Published on May 17, 2022 Updated 1 Days ago

बीएनपीएल के बढ़ते उपयोग के संदर्भ में आरबीआई को इस बात के बीच संतुलन बनाना होगा कि कैसे वह इनोवेशन को अनुमति देने के साथ इस पर नजर रखने का तरीका खोजेगा.

BNPL: क़र्ज़ का लुभावना मकड़जाल: नियामकों के लिए भी एक पहेली

भारत की लेंडिंग स्पेस (ऋण देने) में विगत कुछ माह में प्रवेश करने वाले ‘बाई नाऊ, पे लेटर’ (बीएनपीएल) अर्थात ‘अभी खरीदो, बाद में भुगतान करो’  की काफी चर्चा होने लगी है. इतनी ज़्यादा चर्चा है कि डिजिटल लेंडर्स (ऋणदाता) (एनबीएफसी लाइसेंस के साथ अथवा इसके बगैर भी) एनबीएससी तथा बैंकों के साथ इस दौड़ में शामिल हो चुके हैं. जिन बैंकों के साथ बड़ी मात्रा में क्रेडिट कार्ड के ग्राहक हैं, वे भी अब इस नए बीएनपीएल प्रॉडक्ट्स को पुश करने (आगे बढ़ाने) लगे हैं. भारतीय बाजार में केवल तीन करोड़ यूनिट क्रेडिट कार्ड धारक हैं (जो बैंक से जुड़ी कुल आबादी का लगभग तीन फीसदी होता है). इस वजह से ही अब बीएनपीएल सेगमेंट (क्षेत्र) को बढ़ने का मौका मिल रहा है.

यहां यह बात और भी ज़्यादा महत्वपूर्ण है कि युवा वर्ग बीएनपीएल को अपनी लाइफस्टाइल में इजाफा करने के लिए इस्तेमाल कर रहा है ना कि जिंदगी की जरूरतों को पूरा करने या फिर रोजगार अजिर्त करने के लिए. अत: आश्चर्य नहीं है कि इस लेंडिंग प्रॉडक्ट अब रेग्युलेटर अर्थात रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के रडार पर आ गया है. 


 बाजार के विश्लेषकों के बीच इस विषय पर राय बटी हुई है. कुछ लोगों का मानना है कि बीएनपीएल को लेकर चल रहा प्रचार जल्द ही शांत हो जाएगा और यह व्यवस्था फेल हो जाएगी. कुछ लोगों का मानना है कि बीएनपीएल ही अब भविष्य है जो भारत की बहुचर्चित युवा आबादी के बीच काफी लोकप्रिय हो चुका है. कुछ लोगों का यह भी मानना है कि जल्द ही बीएनपीएल प्रोडक्ट्स, क्रेडिट कार्ड्स को रिप्लेस कर देंगे (स्थान ले लेंगे), क्योंकि युवा उपभोक्ता (न्यू टू क्रेडिट कंज्युमर्स) अभी क़र्ज़ के बाजार में नए-नए ही उतरे हैं. रोचक बात तो यह है कि जिन बैंकों के साथ बड़ी मात्र में क्रेडिट कार्ड के ग्राहक हैं, वे भी अब बीएनपीएल प्रॉडक्ट्स ऑफर करने लगे हैं. बीएनपीएल को लेकर रेग्युलेटर (नियामक/नियंत्रक) की भी चिंता बढ़ी है. इसका कारण यह है कि कुछ ऋणदाता कंपनियों (लेंडिंग कंपनीज) ने ग्राहकों की पूर्वानुमति के बगैर ही उन्हें क़र्ज़ आवंटित कर देने के मामले सामने आए हैं. इस वजह से ग्राहकों का केवल क्रेडिट स्कोर प्रभावित हो रहा है, क्योंकि यह एक ऐसा क़र्ज़ है जो ग्राहकों ने तकनीकी रूप से कभी लिया ही नहीं था. यहां यह बात और भी ज़्यादा महत्वपूर्ण है कि युवा वर्ग बीएनपीएल को अपनी लाइफस्टाइल में इजाफा करने के लिए इस्तेमाल कर रहा है ना कि जिंदगी की जरूरतों को पूरा करने या फिर रोजगार अजिर्त करने के लिए. अत: आश्चर्य नहीं है कि इस लेंडिंग प्रॉडक्ट (या सर्विस, जैसा कुछ लोग इसे देखते हैं) अब रेग्युलेटर (नियामक/नियंत्रक) अर्थात रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के रडार पर आ गया है. 

