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जब ब्रिक्स से ठोस कदमों की उम्मीद की जा रही है, तो सिर्फ बयानों और एक्शन प्लान से काम नहीं चलने वाला.
ब्रिक्स की आलोचना पहली नजर में स्वाभाविक और तार्किक दिखती है, लेकिन गहरी पड़ताल करने पर यह बात सामने आती है कि यह आलोचना पूरी तरह से सही नहीं है
ब्रिक्स राष्ट्राध्यक्षों के सम्मेलन की मेजबानी भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने 9 सितंबर 2021 को की. जुलाई 2006 में जी-8 सम्मेलन के साथ रूस के सेंट पीटर्सबर्ग में पहली ब्रिक (दक्षिण अफ्रीका इस समूह का पूर्ण सदस्य 2010 में बना) बैठक के इसके साथ ही 15 साल पूरे हो गए. इस साल भारत ने अपनी अध्यक्षता के तहत करीब 150 बैठकों की मेजबानी की. इनमें से 20 मंत्रिस्तर की थीं, जबकि 50 और बैठकें इस साल के अंत तक होने की उम्मीद है. इन बैठकों के नतीजों का प्रकाशन 40 रिपोर्ट्स और साझा बयान के रूप में किया गया है. इनकी आखिरी कड़ी नई दिल्ली घोषणापत्र था.
हर साल विद्वानों और जानकारों के बीच इस सम्मेलन की चर्चा होती है. मसलन, क्या ब्रिक्स की आज कोई प्रासंगिकता है, जबकि दुनिया में कई बहुउद्देशीय मंच हैं. जो लोग यह सवाल पूछते हैं, वे आम तौर पर एक समूह के रूप में ब्रिक्स की नाकामी की तीन वजहें बताते हैं. पहली, यह एक बनावटी और अस्वाभाविक समूह है. इन देशों की राष्ट्रीय राजनीतिक और आर्थिक व्यवस्था में फर्क है. वे कहते हैं कि ब्रिक्स शब्द को बहुराष्ट्रीय वित्तीय संस्थान गोल्डमैन सैक्स ने उछाला था. उसने मार्केटिंग के लिए ऐसा किया था और वह इसके जरिये निवेशकों को लुभाना चाहता था. ब्रिक्स का जन्म भू-राजनीतिक या भू-आर्थिक हितों को ध्यान में रखकर नहीं हुआ. दूसरी, चीन इस समूह में शामिल होने के योग्य नहीं था. अव्वल तो वह बहुत बड़ी आर्थिक ताकत है. उसकी आक्रामक भू-राजनीतिक महत्वाकांक्षाएं भी उसे इस समूह के लिए अयोग्य बनाती हैं.
ब्रिक्स का गठन इसलिए किया गया था ताकि वह कई देशों के मंच के रूप में काम करे, लेकिन चीन के उभार की वजह से यह मकसद पीछे छूट गया.
ब्रिक्स का गठन इसलिए किया गया था ताकि वह कई देशों के मंच के रूप में काम करे, लेकिन चीन के उभार की वजह से यह मकसद पीछे छूट गया. आज अमेरिका के साथ वह दुनिया की दो बड़ी ताकतों में शामिल है. एक तरह से चीन और अमेरिका दुनिया को दो ध्रुवों में बांटने की कोशिश कर रहे हैं. यही उनका सपना है. भारतीयों के लिए, उत्तरी सीमा पर चीन की सैन्य घुसपैठ भी इसी की ओर इशारा करती है. तीसरी, ब्रिक्स के पास दुनिया को दिखाने के लिए कोई उपलब्धि नहीं है, जबकि गुजरे वर्षों में इसकी सैकड़ों बैठकें हो चुकी हैं. खासतौर पर अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (आईएमएफ), विश्व व्यापार संगठन (डब्ल्यूटीओ) जैसे ब्रिटेन वुड संस्थानों में सुधार का मकसद अभी तक पूरा नहीं हो पाया, जिनका ब्रिक्स ने वादा किया था. वैसे, इस समूह के पदाधिकारी बार-बार यह याद दिलाते हैं कि ब्रिक्स दुनिया का पहला बहुराष्ट्रीय संगठन है, जिसके पास अपना बैंक है. इसके बावजूद इस समूह को लेकर आलोचकों की सोच नहीं बदली है.
