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Published on Apr 08, 2024 Updated 0 Hours ago

सतत विकास के लक्ष्य हासिल करने और सभी लोगों तक स्वास्थ्य सुविधाएं पहुंचाने के लिए ये ज़रूरी है कि हम स्वास्थ्य और लैंगिक समानता के बीच के संबंध को समझें और उसे लेकर एक समग्र दृष्टिकोण अपनाएं.

जलवायु परिवर्तन, स्वास्थ्य के अधिकार और लैंगिक समानता के बीच संतुलन बनाने की जद्दोजहद!

विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की स्थापना के उपलक्ष्य में हर साल 7 अप्रैल को वर्ल्ड हेल्थ डे मनाया बनाया जाता है. इस साल वर्ल्ड हेल्थ डे की थीम है ‘मेरा स्वास्थ्य, मेरा अधिकार’. इसका मकसद ये है कि गुणवत्ता वाली स्वास्थ्य सुविधाओं, उससे जुड़ी शिक्षा और जानकारी तक सबकी पहुंच हो. फिर चाहे उसकी भौगोलिक, सामाजिक और सांस्कृतिक स्थिति कुछ भी हो. मौजूदा दौर में ‘स्वास्थ्य के अधिकार’का मतलब ये है कि हर किसी को अपनी सेहत के बारे में फैसला लेने की आज़ादी हो. स्वास्थ्य से जुड़े किसी भी मामले में उसकी मंजूरी ज़रूरी हो. सेहत को लेकर वो सक्रिय फैसले ले सके. किसी भी तरह की यातना और दुर्व्यवहार से उसे संरक्षण मिले. दुनिया के करीब 140 देशों में इस अधिकार को संवैधानिक संरक्षण मिल चुका है. स्वास्थ्य को एक तरह से मानवाधिकार में ही शामिल माना जाता है. यही वजह है कि 1948 में विश्व स्वास्थ्य संगठन के संविधान में, 1948 में ही मानवाधिकारों पर सार्वभौमिक घोषणापत्र और कई वैश्विक और क्षेत्रीय समाझौते में इस मानवाधिकार के तौर पर ही मान्यता दी गई है. 

 मौजूदा दौर में ‘स्वास्थ्य के अधिकार’का मतलब ये है कि हर किसी को अपनी सेहत के बारे में फैसला लेने की आज़ादी हो. स्वास्थ्य से जुड़े किसी भी मामले में उसकी मंजूरी ज़रूरी हो. सेहत को लेकर वो सक्रिय फैसले ले सके. किसी भी तरह की यातना और दुर्व्यवहार से उसे संरक्षण मिले.

हालांकि, स्वास्थ्य के अधिकार को लेकर किए गए वादों को कई बार दोहराया जा चुका है लेकिन हकीकत ये है कि आज भी करीब 4.5 अरब लोग आवश्यक स्वास्थ्य सुविधाओं से वंचित हैं. सभी लोगों तक स्वास्थ्य सेवाएं पहुंचाने के लिए वैश्विक स्तर पर जो व्यवस्था बनाई गई थी, उसके सामने कई चुनौतियां खड़ी हो गई हैं. जलवायु संकट और इससे पैदा होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं को लेकर स्वास्थ्य नीति को तुरंत नए सिरे से बनाने की ज़रूरत है, जिसमें लैंगिक समानता भी एक अहम पहलू है. जलवायु परिवर्तन से महिलाओं के स्वास्थ्य के अधिकार सबसे ज्यादा ख़तरा पैदा होता है, खासकर ग्लोबल साउथ यानी अविकसित और विकासशाली देशों की महिलाओं पर इसका बहुत प्रभाव पड़ रहा है. जलवायु-स्वास्थ्य और लैंगिक समानता की समस्या पर चर्चा को मुख्यधारा में लाने के मकसद से COP28 ने WHO के साथ साझेदारी में पहली बार हेल्थ डे और जलवायु-स्वास्थ्य पर एक मंत्रिस्तरीय बैठक की. इस लेख में हम जलवायु परिवर्तन से पैदा होने वाली स्वास्थ्य समस्याओं और उसके लैंगिक पहलुओं पर चर्चा करेंगे. ये एक महत्वपूर्ण मुद्दा है क्योंकि इसी से ये तय होगा कि इस समस्या से निपटने के लिए बनाई जाने वाली स्वास्थ्य प्रणाली कैसी होगी.