बीएनपीएल को लेकर रेग्युलेटर (नियामक/नियंत्रक) की भी चिंता बढ़ी है. इसका कारण यह है कि कुछ ऋणदाता कंपनियों (लेंडिंग कंपनीज) ने ग्राहकों की पूर्वानुमति के बगैर ही उन्हें क़र्ज़ आवंटित कर देने के मामले सामने आए हैं. 

बीएनपीएल आख़िर है क्या?

यह एक ऐसी क़र्ज़ देने की व्यवस्था है,  जिसमें किसी भी व्यक्ति के पास कोई सामान खरीदने अथवा कोई सर्विस अपफ्रंट (तत्काल) भुगतान के बगैर करने की सुविधा होती है. फाइनेंसिंग प्वाइंट ऑफ व्यू से यह एक शॉर्ट टर्म लोन है, जो बीएनपीएल लेंडर (ऋणदाता) उत्पाद अथवा सर्विस उपलब्ध करवाने वाले किसी र्मचेट (विक्रेता) को देता है. र्मचेट (विक्रेता) फिर फाइनेंसर (बीएनपीएल कर्जदाता) को कमीशन देता है, क्योंकि तत्काल भुगतान का पैसा न होने के बावजूद ग्राहक सामान खरीद सकता है. इस वजह से बाजार में ग्राहकी (हायर शॉपिंग कन्वर्शन रेट) बढ़ती है. यह फाइनेंसिंग अरेंजमेंट (वित्त पोषण व्यवस्था) आमतौर पर प्वाइंट ऑफ सेल (पीओएस अथवा पॉस) को उपलब्ध करवाई जाती है. फिर चाहे वह फिजिकल स्टोर्स हो या ऑनलाइन प्लेटफॉर्म, बीएनपीएल सुविधा एक विशेष वर्ग के ग्राहकों को आकर्षित कर रही है, ख़ासकर युवा वर्ग को. इसे स्वीकार करने की दर बढ़ रही है, लेकिन फाइनेंसिंग की यह कोई नई व्यवस्था नहीं है. दशकों से गली-मोहल्ले की किराना दुकानों के मालिक अपने ग्राहकों को इस माह सामान देकर उसका भुगतान अगले माह करने की सुविधा देते आए हैं. इसमें किराना दुकानदार अपने उधार अथवा क़र्ज़ की कीमत सामान में छुपाकर वसूल करते थे. ऐसे में ग्राहकों के पास पैसा न होने के बावजूद उन्हें अपनी जरूरत का सामान मिल जाता था, जिसका भुगतान वह बाद में कर देते थे.

यह एक ऐसी क़र्ज़ देने की व्यवस्था है,  जिसमें किसी भी व्यक्ति के पास कोई सामान खरीदने अथवा कोई सर्विस अपफ्रंट (तत्काल) भुगतान के बगैर करने की सुविधा होती है.

आमतौर पर क्रेडिट कार्ड लेने के लिए किसी व्यक्ति के पास अच्छी क्रेडिट हिस्ट्री (मजबूत वित्त व्यवहार) होना जरूरी होता है. ऐसे में क़र्ज़ लेने के बाजार में पहली बार आने वाले युवाओं को बीएनपीएल व्यवस्था आकर्षित कर रही है. ‘रेजरपे’ की ओर से हालिया जारी रिसर्च के अनुसार भारत में सन 2021 में बीएनपीएल मार्केट 637 फीसदी बढ़ा है. इसके पिछले वर्ष यह मार्केट 569 फीसदी बढ़ा था. एक अन्य सलाहकार संस्था (कन्सल्टिंग फर्म) ‘रेडसीर’ की रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि बीएनपीएल मार्केट 2026 तक बढ़कर 45 से 50 बिलियन अमेरिकी डॉलर्स का हो जाएगा. पीडब्ल्यूसी की ‘द इंडियन पेमेंट्स हैंडबुक 2021-26’ शीर्षक के साथ हालिया जारी रिपोर्ट में अनुमान लगाया गया है कि बीएनपीएल सुविधा ही वह कैटलिस्ट (उत्प्रेरक) होगी, जिसकी वजह से डिजिटल पेमेंट्स में वृद्धि होगी.

भारत सरकार और उसकी संस्थाएं घरेलू ऋण पूल (डोमेस्टिक क्रेडिट पूल) के सबसे बड़े उपभोक्ता हैं. उनकी सॉवरेन रेटिंग (सार्वभौम रेटिंग) की वजह से अन्य कम रेटिंग वाले अन्य संस्थागत उधारकर्ता बाहर हो जाते हैं. 