ब्रिक्स की आलोचना तार्किक और स्वाभाविक है, लेकिन जब तक कि इसके विकास और योगदान की बारीक पड़ताल नहीं की जाती, तब तक ऐसा कहना मुनासिब नहीं होगा. उदाहरण के लिए, ब्रिक्स के पांच विदेश मंत्रियों ने 1 जून 2021 को ‘बहुराष्ट्रीय व्यवस्था को मजबूत बनाने और उसमें सुधार पर जो संयुक्त बयान’ प्रकाशित किया, वह एक अहम दस्तावेज है. यह दस्तावेज बताता है कि बहुराष्ट्रीय व्यवस्था में सुधार की खातिर ‘किन दिशानिर्देशों’ पर अमल किया जाना चाहिए. मंत्रियों ने बेझिझक इसमें कहा है कि मौजूदा व्यवस्था को ‘आज की दुनिया की सच्चाइयों को स्वीकार करना चाहिए.’ एक तरह से उन्होंने बहुराष्ट्रीय संस्थानों के उद्देश्यों और जिन मुद्दों पर उनका ध्यान है, उसे चुनौती दी है. इस रिपोर्ट में कहा गया है कि द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद दुनिया में जो स्थिति बनी, उसे देखते हुए पश्चिमी देशों ने भू-राजनीतिक और भू-आर्थिक स्वार्थों के लिए इनका इस्तेमाल किया. इसके बजाय उन्हें आज की दुनिया की चुनौतियों पर गौर करना चाहिए. कुछ ऐसी ही बात इसी साल रायसीना डायलॉग में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने भी कही थी. उन्होंने सुझाव दिया था कि द्वितीय विश्व युद्ध के बाद जो बहुराष्ट्रीय संस्थाएं बनीं, उनका मकसद सिर्फ यह था कि तीसरा विश्व युद्ध न हो. हो सकता है कि इस मकसद के कारण बाद के वर्षों में बड़े युद्ध नहीं हुए, लेकिन ये संस्थान उन चुनौतियों से निपटने में नाकाम रहे, जिनका मानवता आज सामना कर रही है. मोदी ने इस सिलसिले में जलवायु परिवर्तन, महामारियों और छाया युद्ध का जिक्र किया था.
अब तक यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए थी कि ब्रिक्स इन बहुराष्ट्रीय संस्थानों में सुधार चाहता है. वह इन्हें बेहतर बनाना चाहता है न कि उसका इरादा मौजूदा संस्थानों को खारिज करने का है. इसीलिए पांचों विदेश मंत्रियों के बयान में भी संयुक्त राष्ट्र की प्राथमिकता बनी हुई है. उन्होंने कहा कि संयुक्त राष्ट्र में विकासशील देशों का बेहतर प्रतिनिधित्व होना चाहिए. इस संस्था की सभी इकाइयों में ऐसा किया जाना चाहिए. इन देशों की जवाबदेही बढ़ाई जानी चाहिए. पांचों विदेश मंत्रियों ने संयुक्त राष्ट्र सुरक्षा परिषद के लिए भी यही मांग की. भारत में यह लोकप्रिय विषय रहा है. यह हमारी प्राथमिकताओं में शामिल है. इसके साथ संयुक्त राष्ट्र की आम सभा और आर्थिक-सामाजिक परिषद के लिए भी ऐसी ही मांग की जाती रही है. ये सारे मुद्दे जस के तस पड़े हैं और वैश्विक मसलों को लेकर कोई पहल नहीं हुई है. अफगानिस्तान में इधर हाल में जो हुआ है, उससे भी पता चला कि संयुक्त राष्ट्र की व्यवस्था किसी काम की नहीं. दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति रामफोसा ने इस साल ब्रिक्स सम्मेलन को संबोधित करते हुए विशेष तौर पर संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में अफ्रीका के लिए एक सीट की मांग की.
