#Pacific Island States: प्रशांत महासागर से जुड़े द्वीपीय व विकासशील देशों को समुद्र से मिलता अवसर!
प्रशांत महासागर के द्वीपीय विकासशील देश (पीएसआईडीएस) विशाल समुद्र और उसके संसाधनों के बेहद नज़दीक स्थित हैं. जिन देशों और क्षेत्रों में समुद्र नहीं है या जो देश महासागर से बहुत दूर स्थित हैं, वहां के लोगों के लिए समुद्र की सैर जीवन भर का एक अनुभव है. पीएसआईडीएस में क़रीब-क़रीब 90 प्रतिशत लोग समुद्र के 10 किलोमीटर के दायरे में रहते हैं. इसका मतलब ये है कि ज़्यादातर घर, व्यवसाय और बुनियादी ढांचा भी समुद्र के बेहद क़रीब मौजूद हैं. प्रशांत महासागर को द्वीपों को बांटने वाले या अलग करने वाले के तौर पर नहीं जाता है. इसके बदले प्रशांत महासागर को ऐसा माना जाता है जो द्वीपों को जोड़ता है क्योंकि समुद्र परिवहन, व्यापार और आर्थिक गतिविधियों के कई अन्य रूपों का साधन है. प्रशांत महासागर को ‘मां’ के रूप में भी माना जाता है क्योंकि ये पीएसआईडीएस में रहने वाले लगभग सभी निवासियों को खाद्य, आजीविका, मनोरंजन और धीरज प्रदान करता है. इसलिए द्वीपीय देशों का अस्तित्व और जीवित रहना समुद्र पर पूरी तरह निर्भर है.
प्रशांत महासागर को ‘मां’ के रूप में भी माना जाता है क्योंकि ये पीएसआईडीएस में रहने वाले लगभग सभी निवासियों को खाद्य, आजीविका, मनोरंजन और धीरज प्रदान करता है. इसलिए द्वीपीय देशों का अस्तित्व और जीवित रहना समुद्र पर पूरी तरह निर्भर है.
द्वीपीय देशों के लिए ये घटनाएं ख़तरनाक
लेकिन समुद्र से द्वीपीय देशों की ये नज़दीकी अलग तरह की चुनौती भी लाती है जो जलवायु परिवर्तन के असर से और भी बढ़ जाती है. धीरे-धीरे हो रही घटनाएं, जैसे बढ़ता समुद्री जल स्तर, समुद्री खारापन, और नमक वाले पानी के साथ तटीय इलाक़ों में बाढ़ के द्वारा खेती की ज़मीन को बंजर बना देना और सफ़ेद रेतीला समुद्र तट- ये सभी द्वीपीय देशों के लिए ख़तरनाक साबित हो रहे हैं और वहां रहने वाले लोगों के जीवन पर असर डाल रहे हैं. प्रशांत महासागर के द्वीपीय विकासशील देश संसाधनों के मामले में बहुत अधिक लाचार हैं और इस तरह की आपदाओं से काफ़ी असुरक्षित हैं क्योंकि पर्यटन, प्राथमिक कृषि उद्योग और मत्स्य पालन इन देशों के लिए विदेशी मुद्रा कमाने के सबसे बड़े साधन हैं. कोविड-19 महामारी के बाद इनमें से ज़्यादातर देश आर्थिक संकट की कगार पर हैं. इसके परिणामस्वरूप जलवायु कार्यवाही के साथ सतत विकास, हरित परिवर्तन और ब्लू इकोनॉमी यानी समुद्र पर निर्भर अर्थव्यवस्था (और उनकी सहयोगी धारणाएं) के विचारों को एक-दूसरे से अलग नहीं किया जा सकता क्योंकि ये विकासशील प्राथमिकता और टिकाऊ भविष्य की नींव के रूप में काम करते हैं. ये सभी बातें प्रशांत महासागर के द्वीपीय विकासशील देशों की अपनी राष्ट्रीय विकास योजना में निर्धारित विकासशील प्राथमिकता को प्राप्त करने के साझा लक्ष्य की ओर इशारा करती हैं.
