Published on Jul 14, 2022 Updated 0 Hours ago

आज जब महामारी से लेकर यूक्रेन संकट तक तमाम तरह की उठा-पटक देखने को मिल रही है, तो सरकार को इन घटनाओं के चलते हो रहे आर्थिक नुक़सान की भरपाई में मदद करनी ही होगी.

#Public Policy: सरकारी नीतियों में व्याप्त कमियों को कैसे दूर किया जाए?

हम किसी मुश्किल से उबरने के लिए कैसे फ़ैसले लेते हैं और किस फ़ायदे के लिए किस लाभ की बलि चढ़ाते हैं, उसका जवाब हमें बहुत कम अवधि में, यानी लगभग पांच साल में ही मिल जाता है. इसके लिए दस बरस तक का इंतज़ार नहीं करना पड़ता. यही वजह है कि सरकारें अक्सर, कम वक़्त के लिए तो उचित और संवेदनशील फ़ैसले लेती हैं. मगर ज़्यादातर आम लोगों की तरह सरकारें भी दूरगामी नज़रिए को ध्यान में रखकर फ़ैसले लेने में लड़खड़ा जाती हैं.

अर्थव्यवस्था और रोज़गार की दर में बहुत धीमी गति से सुधार आ रहा है. लेकिन, ब्याज दर और सरकार पर क़र्ज़ का बोझ, दोनों ही बड़ी तेज़ी से बढ़ रहे हैं. ऐसे में सही तो यही होगा कि सरकार अपने क़र्ज़ को कम करे और महामारी के वक़्त बढ़ाई गई कल्याणकारी योजनाओं के ख़र्च को भी कम कर ले.

मिसाल के तौर पर आप कोविड-19 की महामारी को ही लें- ये बहुत कम अवधि का संकट था. इससे पहले, 2008- 2009 में आए बड़े वैश्विक वित्तीय संकटकी तुलना में महामारी का विश्व अर्थव्यवस्था पर कोई छह महीने अधिक असर रहा होगा. महामारी से निपटने के लिए सरकार ने लोगों की आमदनी की भरपाई, अपने कल्याणकारी ख़र्च को बढ़ाकर करने का प्रयास किया और इसके लिए जो ठीक-ठाक आमदनी वाले लोग थे, उन पर अप्रत्यक्ष करों का बोझ, जैसे कि पेट्रोलियम उत्पादों पर टैक्स बढ़ाकर (वो भी उस वक़्त जब दुनिया में तेल के दाम और महंगाई कम थी) अपनी आमदनी बढ़ाने की कोशिश की. इसके अलावा सरकार ने अपने ख़र्च की भरपाई के लिए सामान्य से ज़्यादा क़र्ज़ उस वक़्त लिया, जब ब्याज दरें अधिक थीं.

लेकिन, अब सरकार के सामने हालात बदल चुके हैं. महंगाई दर बहुत अधिक है और इसके अगले दो साल तक लगभग इसी स्तर पर रहने की आशंका है. अर्थव्यवस्था और रोज़गार की दर में बहुत धीमी गति से सुधार आ रहा है. लेकिन, ब्याज दर और सरकार पर क़र्ज़ का बोझ, दोनों ही बड़ी तेज़ी से बढ़ रहे हैं. ऐसे में सही तो यही होगा कि सरकार अपने क़र्ज़ को कम करे और महामारी के वक़्त बढ़ाई गई कल्याणकारी योजनाओं के ख़र्च को भी कम कर ले. लेकिन, भारत जैसे देश में, जहां कमज़ोर तबक़े के लोग हमेशा छुरी की धार पर जीते हैं और जहां आम चुनाव में दो साल से भी कम का वक़्त बचा हो, वहां ये बात कहनी जितनी आसान है, लागू करना उतना ही मुश्किल है. सोने पे सुहागा ये कि यूक्रेन संकट के चलते ज़रूरी चीज़ों और खान-पान के सामान की आपूर्ति में ख़लल पड़ा है और इनकी क़ीमतों में बहुत उतार-चढ़ाव देखने को मिल रहा है.

