एक ओर, अर्थव्यवस्था की धीमी रफ़्तार को तेज़ करने के लिए पर्याप्त खर्च किए जाने की आवश्यक्ता है, वहीं दूसरी ओर, सिकुड़ते हुए राजस्व के चलते यह काम लगातार कठिन होता जा रहा है.
दुनियाभर में फैली महामारी और इसके चलते अर्थव्यवस्था में आई गिरावट ने इस साल के बजट निर्माण का प्रक्रिया को संकट और ऊहापोह की स्थिति में डाल दिया. एक ओर, अर्थव्यवस्था की धीमी रफ़्तार को तेज़ करने के लिए पर्याप्त खर्च किए जाने की आवश्यक्ता है, वहीं दूसरी ओर, सिकुड़ते हुए राजस्व के चलते यह काम लगातार कठिन होता जा रहा है. सामान्य तौर पर इस स्थिति में जिस नियम का पालन किया जाता है, उस नियम का पालन करने के तहत राजकोषीय घाटे को कम रखने की रणनीति से इन दो विपरीत लक्ष्यों को साधने की प्रक्रिया और कठिन हो जाती है.
बजट संबंधी दस्तावेज़ सरकार की आय और खर्च का ब्यौरा प्रदान करते हैं. इन दस्तावेज़ों में दिए गए दो आरेख (diagram) इस बात को स्पष्ट करते हैं कि सरकार के बटुए में वह “एक रुपया कहां से आता है” और उनकी आय का “यह एक रुपया कहां जाता है”.
इन दो आरेखों से पता चलता है कि वित्तमंत्री के सामने इस साल किस तरह की दुविधा थी. साल 2021-22 के बजट अनुमान (budget estimate) में एक रुपए के मानक पर, उधार और अन्य देनदारियां साल 2020-21 के 20 पैसे के मुक़ाबले 30 पैसे हो गई हैं. राजस्व के अन्य स्रोत जिनमें आय और निगम कर, माल और सेवा कर यानी जीएसटी (goods & services tax,GST) और गैर-कर राजस्व (non-tax revenue) शामिल है, और उनमें भी गिरावट दर्ज हुई है. इसका मतलब यह है कि सरकार को किसी भी तरह का खर्च करने के लिए अधिक उधार लेने की आवश्यक्ता है. (फ़िगर-1).
खर्च की श्रेणी में, केंद्र सरकार के माध्यम से प्रायोजित योजनाओं और आवंटन के लिए केंद्रीय क्षेत्र की योजनाओं को बरक़रार रखा गया है. इसी तरह वित्त-आयोग और अन्य स्रोतों से होने वाली आय को भी एक रुपए के मानक में बरक़रार रखा गया है. इस के अलावा रक्षा क्षेत्र में होने वाले आनुपातिक व्यय को भी साल 2021-22 के बजट अनुमान (budget estimate) में समान रखा गया है. अपेक्षित रूप से, सब्सिडी पर खर्च साल 2020-21 के छह पैसे से बढ़ कर, साल 2021-22 के बजट अनुमान में नौ पैसे हो गया है. हालांकि, ब्याज के भुगतान में होने वाले खर्च में वृद्धि हुई है
इस के परिणामस्वरूप होने वाली कटौती मुख्य़ रूप से राज्यों के करों और ज़िम्मेदारियों के हिस्से से आई है. जब अर्थव्यवस्था के सकल घरेलू उत्पाद यानी जीडीपी में कमी के चलते केंद्रीय राजस्व में गिरावट आती है, तब इसे स्वाभाविक माना जाता है. लेकिन यह कटौती राज्य सरकार के कामों को सामान्य से अधिक कठिन बना देती है. राज्यों को स्वास्थ्य और कृषि जैसे राज्य विषयों पर खर्च करना पड़ता है. इस खर्च के माध्यम से महामारी प्रभावित अर्थव्यवस्था को राहत प्रदान करने की उम्मीद की जा रही है, लेकिन केंद्र के आवंटन में गिरावट से अगले एक साल में राज्य सरकारों के हस्तक्षेप का दायरा भी सीमित हो सकता है.
स्वाभाविक है कि इस के लिए केंद्र सरकार को दोष नहीं दिया जा सकता क्योंकि महामारी एक बाहरी घटक है जिस से अर्थव्यवस्था चरमरा गई. हालांकि, सरकार के पास बढ़ते हुए राजकोषीय घाटे पर अधिक विचार किए बिना के बिना ज़्यादा कर्ज़ लेने का विकल्प भी है. केंद्र सरकार ने इस मायने में पारंपरिक रुख अपनाया है और उस पर अमल करते हुए सरकार का मानना है कि कम राजकोषीय घाटा एक ऐसा लक्ष्य है जिसे महामारी के दौरान भी नकारा नहीं जा सकता. सरकार का यह रुख सही साबित होगा या नहीं और किस तरह का लाभ उपलब्ध कराएगा यह तो समय ही बताएगा.
