Author : Oommen C. Kurian

Expert Speak Health Express
Published on Apr 11, 2025 Updated 7 Days ago

जिस समय भारत वैश्विक नेतृत्व करने और दुनिया के मंच पर एक परिवर्तनकारी ताकत बनने के बारे में सोच रहा है, उस समय उसे एनीमिया की बढ़ती व्यापकता का अवश्य समाधान करना चाहिए. 

एनीमिया को हराना, विकसित भारत की ओर पहला कदम

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यह लेख "स्वस्थ शुरुआत, आशापूर्ण भविष्य" शृंखला का हिस्सा है.


स्वास्थ्य पर अपेक्षाकृत कम खर्च के बावजूद भारत ने पिछले तीन दशकों के दौरान स्वास्थ्य से जुड़े प्रमुख सूचकों में महत्वपूर्ण प्रगति दर्ज की है. मातृ मृत्यु अनुपात (MMR) गिरकर प्रति लाख जन्म पर 97 हो गया जो 1990 की तुलना में 83 प्रतिशत की कमी है और ये 45 प्रतिशत के वैश्विक औसत से काफी बेहतर है. इसी तरह 5 साल से कम उम्र के बच्चों में मृत्यु दर (U5MR) घटकर 32 हो गई जो 1990 की तुलना में 75 प्रतिशत की कमी है जबकि वैश्विक कमी 60 प्रतिशत हुई है. भारत की शिशु मृत्यु दर (IMR) भी 1990 में प्रति 1,000 जन्म पर 84 से घटकर 26 हो गई जो लगभग 69 प्रतिशत की कमी दिखाती है. लेकिन सरकारी सर्वे दिखाते हैं कि एनीमिया (खून की कमी) भारत में एक बड़ी नीतिगत चुनौती बना हुआ है और पिछले दो दशकों के दौरान कुल मिलाकर बहुत कम सुधार हुआ है (रेखाचित्र 1). नीतिगत ध्यान और समस्या से लड़ने के लिए महत्वपूर्ण सरकारी पहल के बावजूद एनीमिया लगातार स्वास्थ्य से जुड़ी एक चुनौती बना हुआ है. जनसंख्या के अलग-अलग समूहों में इसका प्रसार उसी स्तर पर बना हुआ है जहां ये दो दशक पहले था.

रेखाचित्र 1. 2005-6 से 2019-21 के दौरान भारत में एनीमिया की व्यापकता (% में)

Breaking Anaemia S Grip A Mandatory Step Towards Viksit Bharat

स्रोत: यूनिसेफ (2025) 

2012 में भारत ने पोषण को लेकर विश्व स्वास्थ्य सभा के छह लक्ष्यों को पूरा करने की प्रतिबद्धता जताई थी. इनमें से एक लक्ष्य था 2025 तक प्रजनन आयु की महिलाओं के बीच एनीमिया के प्रसार में 50 प्रतिशत की कमी लेकिन बाद में इस डेडलाइन को बढ़ाकर 2030 तक कर दिया गया. वैसे भारत उन 88 देशों में से एक है जो सभी लक्ष्यों को पूरा करने में पीछे है. वहीं केवल आठ देश ऐसे हैं जो मौजूदा समय में सभी लक्ष्यों को पूरा करने की राह पर हैं. चूंकि एनीमिया की वजह से माताओं और नवजात शिशुओं- दोनों के लिए ख़तरे में बढ़ोतरी होती है, ऐसे में एनीमिया से निपटना आधुनिक भारत की सबसे महत्वपूर्ण सार्वजनिक स्वास्थ्य की चुनौतियों में से एक बना हुआ है. चूंकि विश्व स्वास्थ्य दिवस 2025 की थीम मां और नवजात शिशुओं की मौत को समाप्त करने पर केंद्रित है, ऐसे में एनीमिया से लड़ने में अपनी प्रतिबद्धता की पुष्टि करने और प्रयासों को तेज़ करने के लिए भारत के पास एक सही अवसर है. इस लेख का उद्देश्य भारत के राज्यों में एनीमिया की समस्या का विश्लेषण करना और इसकी व्यापकता में राज्य के स्तर पर अंतर का पता लगाना है.

इस लेख का उद्देश्य भारत के राज्यों में एनीमिया की समस्या का विश्लेषण करना और इसकी व्यापकता में राज्य के स्तर पर अंतर का पता लगाना है.