 

सार्वजनिक स्वास्थ्य पर जलवायु संकट का कितना असर?

 जलवायु परिवर्तन इंसानी सेहत के लिए कई तरह से गंभीर ख़तरा पैदा करता है. पर्यावरण में हो रहे बदलाव और समुद्र का जलस्तर बढ़ने से मौसम में तेज़ी से परिवर्तन दिख रहे हैं. इससे मानव जीवन प्रत्यक्ष और अप्रत्यक्ष तौर पर प्रभावित होता है. अगर मानव जीवन पर पड़ने वाले सीधे प्रभावों की बात करें तो तापमान में बहुत ज्यादा उतार-चढ़ाव, जैसे कि लू चलना या फिर अत्यधिक शीतलहर को इसमें शामिल किया जा सकता है. इससे सांस संबंधित बीमारियां हो सकती हैं. तूफान आने से लोगों की मौत और घायल होने की आशंका होती है. सार्वजनिक और निजी सम्पति का नुकसान होता है. जलवायु परिवर्तन के अप्रत्यक्ष प्रभावों की बात करें तो मौसम में तीव्र बदलाव से मलेरिया, डेंगू, दिमागी बुखार और हैजा जैसी बीमारियां हो सकती हैं. मौसम से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को सभी स्वीकार तो करते हैं लेकिन स्वास्थ्य से जुड़े शोध, विकास और नीतियां बनाते समय इस क्षेत्र में बहुत कम ध्यान दिया गया. लेकिन अब जलवायु परिवर्तन से जिस तरह सभी लोगों, खासकर जो आर्थिक और सामाजिक रूप से कमज़ोर माने जाते हैं, पर असर पड़ रहा है, उसके से लेकर नए सिरे से बहस शुरू हो गई है. 

मौसम से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले प्रभावों को सभी स्वीकार तो करते हैं लेकिन स्वास्थ्य से जुड़े शोध, विकास और नीतियां बनाते समय इस क्षेत्र में बहुत कम ध्यान दिया गया.

जलवायु परिवर्तन से स्वास्थ्य पर पड़ने वाले असर का समाधान करना काफी जटिल काम है क्योंकि इस पर नीतियां बनाने के लिए पर्यावरण की स्थिति का भी काफी ध्यान रखना पड़ता है. उदाहरण के लिए हम इस बात का अनुमान लगा सकते हैं कि जलवायु परिवर्तन की वजह से चलने वाली गर्म हवाएं स्वास्थ्य के लिए नुकसानदायक हो सकती हैं. ऐसे में हम स्वास्थ्य की दृष्टि से संवेदनशील समझे जाने वाले वर्ग जैसे कि बच्चों, महिलाओं और बुजुर्गों की पहचान कर सक्रिय कदम उठाएं तो उनकी सेहत को दुरूस्त रखा जा सकता है. हालांकि मौसम के अलावा कई और ऐसे कारण हैं, जो मानव स्वास्थ्य पर असर डालते हैं. इंसान की जैविक अवस्था, सामाजिक-आर्थिक स्तर और संस्कृति का भी उसकी सेहत पर असर पड़ता है. यही वजह है कि इसे लेकर कई पहल की जा रही हैं. 2008 में वर्ल्ड हेल्थ डे के मौके पर“जलवायु परिवर्तन से स्वास्थ्य का बचाव”मुहिम शुरू की गई. स्वास्थ्य को लेकर बनाई गई नीतियों में जलवायु परिवर्तन को भी शामिल किया जाने लगा. इस बारे में “प्रोटेक्टिंग हेल्थ फ्रॉम क्लाइमेट चेंज: ग्लोबल रिसर्च प्रायोरिटीज” नाम से एक रिपोर्ट प्रकाशित की गई. इसमें इस बात पर ज़ोर दिया गया कि अगर वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य सुविधाओं की गुणवत्ता सुधारनी है तो जलवायु परिवर्तन की समस्या को स्वास्थ्य को लेकर बनाई जा रही नीतियों में शामिल करने की ज़रूरत है. इस संदर्भ में ये याद रखना ज़रूरी है कि जलवायु परिवर्तन और उससे स्वास्थ्य सम्बंधी ख़तरों को कम करने के लिए हम जो भी रणनीति बनाए, उसमें लागत और उससे होने वाले फायदों का मूल्यांकन किया जाए. 