बदलते सामाजिक परिवेश में नियमन की चुनौतियां

भारत में तीन दशक पूर्व अधिकृत ऋण संकल्पना (फॉर्मल क्रेडिट कन्सेप्ट) कैसी थी? हकीकत में रिटेल (चिल्लर) क्रेडिट मार्केट ने 2000 के दशक की शुरुआत में ही बड़ी मात्रा (वॉल्यूम) में उभरना शुरू किया था. रिटेल ऋण लेने में वृद्धि के लिए कुछ बातें (मल्टीपल वेरिएबल) जिम्मेदार थीं. 1990 के दशक का अंत आते-आते देश में निजी बैंकों ने अपने पैर जमाने शुरू कर दिए थे. यह निजी बैंक ही थे, जिन्होंने रिटेल लोन की संकल्पना को बाजार में पेश किया. भारतीय अर्थव्यवस्था खुली होने लगी थी और कुछ नए वित्तीय उत्पाद (फाइनेंशियल प्रॉडक्ट्स) बाजार में आने लगे थे. फिर सैटेलाइट टेलीविजन की भरमार के चलते ऐसे कार्यक्रम लोगों को देखने मिल रहे थे, जिसमें वैश्विक सोसायटी की लाइफस्टाइल से लोग परिचित होने लगे थे. इसके साथ बढ़ती युवा आबादी का आधार और उदारीकरण के पहले (प्री-लिब्रलाइजेशन) अब वेतन में तेजी से वृद्धि हो रही थी. उदाहरण के तौर पर कॉलेज जाने वाले विद्यार्थी और युवा अब बीपीओ में काम करते हुए पढ़ाई के साथ-साथ कमाई भी करने लगे थे. 


भारत की वर्तमान जनसांख्यिकी (डेमोग्राफिक्स) के अनुसार इस वक्त हमारी 65 फीसदी से ज़्यादा आबादी की आयु 35 वर्ष से कम है. यह युवा वर्ग तकनीकी रूप से सक्षम (डिजिटली सेवी) है और आसानी से टेक्नॉलॉजी इनेबल्ड बैंकिंग (तकनीक आधारित बैंकिंग) के उपयोग को आसान मानता है. इसमें देश में मोबाइल फोन की बढ़ती संख्या और सस्ती दर पर उपलब्ध इंटरनेट ने मानो आग में घी डालने जैसा काम किया है. इस वजह से अब लेंडिंग समुदाय (कम्युनिटी) के पास अपने नए और पुराने ग्राहकों तक डिजिटल माध्यम से सेवाएं पहुंचाने का एक बहुत बड़ा और आसान मौका उपलब्ध है. 

विश्व स्तर पर नियामकों में इस बात को लेकर चिंता देखी जा रही है कि कैसे बगैर वित्तीय शिक्षा (फाइनेंशियल लिटरेसी) क़र्ज़ लेकर बेतुका खर्च करने की प्रवृत्ति कजर्दारों को क़र्ज़ के चक्र (डेब्ट ट्रैप) में फंसाती जा रही है. इसी वजह से आरबीआई निश्चित रूप से हमारे उपभोक्ता बाजार (कन्ज्युमर मार्केट) पर बारीकी से नजर रख रहा है.


इसके बावजूद भारतीय घरेलू ऋण मार्केट (इंडियन डोमेस्टिक डेब्ट मार्केट) के सामने एक ढांचागत चुनौती (स्ट्रक्चरल चैलेंज) है. यह आकार (साइज) और इसमें मौजूद खिलाड़ियों की संख्या (नंबर ऑफ प्लेयर्स) को देखते हुए काफी खोखला (शैलो) है. भारत सरकार और उसकी संस्थाएं घरेलू ऋण पूल (डोमेस्टिक क्रेडिट पूल) के सबसे बड़े उपभोक्ता हैं. उनकी सॉवरेन रेटिंग (सार्वभौम रेटिंग) की वजह से अन्य कम रेटिंग वाले अन्य संस्थागत उधारकर्ता बाहर हो जाते हैं. इसकी वजह से ही बैंक ही मुख्य लेंडर (ऋणदाता) बन जाती है. अन्य नॉन बैंकिंग लेंडर्स के लिए भी. इसी बात के चलते एक पहेली (कनन्ड्रम) तैयार हो जाती है. नॉन बैंक के पास घरेलू क़र्ज़ मार्केट में ऋण लेने के लिए कोई और स्नेत (सोर्सेस) नहीं बच जाते. ऐसे में अगर बैंक और नॉन बैंक्स दोनों एक ही समूह के ग्राहकों को अपना लक्ष्य बना रहे हो तो फिर बैंकों ने नॉन बैंक्स को क़र्ज़ क्यों देना चाहिए? ऐसे में बैंक और नॉन बैंक्स के बीच को-लेंडिंग की आइडिया ही दिखावे के लिए किया गया बेकार प्रयास प्रतीत होता है. 