भारत के राज्यों में एनीमिया की व्यापकता

राष्ट्रीय परिवार स्वास्थ्य सर्वे यानी NFHS-5 (पहला नक्शा) के आंकड़े भारत में एनीमिया को लेकर एक परेशान करने वाली तस्वीर पेश करते हैं. 6-59 महीने के 67.1 प्रतिशत बच्चों में खून की कमी है जो NFHS-4 (2015-16) के 58.6 प्रतिशत की तुलना में तेज़ बढ़ोतरी है. वैसे तो एनीमिया पूरे देश के लिए एक चुनौती बनी हुई है लेकिन राज्यों के स्तर पर व्यापकता में बहुत ज़्यादा अंतर गंभीर क्षेत्रीय असमानता का खुलासा करता है. उदाहरण के लिए लद्दाख (92.5 प्रतिशत), गुजरात (79.7 प्रतिशत), दादरा एवं नगर हवेली और दमन एवं दीव (75.8 प्रतिशत) और मध्य प्रदेश एवं जम्मू-कश्मीर (दोनों में 72.7 प्रतिशत) में देश में सबसे ज़्यादा एनीमिया की व्यापकता है. ये आंकड़े राष्ट्रीय औसत से काफी अधिक है और तुरंत विशेष हस्तक्षेप की मांग करते हैं. इसके विपरीत केरल (39.4 प्रतिशत), मेघालय (45.1 प्रतिशत) और लक्षद्वीप (43.1 प्रतिशत) जैसे कुछ राज्य अपेक्षाकृत रूप से एनीमिया की कम व्यापकता दिखाते हैं. इस तरह वो स्थानीय सार्वजनिक स्वास्थ्य और पोषण रणनीतियों का सकारात्मक प्रभाव दिखाते हैं. 

नक्शा 1: भारत में 6-59 महीने के एनीमिया प्रभावित बच्चों का प्रतिशत (2019-21)

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स्रोत: भारत सरकार का डेटा लेखक के द्वारा संकलित और Flourish का इस्तेमाल करके तैयार कल्पना 

दिलचस्प बात ये है कि अतीत में बेहतर प्रदर्शन करने वाले कुछ राज्यों में एनीमिया की दर में बढ़ोतरी देखी गई है. असम में 35.7 प्रतिशत से 68.4 प्रतिशत की नाटकीय बढ़ोतरी देखी गई जबकि महाराष्ट्र में 53.8 प्रतिशत से 68.9 प्रतिशत की बढ़ोतरी हुई है. इस तरह पहले का सुधार पलट गया. इसी तरह मिज़ोरम, जो एक समय 19.3 प्रतिशत के साथ सबसे अच्छा प्रदर्शन करने वाला राज्य था, अब 46.4 प्रतिशत की व्यापकता दिखाता है जो कि एक परेशान करने वाला रुझान है. दूसरी तरफ कुछ क्षेत्रों ने सुधार दिखाया है. अंडमान एवं निकोबार द्वीप में एनीमिया की व्यापकता 49 प्रतिशत से घटकर 40 प्रतिशत रह गई जबकि चंडीगढ़ में 73.1 प्रतिशत से घटकर 54.6 प्रतिशत. इससे पता चलता है कि लक्ष्य आधारित, अच्छी तरह से अमल में लाई गई रणनीतियां सकारात्मक परिणाम दे सकती हैं. ये रुझान किसी राज्य को लेकर विशेष दृष्टिकोण पर ज़ोर देता है जहां न केवल आयरन का सेवन बढ़ाने बल्कि मातृ पोषण, संक्रमण नियंत्रण, आहार की विविधता और नवजात बच्चों को दूध पिलाने की प्रथाओं जैसे व्यापक निर्धारकों पर भी ध्यान दिया जाता है.

ये रुझान किसी राज्य को लेकर विशेष दृष्टिकोण पर ज़ोर देता है जहां न केवल आयरन का सेवन बढ़ाने बल्कि मातृ पोषण, संक्रमण नियंत्रण, आहार की विविधता और नवजात बच्चों को दूध पिलाने की प्रथाओं जैसे व्यापक निर्धारकों पर भी ध्यान दिया जाता है. 
 