प्रशांत महासागर के द्वीपीय विकासशील देशों को आज विकास के पर्यावरणीय और सामाजिक प्रभावों को ध्यान में रखते हुए आर्थिक विकास के लिए व्यावहारिक, पूरा करने योग्य और ठोस उपायों की आवश्यकता है. ऐसी ही एक पहल पेरिस समझौते के ठीक बाद राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) थी. इसके बाद एनडीसी के कार्यान्वयन की रूप-रेखा और निम्न उत्सर्जन विकास रणनीति (एलईडीएस) थी. इस क्षेत्र में विशेषज्ञता की कमी के चलते क्षेत्रीय प्रशांत एनडीसी केंद्र का उदय पीएसआईडीएस के लिए राहत के विकल्प विकसित करने में सहायता के लिए हुआ. इसके अलावा प्रशांत महासागर के द्वीपीय विकासशील देशों ने सामूहिक रूप से 2030 की रणनीति पर काम किया जो कि सतत विकास के 2030 के एजेंडे को हासिल करने के लिए 10 वर्षीय योजना है जिसमें निरंतरता, कम कार्बन विकास और जलवायु लचीलेपन की कल्पना की गई है. समुद्र से इन देशों की निकटता के कारण ये ज़रूर महसूस करना चाहिए कि रिज (ridge) पर एक छोटे से कार्यकलाप का पीएसआईडीएस में चट्टान पर असर होने वाला है. उदाहरण के लिए, ग़ैर-टिकाऊ कृषि पद्धतियों या अनुचित ढंग से कूड़ा निस्तारण का समुद्र पर प्रभाव पड़ेगा.
समुद्र से असुरक्षित समुदाय के लोग समुद्री दीवार, तटबंध और बांध बनाकर तटीय संरक्षण की पद्धतियों पर काम कर रहे हैं. दूसरी तरफ़ तटीय सुरक्षा के लिए प्रकृति आधारित उपायों को ज़्यादा लाभों के साथ उचित और सस्ते विकल्प के तौर पर प्रस्तावित किया गया है.
वैसे तो प्रशांत महासागर के द्वीपीय विकासशील देश जलवायु परिवर्तन के कार्यक्षेत्र में सक्रिय हैं लेकिन गंभीरता कम करने का असर ज़्यादा नहीं है क्योंकि इन छोटे द्वीपीय देशों से ग्रीन हाउस गैस का उत्सर्जन नगण्य है. अगर वैश्विक स्तर पर असर को हासिल करना है तो ज़्यादा उत्सर्जन करने वालों को उत्सर्जन कम करने के लिए कठोर क़दम उठाने की ज़रूरत है. इसलिए अपना विकास लक्ष्य हासिल करने के लिए प्रशांत महासागर के द्वीपीय विकासशील देशों को राहत और अनुकूलता की रणनीतियों पर ज़्यादा ध्यान देना होगा जो इस क्षेत्र में उम्मीद के मुताबिक़ विकास और आर्थिक बढ़ोतरी ला सकती है.
समुद्र से असुरक्षित समुदाय के लोग समुद्री दीवार, तटबंध और बांध बनाकर तटीय संरक्षण की पद्धतियों पर काम कर रहे हैं. दूसरी तरफ़ तटीय सुरक्षा के लिए प्रकृति आधारित उपायों को ज़्यादा लाभों के साथ उचित और सस्ते विकल्प के तौर पर प्रस्तावित किया गया है. इन उपायों में मैंग्रोव (mangroves) के पेड़ लगाना शामिल हैं जो लहर की तीव्रता और तूफ़ान को कम करने में रक्षा की पहली पंक्ति के तौर पर काम करेंगे. इसके अलावा मिट्टी के कटाव को रोकने और तलछट को स्थायी बनाने के लिए समुद्री घास भी लगाना चाहिए. मैंग्रोव से दूसरे लाभ भी होते हैं जिनमें तटीय सुरक्षा और मत्स्य पालन के साथ ज़्यादा कार्बन अधिग्रहण क्षमता जैसी प्रमुख इकोसिस्टम सेवाएं शामिल हैं. कोरल रीफ की बहाली भी लहरों को रोकने और तलछट को पकड़ने के लिए आवश्यक है. तटबंधों और रेतीले तट से तूफ़ान और लहरों से सुरक्षा भी होती है. सीप की चट्टानों से तटरेखा का कटाव भी रुकता है. इसके अलावा समुद्री संरक्षित क्षेत्रों या मछली पकड़ने की गतिविधियों के लिए वर्जित क्षेत्र निर्धारित करने से इकोसिस्टम की स्थिति सुधरने या उसके फलने-फूलने में प्रभावशाली होने की बात सामने आई है. प्रकृति अपने आप ठीक हो जाती है लेकिन इसके लिए मानवीय शोषण का रुकना आवश्यक है.
