेज़, सहमति ढांचे और स्वास्थ्य सुविधाओं तक सबकी पहुंच को शामिल किया जाएगा.” इस घोषणा को मीडिया में विस्तार से कवर किया गया. साथ ही बजट भाषण में मानसिक स्वास्थ्य की ‘दुर्लभ चर्चा‘ ने इस मसले को मुख्यधारा में स्वीकार किए जाने की ओर इशारा किया. एक लंबे अर्से से इस बात की प्रतीक्षा की जा रही थी.
टेक्नोलॉजी के बूते विकास को बढ़ावा देने के रुख़ के हिसाब से नए बजट में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ी गुणवत्तापूर्ण सेवाओं के लिए राष्ट्रीय टेली-मेंटल हेल्थ कार्यक्रम के गठन का प्रस्ताव किया गया है. इसके तहत 23 समर्पित केंद्रों से मुफ़्त टेली-काउंसलिंग सेवा मुहैया कराई जाएगी.
2021-22 के बजट अनुमानों की तुलना में मानसिक स्वास्थ्य पर केंद्र के बजट में 12.15 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. नीचे टेबल में ये दिखाया भी गया है. हालांकि मूल रूप से ये बढ़ोतरी केंद्र सरकार द्वारा फ़ंड किए जा रहे दो संस्थानों के लिए है. राष्ट्रीय स्तर पर फ़ंड किए जा रहे राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य मिशन में किसी तरह का बदलाव नहीं किया गया है. बजट की समीक्षा के दौरान अक्सर आवंटित रकम का पूरा इस्तेमाल नहीं हो पाने की बात सामने आती है. ग़ौरतलब है कि पिछले चार वित्त वर्षों के बजटों में स्वास्थ्य और परिवार कल्याण से जुड़ी धनराशि का 1 प्रतिशत से भी कम हिस्सा मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए आवंटित किया गया. मानसिक स्वास्थ्य को लेकर बढ़ती चर्चाओं और इनसे जुड़ी सेवाओं की ज़रूरतों के बावजूद इनपर संसाधनों के आवंटन से जुड़ी प्राथमिकताएं निराशाजनक रही हैं.
टेबल 1:मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं पर केंद्रीय बजटों का तुलनात्मक आवंटन (रु में)
2019-20 वास्तविक |
2020-21 वास्तविक | 2021-22 बजट अनुमान | 2021-22 पुनरीक्षित अनुमान | 2022-23 बजट अनुमान | 2021-22 के बजट अनुमानों से % में बदलाव | |
राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य सेवा कार्यक्रम (NMHP) | 2.51 करोड़ | 20.46 करोड़ | 40 करोड़ | 29 करोड़ | 40 करोड़ | कोई बदलाव नहीं |
NIMHNS, बेंगलुरु | 453.41 करोड़ | 474.43 करोड़ | 500.44 करोड़ | 528.49 करोड़ | 560 करोड़ | 12% |
लोकप्रिय गोपीनाथ बोरदोलोई क्षेत्रीय मानसिक स्वास्थ्य संस्थान, तेज़पुर (LGBRIMH) | 55 करोड़ | 52 करोड़ | 57 करोड़ | 67.16 करोड़ | 70 करोड़ | 23% |
कुल केंद्रीय मानसिक स्वास्थ्य सेवा आवंटन | 510.92 करोड़ | 546.89 करोड़ | 597.44 करोड़ | 624.65 करोड़ | 670 करोड़ | 12.15% |
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग (HFW) | 62397.08 करोड़ | 77569.33 करोड़ | 71268.77 करोड़ | 82920.65 करोड़ | 83000 करोड़ | 16.46% |
स्वास्थ्य और परिवार कल्याण विभाग के अनुपात में मानसिक स्वास्थ्य के लिए समर्पित व्यय | 0.82% | 0.71% | 0.84% | 0.75% | 0.81% |
स्रोत: बजट 2022
देश में सरकारी क्षेत्र में मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े 47 संस्थान कार्यरत हैं. हालांकि, केंद्र सरकार द्वारा संचालित तीन मानसिक स्वास्थ्य संस्थानों में से अकेले 2 संस्थानों को इस क्षेत्र के लिए आवंटित कुल रकम का 94 फ़ीसदी हिस्सा हासिल हुआ है. मानसिक स्वास्थ्य के क्षेत्र में केंद्रीय मान्यता प्राप्त संस्थानों की तादाद महज़ तीन है. रांची का केंद्रीय मनोचिकित्सा संस्थान उनमें से एक है. बहरहाल इस संस्थान को केंद्र के 1,016.43 करोड़ के स्थापित ख़र्च में से सिर्फ़ चुटकी भर हिस्सा ही मिलेगा. दरअसल, इस रकम से 10 या उससे भी ज़्यादा शोध और शिक्षण संस्थानों को फ़ंड बांटे जाने हैं. इनमें से NIMHANS को 560 करोड़ रु आवंटित किए गए हैं. इसी संस्थान के कंधों पर प्रस्तावित टेली-मेंटल हेल्थ प्रोग्राम की ज़िम्मेदारी है. हालांकि दायित्वों के स्पष्ट बंटवारे के अभाव में हमारे सामने ये प्रश्न खड़ा होता है कि क्या अकेले NIMHANS को ही इस पूरे कार्यक्रम के लिए ख़र्च की व्यवस्था करनी है?