NFHS-5 के दौरान एनीमिया की व्यापकता में तेज़ बढ़ोतरी ने चिंता पैदा की है, विशेष रूप से इसलिए क्योंकि ये इसी अवधि के दौरान पोषण को लेकर दूसरे सूचकों जैसे कि स्टंटिंग (बच्चों के विकास को रोकने वाली बीमारी) और आहार की पर्याप्तता में सुधार के उलट है. जांच के तहत एक प्रमुख कारक है उपयोग में लाई गई माप की पद्धति: NFHS कैपिलरी मेथड (उंगली में चुभाकर परीक्षण) पर भरोसा करता है, जो कि बड़े स्तर के सर्वे के लिए व्यावहारिक तो है लेकिन एनीमिया की व्यापकता का अधिक अनुमान लगा सकता है, विशेष रूप से बच्चों में. तंज़ानिया जैसे देशों के अध्ययन के साथ-साथ भारत में अधिक सटीक नस पद्धति का उपयोग करके किए गए इसी तरह के सर्वे ने काफी कम एनीमिया का स्तर दिखाया है जो संभावित माप से जुड़े पूर्वाग्रह के बारे में बताता है. विश्व स्वास्थ्य संगठन (WHO) की तरफ से व्यवस्थित समीक्षा की मांग के साथ भारत सरकार के द्वारा नस आधारित सर्वे की शुरुआत से तेज़ी से ये साफ होता जा रहा है कि भारत में एनीमिया के बोझ को सटीक ढंग से समझने और उसे दूर करने के लिए माप की पद्धति में सुधार महत्वपूर्ण है. एनीमिया के माप पर वैश्विक बहस के बीच भारत ने फैसला लिया कि NFHS अब एनीमिया की निगरानी नहीं करेगा. इसके बदले भारत में ICMR (भारतीय चिकित्सा अनुसंधान परिषद) और NIN (राष्ट्रीय पोषण संस्थान) के नेतृत्व और अधिक सटीक नस पद्धति का उपयोग करके होने वाला डायट और बायोमार्कर सर्वे (DABS) इस भूमिका को अदा करेगा. 

समय बीतने के साथ एनीमिया की व्यापकता 

माप में पूर्वाग्रह हो सकता है क्योंकि NFHS-4 और 5 में एक ही पद्धति का इस्तेमाल किया गया था लेकिन प्रगति पर नज़र रखने के लिए परिणाम महत्वपूर्ण बना हुआ है. NFHS-4 और NFHS-5 के आंकड़ों (नक्शा 2) के बीच तुलना से पता चलता है कि राष्ट्रीय स्तर पर 6-59 महीने के बच्चों में एनीमिया की व्यापकता में 8.5 प्रतिशत प्वाइंट (pp) की बढ़ोतरी हुई लेकिन अलग-अलग राज्यों में इसके बोझ में काफी अंतर है. कुछ राज्यों में चिंताजनक उछाल देखा गया- असम (32.7 pp), मिज़ोरम (27.1 pp), छत्तीसगढ़ (25.6 pp), ओडिशा (19.6 pp), मणिपुर और जम्मू-कश्मीर (दोनों में 18.9 pp)- जो एक परेशान करने वाले रुझान का संकेत देता है और जो तुरंत, स्थानीय नीतिगत प्रतिक्रिया की मांग करता है. इसके विपरीत कुछ क्षेत्रों ने सुधार किया जैसे कि चंडीगढ़ (-18.5 pp), लक्षद्वीप (-10.5 pp) और अंडमान एवं निकोबार द्वीप (-9 pp) जहां उल्लेखनीय कमी आई. ये अलग-अलग रुझान बताते हैं कि जहां कुल राष्ट्रीय बोझ बढ़ रहा है, वहीं कुछ क्षेत्रों ने दिखाया है कि हालात में सुधार संभव है. ये लक्षित हस्तक्षेपों, बेहतर निगरानी और क्षेत्र विशेष रणनीतियों की आवश्यकता की पुष्टि करता है. 

नक्शा 2: भारत के राज्यों में बच्चों के बीच एनीमिया की व्यापकता में बदलाव (2015-16 से 2019-21)

 

Breaking Anaemia S Grip A Mandatory Step Towards Viksit Bharat

 

स्रोत: भारत सरकार का डेटा लेखक के द्वारा संकलित एवं विश्लेषित और Flourish का इस्तेमाल करके तैयार कल्पना