अब तक यह बात स्पष्ट हो जानी चाहिए थी कि ब्रिक्स इन बहुराष्ट्रीय संस्थानों में सुधार चाहता है. वह इन्हें बेहतर बनाना चाहता है न कि उसका इरादा मौजूदा संस्थानों को खारिज करने का है. इसीलिए पांचों विदेश मंत्रियों के बयान में भी संयुक्त राष्ट्र की प्राथमिकता बनी हुई है.
इसमें भी दो राय नहीं कि ब्रिक्स की स्थापना के वक्त अगर बहुराष्ट्रीय व्यवस्था को लेकर आम सहमति होती तो उससे फायदा हुआ होता. उस वक्त इसके पांचों सदस्य देश 2011 में आईएमएफ के लिए के लिए एक संयुक्त प्रतिनिधि के नाम पर सहमत नहीं हुए. वैसे, आईएमएफ में कोटा रिफॉर्म और वित्तीय स्थिरता बोर्ड की शुरुआत की मांग वह पश्चिमी देशों से मनवाने में कामयाब रहा. बोर्ड में गैर-जी7 देशों के लिए शुरुआत में एक सीट का प्रस्ताव था. इस मामले में भी ब्रिक्स के हाथ सफलता लगी.
हाल ही में न्यू डेवलपमेंट बैंक (एनडीबी) की सदस्यता का विस्तार किया गया तो उसमें यूएई, बांग्लादेश और उरुग्वे को जगह दी गई. यह कदम तारीफ के काबिल है. एनडीबी के पास 80 परियोजनाएं हैं, जिनकी लागत 30 अरब डॉलर है. इन परियोजनाओं पर काम चल रहा है और ये टिकाऊ विकास से जुड़ी हैं. भारत और दक्षिण अफ्रीका ने 60 अन्य देशों के साथ विश्व व्यापार संगठन में बड़े पैमाने पर वैक्सीन बनाने के लिए बौद्धिक संपदा अधिकारों (इंटेलेक्चुअल प्रॉपर्टी राइट्स या आईपीआर) से छूट की मांग का प्रस्ताव भी पेश किया है. इस सिलसिले में बातचीत चल रही है और इस पर एक सर्वसम्मति उभरती हुई भी दिखाई दे रही है. ब्रिक्स एक वैकल्पिक वित्तीय ढांचा बनाने की भी कोशिश कर रहा है, जिसकी कल्पना पहले की गई थी.
इस पूरे मामले में जिस बात की ओर ध्यान नहीं गया है, वह यह है कि ब्रिक्स ने किस तरह से खुद को एक आर्थिक मंच से रणनीतिक बहुराष्ट्रीय संस्था में बदला है. सम्मेलन में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने स्पष्ट कहा कि ब्रिक्स को अफगानिस्तान संकट पर ध्यान देना चाहिए. 2016 में ब्रिक्स के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकारों के बीच अंतरराष्ट्रीय सुरक्षा पर बैठक की शुरुआत हुई थी. तब भारत के पास ही संस्था की अध्यक्षता थी. वक्त के साथ यह सदस्य देशों के बीच एक महत्वपूर्ण मुद्दा बन गया है. पिछले वर्षों में ब्रिक्स ने आतंकवाद-निरोधी वर्किंग ग्रुप बनाया और पिछले साल रूस की अध्यक्षता में ब्रिक्स की आतंकवाद-निरोधी रणनीति को अपनाया गया. इसमें खुफिया जानकारियां आपस में बांटने, अंतरराष्ट्रीय आतंकवाद पर व्यापक समझौता (जो भारत के लिए प्राथमिकता है), आतंकवादियों की फंडिंग रोकने के साथ अन्य बातें शामिल हैं. आतंकवाद और सुरक्षा का मुद्दा ब्राजील और दक्षिण अफ्रीका के लिए भी महत्वपूर्ण हो गया है. ब्राजील ने अपने यहां 2016 में आतंकवाद विरोधी कानून लागू किया और 2019 में उसने आतंकवाद विरोधी वित्तीय कानून बनाया.
