Author : Sauradeep Bag

Published on Sep 05, 2022 Updated 0 Hours ago

जहां तक रूस और चीन की बात है तो वो डॉलर में कारोबार कम करने की पहल, अमेरिका के साथ अपनी भू-राजनीतिक होड़ के चलते कर हे हैं. वहीं, भारत, ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका ने वैश्विक वित्तीय व्यवस्था में बदलाव लाने के ब्रिक्स के बयानों का समर्थन अपने अपने हितों के चलते किया है.

#BRICS की रिज़र्व करेंसी: क्या डॉलर का दबदबा कम करने की कोशिश है?

ब्रिक्स (BRICS) बिज़नेस फोरम में अपने हालिया भाषण के दौरान, रूस के राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन ने कहा कि इस संगठन के सदस्य एक नई वैश्विक रिज़र्व मुद्रा विकसित करने के लिए काम कर रहे हैं. ये माना जा रहा है कि ये वैश्विक रिज़र्व करेंसी, जिसमें ब्रिक्स के सदस्य देशों की मुद्राएं भी शामिल होंगी, वो अंतरराष्ट्रीय मुद्रा कोष (IMF) के स्पेशल ड्रॉइंग राइट्स (SDR) का एक विकल्प होगी. यूक्रेन पर हमले के चलते आज जब रूस अभूतपूर्व वैश्विक प्रतिबंधों का सामना कर रहा है, तो व्लादिमीर पुतिन के बयान ने ब्रिक्स देशों के उन बहुआयामी मक़सदों की अहमियत उजागर की है, जिसके तहत वो न केवल ब्रिक्स देशों के बीच आपस में स्थानीय मुद्रा में व्यापार को बढ़ावा दे रहे हैं, बल्कि अपने वैश्विक वित्तीय हितों को भी सुरक्षित बनाने की कोशिशें कर रहे हैं.

व्लादिमीर पुतिन के बयान ने ब्रिक्स देशों के उन बहुआयामी मक़सदों की अहमियत उजागर की है, जिसके तहत वो न केवल ब्रिक्स देशों के बीच आपस में स्थानीय मुद्रा में व्यापार को बढ़ावा दे रहे हैं, बल्कि अपने वैश्विक वित्तीय हितों को भी सुरक्षित बनाने की कोशिशें कर रहे हैं

ब्राज़ील

ब्राज़ील का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार चीन है और दोनों ही देशों के लिए स्थानीय मुद्राओं में व्यापारिक सौदे तय करना फ़ायदेमंद है. हालांकि, डॉलर पर ब्राज़ील की निर्भरता एकदम साफ़ दिखती है क्योंकि ब्राज़ील के निर्यात का लगभग 90 प्रतिशत दस्तावेज़ डॉलर के हिसाब से तैयार किया जाता है. ये हाल तब है, जब ब्राज़ील के कुल निर्यात में से अमेरिका को केवल 17 प्रतिशत सामान ही जाता है. इस असंतुलन को देखते हुए ब्राज़ील के नीति निर्माता ब्रिक्स की अपनी रिज़र्व मुद्रा बनाने का समर्थन कर सकते हैं. ब्राज़ील के पूर्व राष्ट्रपति लुला डा सिल्वा ने ब्राज़ील के व्यापार पर डॉलर के दबदबे पर अपना दु:ख जताया था और ब्रिक्स को डॉलर का दबदबे कम करने वाले समूह के तौर पर इस्तेमाल करने को बढ़ावा दिया था. लुला डा सिल्वा ने ये भी कहा था कि ब्रिक्स किसी आत्मरक्षा के उद्देश्य से नहीं गठित किया गया था, बल्कि इसे आक्रमण के माध्यम के तौर पर बनाया गया था.