NFHS-4 और NFHS-5 के बीच भारत में 15 से 49 साल की महिलाओं में खून की कमी में 3.9 प्रतिशत प्वाइंट (pp) की बढ़ोतरी हुई जो एक चिंताजनक रुझान दिखाना है. हालांकि ये बढ़ोतरी बच्चों में देखी गई बढ़ोतरी जितनी नहीं है (नक्शा 3). कुछ क्षेत्रों ने तेज़ बढ़ोतरी देखी जिसमें असम (19.9 pp), जम्मू एवं कश्मीर (17 pp), लद्दाख (14.4 pp) और ओडिशा उल्लेखनीय हैं. ये उजागर करता है कि इन क्षेत्रों में महिलाओं के पोषण की स्थिति बिगड़ रही है या कार्यक्रम में कमी बनी हुई है. त्रिपुरा (12.7 pp) और गुजरात (10.1 pp) जैसे दूसरे राज्यों ने भी दोहरे अंक में बढ़ोतरी दर्ज की जो महिलाओं के स्वास्थ्य को लेकर लक्षित हस्तक्षेप की आवश्यकता पर ज़ोर देती है. 

नक्शा 3: भारत के राज्यों में महिलाओं के बीच एनीमिया की व्यापकता में बदलाव (2015-16 से 2019-21)

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स्रोत: भारत सरकार का डेटा लेखक के द्वारा संकलित एवं विश्लेषित और Flourish का इस्तेमाल करके तैयार कल्पना

इसके विपरीत कई क्षेत्रों ने सुधार का प्रदर्शन किया. लक्षद्वीप (-20.2 pp), चंडीगढ़ (-15.6 pp) और दादरा एवं नगर हवेली और दमन एवं दीव (-10.4 pp) ने महत्वपूर्ण कमी दिखाई है. अंडमान एवं निकोबार द्वीप (-8.2 pp), राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र दिल्ली (-4.4 pp) और मेघालय (-2.4 pp) में भी कमी देखी गई जिससे पता चलता है कि सही परिस्थितियों के तहत महिलाओं में एनीमिया की व्यापकता को कम किया जा सकता है. अलग-अलग राज्यों में ये मिले-जुले नतीजे बताते हैं कि जहां राष्ट्रीय औसत ख़राब हुआ है, वहीं कुछ राज्यों या क्षेत्रों में सफलताएं कार्यक्रम कार्यान्वयन, आहार में सुधार और महिला केंद्रित स्वास्थ्य रणनीतियों के मामले में बहुमूल्य सीख पेश करती हैं. 

एनीमिया में लैंगिक बदलाव

NFHS-4 और NFHS-5 के बीच 6-59 महीने की उम्र के बच्चों में एनीमिया की व्यापकता के मामले में लैंगिक अंतर बना हुआ है. लड़कों की तुलना में लड़कियों में एनीमिया की दर लगातार अधिक बनी हुई है (नक्शा 4). राष्ट्रीय स्तर पर देखें तो 2015-16 में 24.9 प्रतिशत प्वाइंट की तुलना में 2019-21 में अंतर बढ़कर 28 प्रतिशत प्वाइंट हो गया. इससे पता चलता है कि लड़कियां एनीमिया से अधिक प्रभावित हैं. आंध्र प्रदेश (41.4 pp), त्रिपुरा (40.7 pp) और तेलंगाना (39.6 pp) जैसे राज्यों में ताज़ा सर्वे की अवधि के दौरान एनीमिया के मामले में सबसे ज़्यादा लैंगिक अंतर पाया गया. यहां तक कि जिन राज्यों में एनीमिया की कुल व्यापकता में सुधार हुआ है, वहां भी कई राज्यों में लड़कियों और लड़कों के बीच अंतर बढ़ गया है. ये पोषण, देखभाल और स्वास्थ्य सुविधाओं तक पहुंच के मामले में लैंगिक आधार पर संभावित असमानता का संकेत है. 

अलग-अलग राज्यों में ये मिले-जुले नतीजे बताते हैं कि जहां राष्ट्रीय औसत ख़राब हुआ है, वहीं कुछ राज्यों या क्षेत्रों में सफलताएं कार्यक्रम कार्यान्वयन, आहार में सुधार और महिला केंद्रित स्वास्थ्य रणनीतियों के मामले में बहुमूल्य सीख पेश करती हैं. 