यह भी सच है कि इस तरह की किसी भी बातचीत के केंद्र में भारत और चीन के द्विपक्षीय रिश्ते होंगे. इस साल अगस्त में ब्रिक्स के राष्ट्रीय सुरक्षा प्रमुखों की बैठक हुई. यह मीटिंग आतंकवाद निरोधी योजना को मंजूरी देने के लिए हुई थी. इसकी अध्यक्षता भारत के राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजीत डोभाल ने की. इसमें चीन से विदेश मामलों पर पार्टी के शीर्ष पदाधिकारी यांग जेची शामिल हुए. उन्होंने ही अमेरिका के साथ अलास्का में चीन की द्विपक्षीय वार्ता का नेतृत्व किया था. उनके अलावा सुरक्षा परिषद सचिव निकोलाई पेट्रूशेव शामिल हुए. वह हाल ही में अफगानिस्तान मामले पर चर्चा के लिए भारत आए थे. अभी इस एक्शन प्लान का ब्योरा आना बाकी है, लेकिन यह स्पष्ट है कि ब्रिक्स भू-राजनीतिक मुद्दों पर भी चर्चा का धीरे-धीरे मंच बनता जा रहा है.
दक्षिण अफ्रीका के राष्ट्रपति रामफोसा ने इस साल ब्रिक्स सम्मेलन को संबोधित करते हुए विशेष तौर पर संयुक्त राष्ट्र की सुरक्षा परिषद में अफ्रीका के लिए एक सीट की मांग की.
जब ब्रिक्स से ठोस कदमों की उम्मीद की जा रही है, तो सिर्फ बयानों और एक्शन प्लान से काम नहीं चलने वाला. इसके साथ यह भी मानना होगा कि इस संस्था ने शुरू में कुछ ऐसे प्रस्ताव रखे थे, जो बहुत महत्वाकांक्षी, उलझाऊ और यहां तक कि अमल में लाए जाने लायक भी नहीं थे. स्थापना के बाद से ब्रिक्स ने करीब 100 पहल की हैं. इनमें मेमोरैंडम, रोडमैप, एक्शन प्लान और फोरम शामिल हैं. एक दूसरे के स्टॉक एक्सचेंजों पर डेरिवेटिव्स की लिस्टिंग, एक क्रेडिट रेटिंग एजेंसी बनाने, ई-कॉमर्स और सेवाओं में ट्रेडिंग के नियम बनाने, ब्लॉकचेन पर रिसर्च, साइंस पार्कों का नेटवर्क स्थापित करने और यहां तक कि लाइब्रेरी और म्यूजिम को आपस में जोड़ने पर गंभीर चर्चा हुई है, लेकिन अभी तक इन पर अमल के लिए कोई समझौता नहीं हो पाया.
इस साल कृषि अनुसंधान, इनोवेशन, ऊर्जा के क्षेत्र में सहयोग, रिमोट सेंसिंग और कस्टम्स पर समझौते हुए. इन्हें देखकर लगता है कि विवादास्पद मसलों को अलग रखते हुए अन्य पर सर्वसम्मति बनाने की कोशिश की जा रही है. हालांकि, अगर ब्रिक्स को एक मंच के रूप में प्रभावशाली होना है तो बहुत सारे एजेंडा में से कुछ को चुनकर या उन्हें मिलाकर पहलकदमी करनी होगी. इसके साथ यह भी देखना होगा कि ब्रिक्स ने संस्थान के दिशानिर्देशों में जो बदलाव किए हैं, उसका सदस्य देशों के बीच भविष्य में सहयोग पर क्या असर होता है.