लीक से हटकर क़दम

दुनिया भर में तेल के दाम में आग लगी हुई है. तेल इस वक़्त 100 डॉलर प्रति बैरल से ऊपर ही चल रहा है. महंगे तेल और खाने पीने के सामान की क़ीमतों में उछाल के चलते दुनिया भर में महंगाई बढ़ी हुई है. भारत जैसी निम्न मध्यम आमदनी की अर्थव्यवस्था वाला देश, इनमें से किसी भी बात की अनदेखी नहीं कर सकता है. जनता पर महंगे तेल और महंगे खान-पान के बोझ को कम करने के लिए ब्रिटेन की तरह भारत सीधे अपनी जनता को सब्सिडी नहीं दे सकता है, क्योंकि भारत की सरकार के पास ऐसी वित्तीय क़ुव्वत नहीं है.

तेल के शोधकों द्वारा साफ़ किए गए पेट्रोल का 30 और डीज़ल का 50 फ़ीसद हिस्सा घरेलू बाज़ार में बेचना अनिवार्य किए जाने से, रिफाइनरी चलाने वाले उस लालच में पड़ने से भी रोके गए हैं, जो बाज़ार में उछाल का फ़ायदा उठाने के लिए अपना ज़्यादा माल विदेश में बेचना चाहेंगे, ताकि अधिक मुनाफ़ा कमा सकें.

फिर भी, लोगों के हितों को ध्यान में रखकर कुछ कम अवधि वाले फ़ैसले किए गए हैं. केंद्र सरकार ने मई महीने में पेट्रोलियम उत्पादों पर आबकारी शुल्क कम किया था. इसमें और कमी करके तेल की साफ-सफाई करने वालों (Refiners) की वित्तीय स्थिति सुधारी जा सकती है, जिन्होंने मई 2022 के बाद से तेल के दाम नहीं बढ़ाए हैं. हाल ही में पेट्रोल, डीज़ल और हवाई ईंधन (ATF) के उत्पादन और निर्यात पर विंडफॉल टैक्स (100 फ़ीसद उत्पाद का निर्यात करने वालों के अलावा), लगाने का फ़ैसला भी एक शानदार क़दम है, जो तेल के घरेलू दाम पर असर डाले बग़ैर, सरकार की आमदनी में इज़ाफ़ा करने वाला फ़ैसला है.

तेल के शोधकों द्वारा साफ़ किए गए पेट्रोल का 30 और डीज़ल का 50 फ़ीसद हिस्सा घरेलू बाज़ार में बेचना अनिवार्य किए जाने से, रिफाइनरी चलाने वाले उस लालच में पड़ने से भी रोके गए हैं, जो बाज़ार में उछाल का फ़ायदा उठाने के लिए अपना ज़्यादा माल विदेश में बेचना चाहेंगे, ताकि अधिक मुनाफ़ा कमा सकें. तेल के घरेलू दाम में सरकारी तेल कंपनियों ने लगाम लगा रखी है, जो महंगाई पर क़ाबू पाने की केंद्र सरकार की नीतियों के अनुरूप ही है.

कुछ लोग सवाल उठा रहे हैं कि पेट्रोल और डीज़ल के निर्यात पर और अधिक टैक्स लगाने का विकल्प क्या नहीं बेहतर होगा? बिल्कुल नहीं. तेल के दाम में उठा-पटक चल ही रही है. टैक्स के मामले में बिल्कुल सटीक निशाना लगाने के लिए सरकार को टैक्स की दरों में लगातार बदलाव करना पड़ता. इससे या तो पेट्रोलियम उत्पादों के निर्यात पर असर पड़ता और उसमें मुनाफ़ा नहीं रह जाता. या फिर घरेलू बाज़ार में तेल की उपलब्धता में भारी गिरावट आ जाती और बाज़ार में क़िल्लत हो जाती. निर्यात पर इकतरफ़ा टैक्स लगाने (जो गेहूं के निर्यात के मामले में पहले ही हो चुका है) से संभावित निवेशकों के बीच नकारात्मक संकेत जाता. इसीलिए इकलौता विकल्प यही है कि अंतरराष्ट्रीय बाज़ार में उठा-पटक को देखते हुए, लीक से हटकर क़दम उठाए जाएं.