अध्ययनों से पता चला है कि कोविड-19 से ठीक हो चुके हरेक तीन में से एक शख़्स में स्नायु या मानसिक तौर पर किसी न किसी तरह का विकार पाए जाने की आशंका रहती है. NMHP में ठहराव से राष्ट्रीय स्तर पर कोविड-19 पर क़ाबू पाने के प्रयासों को धक्का पहुंचता है. साथ ही वायरस के दीर्घकालिक प्रभावों से निपटने में स्वास्थ्य सेवाओं की तैयारियों पर भी असर पड़ता है.
महज़ दो संस्थानों तक क्षमता और संसाधनों को केंद्रीकृत कर देने से सेवा उपलब्ध कराने की विविधता में रुकावटें आती हैं. साथ ही जानकारी और ज्ञान के सृजन और भूगोल के लिहाज़ से पेशेवर सेवाएं मुहैया कराने में भी कई तरह की सीमाएं सामने आने लगती हैं. ऐसे में उदारता से सरकारी फ़ंड हासिल करने वाले सरकारी संस्थानों और निजी संगठनों से जुड़े शोधकर्ताओं और स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं को ही दीर्घकाल में फ़ायदा पहुंचेगा. ये सेवाएं उम्मीद के मुताबिक तेज़ रफ़्तार से ज़मीन तक नहीं उतारी जा सकेंगी. इन सेवाओं को सीमित कर देने की क़वायद इन्हें एक ‘संभ्रांत’ सेवा बना देती है. ऐसे में सिर्फ़ वही इस तरह की सेवाएं हासिल कर सकते हैं जो महंगे निजी स्वास्थ्य सेवा प्रदाताओं का ख़र्च उठाने की क्षमता रखते हैं. साथ ही योजना और निजी किरदारों, सिविल सोसाइटी और ग़ैर-सरकारी संगठनों के साथ उनके न्यूनतम संवाद का दौर बदस्तूर जारी रहता है.
अध्ययनों से पता चला है कि कोविड-19 से ठीक हो चुके हरेक तीन में से एक शख़्स में स्नायु या मानसिक तौर पर किसी न किसी तरह का विकार पाए जाने की आशंका रहती है. NMHP में ठहराव से राष्ट्रीय स्तर पर कोविड-19 पर क़ाबू पाने के प्रयासों को धक्का पहुंचता है. साथ ही वायरस के दीर्घकालिक प्रभावों से निपटने में स्वास्थ्य सेवाओं की तैयारियों पर भी असर पड़ता है. कोविड के दूरगामी प्रभावों (Long COVID) के चलते सामने आने वाले सामूहिक सदमे, तकलीफ़ और मानसिक विकारों से दो-दो हाथ करने में व्यवस्था की तैयारियां नाकाफ़ी साबित होती हैं.
मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं का डिजिटाइज़ेशन आधा-अधूरा लगता है. दरअसल वित्त वर्ष 2020-21 के बाद से टेली-मेडिसिन श्रेणी में कोई अहम प्रावधान नहीं किए गए हैं. सार्वजनिक स्तर पर कोविड से जुड़ी सेवाओं की विशाल ज़रूरतों को पूरा करने के लिए ही बजट आवंटन को बढ़ाया जाता रहा. हालांकि फ़ंडिंग से दीर्घकालिक तौर पर किसी तरह की प्रतिबद्धताओं की झलक नहीं मिलती.
शुरुआती तौर पर भावनात्मक मरहम लगाने संबंधी प्रशिक्षण को अनिवार्य बना दिया जाना चाहिए. 1982 में NMHP की शुरुआत हुई थी. तबसे इसे हमेशा चुनौतियों का सामना करना पड़ा है. प्रशिक्षित और जज़्बे से भरे स्टाफ़ की ग़ैर-मौजूदगी के चलते ये समस्या और विकट हो गई है.
एक अहम बात ये है कि इन सेवाओं तक पहुंच बनाने और राहत पाने की कोशिश करने वाले समूह में पुरुषों का ही दबदबा रहा है. टेलीकंसल्टेशंस के मामलों में भी ऐसा ही देखा गया है. आंकड़े भी इसी बात की तस्दीक़ करते हैं. हेल्पलाइनों के बारे में जागरूकता फैलाने वाले कार्यक्रम मुख्य रूप से ऑन लाइन मीडिया और सोशल प्लेटफॉर्म पर चलाए गए हैं. NFHS-5 के मुताबिक भारत में सिर्फ़ 33 फ़ीसदी महिलाएं ही इंटरनेट का इस्तेमाल करती पाई गईं, जबकि पुरुषों में ये तादाद 57 फ़ीसदी थी. इतना ही नहीं भारत में वयस्क पुरुषों के मुक़ाबले 15 फ़ीसदी कम वयस्क महिलाओं के पास मोबाइल फ़ोन होने की संभावना रहती है. जब 100 में से सिर्फ़ 55 लोगों के पास ही इंटरनेट की सुविधा उपलब्ध है, तो सवाल खड़ा होता है कि हम किस तरह की डिजिटल पहुंच और कनेक्शन का जश्न मना रहे हैं?
ऊपर के टेबल में केंद्र द्वारा सीधे तौर पर फ़ंड किए जाने वाले मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े कामों की चर्चा ही की गई है. बहरहाल दिव्यांगजन अधिकार अधिनियम, 2016 पर अमल के ज़रिए सामाजिक न्याय और आधिकारिता मंत्रालय भी मानसिक सेहत के मद में एक निश्चित रकम आवंटित करता है. हालांकि इस रकम की ठीक-ठीक जानकारी उपलब्ध नहीं है. मंत्रालय ने 2020 में किरण हेल्पलाइन चालू की थी. इस पर फ़ोन करने वालों को घबराहट, मनोदशा से जुड़े विकारों, अनिद्रा, अवसाद के लक्षणों आदि पर मदद दी जाती है. हालांकि टेली-मेंटल हेल्थ प्रोग्राम की घोषणा के बाद भविष्य में ये हेल्पलाइन जारी रहेगी या नहीं, ये देखना अभी बाक़ी है.
ज़िला मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम (DMHP), NMHP का ही एक घटक है. राज्यों और केंद्र शासित प्रदेशों के 692 ज़िलों में ये कार्यक्रम लागू है. NHM के तहत ग़ैर-संक्रामक बीमारियों के लचीले कोष के ज़रिए इसका संचालन किया जा रहा है. नीचे के चार्ट से इस कोष के आधे-अधूरे इस्तेमाल की बात ज़ाहिर होती है. पिछले 6 वर्षों में 50 प्रतिशत से भी ज़्यादा रकम बग़ैर इस्तेमाल के ऐसे ही पड़ी रह गई है. कार्यक्रम के स्वतंत्र आकलनों में पहुंच की देरी और दूसरी स्वास्थ्य योजनाओं के साथ धरातल पर बेमेल जुड़ावों को सेवा पहुंचाने की क़वायद को पटरी पर लाने की प्रमुख रुकावट बताया गया है.