हालांकि 2014 के भयंकर आर्थिक संकट और बोलसोनारो के सत्ता में आने के बाद से डॉलर पर निर्भरता कम करने के ब्राज़ील के रवैये में बहुत ढीलापन आ गया है. बोलसोनारो के नेतृत्व वाली ब्राज़ील की सरकार पश्चिमी ताक़तों के ज़्यादा क़रीब हो गई है और ब्रिक्स की रिज़र्व मुद्रा के समर्थन को लेकर उसका नज़रिया कभी हां तो कभी ना वाला रहा है.ब्राज़ील ये मानता है कि ऐसी कोशिशों से उसे फ़ा.यदा होगा क्योंकि इससे चीन के साथ-साथ, भारत और रूस जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के साथ उसका कारोबार सहज हो जाएगा.

चीन के साथ ब्राज़ील के क़रीबी आर्थिक संबंध और डॉलर पर उसकी निर्भरता ये दिखाती है कि ब्रिक्स देशों की रिज़र्व मुद्रा बनाने की योजनाओं में ब्राज़ील के बढ़-चढ़कर भागीदार बनने की संभावनाएं बहुत कम हैं. हालांकि, ब्राज़ील ये मानता है कि ऐसी कोशिशों से उसे फ़ायदा होगा क्योंकि इससे चीन के साथ-साथ, भारत और रूस जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के साथ उसका कारोबार सहज हो जाएगा.

ब्राज़ील ये मानता है कि ऐसी कोशिशों से उसे फ़ायदा होगा क्योंकि इससे चीन के साथ-साथ, भारत और रूस जैसी बड़ी अर्थव्यवस्थाओं के साथ उसका कारोबार सहज हो जाएगा.

रूस

अपने भू-राजनीतिक हितों को देखते हुए रूस हमेशा से ही ब्रिक्स को डॉलर के दबदबे से निजात दिलाने के विचार को बढ़ावा देने का मंच मानता रहा है. 2022 की शुरुआत में रूस यूक्रेन युद्ध शुरू होने के बाद से पश्चिमी देशों की अगुवाई और डॉलर के दबदबे वाली वित्तीय व्यवस्था से रूस को बाहर किए जाने ने पश्चिम के प्रभुत्व से आज़ाद एक वैकल्पिक वित्तीय व्यवस्था की परिकल्पना को और मज़बूती देने का ही काम किया है.

पुतिन प्रशासन ने डॉलर से मुक्ति पाने की योजना का समर्थन इसलिए किया है, ताकि वो डॉलर पर अपनी निर्भरता कम कर सके. वर्ष 2018 से ही रूस अंतरराष्ट्रीय सौदों और कारोबार को डॉलर के बजाय वैकल्पिक मुद्रा में करने करने को बढ़ावा देता रहा है. राष्ट्रपति पुतिन ने बार बार डॉलर के शिकंजे से आज़ाद होने और रूस की आर्थिक संप्रभुता की हिफ़ाज़त करने पर ज़ोर दिया है.

रूस के पूर्व उप-विदेश मंत्री सर्जेई रयाबकोव ने भी बैंकिंग और अंतरराष्ट्रीय सौदे निपटाने में डॉलर के इस्तेमाल को लेकर अपने देश की चिंताएं ज़ाहिर की थीं. रयाबकोव ने कहा था कि डॉलर पर निर्भरता कम से कम करना बहुत महत्वपूर्ण है. इसके अलावा रयाबकोव ने ये राज़ भी खोला था कि ब्रिक्स के सदस्य देश अंतरराष्ट्रीय वित्तीय नियमन के सुधार को बढ़ावा देने के लिए आपस में सहयोग करने को तैयार हैं और वो गिनी चुनी मुद्राओं के ज़रूरत से ज़्यादा इस्तेमाल और प्रभाव से निजात पाने के लिए भी सहयोग को राज़ी हैं.

भारत

अमेरिका, रूस और चीन के तो सख़्त ख़िलाफ़ है. लेकिन वो भारत को हिंद प्रशांत क्षेत्र का बेहद मूल्यवान साथी और सामरिक साझीदार मानता है. भारत सरकार भी डॉलर का इस्तेमाल कम करने की चीन और रूस की कोशिशों को व्यवहारिक से ज़्यादा वैचारिक कोशिश ही मानती है और ब्रिक्स को एकजुट करके डॉलर के दबदबे को चुनौती देने की कोशिशों का खुलकर समर्थन नहीं करती है. इसके अलावा चीन और भारत के बीच हालिया सैन्य टकराव ने भी भारत को डॉलर को चुनौती देने की चीन की कोशिशों का समर्थन करने से रोक दिया है.