लेंडिंग सेक्टर में सबसे बड़ा डिसरप्टर (विघ्नकर्ता) टेक्नॉलॉजी (प्रौद्योगिकी) है. पहले देश की चारों दिशाओं और हर कोने में शाखाओं के नेटवर्क के साथ वित्तीय कंपनियों को व्यापारिक खाई (बिजनेस मोट) के रूप में देखा जाता था. अब जैसे-जैसे ग्राहक प्रौद्योगिकी (टेक्नॉलॉजी) को अपना रहा है तो इन भौतिक वितरण शाखाओं (फिजिकल डिस्ट्रिब्यूशन नेटवर्क) के सामने एक चुनौती खड़ी हो रही है. यह चुनौती प्रौद्योगिकी (टेक्नोलॉजी) का उपयोग करते हुए ग्राहक पाने (एक्वायर), सेवा देने (सर्व) और उन्हें अपने साथ बनाए रखने (रिटेन) की है. फिनटेक इन्वेस्टर्स भी अपनी इक्विटी पूंजी (शेयर कैपिटल) को सरोगेट (प्रातिनिधिक) डेब्टलाइन के रूप में उपयोग कर उपभोक्ताओं को बेहतर सेवा देने के लिए डेटा साइंस का सहारा ले रहे हैं. शुरू से ही फाइनेंसर्स के पास मजबूत (रोबस्ट) क्रेडिट रेटिंग नहीं होने की वजह से उन्हें घरेलू ऋण मार्केट (डोमेस्टिक डेब्ट मार्केट) से उधार मिलने की संभावनाएं काफी कम होती थी. 

मार्केट डायनेमिक्स (बाजार की गतिशीलता) और मार्केट प्लेयर्स के बर्ताव के आसपास की चुनौतियों को लेकर नियामक संस्था में चिंता देखी जा रही है. यह चिंता, ख़ासकर ग्राहकों के डेटा का उपयोग करने वाले क्रेडिट अंडरटेकिंग अल्गोरिद्म के आसपास और ग्राहकों के डेटा की सुरक्षा के साथ ही स्वयं बीएनपीएल की व्यापक संकल्पना को लेकर है.

पिछले कुछ दिनों से सोशल मीडिया पर यह शिकायतें काफी देखने को मिली है कि कैसे जिन ग्राहकों को बीएनपीएल ऋण देने वाली एजेंसिंयों ने बगैर पूर्वानुमति के ऋण दे दिया था, उनका क्रेडिट स्कोर तेजी से गिरने लगा है. आरबीआई ने हाल ही में कहा है कि वह इस मुद्दे पर ध्यान देने के साथ ही ग्राहकों को चूना लगाने वाले फेक लेंडिंग एप्प (नकली क़र्ज़ देने वाले एप्प) पर भी नजर रख रहा है. विश्व स्तर पर नियामकों में इस बात को लेकर चिंता देखी जा रही है कि कैसे बगैर वित्तीय शिक्षा (फाइनेंशियल लिटरेसी) क़र्ज़ लेकर बेतुका खर्च करने की प्रवृत्ति कजर्दारों को क़र्ज़ के चक्र (डेब्ट ट्रैप) में फंसाती जा रही है. इसी वजह से आरबीआई निश्चित रूप से हमारे उपभोक्ता बाजार (कन्ज्युमर मार्केट) पर बारीकी से नजर रख रहा है. हमारे उपभोक्ता बाजार में विभिन्न सामाजिक-आर्थिक वर्ग के लोग शामिल हैं और क़र्ज़ देने का मामला (लेंडिंग) या इससे जुड़े मुद्दे राजनीतिक रूप से भी संवेदनशील होते हैं. कुछ वर्ष पूर्व हमने इस खेल को माइक्रोफाइनेंस क्षेत्र (स्पेस) में देखा था. एक सामाजिक लोकतंत्र (सोशल डेमोक्रेसी) में ग्राहकों की सुरक्षा की जिम्मेदारी नियामकों पर होती है. नियामकों की तमाम कोशिशों और बार-बार दी जाने वाली चेतावनियों के बावजूद अगर ग्राहक वित्तीय परेशानी में फंसता है तो भी नियामकों की ही मुश्किलें बढ़ जाती है. कोई भी नियामक चाहता है कि वह ऐसे नियम बनाए, जिसके चलते ग्राहकों की सुरक्षा सुनिश्चित हो और ग्राहकों को जो बीएनपीएल क्रेडिट सुविधा उपलब्ध हो रही है वह इसका सही मायने में लाभ ले सकें. 