राजकोषीय घाटे से नकारात्मक प्रभाव
यदि अर्थव्यवस्था संकुचन की स्थिति में है, तो अर्थव्यवस्था से मिलने वाले लाभ (output) के अलावा रोज़गार और क्रय शक्ति (purchasing power) जैसे अन्य मूल घटकों के स्तर पर भी गिरावट दर्ज की जाती है. इस के चलते मांग में कमी भी आती है. यहां, यह याद रखना महत्वपूर्ण है कि भारतीय अर्थव्यवस्था महामारी से पहले भी मांग की कमी का सामना कर रही थी.
मांग की ओर से संकुचित अर्थव्यवस्था में, रियल एस्टेट क्षेत्र (निर्माण क्षेत्र पर आधारित अर्थव्यवस्था) तब तक पटरी पर नहीं आती है, जब तक प्रत्यक्ष वित्तीय हस्तक्षेप नहीं होता है. संकुचित अर्थव्यवस्था में किए गए इस सीधे हस्तक्षेप से भी अगर गतिविधियां रफ्त़ार नहीं पकड़ती हैं तो इस से अर्थव्यवस्था में लगातार गिरावट का एक दौर शुरु होता है और इस का मतलब है कि अन्य नकारात्मक प्रभावों के अलावा, राजस्व भी लगातार घटेगा.
इस तरह से एक मायने में, राजकोषीय घाटे के निम्न स्तर पर रहने और खर्च में लगातार कटौती करने से अर्थव्यवस्था में नकारात्मक प्रभाव बना रहता है. खर्च को कम रखने के प्रयास अर्थव्यवस्था के तत्काल सुधार को लेकर एक उम्मीद को भी बनाए रखते हैं. साल 2020-21 के संशोधित अनुमानों में राजकोषीय घाटा जीडीपी का 9.5 फ़ीसदी तक रहा है. यह बजट अगले वित्त वर्ष में इसे घटाकर 6.8 फ़ीसदी तक करने का लक्ष्य रखता है (तालिका-1). अगर अर्थव्यवस्था में सुधार होता है तो यह संभव हो सकता है, लेकिन 2019 के स्तर पर इस के स्वत: ठीक होने के अपने जोखिम हैं. यह बजट, उस स्थिति में सामने आने वाले जोख़िमों को नज़रअंदाज करता है.
TABLE 1: Deficit Statistics (in Rs. crore and % of GDP)
2019-20
Actuals
2020-21
Budget Estimates
2020-21
Revised Estimates
2021-22
Budget Estimates
Fiscal Deficit
933651
(4.6)
796337
(3.5)
1848655
(9.5)
1506812
(6.8)
Revenue Deficit
666545
(3.3)
609219
(2.7)
1455989
(7.5)
1140576
(5.1)
Effective Revenue Deficit
480904
(2.4)
402719
(1.8)
1225613
(6.3)
921464
(4.1)
Primary Deficit
321581
(1.6)
88134
(0.4)
1155755
(5.9)
697111
(3.1)
* Figures in brackets are deficit figures as percentage to GDP.
Source:Budget at a Glance, Union Budget 2021-22
इसलिए, बजट भाषण में दिखाई जाने वाली मंशा और सरकार का इरादा अक्सर मौजूदा वर्ष के वास्तविक बजटीय आवंटन में परिलक्षित नहीं होता है. अगले छह साल के लिए आत्मनिर्भर स्वस्थ भारत योजना के लिए भारतीय मुद्रा में 64,180 करोड़ रुपए का आवंटन, बैंकों के पुनर्पूंजीकरण के लिए भारतीय मुद्रा में 20,000 करोड़ रुपए का आवंटन और अगले पांच साल के लिए भारतीय मुद्रा में 1,41,678 करोड़ रुपए का आवंटन इस बात के कुछ उदाहरण हैं. अधिकतर ऐसा होता है कि इन में से कई खर्च, कुछ अन्य खर्चों के साथ मिल जाते हैं. ऐसे में मौजूदा बजट में आवंटन के विवरण को निश्चित रूप से, बारीक़ी से जांचा जाना ज़रूरी है, लेकिन राजकोषीय घाटे को लगातार कम रखते हुए खर्च को बढ़ाने और अर्थव्यवस्था को रफ़्तार देने संबंधी परस्पर विरोधी विचार सरकार के स्तर पर बहुत हद तक आवंटन को कम रखेंगे.
पिछले साल के बजट की तरह, साल 2021-22 का बजट भी इस मामले में कोई अपवाद नहीं रखता है.
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Abhijit was Senior Fellow with ORFs Economy and Growth Programme. His main areas of research include macroeconomics and public policy with core research areas in ...