हालांकि ये रवैया, अमेरिकी डॉलर के दबदबे के प्रति भारत का नज़रिया पूरी तरह से ज़ाहिर नहीं करता है. भारत ने पहले भी डॉलर पर अपनी निर्भरता कम करनी की योजनाओं का अंदाज़ा लगाने की कोशिशें की हैं. मिसाल के तौर पर 2012 में भारत के वाणिज्य  और उद्योग मंत्रालय ने द्विपक्षीय व्यापार के लिए भारतीय रूपए के इस्तेमाल की संभावनाएं तलाशने के लिए एक टास्क फोर्स का गठन किया था. इसका मक़सद ख़ास तौर से तेल निर्यातक देशों के साथ रूपए में कारोबार करने की संभावनाएं तलाशना था. भारत सरकार ने भारत की आर्थिक नीति बनाने वाली एजेंसियों के बीच से एक मल्टी-एजेंसी टास्क फोर्स भी बनाई थी, जिसे ऐसे देशों की सूची बनाने को कहा गया था, जिनसे भारत रूपए में व्यापार कर सकता है.

मौजूदा अस्थिरता और रूस व ईरान पर अमेरिका के तेल निर्यात प्रतिबंध और चीन द्वारा रेनमिनबी को अंतरराष्ट्रीय मुद्रा के तौर पर बढ़ाने की योजनाओं ने भारत को प्रोत्साहित किया है कि वो ज़्यादा से ज़्यादा अंतरराष्ट्रीय लेन-देन को भारतीय रूपए में करे. व्यापार की रसीद बनाने में डॉलर का अधिकतम इस्तेमाल करने वाले देश के तौर पर वैश्विक मुद्रा में उथल-पुथल के चलते भी भारत को डॉलर पर अपनी निर्भरता कम करना मुफ़ीद लगता है. हालांकि, ये अभी बड़ी चुनौती बनी रहेगी क्योंकि अभी भी भारत के व्यापार के 86 प्रतिशत हिस्से का सौदा डॉलर में ही होता है. जबकि भारत अपने कुल आयात का महज़ पांच फ़ीसद ही अमेरिका से मंगाता है. इसी तरह भारत का 86 फ़ीसद निर्यात अमेरिकी डॉलर के ज़रिए होता है, जबकि भारत का केवल 15 फ़ीसद सामान अमेरिका को निर्यात किया जाता है.

ब्रिक्स देशों द्वारा डॉलर का दबदबा कम करने की योजनाओं में भारत के खुलकर कोई भूमिका निभाने की संभावना कम ही है. हालांकि वो ऐसी पहलों को बढ़ावा देकर डॉलर पर निर्भरता कम कर सकता है, जिसमें व्यापार और वित्तीय लेन-देन में स्थानीय मुद्रा का प्रयोग किया जाता हो.

चीन

चीन तो हमेशा से अंतरराष्ट्रीय व्यवस्था में डॉलर के दबदबे का विरोध करता आया है. हालांकि चीन के नीत निर्माता, एक वैश्विक रिज़र्व मुद्रा के तौर पर डॉलर का विकल्प पेश कर पाने की कोई सटीक योजना बनाने में अब तक नाकाम ही रहे हैं. अमेरिका और चीन के ख़राब होते रिश्तों ने डॉलर की हैसियत को और चीन के व्यापार और तकनीक में मुश्किलें खड़ी करने की इसकी क्षमता को और मज़बूत ही बनाया है. ऐसी बाधाओं ने ही चीन को अमेरिका के प्रभुत्व वाली विश्व व्यवस्था से दूरी बनाने और ब्रिक्स देशों के साथ मिलकर अपना अलग प्रभाव क्षेत्र बनाने का हौसला दिया है. चीन, दुनिया का सबसे बड़ा व्यापारिक साझीदार है और क्षेत्रीय ही नहीं वैश्विक स्तर पर भी वो डॉलर के दबदबे को चुनौती देने के मामले में सबसे मज़बूत स्थिति में है. अफ्रीका और एशिया के कई देशों में विकास संबंधी वित्त के मामले में भी चीन एक बड़ा खिलाड़ी है. इसके साथ साथ, चीन ने अपनी बेल्ट ऐंड रोड पहल और विदेशी बाज़ारों का इस्तेमाल भी अपनी मुद्रा रेनमिनबी को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर स्थापित करने के लिए इस्तेमाल किया है.