जब हक़ीक़त में तब्दीली आती है, तो नीतियों को भी उसी हिसाब से ढालना पड़ता है, वरना वो बेअसर साबित होती हैं. भारत ने इसी सोच के हिसाब से क़दम उठाए हैं.

जैसा कि युद्ध में होता है, जब अपना अस्तित्व ही दांव पर लगा हो, तो उसे बचाने के लिए सही समय पर फ़ौरी फ़ैसले लेना उचित होता है. ये कहना भी उचित नहीं होगा कि बेहद अनिश्चितता के माहौल में फ़ौरी तौर पर उठाए गए क़दमों से नीतियों के भविष्य के साथ समझौते किए जाते हैं. धीरे-धीरे सामरिक रूप से समझदारी भरे फ़ैसलों की कमी, भारत में ही नहीं, पूरी दुनिया में है.

आप ही बताएं कि पश्चिमी देशों की कम अवधि वाली रणनीति उनके दूरगामी लक्ष्यों को देखते हुए किस हद तक सही लगती है? यूक्रेन संकट के चलते, अपनी ईंधन की फौरी ज़रूरतें पूरी करने के लिए पश्चिमी देशों ने लंबी अवधि में कार्बन उत्सर्जन कम करने के फ़ैसलों की बलि सबसे पहले दी. आज पश्चिमी देशों की कोयले और पेट्रोलियम वाले जीवाश्म ईंधनों का इस्तेमाल ख़त्म करने की योजनाएं खटाई में पड़ चुकी हैं. कोयले से चलने वाले बिजलीघर फिर से चालू किए जा रहे हैं और अमेरिका पर तेल के नए स्रोत तलाशने का दबाव बढ़ता ही जा रहा है.

नीतियों में बदलाव

यूक्रेन का संकट आज उसमें शामिल हर देश के आकलन से कहीं ज़्यादा लंबा खिंच रहा है. रूस अड़ियल आक्रांता है. लेकिन, पश्चिमी देशों के गठबंधन को कमज़ोर करने के अपने साझा मक़सद हासिल करने के लिए जिस तरह चीन, रूस को बढ़ावा दे रहा है, उससे पश्चिमी देशों का पलटवार कमज़ोर पड़ गया है. यही नहीं रूस के तेल और गैस पर यूरोप की निर्भरता भी खुलकर सामने आ गई है. 

बाक़ी दुनिया भी अपनी व्यवहारिक ज़रूरतें पूरी करने के लिए कम अवधि में दूरगामी मक़सदों को दरकिनार करने के मामले में पश्चिमी देशों से अलग सोच नहीं रखती है. इसीलिए अगर भारत ने, महामारी से निपटने के दो साल तक चले आर्थिक बोझ के बाद यूक्रेन संकट के चलते बढ़े वित्तीय दबाव से निपटने के लिए फ़ौरी तौर पर कुछ क़दम उठाए हैं, तो उनकी तुलना हम सही समय पर ठोक-बजाकर लिए जाने वाले नीतिगत फ़ैसलों  से तो नहीं कर सकते हैं. जब हक़ीक़त में तब्दीली आती है, तो नीतियों को भी उसी हिसाब से ढालना पड़ता है, वरना वो बेअसर साबित होती हैं. भारत ने इसी सोच के हिसाब से क़दम उठाए हैं.

केंद्र सरकार ने पेट्रोलियम उत्पादों पर आबकारी शुल्क का भारी भरकम बोझ कम करने के लिए मई 2022 तक लंबा इंतज़ार करने कुछ ज़्यादा ही सावधानी बरती थी. महंगाई दर तो जनवरी 2022 में ही 6.01 फ़ीसद पहुंच चुकी थी, जो पिछले साल जनवरी महीने की महंगाई दर 4.07 प्रतिशत से लगभग दो फ़ीसद ज़्यादा थी. पेट्रोलियम उत्पादों पर ये टैक्स तो 2022-23 के बजट से पहले ही कम कर दिए जाने चाहिए थे. इसके लिए बजट बनाने के दौरान कम टैक्स वसूली की आशंका का भी ध्यान रखा जा सकता था. अप्रैल और मई 2022 में करों से सरकार की आमदनी, उसके बजट आकलन से मेल खाने वाली रही है.