खाद्य असुरक्षा की चुनौती
इस क्षेत्र के लिए एक और महत्वपूर्ण पहलू टिकाऊ और जलवायु के हिसाब से अच्छी कृषि है. प्रशांत महासागर के द्वीपीय विकासशील देश खाद्य असुरक्षा की चुनौती का सामना करने लगे हैं. इसकी वजह से किरिबाती को मजबूर होकर अनाज उत्पादन के लिए फिजी से ज़मीन ख़रीदनी पड़ी है. इस चुनौती को टालने के लिए सूखा और खारापन प्रतिरोधी अनाज विकसित करने की ज़रूरत है. इसके अलावा, लोगों और शहरों के समुद्र के काफ़ी ज़्यादा नज़दीक होने के साथ ज़्यादातर सार्वजनिक और निजी आधारभूत ढांचों का विकास भी बेहद असुरक्षित है. इसलिए ऐसे मज़बूत आधारभूत ढांचे को वित्त प्रदान करने और उनको बनाने की आवश्यकता है जो जलवायु परिवर्तन के ग़ुस्से का सामना कर सकते हैं. बड़े पैमाने पर जलवायु के असर के अनुसार ढलने वाले आधारभूत ढांचे की तरफ़ बदलाव महत्वपूर्ण है. निश्चित रूप से इसके लिए बहुत अधिक मात्रा में पैसे की ज़रूरत पड़ेगी जो अच्छी तरह से मिश्रित वित्तीय अवसरों से प्राप्त की जा सकती है. आधारभूत ढांचे, कृषि और दूसरे निवेशों के लिए जलवायु बीमा भी एक और प्रक्रिया है जिसके माध्यम से विनाश की घटनाओं के बाद तेज़ी से बहाली हासिल की जा सकती है. जलवायु नुक़सान और हानि का मुआवज़ा एक और औज़ार है जो कि प्रशांत महासागर के द्वीपीय विकासशील देशों को उनका विकास लक्ष्य प्राप्त करने में संभवत: सहायता दे सकता है. नुक़सान और हानि के मुआवज़े को लेकर जलवायु पर समझौते के दौरान चर्चा 1991 में हुई थी. इस प्रक्रिया के तहत प्रभावित देश ज़्यादा उत्सर्जन करने वाले देशों से मुआवज़ा मांग सकते हैं.
चूंकि ये देश विदेशी मुद्रा के लिए पर्यटन पर निर्भर हैं और कई तरह की पर्यटन गतिविधियां समुद्री किनारे के इर्द-गिर्द होती हैं, ऐसे में बढ़ते समुद्री जल स्तर से तटों को बचाने के लिए मज़बूत रणनीति बनाने की आवश्यकता है.
चूंकि ये देश विदेशी मुद्रा के लिए पर्यटन पर निर्भर हैं और कई तरह की पर्यटन गतिविधियां समुद्री किनारे के इर्द-गिर्द होती हैं, ऐसे में बढ़ते समुद्री जल स्तर से तटों को बचाने के लिए मज़बूत रणनीति बनाने की आवश्यकता है. पर्यटन को बढ़ावा देने के काम में लगे लोगों के लिए ये ज़रूरी किया जाना चाहिए कि वो निरंतर आर्थिक गतिविधियां हासिल करने और समुद्र के इकोसिस्टम में गिरावट से परहेज करने के लिए समुद्र की सेहत, उसके इकोसिस्टम के संतुलन और जैवविविधता का उचित ध्यान रखें. इस पर निगरानी रखना अत्यंत महत्वपूर्ण है और किसी भी तरह का बदलाव दिखने पर जल्द-से-जल्द उसे ठीक करने की ज़रूरत है.