ब्रिक्स फोरम के ऑफिशियल ट्रैक 2, ब्रिक्स एकेडमिक फोरम में हुई वार्ता के दौरान जानकारों के बीच कुछ आइडिया पर चर्चा हुई, जिन पर आगे काम करना फायदेमंद हो सकता है. उदाहरण के लिए, पर्यावरण की रक्षा के कई पहलुओं और मानकों पर ब्रिक्स देशों का साझा प्रदर्शन जी-20 देशों और ओईसीडी से बेहतर है. वैश्विक स्तर पर जलवायु परिवर्तन को लेकर जो विमर्श उभरा है, उसमें भी इसकी सराहना हुई है. इसी तरह, ‘टिकाऊ खपत (सस्टेनेबल कंजम्पशन)’ ऐसा मुद्दा है, जिस पर अधिक ध्यान नहीं दिया जाता. लेकिन यह सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने के लिहाज से काफी अहमियत रखता है. इससे जलवायु परिवर्तन की चुनौतियों से भी निपटने में मदद मिलती है. टिकाऊ खपत के मामले में ब्रिक्स देशों का प्रदर्शन कहीं बेहतर है क्योंकि इन देशों में जीवनस्तर अमीर देशों से कमतर है. ग्लोबल सप्लाई चेन में बदलाव का ब्रिक्स देशों पर क्या असर होगा, इस बारे में भी सुझाव पेश किया गया. खासतौर पर इस बात पर ध्यान दिया गया कि पश्चिमी देशों की बहुराष्ट्रीय कंपनियां इसे लेकर आत्मनिर्भर बनने की पहल कर रही हैं, उससे ब्रिक्स के सदस्य देश किस तरह प्रभावित हो सकते हैं? इन कंपनियों पर सदस्य देशों की अलग-अलग निर्भरता है, जबकि वे एक दूसरे पर इसके लिए इन कंपनियों की तुलना में कम आश्रित हैं.
इस पूरे मामले में जिस बात की ओर ध्यान नहीं गया है, वह यह है कि ब्रिक्स ने किस तरह से खुद को एक आर्थिक मंच से रणनीतिक बहुराष्ट्रीय संस्था में बदला है. सम्मेलन में रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने स्पष्ट कहा कि ब्रिक्स को अफगानिस्तान संकट पर ध्यान देना चाहिए.
इस बीच, साल 2021 में सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने के लिए तकनीक और डिजिटलीकरण के क्षेत्र में सहयोग की बात मनवाकर भारत ने अच्छी पहल की है. भारत जब जी-20 की 2023 में अध्यक्षता करेगा, उसे तब भी इसे प्राथमिकताओं में शामिल करने पर जोर देना चाहिए. उसने कोविन (कोविड-19 वैक्सीन रजिस्ट्रेशन ऐप) और आधार (यूनीक आइडेंटिटी) को लेकर जो सफलता हासिल की है, वह उसे दूसरे देशों के साथ बांटना चाहता है. इन्हें चाहें तो विकासशील और विकसित देश दोनों ही अपना सकते हैं. डिजिटल पब्लिक गुड्स पर एक ब्रिक्स प्लेटफॉर्म की भी चर्चा हो रही है. सदस्य देश इस सिलसिले में ओपन-सोर्स टेक्नोलॉजीज तैयार करने की सोच रहे हैं. इससे विकासशील देशों को सतत विकास लक्ष्यों को हासिल करने में मदद मिल सकती है और यह एक शानदार विचार है.
ब्रिक्स को 15 साल हो चुके हैं और आज इसका स्वरूप शुरुआती वर्षों से काफी अलग है. इसकी प्रक्रिया आज कहीं बेहतर है. बेतुके सहयोग की सचाई इसे समझ आ चुकी है. वैश्विक स्तर पर नीतियों को प्रभावित करने की क्षमता को लेकर इसका आत्मविश्वास धीरे-धीरे बढ़ रहा है. इन हालात में ब्रिक्स वैश्विक मामलों को लेकर ऐसे वक्त में एक प्रासंगिक मंच बन सकता है, जब दूसरे बहुराष्ट्रीय संस्थान अप्रासंगिक हो रहे हैं.
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Akshay was the Director of ORF Mumbai and Head of Geoeconomics Studies Programme at ORF.
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