अप्रैल 2022 तक महंगाई की दर 7.8 प्रतिशत जा पहुंची थी और इसके दिसंबर 2022 तक छह फ़ीसद से ऊपर ही रहने का अनुमान है, जिसके बाद 2022-23 की चौथी तिमाही में इसके कम होकर 5.8 प्रतिशत रहने का अंदाज़ा लगाया जा रहा है, वो भी तब जब इस दौरान विश्व बाज़ार में तेल की क़ीमत 105 डॉलर प्रति बैरल के आस पास ही रहे. अगर हम अब तक तेल की क़ीमतों की बात करें, तो भारतीय बास्केट में कच्चे तेल का दाम मई महीने में 109.51 डॉलर प्रति बैरल, जून में 116.61 डॉलर प्रति बैरल और जुलाई में 110.08 डॉलर प्रति बैरल रहा है.

इस महीने अमेरिका के फेडरल रिज़र्व द्वारा ब्याज दरों को 0.50 से 0.75 फ़ीसद बढ़ाने को देखते हुए, भारतीय रिजर्व बैंक द्वारा रेपो रेट बढ़ाकर, 5.50 से 5.65 प्रतिशत तक रखने का अनुमान है, जो अगस्त 2019 में था. इससे डॉलर के मुक़ाबले भारतीय रुपए की क़ीमत स्थिर बनाए रखने में मदद मिलेगी. लेकिन, अर्थव्यवस्था को महंगाई की मार से बचाने के लिए उत्पादन के सामान और ग्राहकों के इस्तेमाल की जाने वाली चीज़ों पर अप्रत्यक्ष कर को घटाने जैसा क़दम उठाना ही पड़ेगा.

संसाधनों की कमी को पूरा करने के लिए सरकार को चाहिए कि वो नियम के तहत अधिक सार्वजनिक पूंजी निवेश के अपने लक्ष्य पर नए सिरे से विचार करे. कोविड-19 की मार से जूझ रही दुनिया में तो सरकारी निवेश को बढ़ाने का तर्क समझ में आता था, क्योंकि कोई और निवेश नहीं हो रहा था. लेकिन, कोविड-19 महामारी के बाद की दुनिया में जब निजी क्षेत्र का निवेश सुधर रहा है, तो जनता की आमदनी बढ़ाकर खपत में इज़ाफ़ा करने से निजी निवेश को और बढ़ाया जा सकता है.

अगर सरकारी निवेश की दर को ऊंचा यानी GDP के चार फ़ीसद के स्तर तक रखा भी जाता है, तो मूलभूत ढांचे के विकास की नीति को उत्पादक और बेमतलब के पूंजी निवेश में फ़र्क़ करना सीखना होगा. अभी ग़ैरज़रूरी लगने वाली सड़कों को सरकारी पूंजीगत ख़र्च के दायरे से अलग रखना या फिर ख़ाली मकान और सरकारी दफ़्तर बनाने में होने वाले ख़र्च से तो बचा ही जा सकता है.

भू-राजनीतिक महत्वकांक्षाएं और विकास नीति

हमारी मूलभूत ढांचे की विकास नीति, देश के किसानों के बर्ताव सरीखी नहीं होनी चाहिए, जो बीजों को ‘छिड़ककर’ बोते हैं या फिर बाज़ार भाव से महज़ दस फ़ीसद के दाम पर मिलने वाली रियायती यूरिया को हाथ से फ़सलों पर डालते हैं. इसके बजाय चाहिए कि निवेश वहीं हो, जहां पर उसकी सबसे ज़्यादा दरकार है. भारत के पास इतने पैसे नहीं हैं कि वो अपने विशाल क्षेत्रफल में चीन की तरह कंक्रीट के जंगल खड़े कर ले. हमारी मूलभूत ढांचे से जुड़ी नीति, लॉजिस्टिक की फ़ौरी ज़रूरतें पूरी करने के लिए कम से कम मात्रा में सरकारी निवेश पर आधारित होनी चाहिए. 