नक्शा 4: भारत के राज्यों में लड़के एवं लड़कियों के बीच एनीमिया की व्यापकता में अंतर (2019-21)

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स्रोत: भारत सरकार का डेटा लेखक के द्वारा संकलित एवं विश्लेषित और Flourish का इस्तेमाल करके तैयार कल्पना

हालांकि कुछ उल्लेखनीय अपवाद भी मौजूद हैं. केरल में अंतर नाटकीय रूप से 23.5 प्रतिशत प्वाइंट से घटकर सिर्फ 5.1 रह गया जबकि लद्दाख में 24 से घटकर 3.8 रह गया जो दोनों छोर पर अधिक न्यायसंगत परिणाम का इशारा करता है. भारत में बच्चों के बीच एनीमिया की व्यापकता केरल में सबसे कम और लद्दाख में सबसे ज़्यादा है. मेघालय, नागालैंड और झारखंड जैसे राज्यों ने भी समय के साथ लैंगिक अंतर कम किया है. 

आगे का रास्ता

पिछले दिनों कुपोषण के अलग-अलग रूपों की पड़ताल करने वाली एक व्यवस्थात्मक समीक्षा की सिफारिश थी कि स्टंटिंग के इलाज और इसे कम करने के लिए किसी भी उपाय को एनीमिया पर विचार करना चाहिए. जिस समय भारत की नज़र वैश्विक नेतृत्व करने और दुनिया के मंच पर एक बदलाव करने वाली ताकत बनने पर है, उस समय उसे इस असहज करने वाली सच्चाई का सामना ज़रूर करना चाहिए कि उसके लगभग एक-तिहाई बच्चे “बहुत ज़्यादा दुबले-पतले और बहुत ज़्यादा छोटे” होते जा रहे हैं जैसा कि नोबल पुरस्कार विजेता अर्थशास्त्री एंगस डीटॉन ने करीब एक दशक पहले बताया था. सरकारी हस्तक्षेपों के बावजूद स्थिति में सुधार नहीं हुआ है. प्रमाणों से पता चलता है कि मां को एनीमिया होने से कम वज़न वाला बच्चा होने का ख़तरा बढ़ता है जो कि स्टंटिंग और वेस्टिंग (कमज़ोरी)- दोनों का एक मज़बूत संकेत है. विश्व बैंक के तत्कालीन अध्यक्ष जिम योंग किम पहले ही ये चेतावनी दे चुके हैं कि जीवन की शुरुआती अवस्था में भारत के भविष्य की काम-काज करने वाली आबादी के इतने बड़े हिस्से के कुपोषण से प्रभावित होने से वैश्विक अर्थव्यवस्था में मुकाबला करने की देश की क्षमता गंभीर ख़तरे में पड़ेगी. एनीमिया विशेष रूप से भारत की सबसे बड़ी ताकत यानी जनसंख्या से जुड़े लाभ (डेमोग्राफिक डिविडेंड) के लिए एक ख़ामोश, लगातार और व्यापक ख़तरा बना हुआ है जो न केवल स्वास्थ्य बल्कि मानवीय पूंजी की क्षमता पर भी असर डालता है. एनीमिया से ग्रस्त लोगों से अर्थव्यवस्था भी कमज़ोर बनती है. 

प्रधानमंत्री की आर्थिक सलाहकार परिषद (EAC-PM) से उभरते प्रमाणों से पता चलता है कि आयरन का सेवन महत्वपूर्ण है लेकिन आयरन से भरपूर खाद्य पदार्थों की विविधता का भारत के राज्यों और क्षेत्रों में एनीमिया की व्यापकता के साथ मज़बूत विपरीत संबंध है. दूसरे शब्दों में कहें तो समस्या सिर्फ ये नहीं है कि लोग आयरन की कितनी खपत करते हैं बल्कि ये है कि आयरन के स्रोत कितने विविध हैं. ये तथ्य सार्वभौमिक अनाज सुदृढ़ीकरण जैसे समाधानों पर बहुत अधिक निर्भरता पर सवाल उठाता है जिन्हें लागू करना तो आसान है लेकिन उनका असर सीमित है. सार्थक प्रगति के लिए भारत को ऐसी पोषण रणनीतियों की तरफ बढ़ना चाहिए जो आहार की विविधता का विस्तार करे और परिवारों को अलग-अलग पोषण से जुड़े विकल्पों में से चुनने में सक्षम बनाए. इसलिए एनीमिया से निपटने को विकसित भारत की यात्रा की दिशा में एक सार्वजनिक स्वास्थ्य प्राथमिकता और आर्थिक विकास की एक बुनियाद- दोनों के रूप में देखना चाहिए. 


ओमन सी. कूरियन ऑब्ज़र्वर रिसर्च फाउंडेशन में सीनियर फेलो और हेल्थ इनिशिएटिव के प्रमुख हैं. 

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