2023 में जलवायु नीति में स्वास्थ्य की समीक्षा में WHO ने सार्वजनिक स्वास्थ्य को जलवायु परिवर्तन का मुकाबला करने के लिए की जा रही राष्ट्रीय कोशिशों में शामिल करने में प्राथमिकता देने की बात कही. जलवायु परिवर्तन से सेहत पर पड़ रहे हानिकारक प्रभावों के सबूत हमें हाल के वर्षों में कई बार दिखे हैं. लेकिन इसके साथ ही ये भी देखने को मिला है कि ग्रीन हाउस गैसों के उत्सर्जन में कमी लाने को लेकर राष्ट्रीय स्तर पर जो योगदान निर्धारित (NDCs) किया जाता है और कम उत्सर्जन की दीर्घकालीन नीतियों (LT-LEDS) में स्वास्थ्य से जुड़ी चिंताओं को पर्याप्त स्थान मिला है. फिलहाल जो NDCs उपलब्ध हैं, उनमें से 91 प्रतिशत में स्वास्थ्य के पहलू को शामिल किया गया है, जबकि 2019 में ये 70 प्रतिशत ही था. अच्छी बात ये है कि जलवायु के लक्ष्यों और इससे जुड़ी नीतियों में स्वास्थ्य के मुद्दे को बढ़ावा देने का रूझान बढ़ रहा है. फिर चाहे वो सतत विकास की रणनीतियों के समाधान से जुड़ा हो, संयोजन से, कार्यन्वयन के साधनों से या फिर नुकसान और क्षति से जुड़ा हो. 

 जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन (UNFCCC) में इस बात को स्वीकार किया गया है कि जलवायु परिवर्तन का महिलाओं पर अधिक प्रभाव पड़ता है. वो इसका ज्यादा बोझ उठाती हैं.

क्या लैंगिक पहलू अब भी जलवायु नीति से गायब है?

 जलवायु परिवर्तन पर संयुक्त राष्ट्र के सम्मेलन (UNFCCC) में इस बात को स्वीकार किया गया है कि जलवायु परिवर्तन का महिलाओं पर अधिक प्रभाव पड़ता है. वो इसका ज्यादा बोझ उठाती हैं. स्वास्थ्य सम्बंधी मामलों में तो ये और भी ज्यादा दिखता है. इससे लैंगिक असमानताएं और विषमताएं बढ़ रही हैं. दुनिया के 141 से ज्यादा देशों में प्राकृतिक आपदा के दौरान पुरूषों की तुलना में महिलाओं की मौत ज्यादा देखी गई. खासकर उन देशों में जहां महिलाएं गरीबी की दशा में जीवनयापन कर रही हैं. आपदा की गंभीरता इस लैंगिक अंतर को और ज्यादा दिखाती है. विकसित देशों के शहरी क्षेत्रों में सबसे अनुकूल तापमान में भी मृत्युदर में बड़ा अंतर देखा गया है. गर्म तापमान की वजह से ठंड से होने वाली मौतों की संख्या भले ही कम हो जाए लेकिन गर्मियों में मृत्युदर बढ़ सकती है. महिलाओं पर ही इसका सबसे ज्यादा असर दिखता है. बढ़ता तापमान मलेरिया के फैलने में सहायक होता है जिससे महिलाओं में गर्भपात, जन्म से ठीक पहले बच्चे की मौत, वक्त से पहले प्रसव और नवजात शिशु के कम वजन की आशंका बढ़ जाती है. तूफान और चक्रवात का भी महिलाओं पर ज्यादा असर पड़ता है क्योंकि वो जल्दी से एक जगह से दूसरी जगह नहीं जा पाती. 1991 में बांग्लादेश में आए तूफान में ये बात दिखी थी. इस आपदा में मरने वालों में 90 प्रतिशत महिलाएं थीं. इसी तरह सूखे की मार झेल रहे क्षेत्रों में भी महिलाओं पर पानी लाने की जिम्मेदारी होती है. कई बार वो दूषित जलस्रोतों से पानी ले आती है, जिसका असर हैजा जैसे जलजनित बीमारियों के रूप में दिखता है. हैजा को शिशु मृत्युदर की एक बड़ी वजह माना जाता है. 