सरकारी ख़र्च की अनदेखी का सबसे बड़ा क्षेत्र शिक्षा, सामाजिक सहयोग और स्वास्थ्य की सेवाओं का है. जैसे ही ओमिक्रॉन वेरिएंट का ख़तरा कम होता है, यूक्रेन संकट समाप्त होता है और रूस दोबारा तरक़्क़ीपसंद देशों की जमात का हिस्सा बन जाता है, तो उसके बाद भी हम रोज़गार सृजन और विकास की बेहद धीमी रफ़्तार वाली चुनौती से जूझ रहे होंगे, अगर हमने ऐसा कामकाजी तबक़ा न तैयार किया जो रोबोट के साथ काम करने के लिए तैयार हो. जो निर्यात के बाज़ारों में सेवाएं देकर अपनी रोज़ी-रोटी न कमा सकता हो. अगर हमारे पास ऐसी स्वास्थ्य व्यवस्था नहीं होगी, जो सबको सम्मानजनक स्वास्थ्य सेवा दे सके और सबको सुरक्षित महसूस कराने वाली सामाजिक सुरक्षा व्यवस्था (जो खाद्य सुरक्षासे  जुड़ी हुई हो) नहीं होगी, जो कमज़ोर तबक़ों, दिव्यांगों और बेरोज़गारों के काम आ सके, तो हम ऐसी ही स्थिति में बने रहेंगे.

लंबे समय से पल रहे इन घावों को भरने के लिए इक्का दुक्का नीतियां और योजनाओं भर से काम नहीं चलने वाला है. साफ़-सफ़ाई, सस्ते मकान और आयुष्मान भारत योजना जैसी पहलें ऐसी ही छोटी मोटी योजनाएं हैं. लेकिन, अभी भी इनसे हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था और सामाजिक सुरक्षा के ढांचे में कोई ठोस बदलाव नहीं आ सका है.

लंबे समय से पल रहे इन घावों को भरने के लिए इक्का दुक्का नीतियां और योजनाओं भर से काम नहीं चलने वाला है. साफ़-सफ़ाई, सस्ते मकान और आयुष्मान भारत योजना जैसी पहलें ऐसी ही छोटी मोटी योजनाएं हैं. लेकिन, अभी भी इनसे हमारी स्वास्थ्य व्यवस्था, शिक्षा व्यवस्था और सामाजिक सुरक्षा के ढांचे में कोई ठोस बदलाव नहीं आ सका है.

यूक्रेन के संकट ने उस कड़वी ज़मीनी हक़ीक़त को ही दोहराया है- कि लोकतांत्रिक देश अपने फ़ायदे के लिए संप्रभुता जैसे मूलभूत सिद्धांत की बलि चढ़ाने में भी नहीं हिचकते हैं; इससे ये भी साबित हुआ है कि नेटो जैसा परमाणु हथियारों से लैस कोई तीसरा पक्ष, यूक्रेन जैसे बिना एटमी हथियारों वाले देश की हिफ़ाज़त के लिए आगे आने वाला नहीं है; भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं पूरी करने की राह में वैश्विक व्यापार कोई लुभावना वादा आड़े नहीं आता है; और सामानों की वैश्विक आपूर्ति श्रृंखलाएं तो पहले ही अपनी उपयोगिता खो चुकी हैं और आत्मनिर्भरता और स्वदेशी का दौर जो महज़ चार दशक पहले, 1980 के दशक में विदा हुआ था, वो लौट आया है. दुनिया किस दिशा में आगे बढ़ेगी, इसका अंदाज़ा लगाना मुश्किल है. आप भविष्य में किस दिशा में बढ़ेंगे, इसका अंदाज़ा आज नहीं लगाया जा सकता है. भविष्य तो अनदेखी अनजानी राह होती है.

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