2008 के वित्तीय संकट के बाद, चीन के पीपुल्स बैंक ऑफ़ चाइना (PBoC) के पूर्व गवर्नर डॉक्टर झोऊ शिआओचुआन ने कहा था कि अमेरिका के वित्तीय संकट ने जिस तरह बाक़ी दुनिया पर असर डाला है, उससे अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक व्यवस्था की बुनियादी कमज़ोरियों और संस्थागत जोखिमों को उजागर कर दिया है. उन्होंने मांग की थी कि एक ऐसी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा विकसित की जानी चाहिए, जो किसी एक देश से न जुड़ी हो. चीन के पूर्व राष्ट्रपति हू जिंताओ ने भी कहा था कि डॉलर के दबदबे वाली अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक व्यवस्था, ‘गुज़रे ज़माने का उत्पाद’ बन चुकी है.

इसी तरह, 1997 के एशियाई वित्तीय संकट के बाद पीपुल्स बैंक ऑफ़ चाइना (PBoC) के तत्कालीन गवर्नर डाई शियांगलॉन्ग ने भी डॉलर आधारित वित्तीय व्यवस्था की आलोचना की थी. उन्होंने कहा था कि कुछ देशों की मुद्रा की अंतरराष्ट्रीय रिज़र्व मुद्रा वाली हैसियत को ख़त्म करने वाले एक वैश्विक सुधार की ज़रूरत है. क्योंकि एक देश की मुद्रा अंतरराष्ट्रीय मौद्रिक व्यवस्था में अस्थिरता का एक स्रोत है.

दक्षिण अफ्रीका

दक्षिण अफ्रीका ने डॉलर का दबदबा ख़त्म करने की चीन और रूस की योजना का साथ ही दिया है. हालांकि उसने सीधे तौर पर इस योजना का साथ ही दिया है.  और न ही अपनी तरफ़ से कोई वैकल्पिक योजना ही पेश की है. 1991 में रंगभेद ख़त्म होने और अमेरिका द्वारा लगाए गए प्रतिबंध हटाने के बाद, दक्षिण अफ्रीका के अमेरिका से रिश्तों में बड़े पैमाने पर सुधार आया है. भले ही दक्षिण अफ्रीका के पास डॉलर से मुक्ति की कोई व्यापक योजना न हो, लेकिन उसे भी अंतरराष्ट्रीय मुद्रा और ख़ास तौर से अमेरिकी डॉलर की उठा-पटक को लेकर चिंता रहती है.

ब्रिक्स देशों द्वारा SDR जैसी मुद्रा विकसित करने का बुनियादी कारण यही है कि वो अमेरिकी डॉलर के दबदबे की समस्या से उबरना चाहते हैं और अपना अलग प्रभाव क्षेत्र बनाकर उसके भीतर अपनी अलग मुद्रा को ताक़तवर बनाना चाहते हैं.