मार्केट डायनेमिक्स (बाजार की गतिशीलता) और मार्केट प्लेयर्स के बर्ताव के आसपास की चुनौतियों को लेकर नियामक संस्था में चिंता देखी जा रही है. यह चिंता, ख़ासकर ग्राहकों के डेटा का उपयोग करने वाले क्रेडिट अंडरटेकिंग अल्गोरिद्म के आसपास और ग्राहकों के डेटा की सुरक्षा के साथ ही स्वयं बीएनपीएल की व्यापक संकल्पना को लेकर है. क्या इसी वजह से वित्तीय नियामकों में नॉन परफॉर्मिग एसेट्स (एनपीए) को लेकर गड़बड़ चल रही है? जब भारतीय वित्तीय क्षेत्र (इंडियन फाइनेंस सेक्टर) में निजी निवेशकों का उन्माद फिनटेक संस्थाओं के साइज (आकार), स्केल (पैमाना) और कंज्यूमर इम्पैक्ट के रूप में बढ़ता जा रहा है, तो क्या हम अब भी एनपीए की संकल्पना को ही स्वर्ण मानक (गोल्ड स्टैंडर्ड) मानेंगे?


हायर एनपीए की कीमत पर भी पीई कम्युनिटी, अपने मजबूत वित्तीय स्थिति का उपयोग ग्राहकों के बर्ताव (कंज्यूमर बिहेवियर) में बदलाव के लिए कर रही है. वे लगातार इस वजह से होने वाले नुकसान और नियामकों के नियमों का पालन करने के लिए आवश्यक पूंजी लगाने के लिए लगातार इक्विटी कैपिटल (पूंजीगत निवेश) इसमें पंप (डाल) कर रहे हैं. क्या यह और एक कारण है, जिसने बीएनपीएल को लेकर नियामक की चिंता बढ़ा दी है? चिंता यह है कि ऐसी संस्थाएं लगातार उधार देकर समय के साथ ग्राहकों को क़र्ज़ के जाल में फंसा सकती हैं अथवा ऐसी संस्थाओं से आसानी से मिलने वाला उधार अतार्किक जीवनशैली (इररेशनल लाइफस्टाइल) अपनाने की आदत को एक आदर्श आदत बनाता चला जाएगा.

समीक्षा


अपने लचीलेपन की वजह से बीएनपीएल ग्राहकों को आकर्षित करने लगा है. इसके बावजूद हकीकत यह है कि बीएनपीएल उद्योग को एक मुनाफे वाला बिजनेस मॉडल (प्रॉफिटेबल बिजनेस मॉडल) अपनाना होगा, क्योंकि वे केवल इसके मूल्यांकन के प्रचार पर ही टिके नहीं रह सकते. फाइनेंस सेक्टर को विशेषकर ग्राहकों का भरोसा बढ़ाकर, नियामकों का सम्मान जीतने की कोशिश करनी होगी. एक बिजनेस मॉडल में फ्री कुछ नहीं होता और न ही ‘इजी’ मनी (आसान पैसा) जैसी कोई बात होती है. किसी न किसी को तो भुगतान करना ही होता है. 

फाइनेंस सेक्टर को विशेषकर ग्राहकों का भरोसा बढ़ाकर, नियामकों का सम्मान जीतने की कोशिश करनी होगी. एक बिजनेस मॉडल में फ्री कुछ नहीं होता और न ही ‘इजी’ मनी (आसान पैसा) जैसी कोई बात होती है. किसी न किसी को तो भुगतान करना ही होता है. 


इस डिजिटल वित्तीय यात्रा में उम्मीद यही की जाती है कि आरबीआई भी अपना रुख इन मसलों पर साफ करने की घोषणा करेगा. डिजिटल फाइनेंस के साथ नियामक को एक संतुलन बनाने की कोशिश करनी होगी ताकि वह इनोवेशन के साथ सभी तरह की सुरक्षा व्यवस्था करें, जिसमें ग्राहक सुरक्षा, प्रणालीगत जोखिम (सिस्टेमिक रिस्क), निजता के मुद्दे (प्राइवेसी इश्यूज) और डेटा पवित्रता (सैंक्टिटी) आदि शामिल है. अभी तो यह डिजिटल युग की शुरुआत मात्र है. विकसित होती प्रौद्योगिकी के साथ इस तरह के अन्य घटनाक्रम नियामक संकल्पना की सक्रियता को चुनौती देते हुए यह बताएंगे कि समाज के लिए सही क्या है, यह कौन तय करेगा?

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