चित्र 1: ग़ैर-संक्रामक बीमारियों के लचीले कोष के तहत DMHP के लिए मुहैया रकम का इस्तेमाल (NHM)
स्रोत: राज्यसभा
प्राथमिक स्वास्थ्य केंद्रों (PHCs) और सामुदायिक स्वास्थ्य केंद्रों (CHCs) में कोष के वितरण को लेकर जागरूकता के अभाव और कुप्रबंधन का DHMP की नाकामियों में बड़ा हाथ रहा है. प्राथमिक से ज़िला केंद्रों में रेफ़र किए जाने की क़वायदों के चलते मरीज़ डॉक्टरी सलाह लिए बिना ही घर लौट जाते हैं. इसके अलावा मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े बुनियादी ढांचे में भी कई ख़ामियां है. इसका स्वास्थ्य व्यवस्था के व्यापक तंत्र से संपर्क टूटा हुआ है. कोरोना महामारी ने इस समस्या को और विकराल बना दिया है. प्राथमिक चिकित्सकों को मानसिक बीमारियों और सदमे की पहचान करने का प्रशिक्षण हासिल नहीं है. लिहाज़ा वो मरीज़ों को उन जगहों पर नहीं भेज पाते जहां उन्हें पर्याप्त और बेहतर देखभाल हासिल हो सकती है. शुरुआती तौर पर भावनात्मक मरहम लगाने संबंधी प्रशिक्षण को अनिवार्य बना दिया जाना चाहिए. 1982 में NMHP की शुरुआत हुई थी. तबसे इसे हमेशा चुनौतियों का सामना करना पड़ा है. प्रशिक्षित और जज़्बे से भरे स्टाफ़ की ग़ैर-मौजूदगी के चलते ये समस्या और विकट हो गई है. भारत में प्रति एक लाख की आबादी पर महज़ 0.75 मनोचिकित्सक (आम तौर पर ये आंकड़ा 3 होना चाहिए) मौजूद हैं. विकसित देशों में हर एक लाख की आबादी पर 6 मनोचिकित्सक उपलब्ध होते हैं.
वित्त मंत्री का बजट भाषण संवेदना और हमदर्दी के बड़े-बड़े वादों के साथ शुरू हुआ था. हालांकि अफ़सोस की बात ये है कि केवल शब्दों से इस छिपी हुई महामारी की पेचीदगियों से निपटने में मदद नहीं मिलने वाली. देश में तक़रीबन 20 करोड़ लोगों में किसी न किसी प्रकार का स्नायु या मानसिक विकार है. ऐसे में मौजूदा प्रबंधन और वित्तीय तंत्र मानसिक स्वास्थ्य व्यवस्था की चुनौतियों के सामने टिक नहीं सकेगा.
विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) द्वारा कई देशों में किए गए सर्वेक्षण से पता चला है कि मानसिक स्वास्थ्य के तक़रीबन 76-85 प्रतिशत गंभीर मामलों का कभी इलाज ही नहीं किया जाता. 2016 में किए गए NIHMANS के ताज़ा मानसिक स्वास्थ्य सर्वेक्षण का आकलन है कि भारत में स्वास्थ्य संबंधी विकारों से पीड़ित हर 10 में से केवल एक मरीज़ को ही प्रमाण-आधारित इलाज मिल पाता है. अध्ययन से खुलासा हुआ है कि अवसाद और घबराहट जैसे मानसिक स्वास्थ्य से जुड़े सामान्य विकारों में इलाज हासिल न कर पाने वाले लोगों की तादाद क्रमश: 85.2 और 84 प्रतिशत है. वहीं मानसिक स्वास्थ्य के गंभीर मामलों और ख़ुदकुशी से जुड़े जोख़िमों के केस में ये आंकड़ा क्रमश: 74 और 80 प्रतिशत है.