ऐसे में ये ज़रूरी हो जाता है कि जलवायु-स्वास्थ्य नीति में लैंगिक पहलू और इसमें ग्लोबल नॉर्थ और ग्लोबल साउथ देशों की महिलाओं के बीच असमानता और उनकी भूमिका को लेकर सही समझ पैदा की जाए. ग्लोबल साउथ के देशों में महिलाएं उन मुद्दों की वजह से भी पीड़ित हो जाती हैं, जिनसे उनका कोई लेना-देना नहीं होता. फिर चाहे वो पर्यावरण में आ रही गिरावट हो. प्राकृतिक संसाधनों का ज़हरीला होना, प्राकृतिक आपदा, सामाजिक-आर्थिक क्षेत्र में बदलाव, कृषि के आधुनिकीकरण और ज़मीन के इस्तेमाल में परिवर्तन जैसे मुद्दे भी महिलाओं के स्वास्थ्य पर असर डालते हैं. ग्लोबल नॉर्थ यानी विकसित देश की महिलाओं को पर्यावरण के प्रति ज्यादा जागरूक माना जाता है, जो अपनी बेहतरी के लिए पर्यावरण में सुधार की प्रक्रिया में शामिल रहती हैं. हालांकि जो अनुभव हैं, वो इस सरलीकरण वाली धारणाओं को खारिज़ करते हैं. ज़ाहिर है अब ऐसी नीतियां बनाए जाने की ज़रूरत है जो इन जटिलताओं को समझें. 

 स्वास्थ्य को बुनियादी मानवाधिकार के तौर पर मान्यता देने के साथ ही ये भी भी जरूरी है कि जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य पर ग्लोबल साउथ के देशों के लिए कोई भी नीति बनाते वक्त लैंगिक संवेदनशीलता को भी ध्यान में रखा जाए. 

जलवायु परिवर्तन से जुड़ी चुनौतियां के बीच ये समझना बहुत ज़रूरी है कि जलवायु, स्वास्थ्य और लैंगिक पहलू एक-दूसरे से जुड़े हैं. वैश्विक स्तर पर स्वास्थ्य क्षेत्र में मौजूद असमानताओं को दूर करने के लिए इस बात को समझना बहुत ज़रूरी है. स्वास्थ्य को बुनियादी मानवाधिकार के तौर पर मान्यता देने के साथ ही ये भी भी जरूरी है कि जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य पर ग्लोबल साउथ के देशों के लिए कोई भी नीति बनाते वक्त लैंगिक संवेदनशीलता को भी ध्यान में रखा जाए. जलवायु परिवर्तन और स्वास्थ्य की चुनौतियों को लैंगिक समानता और सामाजिक न्याय से जोड़ना ज़रूरी है. सतत विकास के लक्ष्यों (SDGs) के हासिल करने के लिए स्वास्थ्य और लैंगिक समानता को लेकर एक समग्र दृष्टिकोण बनाना और उसे अपनाना आवश्यक है. जलवायु परिवर्तन, विकास और प्राकृतिक आपदा के ज़ोखिमों को कम करने के लिए जो नीतियां बनाई जा रही हैं, अगर उसमें लैंगिक संवेदनशील के पहलू को भी शामिल किया जाए तो इस ख़तरे को कम किया जा सकता है. इसी तरह आर्थिक क्षेत्रों में सहयोग, आंकड़ों को इक्ठ्ठा करने और उनकी सही निगरानी, लैंगिक उद्देशयों पर ध्यान देना और इससे प्रभावित होने वाले सभी वर्गों की समावेशी भागीदारी भी स्वास्थ्य के क्षेत्र को बेहतर बना सकती है. जलवायु नीति से होने वाले सामाजिक बदलाव में महिलाओं को अहम भूमिका देने इसे और ज्यादा प्रभावी बनाया जा सकता है.

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