पूरे विश्व से इस क्षेत्र को जोड़ने वाला समुद्री परिवहन अपरिहार्य है. परिवहन में इस्तेमाल होने वाली मौजूदा तकनीक अब पुरानी पड़ गई है. ये एक बेहद पुराना बिज़नेस मॉडल है जो डीज़ल से चलने वाले जहाज़ों पर ज़्यादातर निर्भर है. समुद्री अर्थव्यवस्था को विकसित करने के साधन के रूप में प्रशांत महासागर के द्वीपीय विकासशील देशों ने पैसिफिक ब्लू शिपिंग पार्टनरशिप (पीबीएसपी) की शुरुआत की जिसका मुख्य उद्देश्य समुद्री शिपिंग सेक्टर को कार्बन मुक्त करना है[i]. कम/ज़ीरो कार्बन शिपिंग की तरफ़ परिवर्तन अनिवार्य है. ये न केवल कार्बन कम करने में मदद करेगा बल्कि इस क्षेत्र को जीवाश्म ईंधन के दाम पर निर्भरता से भी मुक्त कर देगा. इसके साथ-साथ आधुनिक, सुरक्षित और विश्वसनीय परिवहन भी प्रदान करेगा.
प्रशांत महासागर के द्वीपीय विकासशील देशों के समीकरण में सागर एक समस्या नहीं है बल्कि इन देशों के लिए समाधान है क्योंकि सागर लोगों को नौकरी के अवसर, आजीविका के विकल्प, खाद्य सुरक्षा, इको-टूरिज़्म, व्यापार और परिवहन प्रदान करता है.
असुरक्षित लोगों को प्रकृति आधारित समाधानों की मदद से सुरक्षा देने के अलावा टिकाऊ विकास लक्ष्य (एसडीजी) के अनुसार जलवायु कार्यवाही के साथ-साथ निर्धारित समुद्री संरक्षित क्षेत्र, टिकाऊ मत्स्य पालन, कम/ज़ीरो कार्बन शिपिंग, समुद्री जल स्तर में बढ़ोतरी और खारे पानी से राहत जैसी पहल आगे के लिए रास्ता है. लेकिन हम जिस ढंग से काम करते हैं उसमें व्यापक बदलाव की ज़रूरत है क्योंकि चलताऊ दृष्टिकोण में वो लचीलापन नहीं है जो इस तरह की कोशिशों के लिए ज़रूरी है. इनके लिए काफ़ी योजना बनाने, पैसे का इंतज़ाम करने और इनोवेटिव नीतियों की भी आवश्यकता है जिसने फिजी जैसे देशों को “ब्लू बॉन्ड” और नीतिगत औज़ार जैसे कि जलवायु परिवर्तन अधिनियम, राष्ट्रीय सागर नीति, विस्थापन दिशानिर्देश और पुनर्वास दिशानिर्देश शुरू करने के लिए तैयार किया है. प्रशांत महासागर के द्वीपीय विकासशील देशों के समीकरण में सागर एक समस्या नहीं है बल्कि इन देशों के लिए समाधान है क्योंकि सागर लोगों को नौकरी के अवसर, आजीविका के विकल्प, खाद्य सुरक्षा, इको-टूरिज़्म, व्यापार और परिवहन प्रदान करता है. योजना को कार्यवाही में बदलने के लिए विज्ञान आधारित निर्णयों के साथ अच्छे तालमेल, एकजुट होकर समर्थन के साथ-साथ वित्त, तकनीक, नीति और सामाजिक स्वीकार्यता की आवश्यकता होती है. ऐसी सामाजिक स्वीकार्यता जो टिकाऊ विकास लक्ष्यों (एसडीजी), राष्ट्रीय स्तर पर निर्धारित योगदान (एनडीसी) और हरित विकास एवं ब्लू इकोनॉमी विकास के लिए विकास लक्ष्यों के साथ जुड़ी हो. इसमें कोविड-19 महामारी से ब्लू और ग्रीन रिकवरी को नहीं भूलना चाहिए. इसमें अलग-थलग परियोजना की जगह रिज से लेकर रीफ तक विश्वसनीय रणनीति पर आधारित सम्मिलित व्यावहारिक कार्रवाई की आवश्यकता है.
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संदर्भ
[i] MCTTT, 2020. Decarbonising Domestic Shipping Industry: Pacific Blue Shipping Partnership. In: T. Ministry of Commerce, Tourism and Transport (Editor).
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