2011 में ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान, दक्षिण अफ्रीका के व्यापार और उद्योग मंत्री रॉब डेवीस ने लेन-देन की अस्थिरता और अस्थिर अंतरराष्ट्रीय मुद्राओं पर निर्भरता को लेकर चिंताएं ज़ाहिर की थीं और दक्षिण अफ्रीकी मुद्रा रैंड में सीधे व्यापार करने के फ़ायदे गिनाए थे. इसके बाद 2013 के ब्रिक्स शिखर सम्मेलन के दौरान रॉब डेवीस ने इस बात को दोहराया था कि व्यापारिक लेन-देन का भुगतान स्थानीय मुद्राओं में करने की एक ठोस व्यवस्था बनाई जानी चाहिए. उन्होंने दिखाया था कि विकासशील देशों में मुद्रा की अस्थिरता सीधे तौर पर वैश्विक आर्थिक कारणों पर निर्भर करती है. इस तरह से विकासशील देशों को अपनी मुद्रा के मामले में ऐसा जोखिम उठाना पड़ता है, जिसके व्यापक आर्थिक हालात उनके अपने नियंत्रण में नहीं होते हैं. विकासशील देशों की आर्थिक सुरक्षा को लेकर स्वायत्तता की ये कमी, ब्रिक्स देशों के अलावा अन्य देशों के लिए भी चिंता का विषय है. अमेरिकी डॉलर के दबदबे और उसमें लेन-देन और वित्तीय जोख़िमों ने दक्षिण अफ्रीका को हौसला दिया है कि वो व्यापार में स्थानीय करेंसी इस्तेमाल करने वाली ब्रिक्स की योजना को बढ़ावा दे. हाल ही में दक्षिण अफ्रीका ने चीन की रेनमिनबी के अधिक इस्तेमाल को स्वीकार किया है और मुद्रा के जोखिम कम करने के लिए चीन की करेंसी को भी अपने विदेशी मुद्रा भंडारों का हिस्सा बनाने का फ़ैसला किया है.

निष्कर्ष

ब्रिक्स देशों ने आपस में सहयोग बढ़ाया है और वो डॉलर पर चल रही वित्तीय व्यवस्था को बदलने का भी इरादा रखते हैं. ब्रिक्स के भीतर जहां रूस और चीन, अमेरिका से अपनी भू-राजनीतिक होड़, भविष्य में डॉलर में लेन-देन के जोखिम का अंदाज़ा लगाते हुए, अपने हितों की रक्षा के मक़सद से डॉलर आधारित व्यवस्था में बदलाव की कोशिशों की अगुवाई कर रहे हैं. भारत, ब्राज़ील और दक्षिण अफ्रीका ने वैश्विक वित्तीय व्यवस्था में बदलाव लाने के बयानों का समर्थन किया है और वो अंतरराष्ट्रीय व्यापार के लिए स्थानीय मुद्रा इस्तेमाल करने के लिए और अधिक अवसर पैदा करने के प्रयासों का भी समर्थन करते हैं. ब्रिक्स के सभी देशों ने डॉलर पर निर्भरता कम करके वैश्विक वित्तीय व्यवस्था में अपनी स्वायत्तता सुधारने के लिए कई क़दम उठाए हैं.

ब्रिक्स देशों द्वारा SDR जैसी मुद्रा विकसित करने का बुनियादी कारण यही है कि वो अमेरिकी डॉलर के दबदबे की समस्या से उबरना चाहते हैं और अपना अलग प्रभाव क्षेत्र बनाकर उसके भीतर अपनी अलग मुद्रा को ताक़तवर बनाना चाहते हैं. अभी ये साफ़ नहीं है कि क्या ब्रिक्स के सभी देश विदेशी मुद्रा भंडार को नई मुद्रा में तब्दील करके इस नए प्रभाव क्षेत्र का विकास करना चाहते हैं. डॉलर के प्रभाव से उबरना किसी न किसी रूप में ब्रिक्स के हर देश का साझा हित और प्राथमिकता है, ताकि वो लेन-देन में विविधता ला सकें और अमेरिकी डॉलर के चलते लगने वाले व्यापारिक और मौद्रिक झटकों से बच सकें. हालांकि, भले ही ब्रिक्स देश- मिलकर या फिर अलग अलग- एक रिज़र्व करेंसी विकसित करके अपने वैश्विक वित्तीय हितों की रक्षा करना चाहते हैं. लेकिन, हो सकता है कि अमेरिकी डॉलर पर बहुत अधिक निर्भरता के चलते पैदा होने वाली चुनौतियां, इस विचार को दूर की कौड़ी बना दें.

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