आर्थिक सर्वेक्षण 2021 के मुताबिक वित्त वर्ष 2021-22 के बजट अनुमानों में स्वास्थ्य के क्षेत्र में भारत का ख़र्च जीडीपी का महज़ 2.1 फ़ीसदी रहने वाला है. हालांकि महामारी से पहले के दौर में ये आंकड़ा 1.3 प्रतिशत था. ग़ौरतलब है कि 2017 की राष्ट्रीय स्वास्थ्य नीति में स्वास्थ्य पर होने वाले ख़र्च को जीडीपी के 2.5 प्रतिशत के स्तर पर लाने का लक्ष्य रखा गया है. लिहाज़ा मौजूदा व्यय इसी लक्ष्य की ओर जाता दिखाई देता है. हालांकि देश में मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं के क्षेत्र में इस तरह की प्रगति दिखाई नहीं देती है. NHMP के साथ बजट में निवेशों में विविधता लाने की दरकार है, ताकि उसके दूरगामी प्रभाव सुनिश्चित किए जा सकें. बदलावों को ज़मीन पर उतारने के लिए ज़्यादा से ज़्यादा शोधकर्ताओं और कुशल पेशेवरों को सरकारी सेवाओं में जोड़ा जाना चाहिए.
मानसिक स्वास्थ्य सेवा अधिनियम, 2017 में सामान्य और मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं को एकीकृत किए जाने की सिफ़ारिश की गई है. इसमें स्वास्थ्य के मोर्चे पर सरकार द्वारा चलाए जा रहे सभी कार्यक्रमों में प्राथमिक, माध्यमिक और तृतीय स्तरों पर हर जगह इस तरह के एकीकरण का प्रस्ताव है. इसके लिए सघन प्रशिक्षण और क्षमता निर्माण की दरकार होगी. दूसरी ओर टेली और डिजिटल स्वास्थ्य पहलों के विस्तार के साथ-साथ देश में इंटरनेट कवरेज को लैंगिक तौर पर न्यायोचित बनाने पर भी समान रूप से ध्यान देना होगा.
DHMP के आंकड़ों पर निगरानी रखने वाले तंत्र और व्यापक रूप से संपूर्ण राष्ट्रीय मानसिक स्वास्थ्य कार्यक्रम को मज़बूत बनाए जाने की दरकार है. आवंटन को तार्किक और पारदर्शी बनाने के लिए लिंग और उम्र के आधार पर बांटे गए आंकड़ों पर निगरानी रखे जाने की आवश्यकता है. फ़िलहाल वित्त मुहैया कराने की व्यवस्था बिखरी हुई है. इतना ही नहीं मानसिक रूप से अस्वस्थ आबादी के हिसाब से ये पर्याप्त भी नहीं है. वित्त मंत्री का बजट भाषण संवेदना और हमदर्दी के बड़े-बड़े वादों के साथ शुरू हुआ था. हालांकि अफ़सोस की बात ये है कि केवल शब्दों से इस छिपी हुई महामारी की पेचीदगियों से निपटने में मदद नहीं मिलने वाली. देश में तक़रीबन 20 करोड़ लोगों में किसी न किसी प्रकार का स्नायु या मानसिक विकार है. ऐसे में मौजूदा प्रबंधन और वित्तीय तंत्र मानसिक स्वास्थ्य व्यवस्था की चुनौतियों के सामने टिक नहीं सकेगा. मौजूदा व्यवस्थाएं नाकाफ़ी हैं. बजट हमें अच्छी सेहत की दिशा में सोचने को तो प्रेरित करता है, लेकिन इसके लिए पूरी तरह से तैयार नहीं कर पाता.
मानसिक स्वास्थ्य से जुड़ा संकट अब केवल बड़े शहरों या छोटे तबकों तक ही सीमित नहीं है. ये अब कोई छिपी हुई परेशानी भी नहीं रह गई है. दुनिया भर की एक बड़ी आबादी को इसने अपने चपेट में ले रखा है. ऐसे में मानव संसाधन को लक्षित कर निवेश किए जाने की आवश्यकता है. नीतिगत स्तर पर अब भी ये मसला आंखों से ओझल है. मानसिक स्वास्थ्य सेवाओं में सुधार (टेलीहेल्थ आधारित और दूसरे प्रकार की) का लक्ष्य आसानी से हासिल किया जा सकता है. इससे देश भर में मानवीय जीवन को बेहतर बनाने की दिशा में ज़बरदस्त फ़ायदे हासिल हो सकते हैं.
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Mona is a Junior Fellow with the Health Initiative at Observer Research Foundation’s Delhi office. Her research expertise and interests lie broadly at the intersection ...
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